राम और "रामज़ादे"


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सौरभ बाजपेयी 
[धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए गालियाँ पड़ना कोई नहीं बात नहीं है। जिन्ना से लेकर मोदी और उनके लोग यह काम करते रहे हैं। लेकिन भाजपा की एक तथाकथित "साध्वी" द्वारा खुद को और खुद पार्टी को "रामज़ादे" कहने पर हमे ऐतराज़ है। पढ़ें इस विवाद पर स्वाधीन की ओर से सौरभ बाजपेयी का हस्तक्षेप।]  
मोदी सरकार की एक मंत्री की हालिया टिप्पणी ने एक नया राजनीतिक विभाजन पेश किया है। वे अपनी पार्टी को 'रामज़ादा' कहती हैं, कांग्रेस सहित अन्यों को कुछ और। यह शब्द मुग़लकालीन हरम से बना है। हरम आम तौर पर सत्ता के बड़े केंद्र हुया करते थे। लेकिन वहाँ पैदा होने वाले बच्चे किसी किसी तरह सत्ता के वारिस समझे जाते थे। बादशाह इस बात का ख़ास ख्याल रखते थे कि हरम में बच्चे बिना योजना के हों। मर्दों को हरम की चहारदीवारी से दूर रखा जाता था। इसके बावज़ूद अगर कोई बच्चा पैदा हो गया, तो वो कहलाया हरामज़ादा- यानी हरम में पैदा हुआ। इससे मिलती तमाम और गालियों की ईजाद भी यहीं से हुयी। दिल्ली विधानसभा चुनावों के ठीक पहले एक चुनावी सभा में दिया गया यह बयान किस सोच से उपजा है? भाजपा का जिनसे मुक़ाबला है वो भाजपा को धर्मनिरपेक्षता के आधार पर निशाना बनाती हैं। धर्मनिरपेक्षता के अर्थ हैं कि इस देश में धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति का विरोध और धार्मिक अल्पसंख्यकों को इस देश का अनिवार्य हिस्सा मानना। इस तरह, जो लोग भी भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ हैं, दूसरी श्रेणी में आते हैं। राम के नाम को राजनीति में भुनाने वाले लोग राम के नाम के साथ गाली बोलने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करते। बहरहाल, इस श्रेणी में धर्मनिरपेक्ष लोगों- चाहे वो किसी भी धर्म के हों- के अलावा एक पूरी की पूरी कौम भी आती है, वो हैं मुसलमान। जो इस अवधारणा में गद्दार और धोखेबाज़ से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
हमे अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के लिए गाली खाने से गुरेज नहीं है। हमें ऐतराज़ उनके द्वारा खुद को "रामज़ादा" कहने पर है। हमने साम्प्रदायिक दलों द्वारा आज़ादी की लड़ाई के नायकों को अपने साँचे में ढ़ालने का खूब प्रतिरोध किया है। लेकिन धर्म के प्रतीकों को बिलकुल उनका ही मान लिया है। साम्प्रदायिकता और कट्टरपन्थ से लड़ने में यह हमारी बड़ी भूल रही है। कुंवर मोहम्मद अशरफ़ कहते थे कि फिरकापरस्ती मज़हब की सियासी दुकानदारी है। तो इस दुकानदारी को बंद कराने के लिए मजहब के मानवीय रूप को उजागर करना होगा। आज पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही क़त्लो- ग़ारत को कैसे रोक सकते हैं? असग़र अली इंजीनीयर कुरआन की आयतों के मार्फ़त इस्लाम के मानवीय पक्ष को सामने लाने की बात करते थे। साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन- जिसका नेतृत्व पुरुषोत्तम अग्रवाल और भगवान जोश आदि किया करते थे- भी यही बात करता था। बिपन चन्द्र आदि विद्वान भी मानते थे कि गाँधी की धार्मिकता बहुसंख्यक हिन्दुओं को कट्टर होने से बचाने में बड़ी मददगार रही। आज़ादी की लड़ाई में गाँधी और मौलाना आज़ाद दो गहरे धार्मिक लोग थे। जो पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखते थे। दूसरी ओर, जिन्ना और सावरकर थे जो ख़ुद को नास्तिक घोषित करते थे। मगर आज़ाद भारत के अंदर उन्होंने ही दो राष्ट्रों की संकल्पना- हिन्दू और मुसलमान दो भिन्न देश हैं- सामने रखी। यानि भारत का बँटवारा धर्म ने नहीं धर्म के साम्प्रदायिक दोहन की वजह से हुआ।
मंत्री ने कहा कि इस देश में पैदा हुए तमाम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई राम की संतान हैं। उन्होंने रामज़ादों की संकल्पना में बाकी सबको भी लपेट लिया। यह पुराना संघी तर्क है कि इस देश में पैदा होने वाला हर कोई 'हिन्दू' है। साथ ही 'हिन्दू' एक धर्म नहीं संस्कृति है। भारत जैसे बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक देश में यह हिन्दू साम्प्रदायिकता का पैदाइशी एजेण्डा है। इस पर बात फिर कभी। राम क्या हैं? राम इस देश की लोकप्रिय धार्मिक चेतना के प्रतिनिधि हैं। भारत के विशाल उपमहाद्वीप में राम एक सांस्कृतिक प्रतीक हैं। बल्कि उसके बाहर इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा तक भी राम घुले- मिले हैं। ध्यान रहे यह देश आज मुस्लिम बहुल हैं। दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी इंडोनेशिया में रहती है। धार्मिक कट्टरपन्थ वहाँ भी अपनी जड़ें जमा रहा है। बावजूद इसके रामलीला वहाँ का लोकप्रिय मनोरंजन है। वहाँ के राजघराने की कोई लड़की ही सीता की भूमिका अदा करती है। हर जगह राम भी भिन्न- भिन्न हैं और रामायण भी। ए० के० रामानुजन की पुस्तिका "थ्री हंड्रेड रामायनास" अपने आप में परम्परा की इस बहुलता का दस्तावेज़ है। हर जगह राम धीर- गम्भीर मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं। हर जगह सीता का चरित्र- चित्रण भी अलग है। यहाँ तक कि आख्यान भी अलग- अलग हैं। पर एक चीज़ हर जगह समान है, वह हैं राम।
