स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिसपर उनका संघर्ष आधारित होता है। ~ बिपन चंद्र 


बिपन चंद्रा स्वाधीनता आंदोलन को एक संपूर्ण/व्यापक रणनीति वाले आंदोलन की तरह समझने का प्रयास करते हैं। चंद्रा समझाते हैं कि रूसी और चीनी क्रांति के नेताओं की तरह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नेता मुखर या स्पष्ट रूप से अपनी रणनीति ज़ाहिर नहीं करते हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की विभिन्न धाराओं, विभिन्न कालखंडों एवं इसके विभिन्न प्रकार के संघर्षों को राष्ट्रीय आंदोलन की मूल रणनीति के अभिन्न भागों की तरह देखा जाना चाहिए। 

नर्म और गर्म दलों के चरणों में राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति के ज्यादातर तत्व सामने आ चुके थे जिन्हें गांधी जी ने बाद में एक बेहतरीन संरचना दी और नये आयाम दिए। चंद्रा मानते हैं कि गांधी जी एक राजनैतिक नेता के तौर पर और एक राजनैतिक रणनीति के जरिए ही लाखों लोगों को स्वाधीनता आंदोलन में शामिल कर सके न कि एक एक दार्शनिक के तौर पर।

ब्रिटिश हुकूमत दमनकारी थी और बल का अत्याधिक प्रयोग करने वाली सरकार थी परन्तु वह हिटलर के शासन की तरह अत्याधिक सत्तावादी नहीं थी। यह सरकार सिर्फ बल के दम पर ही नहीं राज कर रही थी बल्कि कई प्राशसनिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक संस्थानों के आधार पर भी राज कर रही थी। यह कम से कम कुछ हद तक नागरिक अधिकारों की छूट देती थी और कानून का पालन करती थी। ब्रिटिश हुकूमत एक हद तक भारतीयों को यह समझाने में कामयाब रही कि वही उनकी माई-बाप है और इसके अलावा भारतीयों में उतनी एकता नहीं कि वह ब्रिटिश हुकूमत को हरा सकें।

राष्ट्रीय आंदोलन का मूल रणनीतिक दृष्टिकोण एक बेहद प्रभावशाली (Hegemonic) आंदोलन छेड़ना था, जिसे दार्शनिक ग्राम्सी के शब्दों में 'वॉर ऑफ पॉजिशन' भी कह सकते हैं। इस रणनीति में यही प्रयास था कि राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रभाव की लोगों के मन-मस्तिष्क में जगह बनाई जा सके। कभी कानून के दायरे में तो कभी इसके बाहर भी यह आंदोलन जारी रहा। यह एक क्रमिक सुधार की नहीं बल्कि उपनिवेशवादी शासकों से एक सक्रिय संघर्ष के माध्यम से सत्ता हथियाने की रणनीति थी ताकि वह सत्ता भारत के लोगों के काम आ सके।

गांधीवादी युग में स्वाधीनता आंदोलन में आमजन को ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रीय संघर्ष से जोड़ने का कार्य हुआ। गांधी जी स्वयं "leader of the masses" थे। आमजन को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ना इस समय राष्ट्रवादी रणनीति का मुख्य उद्देश्य था। इसके आलावा उपनिवेशवादी सोच और मानसिकता को भी भारतीयों के जीवन के हर क्षेत्र में चुनौती देना भी इस रणनीति का अभिन्न हिस्सा था। ब्रिटिश हुकूमत का असली चेहरा सबके सामने पेश करने के लिए एक वैचारिक आंदोलन की भी आवश्यकता थी, जिसे पूरी करने में राष्ट्रीय नेताओं ने अपनी भूमिका अदा की। दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त, जस्टिस रानाडे, और गांधी जी आदि नेताओं ने ब्रिटिश हुकूमत की सुव्यवस्थित आलोचना पेश की। ब्रिटिश हुकूमत की अपराजयेता को चुनौती देना भी इस रणनीति में शामिल किया गया।

IMAGE: June 9, 1939: Mahatma Gandhi, centre, waits for a car outside Birla House, Bombay, on his arrival from Rajkot. Waiting with him are Jawaharlal Nehru, second from left, and Vallabhbhai Patel, second from right.

कांग्रेस ने इस इस दिशा में भी भरपूर प्रयास किए कि जो भारतीय ब्रिटिश हुकूमत की सत्ता चलाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायक थे, उन्हें भी राष्ट्रीय आंदोलन में लाया जाए जिससे साम्राज्यवादी ताकत कमज़ोर हो। 1942 के आंदोलन में इसका बेहद अच्छा नतीजा यह हुआ कि कई भारतीय ब्रिटिश अधिकारियों ने व्यक्तिगत जोखिम उठाकर आंदोलन में मदद की। 1945 में तो इसी रणनीति के चलते ब्रिटिश प्रशासनिक संरचना लगभग बिखर गई और अंततः यह उनके भारत छोड़ने का अहम कारण साबित हुई। 


संघर्ष-विराम-संघर्ष: राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति का दूसरा मुख्य आयाम

