आचार्य विनोबा का साहित्यकारों को संदेश








आचार्य विनोबा भावे

[आचार्य विनोबा भावे ने समय-समय पर साहित्य से जुड़ा हुआ जो चिंतन अपने लेखन और प्रवचनों में व्यक्त किया है उसे कवि आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य ने संकलित करते हुए एक पुस्तक का स्वरूप दिया। यह पुस्तक साल 2019 में रज़ा फाउंडेशन की ओर से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुई है। पुस्तक के संबंध में कवि श्री अशोक वाजपेयी कहते हैं, "हमारे समय में ऐसे लोग विरले हैं जो किसी अन्य क्षेत्र में सक्रिय और निष्णात होते हुए साहित्य के बारे में कुछ विचारपूर्वक लिखे कहें। महात्मा गांधी के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी और अपने समय के अनूठे संत विनोबा भावे ने साहित्य पर कई बार विचार किया है जो अकसर हमारे ध्यान में नहीं आया और आता है। वरिष्ठ कवि आलोचक नंदकिशोर आचार्य विनोबा के साहित्य-चिन्तन को संकलित कर साहित्य पर सोचने की नई और विस्मृत दृष्टि को पुनरूज्जीवित किया है। हमें प्रसन्नता है कि रज़ा साहब के अत्यंत प्रिय विनोबाजी की यह सामग्री हम प्रस्तुत कर रहे हैं।"] 

साहित्य की शक्ति के संबंध में विनोबा कहते हैं,

दुनिया को आकार देने वाली 

लोकजीवन बदलना या उस पर स्थाई असर डालना उन्हीं से बन सका जिन्होंने या तो कुछ आध्यात्मिक खोज की थी या कुछ वैज्ञानिक खोज। विज्ञान का असर दुनिया के जीवन पर हुआ है और आगे भी होगा। आत्मज्ञान का असर भी अबतक के इतिहास में बहुत हुआ है और आगे भी होनेवाला है। लोक जीवन पर असर डालने वाली तीसरी शक्ति है वह है साहित्य की शक्ति। वह विज्ञान और आत्मज्ञान की शक्ति को जोड़ने वाली शक्ति है। वह विज्ञान और आत्मज्ञान को समन्वित कर लोगों के सामने उचित शब्दों में व्यक्त करती है, ताकि लोगों के चित्त पर उनके जरिए थोड़े में विचार की पकड़ रहे।

इस तरह वैज्ञानिक आध्यात्मिक खोज करने वाले और शब्द-शक्ति में नए-नए शब्द खोज कर लोगों के चिंतन के लिए जिन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया है, वही लोग दुनिया को आकार देंगे। इसलिए हमें साहित्य की शक्ति को भी पहचानना चाहिए। शब्द शक्ति की अगर हम उपासना नहीं करेंगे, तो हम हार जायेंगे।

ग़लत शब्द के कारण ग़लत चिंतन

आज हम पुराने शब्द जोड़कर नए शब्द 'इम्पोर्ट' (आयात) करते हैं उसका असर हमारे चिंतन पर पड़ता है। हमारे चिंतन में विचार-दोष आता है। हमको अपना चिंतन ठीक ढंग से करना चाहिए, तभी हिंदुस्तान को अपना मौलिक चिंतन होगा। आज बाहर से इम्पोर्टेड शब्द लाते हैं और हमारी भाषा पर लादते हैं। परिणाम यह होता है कि हमारे जीवन में वह शब्द 'ऐसिमिलेट' नहीं होता, हजम नहीं होता, एकरूप नहीं होता।

अब 'सेक्युलर स्टेट' की ही कल्पना लीजिए। यह बिलकुल एकांगी कल्पना है। वह हमें हजम नहीं हो सकती। यूरोप में वैसी परिस्थिति थी, तो वहां वैसा रिवाज चल सकता था। हिंदुस्तान में तो 'धर्म' शब्द निकला। धर्म यानी क्या? धर्म यानी सबको धारण करना, स्टेट को भी धारण करना है। 'स्टेट को धर्म से कोई ताल्लुक़ नहीं' - ऐसा कोई कहता है तो उसका हिंदुस्तान में बिल्कुल ही अलग अर्थ होता है!

ठीक शब्दों का उपयोग करते हैं, तो अच्छा है, अन्यथा उसे ग़लत धारणा भी हो जाती है। 'इंडिपेंडेंस' कितना निकम्मा शब्द है! दुनिया में क्या होता है? हर शख्स तो एक-दूसरे पर अवलंबित ही है। तब कहां रहा इंडिपेंडेंस? लेकिन 'स्वराज' भावात्मक अर्थ बताता है। वह स्वयंमेव रंजीत होता है। स्वयं-प्रकाशित होता है। आज तो हम यहां परदेश की ही बुद्धि लेते हैं, तो वह 'स्वराज्य' कैसे होगा? केवल हमारा राज हम चलाते हैं, इतने से क्या हो गया स्वराज्य?

