नेहरू को कोसने वाले उनका महत्व समझते हैं, इसीलिए उन्हें डराता रहता है उनका भूत भी

पुरुषोत्तम अग्रवाल 

प्रख्यात चिंतक; आलोचक

कौन है भारत माता? इस सवाल के पीछे जवाहरलाल नेहरू के चिंतन का रेजोनेन्स (अनुकंपन) है। भारत माता की जय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों का बहुत लोकप्रिय नारा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इस पर विचार करते हैं। संस्मरण की तरह विचार करते हैं कि मैं जब भी किसी सभा में जाता हूं, तो वहां नारा लगता है ‘भारत माता की जय।’ मैं लोगों से पूछता हूं कि कौन है भारत माता जिसकी हम जय बोलते हैं। तब कोई कहता है हमारे गांव की धरती। कोई कहता है देश की धरती। मैं लोगों से कहता हूं कि हां, यह सब तो है ही लेकिन असल में इस देश की जनता, आप। आप हैं भारत माता। आपकी जय भारत माता की जय है। नेहरू इस रिफ्लेक्शन में भारत माता की जय की पाॅपुलर इमेज पर भी चर्चा करते हैं। वह कहते हैं कि भारत माता एक ऐसी देवी के रूप में हमारे दिमाग में है जो एटर्नल है, कालातीत है, बहुत प्रभावी है, सुंदर है और उसी रूप में हम उन्हें देखते हैं। वास्तविकता यह है कि जो हमारी असली भारत माता है, वह गरीबी की जकड़ में है। बहुत ही मार्मिक वाक्य है नेहरू का- एंड पाॅवर्टी इज नाॅट ब्यूटीफुल। गरीबी सुंदर नहीं है। सादगी सुंदर हो सकती है, गरीबी सुंदर नहीं है। संयम सुंदर है, मजबूरी सुंदर नहीं है। इसलिए जिस भारत माता को देखते हैं तस्वीरों में, हकीकत कुछ और है। तो भारत माता की असली जय तब होगी जब हिंदुस्तान का हर गरीब, औरत और मर्द एक बुनियादी स्तर, एक बुनियादी ह्यूमिनिटी हासिल कर सके। वही है भारत माता की जय। नेहरू की ये बातें गांधी जी के उस मशहूर वक्तव्य से जाकर जुड़ती हैं कि जब भी तुम्हारे मन में कोई नैतिक उलझन हो कि क्या सही है या क्या गलत है, तो जो भी सबसे कमजोर आदमी तुम्हें याद आए, उसका चेहरा याद करो। उस इंसान को जिसे तुमने देखा हो और यह सोचो कि तुम्हारे इस काम से उसका फायदा होगा या नुकसान होगा। तो भारत माता की जय उस अंतिम आदमी-औरत की जय है। स्वाधीनता आंदोलन के लिए भारत माता का मतलब यह था।  


पूरा व्याख्यान राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के यूट्यूब चैनल द नेशनलिस्ट अड्डा पर सूना जा सकता है.

यह बात ध्यान में रखने की है कि जवाहरलाल नेहरू पाॅपुलर मायथोलाॅजी के विरुद्ध और जो मायथोलाॅजी कंस्ट्रक्ट की गई है, उसके विरुद्ध भारतीय परंपरा, भारतीय सोच और भारतीय इमैजिनेशन के प्रति कोई अवज्ञा का भाव नहीं रखते थे। भारत माता और भारत देश माता के रूप में यह कल्पना तो बहुत पुरानी नहीं है। पृथ्वी मां है, मैं पुत्र हूं यह बात बहुत पहले से मिलती है। जननी जन्म भूमि मिलती है लेकिन भारत नाम का भूखंड माता है, यह कल्पना बाद की है। भारत नाम के भूखंड की अपनी स्पष्ट पहचान है। ये कल्पना, ये बोध कम-से-कम ईसवी-सन के आरंभ होने तक स्पष्ट हो चुका है। विष्णु पुराण साफ तौर से हिमालय के दक्षिण और समुद्र के उत्तर वाले हिस्से को भारत और वहां निवास करने वालों को भारतीय कहता है। एक सेंस कि एक विशिष्ट भूखंड है जिसका नाम भारत है। यह है। उसकी कल्पना माता के रूप में करना, उस कल्पना को इस बात से जोड़ना कि हिंदुस्तान का गरीब से गरीब आदमी असल में भारत माता का प्रतीक है या भारत माता का असली रूप है- ये मॉडर्न नेशन बिल्डिंग, मॉडर्न नेशनलिज्म की सोच से जुड़ी हुई चीज है। यह सवाल हमें पूछना चाहिए कि हमारा नेशन का कॉन्सेप्ट क्या है, राष्ट्र का कांसेप्ट क्या है, राष्ट्र का मतलब क्या है।


