31 अगस्त 2015

बिपन चन्द्र: एक श्रद्धांजलि

राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट अपने महान विचारक और पथ-प्रदर्शक को उनकी पहली पुण्यतिथि पर नमन करता है. उनकी तकरीबन आधी सदी की अकादमिक मेहनत का नतीज़ा है कि आज़ादी की लड़ाई को इतनी समग्रता के साथ समझा जा सका. फ्रंट के लिए इससे ज्यादा उत्साहवर्धक बात और क्या हो सकती है कि कल हमारे मार्गदर्शक प्रो० आदित्य मुख़र्जी ने कहा कि "अगर आज बिपन जीवित होते तो फ्रंट की स्थापना से बहुत खुद होते क्योंकि वो खुद हमेशा इसी तरह से काम किये जाने के हिमायती थे". 

24 अगस्त 2015

शेर-ए-मैसूर ‘टीपू सुल्तान’ के इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है:प्रो.बी.एन.पाण्डेय

[अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान पर राज करने के लिए “बांटो और राज करो” की नीति अपनाई थी, यह सब जानते हैं. लेकिन यह बांटने का खेल कैसे- कैसे खेला गया इसका बहुत सटीक उदाहरण यह आर्टिकल है. इसलिए जो कुछ लिखा है उस पर कभी यकीन न करें. हमारे आस- पास बहुत कुछ ऐसा नॉनसेन्स है, जिसका हिस्टोरिकल कॉमनसेन्स से कुछ भी लेना- देना नहीं है.]   

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टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसा योद्धा भी था जिसकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए। इस पराक्रमी योद्धा का नाम टीपू सुल्तान था। टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया था।

टीपू सुल्तान का जीवन
टीपू सुल्तान का जन्म मैसूर के सुल्तान हैदर अली के घर 20 नवम्बर, 1750 को देवनहल्ली में हुआ। वर्तमान में यह जगह बैंग्लोर सिटी के उत्तर से 30 किलोमीटर दूर है. टीपू सुल्तान का पूरा नाम फतेह अली टीपू था। उनके पिता हैदर अली मैसूर राज्य के सैनिक थे। उन्होंने बहुत ही जल्दी दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ कर दिया था। इस कारण अंग्रेजों के साथ-साथ निजाम और मराठे भी उसके शत्रु बन गए थे। शुरुआत से ही हैदर अली ने अपने पुत्र टीपू सुल्तान को काफी मजबूत बनाया और उन्हें हर तरह की शिक्षा दी।

टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था। टीपू काफी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर थे। अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुके और अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की। उन्होंने अंग्रेजों ही नहीं बल्कि निजामों को भी धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया।मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया।

फिर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर हमला किया तब अपनी कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता में कमी की वजह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। आखिरकार 4 मई सन् 1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए शहीद हो गया।

मैसूर के शेर के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान न सिर्फ बहादुर थे बल्कि एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने अपने क्षेत्र में छोटे से शासनकाल में विकास के अनेक कार्य किए। टीपू सुल्तान ने कई सड़कों का निर्माण कराया और सिंचाई व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम किए। उन्होंने जल भंडारण के लिए कावेरी नदी के उस स्थान पर एक बांध की नींव रखी, जहां आज कृष्णराज सागर बांध’ मौजूद है। टीपू ने अपने पिता द्वारा शुरू की गई ‘लाल बाग परियोजना’ को सफलतापूर्वक पूरा किया। उन्होंने आधुनिक कैलेण्डर और नई भूमि राजस्व व्यवस्था की भी शुरुआत की।

इतिहास के साथ यह अन्याय!! 

प्रो. बी. एन. पाण्डेय–भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा एवं इतिहासकार उडीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विश्म्भरनाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतांतों को उजागर किया है जिनसे भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है।

इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है।
जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपु सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-ऐसोसिएशन‘ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया। ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे।उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पडी। मैंने टीपु सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
          "तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।"

इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. परप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्‍ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाघ्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपु सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर‘ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है। मैसूर गज़टियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइबे्ररी, कलकत्‍ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री मन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजे़टियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।

प्रोफेसर श्री कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राहम्णों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरी यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सुचित किया कि टीपु सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राहम्ण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राहम्ण कृष्णाराव थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपु सुल्तान के तीस पत्रों की फोटो कापियां भी भेजी जो उन्होंने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपु सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रींरंगापटनम के क़िले में था। प्रोफेसर श्री कन्टइया के विचार में डा. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्रªी आफ मैसूर‘ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास‘ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनुदित किया है जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्रेरी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढंत हैं।