वेद में आदित्य को स्वराज्य की उपमा दी है। सूर्य है 'स्वराट्', क्योंकि वह स्वयं प्रकाशित है। चन्द्र है, पर -प्रकाशित। वेद में अत्रि के मंडल में कहा है,  येतिमहि स्वराज्ये - स्वराज्य के लिए हम यत्न कर रहे हैं। आप क्या समझते हैं कि उस जमाने में किसी का उन पर राज था या वे परतंत्र थे? ऐसा नहीं है। मतलब यह है कि जब तक बुद्धि आत्म निष्ठ नहीं होती, तब तक स्वराज नहीं। अंदर से प्रकाश मिलेगा, तो स्वराज्य प्रकट होगा।

कहते हैं सोशियालिस्टिक स्टेट बनाना है। हिटलर का भी एक प्रकार का सोशियालिज़्म ही था। तो इस शब्द से कुछ अर्थ ही नहीं निकलता। व्यक्ति को समाज से अलग निकालते हैं और समाज को व्यक्ति से अलग समझते हैं, तब कैसे अर्थ निकलेगा? जो कल्पना से भी अलग नहीं हो सकते उनको तो पहले अलग कर दिया और फिर दोनों के बीच का झगड़ा मान्य किया। अब कहते हैं, उस झगड़े को मिटाने के लिए 'सोशियलिज़्म' लाना चाहिए। 

आज दुनिया में सब 'वर्ल्ड पीस' के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन बनता कुछ नहीं! इसका मतलब यह नहीं कि संतो महापुरुषों ने जो कार्य किया, उसका कुछ भी असर नहीं हुआ है। 'पीस' आज इसलिए नहीं है, क्योंकि उस शब्द में कुछ भी अर्थ नहीं है! वह शब्द ही अर्थशून्य है। जिसको हम शांति कहते हैं, वह 'पीस' नहीं है। वह 'पीस' तो 'वायलेण्ट' भी हो सकती है। किसी देश पर व्यापारी -बहिष्कार डाला जाता है। यह बिलकुल 'पीसफुल एक्शन' है। लेकिन इसमें भी हिंसा होती है। तो यह शांति नहीं है। शांति शब्द का 'पीस' के साथ कोई संबंध नहीं है। 'पीसफुल' यानी प्रत्यक्ष लाठी नहीं चलायेंगे; बल्कि युक्ति-प्रयुक्ति से किया हुआ काम भी 'पीसफुल' माना जाता है। इसलिए 'पीस' 'विश्व -शांति' करने में निकम्मी है। पाश्चात्य शब्द के परिणामस्वरूप हमारे चिंतन में यह सारे विचार-दोष आते हैं।

तो, सारा चिंतन ही ग़लत ढंग का चल रहा है। जब तक हम अपने शब्द की शक्ति नहीं पहचानेंगे और बाहर शब्द लेते जायेंगे तब तक हमारा चिंतन ऐसा ही ग़लत ढंग से जारी रहेगा। हम अपने शब्दों में चिंतन करेंगे, तो हमारा चिंतन मौलिक होगा। यह ठीक है कि जो अच्छी चीज़ है, हमारे लायक है, वह वहां से लेनी चाहिए। पर ऐसी ही चीज़ हम लें कि जो हमारे शब्दों में पैठती है। आज बहुत-से ग़लत शब्द हमारे चिंतन में पैठ गये हैं। परिणामस्वरूप ग़लत चिंतन होता है इसलिए शब्द शोधन का कार्य साहित्य का कार्य साहित्यिकों को करना चाहिए। ठीक शब्द लोगों के सामने रखने चाहिए। साहित्यिकों को इतना ही कहना है कि आप शब्द - शुचित्व की तरफ ध्यान दें। शुद्ध शब्द का आविष्कार होगा, तो आचार-विचार शुद्ध होगा और चिंतन भी शुद्ध होगा।

जहां शब्द-शक्ति कुंठित होती है, वहां उसकी जगह शस्त्र-शक्ति ले लेती है। अगर हम चाहते हैं कि शस्त्र-शक्ति समाप्त हो - क्योंकि मसले हल करने में नाकाम सिद्ध हो चुकी है - तो शब्द-शक्ति बढ़ानी चाहिए। शब्द-शक्ति के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि हम जो बोलते हैं, उसका वही अर्थ प्रकट हो, जो हमारे मन में है। शब्द-शक्ति के दूसरे मानी हैं - किसी के शब्दों से लाखों को प्रेरणा मिलना। पहले प्रकार की शक्ति सत्य पर निर्भर है, किन्तु दूसरी के लिए सत्य के साथ ही तप भी आवश्यक है। और इन दोनों को मिलाकर ही शब्द-शक्ति का पूर्ण स्वरूप निर्मित होता है।

(संकलनकर्ता- श्री अंकेश मद्धेशिया)

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