कुलदीप कुमार
जनसत्ता
30 नवम्बर 2014
[कुलदीप कुमारजी समकालीन पत्रकारिता के स्तम्भ हैं।
राजनीति, इतिहास और समाज की उनकी समझ हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करती रही है। उनका
यह आलेख एक साथ दो गंभीर मुद्दे उठाता है। एक- आज भी भारत की तमाम जनसँख्या छुआछूत
को मानती है। यही नहीं यह उच्च वर्णों से फैलकर अब पिछड़ों और खुद दलितों को बीच अपनी
जगह बना चुकी है। दूसरा मुद्दा है राजा महेंद्रप्रताप सिंह जैसे महान क्रान्तिकारी
और समाजवादी नेता को जाट राजनीति का मोहरा बनाने की भाजपाई साजिश। इस दफ़ा पेश है कुलदीप
कुमारजी का यह आलेख...]
जाति-व्यवस्था
आज भी
कितनी मजबूत
है और
आजादी मिलने
के सड़सठ
साल बाद
भी देश
में छुआछूत
का अभिशाप
किस हद
तक बना
हुआ है,
इसका कुछ-कुछ
आभास उस
ताजातरीन सर्वेक्षण
से मिल
सकता है,
जिसके बारे
में खबर
29 नवंबर, 2014 के
इंडियन एक्सप्रेस
के मुखपृष्ठ
पर सबसे
ऊपर प्रमुखता
से छापी
गई है।
इसे भारत
की नेशनल
काउंसिल ऑफ
एप्लाइड इकोनॉमिक
रिसर्च और
अमेरिका की
मेरीलैंड यूनिवर्सिटी
ने मिल
कर किया
है और
इसके लिए
देश भर
में बयालीस
हजार परिवारों
से सवाल
पूछे हैं।
ऊंची जातियां
तो जाति-व्यवस्था
और छुआछूत
की जकड़न
में हैं
ही, आश्चर्य
यह जान
कर होता
है कि
अन्य पिछड़ी
जातियां, अनुसूचित
जातियां और
अनुसूचित जनजातियां
भी इसकी
चंगुल से
नहीं निकल
पाई हैं।
![Source: The India Human Development Survey (IHDS-2)](http://images.indianexpress.com/2013/01/survey-main.jpg)
अगर सर्वेक्षण
की मानें
तो ब्राह्मणों
के बाद
सबसे अधिक
अस्पृश्यता का
पालन करने
वाले अन्य
पिछड़ी जातियों
(ओबीसी) के
सदस्य हैं।
कुल मिला
कर सर्वेक्षण
का निष्कर्ष
यह है
कि हर
चार में
से एक
भारतीय, यानी
कुल आबादी
का चौथाई
हिस्सा, आज
भी अस्पृश्यता
का पालन
करता है।
जिस तरह
दहेज के
खिलाफ कानून
बनाने से
और दहेज
के लिए
हत्या करने
वालों के
लिए अत्यंत
कड़ी सजा
का प्रावधान
करने से
दहेज प्रथा
और दहेज
के लिए
होने वाली
हत्याओं पर
कोई असर
नहीं पड़ा
है, उसी
तरह छुआछूत
को गैर-कानूनी
घोषित करने
से वह
समाप्त नहीं
हुई है।
इससे यह
भी स्पष्ट
हुआ है
कि दलित
विमर्शकारों को
कुछ नए
तरह से
सोचना होगा,
क्योंकि अनुसूचित
जातियां यानी
दलित भी
इस घृणित
प्रथा का
पालन करते
हैं, उनके
बीच भी
जाति की
ऊंच-नीच
का अपना
विधान है।
इसलिए जरूरत
ब्राह्मणों को
गाली देने
और उनकी
आलोचना करने
की नहीं,
बल्कि ब्राह्मणवादी
विचारधारा का
विरोध करने
की है,
जो न
केवल ब्राह्मणों
के बीच,
बल्कि समाज
के लगभग
हर तबके
के दिलो-दिमाग
में पसर
कर बैठी
हुई है।
जो लोग
हिंदू धर्म
की जाति-व्यवस्था
और छुआछूत
से तंग
आकर सिख,
मुसलमान, बौद्ध
या ईसाई
बने, उन्हें
धर्मपरिवर्तन के
बाद भी
इस अभिशाप
से निजात
नहीं मिल
पाई। इन
सभी धर्मों
का समानतावाद
उसी तरह