इस समय एक आइडिया आॅफ इंडिया को, आइडिया आॅफ नेशन को रीडिजाइन करने की प्रक्रिया चल रही है। हिंदुत्व की, हिंदू परंपरा की, हिंदू भावनाओं की उपेक्षा की गई, मुसलमानों का एपीजमेंट किया गया आदि-आदि। इस सबको ठीक करने का समय अब आ गया है। इसलिए हम इस प्रक्रिया को रीडिजाइन कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में माननीय प्रधानमंत्री जी लगे हुए हैं। इसलिए अगर आपको थोड़ी-बहुत तकलीफ होती है, तो आप झेल लीजिए। यहां यह सवाल पैदा होता है। एक एकेडमिक के तौर पर, एक सोचने-विचारने वाले व्यक्ति के तौर पर हू इज भारत माता केवल एकेडमिक क्योरी, केवल पाॅलिटिकल क्योरी तक न रह करके एक तरह की फिलाॅसाॅफिकल क्योरी बन जाती है। जिस यूनिटी इन डायवर्सिटी में कंपोजिट कल्चर की बात की जाती है, क्या वह केवल एक नारा था। किसी तरह हिंदू-मुसलमान की एकता कायम कर अंग्रेजों को हटा देने का जो किसी हद तक सफल हुआ, किसी हद तक असफल हुआ। क्योंकि अंततः सांप्रदायिक आधार पर विभाजन हुआ। सांप्रदायिक राजनीति भारत के विभाजन के साथ खत्म हो गई, वैसा भी नहीं हुआ। तो क्या यह केवल एक नारा था, एक पाॅलिटिकल एक्सपीरिएंसी थी। इस बात को अच्छी तरह याद रखा जाना चाहिए कि भारत एक सामासिक संस्कृति पर आधारित नेशन है।


क्या बगैर भारतीय के हमारी कोई साझा सांस्कृतिक पूंजी है या हम एकता की बातें केवल हवा में करते हैं? इसीलिए वे बातें धराशायी हो जाती हैं, वे चल नहीं पातीं। जब हम साझा सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं, तो बात केवल हिदू-मुसलमान के संदर्भ में नहीं है। हमारे जो हिंदुत्ववादी मित्र हैं, वे भारतीय संविधान की जो हस्तलिखित प्रति है, उसमें इस बात को बार-बार रेखांकित करते हैं कि उसमें राम कथा से संबंधित चित्र हैं। वे ये अंडरलाइन करने के लिए इस बात को करते हैं कि जो लोग राम मंदिर आंदोलन के विरुद्ध या जो संघ की राजनीति के विरोधी हैं, वे भारतीय संविधान की आत्मा के भी विरोधी हैं। संविधान की पहली प्रति में रामकथा से संबंधित चित्र हैं लेकिन इसके साथ, नंदलाल बोस और उनके छात्रों द्वारा बनाई गई उन पेन्टिंग्स में, सिंधु घाटी के चित्र, गीता का उपदेश, बुद्ध हैं, महावीर हैं, चोल हैं, नटराज की प्रतिमा का चित्र है, अशोक हैं, विक्रमादित्य हैं, और हिन्दुत्ववादी मित्रों की सूचना के लिए, अकबर हैं, टीपू सुल्तान हैं, शिवाजी हैं, गुरु गोविंद सिंह हैं और बाय द वे, सुभाषचंद्र बोस हैं। दरअसल, जो इमेजिनेशन आॅफ नेशन है, उसमें राम कथा और अकबर एक दूसरे को एक्सक्लूड नहीं करते, गुरु गोविंद सिंह और टीपू सुल्तान एक दूसरे को एक्सक्लूड नहीं करते।


इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दुनिया के किसी भी समाज की तरह भारतीय समाज एक ऐतिहासिक समाज है। किसी भी समाज की तरह, इस समाज में भी संघर्ष रहे, झगड़े रहे, हिंसा रही। महत्वपूर्ण यह है कि इस समाज में एक मिडिल पाथ की खोज की चेष्टा भी लगातार रही। आप सीधे ऋगवेद के नासदीय सूक्त से इसे शुरू कर सकते हैं। नासदीय सूक्त को जवाहरलाल जी ने गहरी प्रशंसा और कृतज्ञता के बोध के साथ पूरे का पूरा उद्धृत किया है डिस्कवरी आॅफ इंडिया में। क्या है नासदीय सूक्त का सार– इस ब्रह्मांड के, सृष्टि के रहस्य को कोई नहीं जानता। इसका दार्शनिक इम्प्लीकेशन क्या है। यह है कि कोई भी नाॅलेज सिस्टम हो, व्यक्ति हो, वह अंतिम ज्ञान को पा लेने का दावा नहीं कर सकता। नेहरू बहुत गहराई से इसका अनुभव करते थे। डिस्कवरी आॅफ इंडिया का अंत वह इससे करते हैं। ये बात अच्छी तरह समझ लेने की जरूरत है कि वहां उन्होंने राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया है कि कोई भी राष्ट्र सत्य पर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता। एक ठेठ इंडियन क्लैसिकल पोजीशन। अब कहा जा रहा है न्यू इंडिया। काहे का न्यू इंडिया? इस अर्थ में कि अब तक जो इंडिया था, उसको रिजेक्ट करके हम एक नए इंडिया का कांसेप्ट बनाएंगे। इसलिए ये न्यू इंडिया है। उस अवधारणा को क्या हमें मान लेना चाहिए कि न्यू इंडिया ही सही है इसलिए यह सवाल बुनियादी है।


1928 में साइमन कमीशन के विरोध में कांग्रेस ने संविधान के लिए अपनी ओर से मोतीलाल नेहरू की सदारत में नेहरू कमेटी का गठन किया। नेहरू और बोस उसके सदस्य नहीं थे। नेहरू कमेटी के समक्ष सवाल यह था जो आज फिर जरूरी सवाल हो गया है कि किसी डेमोक्रेसी में कम्युनिटी के आधार पर, कास्ट के आधार पर बनी हुई मेजारिटी या माइनारिटी परमानेंट होगी या पालिटिकल च्वाइस के आधार पर बनी मेजारिटी या माइनारिटी बदलती रहेगी। जब हम मेजारिटी कहते हैं, तो इसका मतलब यह कि इस मुल्क में हिंदू मेजारिटी हैं क्योंकि उनकी तादाद ज्यादा है। ये कम्युनल मेजारिटी है, रिलीजियस मेजारिटी है, ये पालिटिकल मेजारिटी भी है। क्या सारे के सारे हिंदू किसी एक पालिटिकल पार्टी के साथ हैं या उन्हें होना चाहिए। नेहरू कमेटी के सामने यह सवाल था कि अगर हम सचमुच हिंदुस्तान को एक डेमोक्रेटिक सोसायटी बनाना चाहते हैं, एक प्रोग्रेसिव नेशन बनाना चाहते हैं, तो हमें चेंजिंग मेजारिटीज को स्थापित करना होगा। इसलिए ये जो फिक्स रिप्रजेंटेशन है, ये नहीं चलेगा।


