डॉ० अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा में दिया गया अंतिम भाषण

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शुभनीत कौशिक 

[शुभनीत जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के शोध- छात्र हैं। वो उनमें हैं जिन्हें अपनी जमीन पता है। उनकी रूचियाँ बहुत व्यापक हैं। इतिहास की गम्भीर समझ रखने वाले शुभनीत बेहद संजीदा कवि भी हैं। हिंदी साहित्य पर उनसे बात करना अपनी जानकारी में इजाफ़ा करने जैसा है। वे "स्वाधीन" के सदस्य के रूप में शुरुआत से ही सक्रिय हैं।   उन्होंने डॉ० अम्बेडकर की पुण्यतिथि पर "स्वाधीन" की ओर से यह आलेख- अनुवाद प्रस्तुत किया है। जो डॉ० अम्बेडकर की लोकतन्त्र की संकल्पना को बखूबी उजागर करता है]

26 नवंबर 1949 को भारत की संविधान सभा ने भारत के संविधान निर्माण का काम पूरा किया। याद कीजिये, प्रस्तावना के शब्द "हम भारत के लोग...आज 26 नवंबर 1949 को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं " इससे ठीक एक दिन पहले यानि 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा को अंतिम बार सम्बोधित करते हुए डॉ. बी आर आंबेडकर ने लोकतंत्र के पक्ष में अपना यादगार भाषण दिया था। वो संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उनका यह भाषण आज ६५ वर्षों बाद भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए तीन बातें सुझाईं थीं। उन्हें उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत करता हूँ-

 

