नेताजी सुभाष चंद्र बोस : राजनेता और विचारक

शुभनीत कौशिक 

(नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर शुभनीत कौशिक का विशेष लेख. बहुत ही सटीक और सारगर्भित विश्लेषण.....)

आज़ादी के बाद के दशकों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक बड़ी रूढ़ छवि गढ़ दी गई। एक सेनानायक की छवि। सैनिक भेष-भूषा में, बूट पहने, सावधान की मुद्रा में खड़े, सुभाष चंद्र बोस की छवि। यह छवि किसने गढ़ी, क्यों गढ़ी, यह उतना महत्त्वपूर्ण सवाल नहीं है, जितना यह कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद की पीढ़ियों ने नेताजी की इस रूढ़ और भ्रामक छवि को जस-का-तस स्वीकार कर लिया। इस रूढ़ छवि का फायदा, आज वे राजनीतिक दल और संगठन उठाना चाहते हैं, जिन्होंने न तो राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया और न उनके पास कोई राष्ट्रीय नायक ही है। जाहिर है कि सुभाष बाबू की सेनानायक वाली यह छवि रोमांचित करने वाली और साहसिक होने के साथ ही, विचार, चिंतन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती। कहने की जरूरत नहीं कि विचाररहित-चिंतनहीन इस रूढ़ छवि के प्रचार से, नेताजी के वैचारिक पक्ष को, उनके समाजवादी विचारधारा के प्रति रुझान को और उनके सांप्रदायिकता विरोध को बड़ी आसानी से भुलाया जा सकता है या उसकी उपेक्षा की जा सकती है।
इस रूढ़ छवि का प्रभाव इतना अधिक है कि जब श्याम बेनेगल सरीखे समर्थ निर्देशक ने सुभाष बाबू पर, “बोस द फारगाटेन हीरो” सरीखी फ़िल्म बनाई, तो उसमें भी बेनेगल ने बोस के उन्हीं आखिरी वर्षों को चुना, जो उन्होंने हिंदुस्तान से बाहर बिताए थे, आज़ाद हिन्द फ़ौज के संगठन और मुक्ति-संग्राम के प्रयास में। सुभाष बाबू का नजरबंदी से फरार होना, अफगानिस्तान से होते हुए जर्मनी जाना, और फिर वहाँ से जापान जाकर रासबिहारी बोस और मोहन सिंह के साथ, भारतीय युद्धबंदियों को संगठित करके आज़ाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व करना, सब कुछ रोमांचित करने वाली साहसिक दास्तान है। पर इस दास्तान में; “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” की गूँज में, उस सुभाष चंद्र बोस को भुला दिया जाता है, जो राजनेता था, चिंतक था, विचारक था।
नेताजी के विचारक पक्ष को जानना हो, तो और कुछ नहीं, तो कम-से-कम 1938 में, हरिपुरा कांग्रेस में दिया गया उनका अध्यक्षीय भाषण ही पढ़ लेना चाहिए। देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मसलों पर ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और वैश्विक मुद्दों की बारीक समझ और सुभाष बाबू की सुलझी हुई भावी दृष्टि का परिचायक है ये भाषण। अपने इस भाषण में, नेताजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विश्वव्यापी ढांचे की कमियों और शक्तियों का विस्तृत विश्लेषण किया। इसमें आज़ाद हिंदुस्तान के सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए समतावादी दृष्टि भी है। जहाँ वे साम्राज्यवाद को खुली चुनौती देते हैं, वहीं इस बात पर ज़ोर देते हैं कि साम्राज्यवाद से संघर्ष का मतलब साम्राज्यवादी देशों और उनकी जनता के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना या विद्वेष की भावना रखने की मनोवृत्ति से उबरना भी है।
अपने अध्यक्षीय भाषण में, बोस ने भारत सरकार अधिनियम (1935) के संघीय भाग की जमकर आलोचना की। उन्होंने अपने भाषण में अल्पसंख्यकों और दलितों के भी मुद्दे उठाए, और धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मुद्दों पर आपसी समझ और “जियो और जीने दो” की नीति को अपनाने की सलाह दी। पूरे हिंदुस्तान के लिए एक साझी संपर्क भाषा के सवाल पर, सुभाष बाबू ने रोमन लिपि में लिखी ‘हिन्दुस्तानी’ की वकालत की। उस समय, नेहरू और बोस दोनों ही, भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की हिमायत कर रहे थे, और इसकी प्रेरणा उन्हें मिली थी, तुर्की में मुस्तफ़ा कमाल पाशा के उस सफल प्रयोग से, जिसमें तुर्की भाषा के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया जा रहा था।