डा. शास्त्री की किताब का पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिये स्वीकृत थीं मैंने कलकत्‍ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नक़लें भेजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास को इस पाठय-पुस्तक में टीपु सुल्तान से सम्बन्धित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं उनके विरूदध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चैधरी का शीघ्र ही जवाब आ गया कि डा. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठयक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठयक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अखबार यंग इंडिया में 23 जनवरी 1930 ई. के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-

‘‘मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बनध थे। …… मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं जो टीपू सुल्तान ने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य केा 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपु सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फस्ल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।

यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। यंग इण्डिया में आगे कहा गया है-

‘‘टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों की ज़मीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे यह उसके खुले जेहन, उदारता एवं सहिष्‍णुता का जीता-जागता प्रमाण है। 

इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था।जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आजादी के लिए लडते हुए जान देदी और दुश्मन की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी-वह तलवार जो आजादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं :‘शेर की एक दिन की ज़िंदगी लोमडी के सौ सालों की जिंगी से बेहतर है।उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं जिनमें कहा गया है :कि ‘खुदाया, जंग के खून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।
(साभार तीसरी जंग, मई 5, 2015)

21 अगस्त 2015

Role of Muslims in the Freedom Struggle

Affan Nomani
Affan Nomani 

[Affan Nomani is a young research scholar at JNUTA. He has also been publishing in many leading newspapers such as The Deccan Herald for last few years. His beauty is he thinks beyond his age and writes with rare maturity. He lives in Hyderabad, a bastion of Majlis-i-Ittehadul Muslimeen, and writes against Owaisi brothers. We always believe that there is no need to be defensive in front of communal forces. Rather we should loudly claim our legacy of the freedom struggle and expose the collaborators of the British empire. In this article, Nomani does the same...] 


The patriotism of Indian Muslims is being questioned today. Those who question Muslim's love for this country, they don't know the Indian history and the role of Indian Muslim freedom fighters.

I studied the book Hardly peter 1971 , Partners in Freedom  and True Muslims: Thought of some Muslim scholars in British India , 1912-47 and Composite Nationalism and Islam which was written by Moulana Hussain Ahmed Madni in 1938. These two books beautifully described over the role of Muslim scholars in the battle of freedom. But it is unfortunate that patriotic Islamic scholars have been ignored. Sultan Tipu Shaheed ( 1750-1799), Shah Waliullah Mohaddish Dehlvi (1703-1760) Sirazul Hind Abdul Aziz (1746 - 1760), Shah Ismail Shaheed (1779-1831), Bahadur Shah Zafer (1775 - 1862), Moulana Qasim Nanatvi (1832-1880), Shaikhul Hind Moulana Mahmood Hasan Deobandi (1851-1920), Moulana Ali Zohar (1878-1931), Moulana Shaukhat Ali (1873-1933), Moulana Barkatullah Bhopali (1862-1927), Moulana Ashraf Ali Thanvi (1864-1943) , Moulana Abul Kalam Azad (1888-1958), Shaikh-ul-Islam Moulana Hussain Ahmed Madni (1879-1957) and others. 

These all are freedom fighter who played important role to fight against British for the freedom of the country. The Islamic scholars of Darul Uloom Deoband, one of the most influential Islamic seminaries in South Asia, founded in 1867, not only opposed the two nation theory, but also supported efforts of Indian National Congress to thwart the Muslim League's Plan. One of the Prominent leaders of the Jamiat Ulema Hind ( a forum founded in 1919 to speak for Muslims and support the movement for Independence ), Moulana Hussain Ahmed Madni, was at the forefront of this movement. Moulana Madni opposed the divisive policy of Mohammad Ali Jinnah and forcefully argued that all Communities living in India constitute one nation.

When the new association of Indian Ulema Jamiat Ulema Hind bravely embraced Mahatma Gandhi's first non-cooperation movement in 1921, Moulana Hussain Ahmed Madni, Moulana Mahmood Hasan Deobandi and several others of the leadership faced two years of imprisonment for conspiracy. As Moulana Hussain Ahmed Madni described life on Malta from 1916 to 1920 in his prisoner of Malta (Asir-i-Malta, 1923), Moulana Madni and Moulana Deobandi and several others were arrested and interned in Malta for almost four years. Moulana Madni ever more clearly formulated his arguments for Muslims and non-Muslims politicians to work together under the aegis of the Indian National Congress. Moulana Madni was absolutely clear that his vision of a religiously plural society not only strategically best served Muslim interests, but that it also had clear Qur'anic sanctions.

In December 1937, at a political meeting in Delhi, Moulana Hussain Ahmed Madni made a straightforward statement: "In the current age, nations (qaumeen) are based on homelands (watan), not religion (mazhab) and the persons like Hindu, Muslim, Sikh and Parsi-- all are the Hindustani." Between 1803 and 1947 , the Ulemas waged many battles for freedom of the country and many Ulemas were arrested by the British because Darul Uloom Deoband had delivered fatwa against of British.