स्वाधीनता आंदोलन की इस रणनीति का आशय यह है कि इस पूरे संघर्ष के दौरान ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक व्यापक जन आंदोलन के बाद एक ऐसा समय आता था जिसमें आंदोलनकारी सीधे संघर्ष को विराम देकर ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए वादों और सुधारों का आकलन करते थे। इसके साथ ही राजनैतिक और वैचारिक कार्यों के माध्यम से और लोगों को संघर्ष में शामिल किया जाता‌। 'भारत छोड़ो आंदोलन' तक आकर यह रणनीति अपने अंतिम मुकाम तक पहुंच गई थी जिसके चलते जल्द ही हमें आजादी मिली। इस रणनीति में यह स्पष्ट था कि विराम का मतलब अंग्रेजों से समझौता करना नहीं था बल्कि पूर्ण स्वराज के लिए आंदोलन को समय समय पर सही दिशा देना था। भारत के लोगों की संघर्ष करने की अपनी सीमाएं भी थी जिन्हें समय समय पर पार करने के लिए इस तरह के विराम की आवश्यकता थी। 
                         IMAGE: Mahatma Gandhi flanked by Jawaharlal Nehru and Vallabhbhai Patel.

बातचीत से हल निकालना भी कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा था। कांग्रेस तभी असहयोग और सीधे संघर्ष की वकालत करती थी जब वह आज़ादी पाने के लिए अकेला रास्ता बचता। भारत में हिंसक आंदोलन करने का मतलब था, भारत के आमजन की भागीदारी को कम कर देना। यह बात भगत सिंह जैसे बड़े क्रांतिकारी ने भी स्वीकार की कि हमें आज़ादी पाने के लिए एक वैचारिक आंदोलन की जरूरत है। इसलिए कांग्रेस लगातार वैचारिक मोर्चे पर काम करती रही। 

गांधीवादी रचनात्मक कार्यों ने भी आजादी के आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, धार्मिक समरसता एवं अस्पृश्यता के विरुद्ध आंदोलन आदि इस रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा थे। इन कार्यों के माध्यम से एक स्वस्थ राष्ट्रवाद की भावना को लोगों के बीच ले जाया जा सका। रचनात्मक कार्यों एक विशेषता यह भी थी कि इसमें लाखों लोग अलग अलग तरीकों से अपनी भागीदारी कर सकते थे।

अहिंसा और राष्ट्रीय आंदोलन

राष्ट्रीय आंदोलन के अहिंसक स्वभाव के कारण यह एक जन आंदोलन बनकर उभर सका। जहां गांधीजी के लिए अहिंसा सिद्धांत का मसला था वहीं दूसरे नेताओं जैसे नेहरू, पटेल और आज़ाद के लिए यह एक नीति का मसला था। वैसे लाखों लोग जो हिंसक आंदोलन में भाग लेने से कतराते, वे अहिंसक आंदोलन में बड़ी सहजता से शामिल हो गए। राष्ट्रीय आंदोलन में अहिंसा को अपनाने के कारण, भारतीय लोग, दमनकारी ब्रिटिश राज के बरक्स एक नैतिक पक्ष बन गए। इस वजह से ब्रिटिश राज एक तरह के असमंजस में चला गया क्योंकि एक तरफ जहां अहिंसक आंदोलन को कुचलना अनैतिक कार्य था, वहीं दूसरी ओर इसे न कुचलना राज्य के कमजोरी की निशानी बन सकती थी। इस कारण ब्रिटिश राज सदैव असंमजस में रहा और जब भी उसने दमनकारी नीति अपनाई, उसकी नैतिक हेजेमनी को गहरी चोट पहुंची। 

एक सशस्त्र क्रांति इसलिए भी भारत में असंभव थी क्योंकि यहां की जनता को बेहद गरीब और शस्त्रहीन कर दिया गया था। दूसरी तरफ अहिंसक आंदोलन में नैतिक बल और वैचारिक एकता की जरूरत थी, जो भारतीय लोग आसानी से हासिल कर सकते थे। इस प्रकार भारतीय अहिंसक आंदोलन उसी प्रकार क्रांतिकारी था, जैसे अन्य संदर्भों में एक हिंसक आंदोलन हो सकता है। 

कुछ जरूरी निष्कर्ष

१. स्वाधीनता आंदोलन की मूल रणनीति को समझने के बाद इसके अलग अलग चरणों की सफलताओं और विफलताओं की एक बेहतर विवेचना की जा सकती है।

२. असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन इस संदर्भ में तीन महत्वपूर्ण सफलताएं है, जिन्होंने भारत में एक व्यापक राजनैतिक चेतना का निर्माण किया।

३. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक अचानक से होने वाले सत्ता परिवर्तन की बजाय, एक दीर्घकालीन राजनैतिक प्रक्रिया के तहत सत्ता परिवर्तन का अपनी तरह का एकमात्र उदाहरण है। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और विशेषतः गांधीवादी राजनैतिक रणनीति का अध्ययन लोकतांत्रिक और हेजेमनी वाले समाजों में मूलभूत परिवर्तन के लिए बेहद आवश्यक है।



(यह लेख बिपन चंद्र द्वारा लिखे लेख 'Long Term Strategy of the National Movement' का संक्षिप्त भावानुवाद है। यह लेख INDIA’S STRUGGLE FOR INDEPENDENCE 1857-1947' का Chapter -38 है।)









 

 

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