हमारे विवेकानंद


शुभनीत कौशिक 

उत्तर भारत के विवि में, आपको छात्रों के कमरों में अनिवार्यतः विवेकानंद की तस्वीर मिलेगी। वह तस्वीर, जिसमें भगवा वस्त्र में लिपटा यह संन्यासी दिखता है, अपने आदर्श वाक्य के साथ यानि “उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत” (कभी यह वाक्य हिन्दी में लिखा होता है: “उठो, जागो और लक्ष्य को प्राप्त करने से पहले मत रुको” और अँग्रेजी में “Arise Awake and Stop not till the goal is reached”)!

यह स्वामी विवेकानंद का प्रिय उपनिषद-वाक्य था। जिसमें बोध/ज्ञान प्राप्त करने के लिए आलस्य को छोड़, जाग्रत होने का आह्वान किया गया था। वैसे इस सूक्ति की पहली पंक्तियाँ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें कहा गया है कि बोध अथवा ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग सहज कतई नहीं है बल्कि वह तो छुरी की धार पर चलने सरीखा कठिन और दुर्गम है। “क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत कवयः वदंती”। 

यद्यपि इस संन्यासी ने अपने को राजनीति से दूर रखा, पर समाज से यह बिलकुल अन्योन्यान्य रूप से जुड़ा हुआ था। समाज के प्रति अपने दायित्व को लेकर सजग था, दलितों-शोषितों की पीड़ा से सिर्फ व्याकुल नहीं हो उठता था, बल्कि उस पीड़ा के समाधान की कोशिश भी करता था। और उस सच्चाई से आँखें फेरने वालों को धिक्कारता भी था।

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जो अतीतजीवी हो चले थे, और भारत के “स्वर्णिम अतीत” का गुणगान गाते नहीं थकते थे, और वर्तमान की उपेक्षा करते थे, उन्हें फटकारते हुए, इस संन्यासी ने कहा था: “शुद्ध आर्य रक्त का दावा करने वालो, दिन-रात प्राचीन भारत की महानता के गीत गाने वालो, जन्म से ही स्वयं को पूज्य बताने वालो, भारत के उच्च वर्गो, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो! अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो...तुम चलती-फिरती लाश हो...मायारूपी इस जगत की असली माया तो तुम हो, तुम्हीं हो इस मरुस्थल की मृगतृष्णा...तुम हो गुजरे भारत के शव, अस्थि-पिंजर...क्यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्यों नहीं तुम नए भारत का जन्म होने देते?”

“देशभक्ति” के बारे में टिप्पणी करते हुए कभी विवेकानंद ने लिखा था: ““लोग देशभक्ति की बातें करते हैं। मैं देशभक्त हूँ, देशभक्ति का मेरा अपना आदर्श है...सबसे पहली बात है, हृदय की भावना। क्या भावना आती है आपके मन में, यह देखकर कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं सा जीवन बिता रहे हैं? देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है? यह बेचैनी देशभक्ति का पहला कदम है।” इस संन्यासी की देशभक्ति, आज के “देशभक्तों” सरीखी संकीर्ण न होकर, उदात्त थी और मानवता से संवलित होती थी।

मानवता के बगैर, इस संन्यासी के लिए देशभक्ति या ऐसी कोई भी बात बेकार थी। संन्यास जरूर लिया था विवेकानंद ने, पर हिमालय की कंदराओं में जा बसने के लिए नहीं, बल्कि नर-नारायण की सेवा करने के लिए। कहते हैं विवेकानंद संन्यास लेकर, सचमुच हिमालय जाना चाहते थे, पर रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें धिक्कारा और कहा कि “मैं तो सोचता था कि तू दीन-दुखियों की पीड़ा में, उनके कष्टों में सहभागी बनेगा, उनके दुख-दर्द को दूर करने को ही अपना कर्तव्य समझेगा, उनकी मुक्ति का माध्यम बनेगा! पर तू तो बस अपनी ही मुक्ति की सोचता है, धिक्कार है तुझे!”

विवेकानंद ने अपने गुरू के उलाहना से भरे वचनों को सुन, अपना हिमालय जाने का इरादा त्याग दिया, और अपना पूरा ध्यान उस तरफ लगाया, जिधर मानव-महासमुद्र व्याधि से, रोग-शोक से पीड़ित था, भय से, शोषण से, दमन से दबा-कुचला महसूस करता था। विवेकानंद के लिए युग की नैतिकता का सही मतलब था धनी-मानी वर्गों के हर तरह के विशेषाधिकारों का खात्मा: “ताकत के बूते निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनी-मानी वर्गों का विशेषाधिकार रहा है, और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता है”। नर-नारायण की सेवा को ही ध्येय बनाते हुए विवेकानंद ने “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की थी। समाजवाद पर टिप्पणी करते हुए स्वामीजी ने कहा था: “भले ही समाजवाद आदर्श व्यवस्था न हो, लेकिन न कुछ से तो बेहतर ही है”। 

आज जब कुछ लोग विवेकानंद को समझे बगैर, उन्हें “सेलिब्रेट” करते हैं, वह भी एक ऐसे “सेलिब्रेटि” के रूप में, जिसने सितंबर 1893 में शिकागो में अपनी वक्तृता से, “सनातन हिंदू धर्म की पताका” फहराई थी। तो वे बड़ी सुविधा के साथ, उस विवेकानंद को भूल जाते हैं जिसने हिंदू धर्म की कुरीतियों पर करारी चोट की थी। जो उन सारे “धर्मप्राण” व्यक्तियों को ढोंगी कहता था, जो अकाल-सूखे से पीड़ित लोगों के सहायतार्थ कुछ करने की बजाय “ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या” की माला जपते थे। कहते हैं कि “जगत को मिथ्या” बताने वाले एक ऐसे ही पंडित को पीटने के लिए स्वामीजी डंडा लेकर उसके पीछे दौड़े थे। इस संन्यासी ने जगत को ही सत्य माना और नर-नारायण को ही अपना आराध्य। जगत के सत्य से, ब्रह्म के सत्य का साक्षात्कार करने का गुण तो इस संन्यासी ने अपने गुरू रामकृष्ण से सीखा था।

पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने विचारोत्तेजक लेख “इस माहौल में विवेकानंद” में, आज के इस थोथे “सेलिब्रेशन” और विवेकानंद के “एप्रोप्रिएशन” की पॉलिटिक्स की बहुत सही तस्वीर हमारे सामने रखते हैं, “विवेकानंद की समग्र चिंता और गतिविधि को एक अधूरी तस्वीर तक सीमित भी वे ही लोग करना चाहते हैं, जो तीखे सवालों की चिलकती धूप के अस्तित्व तक से इंकार करने के इच्छुक हैं। ऐसे विवेकानंद उनके काम के हैं, जो हिंदुत्व पर गर्व करना सिखाएँ। लेकिन शूद्रराज और समाजवाद की बातें करने वाले विवेकानंद? कर्मयोगी की नैतिकता का आधार आस्तिकता को नहीं, सामाजिक न्याय के संघर्ष को मानने वाले विवेकानंद? वे तो झंझट पैदा करेंगे। सो, उनकी अधूरी तस्वीर को ही सब कुछ मानो। संन्यासी की तेजस्विता पर गर्व करो, लेकिन उस आत्म-संघर्ष और आलोचनात्मक विवेक से कोई वास्ता न रखो, जिससे तेजस्विता संभव हुई”।

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