बाल्मीकि की रामायण के बाद तुलसी ने राम की कथा को अवधी में लिखकर हिन्दी पट्टी में सर्वव्यापी बना दिया। घर- घर रामकथा कही जाने लगी, सुनी जाने लगी। हर घर में एक गुटका रामचरितमानस रखी जाने लगी। वहीं कबीर जैसे निर्गुण सन्तों ने तुलसी के बरक्स अपने अलग राम गढ़ लिए। यानी सबके अपने- अपने राम थे, बनाये जा सकते थे, भजे जा सकते थे। कोई पहरा नहीं था, कोई ज़बरदस्ती नहीं थी। इसीलिए राम सामान्य अभिवादन का सहज हिस्सा बन गए। "राम- राम" ख़ैर- मक़दम का तरीक़ा बन गया। लम्बे समय तक लोगों को इसमें किसी घृणा की बू नहीं आयी। आधुनिक भारत में गाँधी के रूप में राम को अपना सबसे बड़ा उपासक मिला। जिसने सत्य और अहिंसा के अपने प्रयोग के लिए राम नाम को अपनी मजबूती बनाया। तीन गोली सीने में खाकर भी पूरे धैर्य के साथ कहा- "हे राम!" और गोली मारी किसने? अपने दौर के सबसे बड़े हिन्दू का सीना किस राम- विरोधी ने छलनी कर दिया? कहना होगा की जिन मंत्री महोदया को लेकर यह बहस चल रही है, यह उन्हीं के एक पूर्वज का कारनामा था। नाथूराम गोडसे कौन था, यह बताने की जरूरत नहीं हैं।
भला गोडसे को गाँधी से क्या बैर था? पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने की गाँधी की जिद तो बहाना थी। गाँधी को मारने की साजिशें तो काफी पहले से बनाई जाने लगीं थीं। गाँधी का सबसे बड़ा दुस्साहस यह था कि उनके रामराज्य की परिकल्पना का मुसलमान ह्रदय थे। गाँधी मुसलमानों के बिना इस मुल्क की कल्पना नहीं करते थे। लेकिन गाँधी ने कभी नहीं कहा कि हिन्दुस्तान में पैदा होने वाला हर आदमी अनिवार्यतः 'हिन्दू' है। क्योंकि उनकी परिभाषा का देश एक बहुधर्मी देश था। जिस देश के लिए गाँधी जैसे तमाम हिन्दुओं ने अपना सब- कुछ लुटाया था, उसी देश के लिए मौलाना आज़ाद जैसे तमाम पक्के मुसलमान भी अपनी जान जोखिम में डाले हुए थे। जो इस बात को नहीं समझ पाये, उन्होंने गाँधी की हत्या की साजिश रची। और, आज वो ही सबको 'हिन्दू' बताने के अभियान पर डट गए हैं।
बाल्मीकि, तुलसी, कबीर और अन्य तमाम राम परम्पराओं से लेकर गाँधी तक के राम उदार थे। बड़े दिल वाले, सबके लिए प्रेम का भाव रखने वाले, सौम्य और नीति पर चलने वाले। अकबर ने जब पहली बार अपनी चित्रशाला में रामकथा को चित्रित करवाना शुरू किया, तबके चित्रकारों की कल्पना के राम यही थे। यही राम गाँधी के थे और उन तमाम किसानों के भी जिन्होंने अपने अगल- बगल साम्प्रदायिक हिंसा का ताण्डव होते देखा था। मुस्लिम लीग ने इस्लाम का कलेवर बदलने की कोशिश की तो हिन्दू महासभा और संघ ने 'हिन्दू' की परिभाषा बदलने की। फिर उन्होंने एक ऐतिहासिक भूल कर दी। लम्बे समय से "गाँधी को मर जाने दो" के नारे लगाने वाले लोगों ने 30 जनवरी को गाँधी को वाकई मार दिया। गाँधी की हत्या गाँधी के साथ- साथ राम नाम की भी हत्या थी। हालाँकि गाँधी मरे और राम तो मर ही नहीं सकते थे। वो तो लोगों के अवचेतन का हिस्सा हैं। गाँधी ने "हे राम" कहकर प्राण त्यागे थे। यही संघ के लिए आज़ाद भारत में गले की हड्डी बन गया।
लेकिन राममन्दिर आन्दोलन ने राम की तस्वीर बदल दी। बाल बिखेरे हुए, युद्धरत हाथ में धनुष संभाले और क्रोधित राम भाजपा के पोस्टर- पर्चों पर अवतरित हुए। आक्रामक राम, कि उदार, दयालु और मर्यादा पुरुषोत्तम राम। राम को युद्धोन्माद का प्रतीक बनाया गया। दुश्मन चिन्हित किये गए और प्रतीक रूप में एक मस्जिद को ढहा दिया गया। यानि राम की संतान होने का अर्थ हुआ मुसलमानों का दुश्मन- "बच्चा- बच्चा राम का/ जन्मभूमि के काम का"। तो अब राम की साम्प्रदायिक परिभाषा गढ़ी गयी। गोलवलकर ने जिन्हें "फुफकारते यवन साँप" कहा था, यह राम उनके विरुद्ध खड़े थे। राम के नाम का इस तरह राजनीतिक फायदों के लिए उपयोग एकदम नयी चीज़ थी। राम तो आस्था थे, श्रद्धा थे। राजनीति के मोहरे तो नहीं थे। लेकिन राम के नाम पर एक नयी राजनीतिक चेतना गढ़ी गयी, जो राम के पहले के रूपों से एकदम उलट थी। राम के पहले के भक्तों ने राम के इस रूप की कल्पना सपने में भी नहीं की होगी।

