वैष्णव जन तो तेने कहिये… द्वारा रियाज़ क़व्वाली
आदरणीय सुमन केसरीजी की फेसबुक वॉल से पता चला कि आज नरसिंह मेहता का जन्मदिन है। याद दिलाने के लिए उनका बहुत- बहुत धन्यवाद। भक्ति साहित्य की ज़रूरत बार- बार सिद्ध होती रही है। याद दिलाते चलें कि साम्प्रदायिकता से लड़ने में गाँधी और कबीर का महत्त्व कैसे पहचाना गया था। वरना वामपंथ को गाँधी से खासा परहेज था। प्रो० पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रो० भगवान जोश और दिलीप सीमियन आदि के नेतृत्व में साम्प्रदायिकता विरोधी मंच बनाया गया था। राममंदिर आंदोलन की चुनौतियों से निपटने की वैकल्पिक योजना के साथ यह ध्यान आकर्षित करने के लिए धरने पर बैठा। जिसे बिपन चन्द्र और नामवर सिंह जैसे कद्दावर बौद्धिकों का समर्थन मिला। इसके बाद ही १९८८ में सीताराम येचुरी ने एक परचा लिखकर लगभग इस लाइन को आजमाने की बात की। इसी के बाद 'सहमत' ने गाँधी और कबीर आदि को अपने साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान का हिस्सा बनाया। "राम- ख़ुदा की जंग में हुए पखेरू ढेर जैसी" पोस्टर सीरीज़ बनी।
गाँधी ने वैष्णव जन के अर्थ को विस्तारित किया था। दादा अब्दुल्ला की पोती के सुझाने पर उन्होंने इसमें मामूली बदलाव किये थे। जिसके बाद 'वैष्णव जन' के साथ- साथ 'मुस्लिम जन' और 'ईसाई जन' आदि भी गाये जाने लगे। एक लाइन में 'वैष्णव जन' तो अगली में 'मुस्लिम जन'.... जिन्हें इस भजन से गाँधी के उच्च वर्णीय संस्कारों की झलक- मात्र मिलती हो, उनके लिए एक दूसरे भजन की कुछ पंक्तियाँ है.... "सबको सन्मति दे भगवान।" नरसिंह मेहता को याद करते हुए पेश है रियाज़ कव्वाली की यह शानदार प्रस्तुति। …
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