का है,
जिस तरह
हिंदू धर्म
का।
हर हिंदू
मानता है
कि कण-कण
में भगवान
है। अद्वैतवादी
दर्शन तो
पूरी सृष्टि
में एक
ही तत्त्व
को देखता
है। लेकिन
व्यवहार में
ऊंची जाति
के लोगों
को निचली
जाति के
लोगों में
उस भगवान
के दर्शन
नहीं होते,
जिसके कण-कण
में होने
का वे
उद्घोष करते
हैं। दलितों
में भी
ऊंच-नीच
है। जिस
सामाजिक प्रक्रिया
को प्रसिद्ध
समाजशास्त्री एमएन
श्रीनिवास ने
‘संस्कृतिकरण’ का
नाम दिया
था, शायद
उसी के
कारण इन
जातियों में
भी ब्राह्मणों
जैसा बनने
की चाह
है। वरना
जो खुद
जातिप्रथा के
दंश को
दिन-रात
अनुभव करता
है, वह
कैसे किसी
दूसरे को
वही दंश
दे सकता
है। शायद
यह एक
स्वाभाविक मानवीय
इच्छा है
कि हर
व्यक्ति अपने
को किसी
नकिसी से
श्रेष्ठतर समझना
चाहता है।
इस इच्छा
के कारण
दूसरों के
साथ दुर्व्यवहार
करने और
उन्हें पशुवत
समझने की
इजाजत कोई
भी सभ्य
समाज नहीं
दे सकता।
लेकिन जाति
की विचारधारा
और अस्पृश्यता
इस अमानवीय
व्यवहार को
वैचारिक और
सांस्कृतिक औचित्य
प्रदान करते
हैं। समाजशास्त्रियों
ने भिन्न
जातियों के
बीच की
असमानता का
तो काफी
अध्ययन किया
है, लेकिन
एक ही
जाति के
अंदर की
असमानता पर
उनकी निगाह
बहुत कम
गई है।
आशा की
जानी चाहिए
कि इस
पक्ष पर
भी शोध
किया जाएगा
और इसकी
जटिलताओं को
सामने लाया
जाएगा।
सभी हिंदुओं
को हिंदू
होने के
आधार पर
एक करने
का लक्ष्य
सामने रख
कर चलने
वाला संघ
परिवार और
उसकी राजनीतिक
अभिव्यक्ति भारतीय
जनता पार्टी
कभी इन
सामाजिक बुराइयों
के खिलाफ
कोई आंदोलन
क्यों नहीं
छेड़ते? क्या
इन्हें समाज
में दिन-रात
हो रहा
यह अत्याचार
नजर नहीं
आता? ओबीसी
की राजनीति
करने वाले
राजनीतिक दल
या दलितों
की राजनीति
करने वाली
पार्टियां क्यों
कभी इस
ज्वलंत मुद्दे
पर कोई
जनजागरण अभियान
नहीं छेड़ते?
क्यों नहीं
सामाजिक न्याय
और सामाजिक-आर्थिक
समता की
बातें करने
वाली पार्टियां
इन मुद्दों
पर जनांदोलन
करतीं? क्यों
जाति के
आधार पर
राजनीति करने
वाली पार्टियां
उसे कमजोर
करने के
बजाय मजबूत
करने में
लगी हैं?
भारतीय जनता
पार्टी के
पास हिंदुओं
को एक
करने का
एक ही
नुस्खा है।
किसी न
किसी तरह
उन्हें अल्पसंख्यकों
के खिलाफ
गोलबंद कर
लिया जाए।
चाहे उसके
लिए ‘लव
जिहाद’ जैसे
नारे ईजाद
करने पड़ें,
चाहे राजा
महेंद्र प्रताप
सिंह जैसे
समाजवादी क्रांतिकारी
के नाम
का इस्तेमाल
करना पड़े,
उसे किसी
बात से
गुरेज नहीं
है। उसे
किसी न
किसी बहाने
मुठभेड़ की
स्थिति पैदा
करके राजनीतिक
लामबंदी करनी
है। इसके
लिए कोई
भी तरीका
अपनाया जा
सकता है
और किसी
भी व्यक्ति
के नाम
का इस्तेमाल
किया जा
सकता है,
चाहे उस
व्यक्ति की
राजनीति और
विचारधारा से
हिंदुत्व का
दूर-दूर
का भी
संबंध न
हो।
राजा महेंद्र
प्रताप एक
राष्ट्रवादी क्रांतिकारी
थे, जिनका
समाज को
बांटने वाली
किसी भी
तरह की
दक्षिणपंथी या
सांप्रदायिक विचारधारा