"अगर हम लोकतंत्र को बनाये रखना चाहते हैं सिर्फ स्वरुप में बल्कि यथार्थ में, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार में पहली जरुरी चीज है कि हम अपने सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों को पाने के लिए संविधान के सुझाये रास्ते पर चलें। इसका मतलब है कि हम क्रांति के खूनी रास्ते को छोड़ दें। इसके मायने यह भी हैं कि हम सत्याग्रह, असहयोग और सिविल नाफरमानी के रास्ते को भी छोड़ दें। जब सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों को पाने के लिए संविधान सम्मत कोई रास्ता ही बचा हो, तो गैर-संवैधानिक तरीकों के इस्तेमाल को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है। पर जब संविधान सम्मत रास्ते खुले हों, तो गैर-संवैधानिक तरीकों के लिए कोई कारण नहीं दिया जा सकता। ऐसे तरीके 'अराजकता के व्याकरण' के अलावे कुछ नहीं हैं, और जितना जल्दी हम उन्हें छोड़ दें यह हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।"
"दूसरी बात जो हमें ध्यान में रखनी होगी वह है जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा दी गयी चेतावनी, जो उन्होंने लोकतंत्र को सहेजने को इच्छुक हर शख्स को दी थी- "अपनी स्वतंत्रता को किसी व्यक्ति के, चाहे वह कितना महान क्यों हो, चरणों में रखने से बचना, या उस पर भरोसा करते हुए उसे ऐसी शक्तियां देना कि वह लोकतान्त्रिक संस्थाओं के लिए ही खतरा बन जाए, इस स्थिति से बचना। एक महान शख्सियत के प्रति कृतज्ञ होने में कोई बुराई नहीं है। पर कृतज्ञता की भी सीमाएं होती हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त पैट्रिक डैनियल कोनेल ने कहा है कि सम्मान, प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हुआ जा सकता। यह चेतावनी दुनिया के किसी और देशके बरअक्स भारत के लिए ज़्यादा जरूरी है। भारत में भक्ति या नायक-पूजा ने, दुनिया के किसी और हिस्से के बरअक्स, राजनीति में कहीं ज़्यादे बड़ी भूमिका निभाई है। बतौर धर्म, भक्ति आत्मा की मुक्ति की राह भले हो सकती है। पर राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा लोकतन्त्र के अवसान और अंततः तानाशाही की ओर ही ले जायेगी।"
"तीसरी बात जो हमें याद रखनी होगी कि हम राजनीतिक लोकतंत्र से ही संतुष्ट हो जाएँ। हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी जरूर बनायें। जब तक राजनीतिक लोकतंत्र के आधार में सामाजिक लोकतंत्र   हो, सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र अधिक समय तक नहीं चल सकता। सामाजिक लोकतंत्र के माने क्या हैं? इसका मतलब है ऐसी जीवन शैली जो स्वाधीनता, समानता बंधुत्व को जीवन के सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करती हो। स्वाधीनता, समानता बंधुत्व के सिद्धांतों को एक त्रिकोण के अलग-अलग हिस्सों के रूप में नहीं देखा जा सकता। ये आपस में इस तरह जुड़े होते हैं कि एक दूसरे से अलग किए जाने पर वे लोकतन्त्र के उद्देश्य को हासिल करने में बाधक बन जाएँगे। स्वाधीनता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और समानता को स्वाधीनता से और स्वाधीनता समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता। बराबरी के बगैर, आज़ादी अल्पतन्त्र को पैदा करेगी, जबकि बगैर आज़ादी के बराबरी व्यक्तिगत पहल में बाधक बनेगी। बगैर बंधुत्व के, आज़ादी और बराबरी हकीकत नहीं बन सकती। हमें एक पहरेदार की जरूरत होगी जो इनके अनुपालन को तय कर सके। हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि भारतीय समाज में दो चीजों की मौजूदगी नहीं है। इनमें से एक है समानता। सामाजिक धरातल पर देखें तो भारतीय समाज श्रेणीबद्ध असमानताओं का समाज है। जहां कुछ लोगों के पास अथाह धन है तो वहीं बहुत से लोग गरीबी में जीवन बीता रहे हैं। 26 जनवरी 1950 के दिन हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में तो हमारे पास समानता होगी पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में तो हम 'एक व्यक्ति एक वोट, एक वोट एक मूल्य' के सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे। पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में, अपने सामाजिक और आर्थिक संरचनाओ के चलते, 'एक व्यक्ति एक मूल्य' के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक ऐसे अंतर्विरोधों के जीवन में जीते रहेंगे? हम कब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारना जारी रखेंगे? अगर हमने ऐसा और अधिक समय तक किया, तो हम ऐसा अपने राजनीतिक लोकतंत्र की कीमत पर ही कर रहे होंगे। हमें इस अंतर्विरोध को जल्द से जल्द मिटाना होगा, नहीं तो असमानताओं के शिकार लोग उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को उखाड़ फेकेंगे जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से तैयार किया है।"
दूसरी जिस चीज की कमी हमारे समाज में है, वह है बंधुत्व की भावना। बंधुत्व के माने क्या हैं? बंधुत्व का मतलब है कि यदि भारतीय लोग एकमेव हैं तो उनके बीच एक साझी भाई-चारे की भावना का होना। यह सिद्धान्त एका को बढाता है और सामाजिक जीवन को मजबूत करता है। पर इसे हासिल करना कठिन है।... मुझे याद है जब राजनीतिक रूप से सक्रिय हिंदुस्तानीभारत के लोगकहने की बजायभारतीय राष्ट्रकहना अधिक पसंद करते थे। मेरा मानना है किहम एक राष्ट्र हैंऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैं। हजारों जातियों में बंटे लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी यह बात हम समझ लें कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा। क्योंकि तभी हम राष्ट्र बनने कि जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे और इस उद्देश्य को हासिल करने के तरीकों और साधनों के बारे में सोच पाएंगे। इस उद्देश्य की प्राप्ति कठिन है।... जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं। पहला कारण तो ये कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं। दूसरे वे एक जाति और दूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को बढाती हैं। अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब मुश्किलों से पर पाना होगा। क्योंकि बंधुत्व यथार्थ तभी हो सकता है जब राष्ट्र मौजूद हो। और बगैर बंधुत्व के समानता और स्वाधीनता महज दिखावा होंगी।
(अनुवाद- शुभनीत कौशिक).



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