निधन के 35 साल बाद राजा महेंद्र प्रताप की हत्या !

Pankaj Parvez
पंकज परवेज़ 
(फेसबुक पर एक टिप्पणी, 29 नवंबर 2014)
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ‘घुसकर’ राजा महेंद्र प्रताप की जयंती मनाने के हल्ले के पीछे नफ़रत की राजनीति बहुत साफ़ है। बीजेपी को अचानक 2014 में राजा महेंद्र प्रताप की जयंती मनाने की याद यूँ ही नहीं आई है। वह अलीगढ़ या देश में कहीं और नहीं, अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी परिसर के ‘अंदर ही’ यह आयोजन होते देखना चाहती है। इस आयोजन के नाम पर होने वाले टकराव में उसे ‘भविष्य’ दिख रहा है। बीजेपी यह बात भुला देना चाहती है कि राजा महेंद्र प्रताप ने हिंदू-मुस्लिम एकता को आज़ादी की बुनियाद माना था और आज़ादी के बाद भी इसके लिए लड़ते रहे। 1957 में मथुरा से चुनकर लोकसभा पहुंचने वाले राजा महेंद्र प्रताप के मुकाबले मैदान में उतरने वाले भारतीय जनसंघ के दिग्गज अटल बिहारी वाजपेयी चौथे नंबर पर थे। वाजपेयी की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। राजा महेंद्र प्रताप आरएसएस को फासिस्ट संगठन मानते थे।
‘हाथरस के राजा’ से स्वाधीनता के दीवाने बनने वाले राजा महेंद्र प्रताप ने 1 दिसंबर 1915 को काबुल में भारत की अस्थायी सरकार बनाई थी। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था। राजा महेंद्र प्रताप इस निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति थे और मौलवी बरक़तुल्लाह प्रधानमंत्री। मौलवी उबैदुल्ला सिंधी इस सरकार के गृहमंत्री थे। आज़ादी का सपना देखते हुए 28 साल की उम्र में देश छोड़ने वाले राजा महेंद्र प्रताप 32 साल बाद 1946 में भारत लौटे थे। तमाम देशों की मदद से भारत को आजाद कराने की उनकी कोशिशों को दारुल उलूम देवबंद ने भी समर्थन किया था। वैचारिक रूप से मार्क्सवादी और रूसी क्रांति के नायक लेनिन से प्रभावित राजा महेंद्र प्रताप ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जिस हिंदू-मुस्लिम एकता के दम पर भारत को आज़ाद कराने को बेताब हैं, आज़ादी के बाद उसी देश में राजनीतिक फ़ायदे के लिए किसी महेंद्र और बरक़तुल्लाह को एक दूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार किया जाएगा।
वैसे, राजा महेंद्र प्रताप के जीते जी या फिर 1979 में उनकी मौत के बाद आज तक, बीजेपी को उन्हें सम्मान देने या उनका जन्मदिन मनाने की याद कभी नहीं आई। लेकिन अब राजा महेंद्र प्रताप उसके लिए एक ‘जाट आयकन’ हैं जिन्होंने एएमयू को ज़मीन दान दी थी। इसी आधार पर वह एएमयू में घुसकर उनकी जयंती मनाना अपना हक बता रही है। यह राजा के विचारों को दफ़्न करके उनकी एक ऐसी मूर्ति तैयार करने की कोशिश है जिसके ज़रिये मुजफ्फरनगर कांड के बाद ‘अधूरे रह गये काम’ को आगे बढ़ाया जा सकता है।
बीजेपी यह भूल गयी है कि विश्वविद्यालयों की अपनी स्वायत्तता होती है। उन पर फ़ैसले थोपे नहीं जा सकते। वैसे भी, सिर्फ ज़मीन देने के नाम पर जन्मदिन मनाया जाये तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही नहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को भी हज़ारों लोगों का जन्मदिन मनाना पड़ेगा। बीएचयू में भी संस्थापक मदन मोहन मालवीय का जन्मदिन ही मनाया जाता है, जैसे एएमयू में सर सैयद का। बीएचयू काशी नरेश का भी जन्मदिन नहीं मनाता जिन्होंन कई गांव इस विश्वविद्यालय को दान किये थे।
यह ग़ौरतलब है कि केंद्र में शासन चला रही बीजेपी की नज़र में अकादमिक संस्थाओं और उनकी स्वायत्तता का कोई मोल नहीं है। वह तो बस, 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के पहले समाज को ‘हम’ और ’वे’ में बाँटने के मुद्दों की बेक़रारी से शिनाख़्त करने में जुटी है। विकास के नगाड़ा बजाने वाली पार्टी के पास यूपी को देने के लिए यही सब बचा है। पर क्या यूपी वाक़ई ऐसी ही राजनीति का हक़दार है..?

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