The Jamiat Ulema Hind shoulder to shoulder with Indian National Congress, spent its force in awakening the country politically and socially. Hence, the fact is that the history of the independence movement of India is so mixed up with the history of the Ulema and religious personalities. 

(courtesy The Hans India)

20 अगस्त 2015

Should Britain Pay Reparations to India?

[It was former Minister of State for External Affairs Shashi Tharoor who kick-started the debate by saying Britain owes India reparations for the economic exploitation that the Raj carried out during its rule. The 'Empire' had struck back saying Britain's legacy of its colonial rule was a 'unified' India, a secular democracy and the notion of equality. Are the Empire’s apologists engaging in chicanery and half-truths? What about the systematic destruction of India's cottage industry and transforming India into a British 'market'? Did British imperialism sustain itself through the vast resources of its colony? Join NDTV for this special Independence Day debate.]

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This show must be watched to understand the logic of the empire and its counter by Prof. Aditya Mukherjee, a celebrated historian of modern Indian history. What Tharoor had earlier said in his famous speech at Oxford was originally taken from writings of great historian Bipan Chandra and his students Prof Aditya Mukherjee, Prof. Mridula Mukherjee, Prof Sucheta Mahajan and many others. Tharoor is not a historian but he borrowed the argument and delivered it in his well- known oratory style. He is an old debater of St. Stephens College of Delhi University, one of the most prestigious colleges in India. He knows how to put an argument to thwart the opposition. Tharoor's speech only covers the economic aspect of colonial exploitation, Prof Mukherjee extends it to a larger domain. Since NDTV videos can not be shared on the blog, a link is being given below with an image of Prof Mukherjee. Please click and watch the full episode on NDTV...


16 अगस्त 2015

भारत में डंका

मित्रों, ‘स्वाधीन’ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी यादों को स्मृति में बनाये रखने और उससे सीख लेने को प्रेरित करता रहा है. इस बात को ध्यान में रखकर उसने अपने पाठकों के लिए हमेशा शब्दों का पिटारा पेश किया है. 69वें स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े गीतों की एक सीरीज पेश की जा रही है. इस कड़ी में आज चौथे दिन मारकंडे शायर का गीत भारत में डंका’ स्वाधीन के पाठकों के लिए पेश है...


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मारकंडे शायर  

भारत में डंका आजादी का बजवा दिया गांधी बाबा ने.
सत्याग्रह का झंडा दुनियां में फहरा दिया गांधी बाबा ने..1..
सर पर गठरी थी गुलामी की, अति दूर थी हमसे आजादी.
बन कर प्रह्लाद हमें सत पथ दिखला दिया गांधी बाबा ने..2..
घुस गये विदेशी घर में थे, सब माल लूट कर ले जाते.
सद शुक्र हाथ सोतों का पकड़ बिठला दिया गांधी बाबा ने..3..
सत्तर करोड़ धन जाता था प्रतिवर्ष विदेशी कपड़ों से.
तब मंत्र विदेशी बहिष्कार, सिखला दिया गांधी बाबा ने..4..
दे ज्ञान हमें चरखे का पुनि खद्दर का बाना पहना कर.
दिल गोरे चमड़े वालों का दहला दिया गांधी बाबा ने..5..
निश्चयहिं दिवाला निकलेगा मेनिचस्टर लंकाशायर का.
गर उस पथ पर हम चलें सभी, जो बता दिया गांधी बाबा ने..6..
टूटा कानून नमक का ज्यों, यों ही प्रसिद्ध सब टूटेंगे.
है भद्र अवज्ञा का पथ अब, दर्शा दिया गांधी बाबा ने..7..
सत्याग्रह करके नवयुवको भारत मां को आजाद करो.
बस यही विजय का मार्ग हमें बतला दिया गांधी बाबा ने..8..

15 अगस्त 2015

माता के सर पर ताज रहे

मित्रों, ‘स्वाधीनभारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी यादों को स्मृति में बनाये रखने और उससे सीख लेने को प्रेरित करता रहा है. इस बात को ध्यान में रखकर उसने अपने पाठकों के लिए हमेशा शब्दों का पिटारा पेश किया है. 69वें स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े गीतों की एक सीरीज पेश की जा रही है. इस कड़ी में आज तीसरे दिन माधव शुक्ल का गीत ‘माता के सर पर ताज रहे’ स्वाधीन के पाठकों के लिए पेश है...

