सांप्रदायिक राजनीतिक दर्शन का मोहरा था गोडसे
सौरभ बाजपेयी
दैनिक हिन्दुस्तान
29 जनवरी, 2009
[29 जनवरी, 2009 के दैनिक हिन्दुस्तान में छपा यह आलेख फिर से पढ़े जाने की जरूरत है। गोडसे कोई व्यक्ति नहीं था, एक विचारधारा का मोहरा था। जैसा विनोबा ने संघ के बारे में चेताते हुए कहा था - "यह सिर्फ दंगा- फसाद करने वाले उपद्रवियों की जमात नहीं है। यह फिलाॅसफरों की जमात है।" गोडसे मोहरा था, फँस गया। सावरकर और संघ फिलाॅसफर थे, बच निकले। जैसे आज नीचे के लोग गाँधी की हत्या को जायज़ ठहराते हैं और ऊपर बैठे फिलाॅसफर उसका खंडन करते हैं।]
30 जनवरी 1948 को शाम की प्रार्थना का समय हो चुका था । गांधी बिड़ला हाउस के अहाते में तेज़ कदमों से प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ रहे थे । अचानक भीड़ के बीच से निकल, नाथूराम गोडसे ने मनु को धक्का दिया और पिस्ताॅल से तीन गोलियां गांधीजी पर दाग दीं । नेहरू के शब्दों में कहें तो हमारे बीच से रौशनी चली गई । बंटवारे की आग में झुलस रहे उपमहाद्वीप में गांधी की हत्या अगर किसी मुसलमान ने की होती तो क्या होता । सांप्रदायिक हिंसा गृहयुद्ध में तब्दील हो जाती और धर्मनिरपेक्ष भारत का ताना-बाना बिखर जाता । मगर ‘धरती के महानतम् जीवित हिन्दू’ की हत्या एक धर्मांध हिन्दू ने कर दी तो सारा माहौल बदल गया । ऐसा किसी ने नहीं सोचा था । हिन्दू सांप्रदायिकता लोगों की घृणा का पात्र बन गयी । सांप्रदायिक नफ़रत के विरूद्ध जीते-जी ‘वन मैन बाउंड्री फोर्स’ बन चुके महात्मा ने मरते-मरते हिन्दू सांप्रदायिकता को जोरदार चोट पहुंचा दी थी । गांधीजी के दार्शनिक पोते, रामचंद्र गांधी ने सच ही कहा था- ‘गांधी को गोलियों ने नहीं, घातक गोलियों को गांधी ने अपने सीने में रोका था ।’
10 दिन पहले यानी 20 जनवरी 1948 को भी गांधीजी की प्रार्थना सभा पर बम फेंका गया था । गांधी अविचलित अपनी जगह बैठे रहे- डरो मत, कुछ नहीं हुआ है । भयभीत मनु से उन्होंने कहा- डर गईं ? प्रार्थना करते-करते समाप्त हो जाना.... इससे बेहतर मृत्यु क्या हो सकती है । लेकिन जब किसी ने उनसे कहा कि यह किसी सिरफिरे का पागलपन था, तो गांधी बोले- बेवकूफ, तुम नहीं देख पा रहे हो, इसके पीछे एक बड़ी भयानक साजिश है ।
दरअसल, गांधी का जवाब सांप्रदायिक गिरोहों के पास था ही नहीं । इसीलिए मुस्लिम सांप्रदायिक उन्हें मुसलमानों का दुश्मन और हिन्दुओं का नेता बताते थे तो हिन्दू सांप्रदायिक उन्हें हिन्दूओं का दुश्मन और मुसलमानों का हितैषी बताते फिरते थे । हिन्दू और मुसलमान जनता पर गांधी का एक समान प्रभाव उन्हें विचलित करता था । हिन्दू महासभा और आरएसएस और दूसरी ओर मुस्लिम लीग को अपनी सांप्रदायिक महत्वकांक्षाओं के बीच गांधी रोड़ा लगते थे । इसीलिए गांधी को रास्ते से हटाने के अपरोक्ष आह्वान दोनों ओर से खूब किए जाते रहे ।