आज जो लोग हिंदुत्व की राजनीति करते हैं, मुसलिम हितों की राजनीति करते हैं, वो घुमा-फिराकर इसी रिलीजियस या सोशल मेजारिटी को फिक्स्ड मेजारिटी में बदल देना चाहते हैं। इसीलिए इसका विरोध होता है और हो रहा है। जिसे इंटिग्रेटेड नेशनलिज्म कहा जा रहा है, वह बुनियादी तौर पर इंडिविजुअलिटी की अवधारणा पर आधारित है। इंडिविजुअलटी की धारणा डेमोक्रेसी का आधार है।


नेहरू के व्यक्तित्व को रेखांकित करने वाली मेरी पुस्तक ‘हू इज भारत माता’ पर पिछले साल बेंगलुरु लिटरेचर फेस्ट में चर्चा हुई थी। चर्चा में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा था कि नेहरू का अनोखापन इसमें था कि वे उत्तर भारतीय थे और हिंदी भाषी थे और तमिल भाषी की चिंता समझते थे। ब्राह्मण थे और दलित की चिंता समझते थे। पुरुष थे और भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति समझते थे।


नेहरू जी से वर्तमान सत्ता जिस तरह भयभीत रहती है, उस पर मैंने नारा गढ़ा है: नेहरू का भूत, सबसे मजबूत। इसलिए कि नेहरू का आइडिया आॅफ इंडिया सही मायनों में इंक्ल्यूसिव, डेमोक्रेटाइजिंग है। भारतीय इतिहास की वास्तविकताओं पर आधारित है। मैं कहता हूं कि इंडिया इज होपलेसली डायवर्स। इंडिया की डायवर्सिटी को जो डिनाई करेगा, वह इंडिया के इगजिस्टेंस को डिनाई करेगा। इसलिए नेहरू से चिढ़ है क्योंकि नेहरू भारत की डायवर्सिटी को गहराई से समझते थे और इसीलिए इतना प्रचार है नेहरू की तथाकथित अभारतीयता, तथाकथित अहिंदूपन का। नेहरू की भारतीयता उनके स्वभाव में है। हिंदू धर्म की गहरी समझ नेहरू के स्वभाव में है। उन्हें दिखाने, जताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह सहज है। इसीलिए नेहरू से डर है।


पाकिस्तान में जब दस साल के भीतर-भीतर डेमोक्रेसी खत्म हो गई और जनरल अयूब सत्ता में आ गए, तो पाकिस्तान के इंटेलेक्चुअल्स ने यह महसूस किया और लोगों ने लिखा कि द डिफरेंस बिट्वीन इंडिया एंड पाकिस्तान वाज एंड इज इज जवाहरलाल नेहरू। बिना नेहरू के कैसे भारत की कल्पना की जा सकती है? यह न भूलें कि नेहरू इस लिहाज से बहुत रेयर व्यक्ति थे कि ऐपरेंटली जो लोग बहुत कंजर्वेटिव और बहुत आर्थोडाग्स थे और जो नेहरू के जीवनकाल में उन्हें कोसते ही रहते थे, वे भी नेहरू के निधन पर बिलख-बिलखकर रोए थे। नेहरू ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में कहा था कि हिंदुस्तान में बड़े बुनियादी परिवर्तन आएंगे लेकिन वे आएंगे इन एकार्डेंस विथ इंडियन जीनियस। मैं यह नहीं मानता कि नेहरू को केवल कोसना मिला। आज भी कितने ही लोग नेहरू को मिस करते हैं। किसी भी पायनियर को इस तरह का कोसना झेलना होता है। ये न भूलें कि सारा प्रपंच ही इसीलिए है कि आप मानें या न मानें, समझें या न समझें, नेहरू को कोसने वाले उनका महत्व समझते हैं।

(राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट ‘जागो देश हमारा’ अभियान के अंतर्गत दिए गए व्याख्यान का नवजीवन समाचार पत्र द्वारा प्रकशित संपादित अंश}

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