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माधव शुक्ल

मेरी जां न रहे, मेरा सर न रहे, समां न रहे, न ये साज रहे.
फकत हिन्द मेरा आजाद रहे, माता के सर पर ताज रहे..
पेशानी में सोहे तिलक जिसकी, औ गोद में गांधी विराज रहे.
न ये दाग बदन में सुफेद रहे, न तो कोढ़ रहे, न ये खाज रहे..
मेरे हिन्दू मुसलमां एक रहें, भाई-भाई सा रस्मो रिवाज रहे.
मेरे वेद पुराण कुरान रहें, मेरी पूजा संध्या नमाज रहे..
मेरी टूटी मडैया में राज रहे, कोई गैर न दस्तंदाज रहे.
मेरी बीन के तार मिले हों सभी, एक भीनी मधुर आवाज रहे..
ये किसान मेरे खुशहाल रहें, पूरी हो फसल सुख साज रहे.
मेरे बच्चे वतन में निसार रहें, मेरी मां-बहिनों में लाज रहे..
मेरी गाय रहे, मेरे बैल रहें, घर-घर में भरा नाज रहे.
घी-दूध की नदियां बहती रहें, हरसू आनन्द स्वराज्य रहे..
शर्मा की है चाह खुदा की कसम, मेरे वाद नफात में याद रहे.
गाढ़े का कफन हो मुझ पै पड़ा, वन्दे मातरम अलफाज रहे..


13 अगस्त 2015

उठो सोने वालो

मित्रों, 'स्वाधीन' भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुडी यादों को स्मृति में बनाये रखने और उससे सबक सीखने को प्रेरित करता रहा है. इस बात को ध्यान में रखकर उसने अपने पाठकों के लिए हमेशा शब्दों का पिटारा पेश किया है. अब जब स्वतंत्रता दिवस करीब आ गया है तो इस मौके पर आज़ादी की लड़ाई से जुड़े गीतों की एक सीरीज़ पेश की जा रही है. इस कड़ी में आज दूसरे दिन वंशीधर शुक्ल का गीत 'उठो सोने वालों' स्वाधीन के पाठकों के लिए पेश है.… 


उठो सोने वालो

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वंशीधर शुक्ल

उठो सोने वालो सबेरा हुआ है
वतन के फकीरों का फेरा हुआ है
जगो तो, निराशा निशा खो रही है
सुनहरी सुपूरब दिशा हो रही है
चलो मोह की कालिमा धो रही है
न अब कौम कोई पड़ी सो रही है
तुम्हें किस लिए मोह घेरा हुआ है
उठो...
जवानो उठो कौम की जान जागो
पड़े किसलिए देश की शान जागो
तुम्हीं दीन की आस-अरमान जागो
शहीदों की सच्ची सुसंतान जागो
चलो दूर आलस-अँधेरा हुआ है
उठो...
उठो देवियो वक्त खोने न देना
कहीं फूट के बीज बोने न देना
जगें जो उन्हें फिर से सोने न देना
कभी देश-अपमान होने न देना
मुसीबत से अब तो निबेरा हुआ है
उठो...
नई कौमियत मुल्क में उग रही है
युगों बाद फिर हिंद माँ जग रही है
खुमारी लिये जान तो भग रही है
दिलों में निराली लगन लग रही है
शहीदों का फिर आज फेरा हुआ है
उठो सोने वालो...

12 अगस्त 2015

खींचो कमान खींचो

मित्रों, ‘स्वाधीन’ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी यादों को स्मृति में बनाये रखने और उससे सीख लेने को प्रेरित करता रहा है. इस बात को ध्यान में रखकर उसने अपने पाठकों के लिए हमेशा शब्दों का पिटारा पेश किया है. अब जब स्वतंत्रता दिवस को तीन दिन शेष हैं तो इस मौके पर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े गीतों की एक सीरीज पेश की जा रही है. इस कड़ी में आज रामचन्द्र द्वेदी ‘प्रदीप’ का गीत ‘स्वाधीन’ के पाठकों के लिए पेश है. गीत में इस्तेमाल की गई पंक्ति ‘खींचो कमान खींचो’ को आज के दौर में राष्ट्रीय आंदोलन पर हमला करने वालों को जवाब देने के तौर पर लिया जाये, जिसमें तीर-कमान हिंसक हथियार नहीं बल्कि अहिंसक प्रतिरोध का प्रतीक हैं...

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रामचन्द्र द्वेदी ‘प्रदीप’

खींचो कमान खींचो
ओ भारत माँ के नौजवान खींचो
आज निशाना चूक न जाना
पिछली गल्ती मत दोहराना
वरना फिर होगा पछताना
जगह-जगह तूफान बवंडर आँखें मत मीचो
खींचो कमान खींचो
जो भीख मांगने से दर दर
आजादी मिलती हो घर घर
लानत ऐसी आजादी पर
ओ वीरों की संतान देश को तीरों से सींचो
खींचो कमान खींचो.



स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...