एक बार बंगाल के सुहरावर्दी ने, जिन पर हजारों हिन्दुओं के क़त्ल का पाप चढ़ा था, गांधीजी से कलकत्ता में रूककर मुसलमानों की जान बचाने की फरियाद की । गांधी रूक गए, पर एक शर्त पर- सुहरावर्दी दंगाग्रस्त मुस्लिम बस्ती के एक उजड़े हुए घर में उनके साथ ही रहेंगे । एक रात दंगाई भीड़ ने घर पर हमला बोल दिया । रहस्यमय ढंग से सुहरावर्दी ग़ायब थे । दरअसल, वे शाम होते ही सुरक्षा और विलासिता से युक्त अपनी आलीशान हवेली में भाग जाते थे । अगर पुलिस समय पर न पहुंचती तो गांधी की जान उसी दिन चली जाती । आम मुसलमानों की जान बचाने के लिए सुहरावर्दी अपनी जान आफत में नहीं डाल सकते थे, गांधी को जान की कोई परवाह नहीं थी ।
दूसरी ओर, हिन्दू राष्ट्र का नारा गांधी के राम-राज्य के सपने के आगे टिक नहीं पाता था । इसीलिए कहा गया कि बंटवारा गांधी ने करवाया और अब (पाकिस्तान को वायदे के मुताबिक 55 करोड़ रूपया देने के लिए) पाकिस्तान की तरफदारी कर रहे हैं। एक बार गोलवलकर ने ढाई हजार स्वंयसेवकों को संबोधित करते हुए कहा- संघ पाकिस्तान को मिटा देगा और अगर कोई बीच में आया तो उसे भी । गांधी बीच में आ गये थे, इसीलिए मार दिए गये । वे मार्च 1948 में पाकिस्तान जाना चाहते थे । उनका मानना था- लोगों ने विभाजन को हृदय से स्वीकार नहीं किया है । और यह भी कि, बंटवारा नफ़रत की बुनियाद पर खड़ा था और उसे सिर्फ प्यार से जीता जा सकता था ।
इस तरह गांधी की हत्या एक साजिश थी । गोडसे कोई भटका हुआ व्यक्ति नहीं था, वह तो घृणा और हिंसा पर आधारित एक रानीतिक दर्शन का मोहरा-भर था । पहले भी महासभा के लोगों ने कल्याण और पूना के बीच गांधी स्पेशल ट्रेन को पटरी से उतारकर उन्हें मारने की कोशिश की थी । गांधी की हत्या के माह भर बाद विनोबा भावे ने दो टूक लहज़े में कहा था- "एक धार्मिक अख़बार में मैंने उनके गुरूजी का लेख या भाषण पढ़ा । उसमें लिखा था ‘हिन्दू धर्म का उत्तम आदर्श अर्जुन है । उसे अपने गुरूजनों के लिए आदर और प्रेम था । उसने गुरूजनों को प्रणाम किया और उनकी हत्या की । इस प्रकार की हत्या जो भी कर सकता है वह स्थितिप्रज्ञ है ।’ बेचारी गीता का इस प्रकार उपयोग होता है । मतलब यह है कि यह सिर्फ दंगा-फसाद करनेवाले उपद्रवियों की जमात नहीं है । यह फिलाॅसफरों की जमात है ।" ध्यान रहे, गोडसे ने भी गांधी को प्रणाम किया और फिर उनकी हत्या की । मरने से पहले उसने कहा- मेरी अस्थियां सिन्धु नदी में डाली जाएं । क्योंकि बाकी सारी नदियां गांधी की अस्थियों से प्रदूषित हो चुकी हैं । यह नफ़रत की फिलाॅसफी थी ।
गोडसे मोहरा था, बहक गया । सावरकर फिलाॅसफर थे, बच निकले । पूरी ट्रायल भर सावरकर ने गोडसे को नज़र घुमा कर नही देखा । साक्ष्यों के अभाव में वे बरी हो गये । लेकिन 1965 में बनी जीवनलाल कपूर कमिटी जब तक उनके संलिप्तता के प्रमाण खोज पाती, सावरकर मर चुके थे । 1948 के बाद तकरीबन डेढ़ साल तक आरएसएस प्रतिबंधित रहा । नाथूराम संघ का ही बौद्धिक कार्यवाह था । गोलवरकर ने पटेल से हर अपराध के लिए क्षमा मांगी । वह दिन था और आज का दिन है- संघ न तो गांधी की हत्या का जुर्म कबूलता है और न ही खुद को राजनीतिक संगठन कहता है । पर गांधी और उनकी सोच के खिलाफ उसकी कवायद जारी है ।
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