टिप्पणियाँ

  1. स्वाधीन में प्रकाशित सौरभ बाजपेई का यह लेख रामजादों की असल सच्चाई प्रकट कर देता है। अगर आज भी कुछ लोग (तथाकथित रामवादी) राम के स्वरूप को इस तरह से प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं तो यह समूचे बौद्धिक वर्ग का दायित्व है कि इन रामजादों की सच्चाई लोगों को बताई जाए। सौरभ बाजपेई ने अपने लेख में इस दायित्व का बखूबी निर्वाह किया है। आज राम की जिस तरह से छवि निर्मित की जा रही है उससे इन रामवादियों के सांप्रदायिक एजेंडे और इसके पीछे इनकी मंशाओं को देखा जा सकता है।

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  2. स्वाधीन में प्रकाशित सौरभ बाजपेई सर का यह लेखे मुझे काफी पसंद आया बहुत अच्छा लेख राम मंदिर क नाम पर कब तक होगी राजनीति?लगभग तीन दशक से यह राम मंदिर मुद्दा चल रहा है और अब अदालत में विचाराधीन है तो फिर किसी खास चुनाव के समय इसके नाम पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश से हमारे देश की राजनीति एक कदम आगे बढ़ने की बजाय दो कदम पीछे जाती नज़र आती है। इस बात में शायद ही दो राय हो कि जाति-धर्म-सम्प्रदाय की राजनीति ने इस देश को बहुत नुक्सान पहुंचाया है। यहाँ तक कि आज़ादी के बाद देश का बंटवारा भी धर्म के ही आधार पर हो गया और लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ तक धोना पड़ा। तो क्या 21वीं सदी में भी हम चुनावी राजनीति में इन्हीं धार्मिक मुद्दों के सहारे राजनीति करेंगे? पहले किसने क्या कहा, क्या किया इसको छोड़िये पर अब नयी पीढ़ी की खातिर राम मंदिर जैसे मुद्दों को राजनीति से दूर रखिये। हाँ, अगर अदालत से इतर आपको यह मुद्दा इतना ही जरूरी लगता है तो उसके लिए संसद में प्रयास कीजिये, जैसा कि शिवसेना ने अपने एक बयान में कहा है। विपक्षियों की छोड़िये, किन्तु अगर भाजपा की ही सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना कहती है कि राममंदिर मुद्दे पर भाजपा राजनीति कर रही है तो ऐसे में मामला थोड़ा चिंतनीय हो जाता है।
    प्रिंस कुमार देशबंधु महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय का विद्यार्थी

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