या संगठन
से कभी
कोई संबंध
नहीं रहा।
उन्होंने 1915 में
काबुल में
निर्वासन के
दौरान स्वाधीन
भारत की
पहली सरकार
स्थापित की
थी। इसमें
वे राष्ट्रपति
थे और
मौलवी बरकतुल्लाह
प्रधानमंत्री और
मौलवी अबैदुल्लाह
सिंधी गृहमंत्री
थे। 1919 में
राजा महेंद्र
प्रताप सिंह
सोवियत संघ
जाकर लेनिन
से भी
मिले थे।
इन्हीं राजा
महेंद्र प्रताप
सिंह ने
1957 में मथुरा
में भारतीय
जनसंघ के
उम्मीदवार अटल
बिहारी वाजपेयी
के खिलाफ
लोकसभा का
चुनाव लड़ा
और जीता
था। इस
चुनाव में
वाजपेयी चौथे
स्थान पर
आए थे
और उनकी
जमानत तक
जब्त हो
गई थी।
लेकिन वे
दो अन्य
चुनाव क्षेत्रों
से भी
लड़े थे।
इनमें से
लखनऊ में
वे दूसरे
स्थान पर
रहे थे
और बलरामपुर
में चुनाव
जीत गए
थे। अटल
बिहारी वाजपेयी
को चुनाव
में धूल
चटाने वाले
राजा महेंद्र
प्रताप सिंह
को आज
भारतीय जनता
पार्टी ‘हिंदू
नायक’ के
रूप में
प्रस्तुत करने
की कोशिश
कर रही
है, क्योंकि
उसकी मंशा
अलीगढ़ मुसलिम
विश्वविद्यालय के
खिलाफ मुहिम
छेड़ कर
अलीगढ़ में
सांप्रदायिक आधार
पर लोगों
को लामबंद
करना और
आने वाले
विधानसभा चुनाव
में अपनी
राजनीतिक रोटियां
सेंकने की
है।
राजा महेंद्र
प्रताप के
पिता राजा
घनश्याम सिंह
ने भी
सैयद अहमद
खां द्वारा
स्थापित मुहम्मडन
एंग्लो-ओरियंटल
कॉलेज को
जमीन और
धन से
सहायता की
थी। बनारस,
विजयनगरम और
पटियाला जैसी
रियासतों के
महाराजाओं, कासिमबाजार
की महारानी
और मुरादाबाद
के राजा
जयकिशन दास
के अलावा
चौधरी शेर
सिंह, कुंवर
लेखराज सिंह,
राजा शिवनारायण
सिंह, राजा
उदय प्रताप
सिंह, लाला
फूल चंद
और लाला
वासुदेव सहाय
जैसे न
जाने कितने
गैर-मुसलिमों
ने इस
संस्था को
आर्थिक सहायता
दी थी।
फिर विश्वविद्यालय
से राजा
महेंद्र प्रताप
सिंह का
जन्मदिन मनाने
का आग्रह
करना, और
न माने
जाने पर
हठ करके
अड़ जाना,
क्या दर्शाता
है? सिर्फ
यही कि
आगामी चुनाव
के पहले
भारतीय जनता
पार्टी जाटों
के वोट
पक्के करना
चाहती है,
क्योंकि राजा
महेंद्र प्रताप
भी जाट
थे।
अलीगढ़ मुसलिम
विश्वविद्यालय का
इतिहास पाकिस्तान
आंदोलन से
जुड़ा होने
के कारण
आज भी
अनेक हिंदुओं
के मन
में संशय
जगाता है।
हर शिक्षा-संस्थान
की तरह
ही यहां
भी हर
विचारधारा के
शिक्षक और
विद्यार्थी हैं।
आज अलीगढ़
मुसलिम विश्वविद्यालय
वही नहीं
है, जो
आजादी के
पहले था।
लेकिन उसके
साथ जबरदस्ती
टकराव मोल
लेकर भाजपा
हिंदुओं को
सांप्रदायिक आधार
पर एक
करने की
कोशिश कर
रही है।
इस क्रम
में वह
राजा महेंद्र
प्रताप सिंह
जैसे चोटी
के राष्ट्रवादी
और समाजवादी
नेता को
सिर्फ एक
जाति के
नेता की
तरह उभार
कर उनका
सम्मान नहीं,
वरन अपमान
ही कर
रही है।
लेकिन वह
करे भी
तो क्या?
उसकी अपनी
झोली में
तो एक
भी ऐसा
राष्ट्रनायक नहीं,
जिसने देश
की स्वाधीनता
के लिए
जरा-सा
भी संघर्ष
किया हो।
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