बढ़ती आबादी के नियंत्रण हेतु, नेताजी ने जनसंख्या नियंत्रण की नीति अपनाने पर ज़ोर दिया। राष्ट्र के पुनर्निर्माण और देश की निर्धनता दूर करने के लिए नेताजी ने अपने भाषण में ये सुझाव दिये थे: भूमि-व्यवस्था में सुधार; जमींदारी प्रथा का खात्मा; किसानों को ऋण-माफी और उन्हें कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना; और राज्य द्वारा निर्देशित औद्योगिक विकास। राष्ट्र-निर्माण की इस प्रक्रिया में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महती भूमिका से भी बोस वाकिफ थे, और इसलिए उन्होंने ‘विज्ञान और राजनीति के बीच परस्पर व्यापक सहयोग’ की जरूरत बताई थी।
अक्तूबर 1938 में, नेताजी ने “राष्ट्रीय योजना समिति” (National Planning Committee) के गठन की घोषणा की। 19 अक्तूबर 1938 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक खत में, बोस ने लिखा “मुझे आशा है कि आप योजना समिति का अध्यक्ष बनना स्वीकार करेंगे। यदि इसे सफल बनाना है, तो आपको इसका अध्यक्ष बनना चाहिए”। “राष्ट्रीय योजना समिति” के अंतर्गत 29 उप-समितियां थीं, जिनकी रिपोर्टों ने आज़ाद हिंदुस्तान के विकास और पुनर्निर्माण की योजना का खाका तैयार किया। ये उप-समितियां आठ समूहों में रखी गई थीं: कृषि एवं प्राथमिक उत्पादन; उद्योग एवं द्वितीयक उत्पादन; मानव श्रम और जनसंख्या; विनिमय, व्यापार और वित्त; यातायात और संचार; सामाजिक सेवाएँ (स्वास्थ्य और आवास); शिक्षा (सामान्य और तकनीकी); नियोजित विकास में महिलाओं की भूमिका।
आज स्वतंत्र भारत में, वे लोग और संगठन जो नेताजी को अपना आदर्श बताते हुए भी, सांप्रदायिकता की ओछी राजनीति करने से कभी बाज नहीं आते, वे शायद भूल जाते हैं या सुविधानुसार यह बात भुला देते हैं कि सांप्रदायिक सौहार्द्र और हिन्दू-मुस्लिम एकता नेताजी के लिए सर्वोपरि थी। उनके लिए यह हिन्दू-मुस्लिम एका, सिर्फ साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के लिए ही नहीं बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान में धार्मिक और भाषाई स्वतंत्रता और बराबरी के लिए भी जरूरी थी।
इसके लिए सुभाष चंद्र बोस ने, कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से, मई-दिसंबर 1938 के दौरान मुहम्मद अली जिन्ना को कई खत लिखे और हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर समझौते का प्रयास भी किया। पर जिन्ना इस बात पर अड़े रहे कि कोई भी वार्ता इसी शर्त पर होगी जब कांग्रेस स्वीकार करेगी कि मुस्लिम लीग हिंदुस्तान में मुस्लिमों का आधिकारिक और प्रतिनिधि संगठन है और कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि संगठन है। 14 मई 1938 को जिन्ना को लिखे अपने जवाबी खत में सुभाष बाबू ने लिखा कि “कांग्रेस खुद को किसी खास समुदाय का प्रतिनिधि नहीं मान सकती और न ही उसके अनुरूप काम ही कर सकती है...कांग्रेस के दरवाजे सभी समुदायों के लिए खुले रहने चाहिए और इसे अपनी आम नीति और तरीकों से सहमत होने वाले सभी भारतीयों का स्वागत करना चाहिए। यह किसी एक समुदाय के प्रतिनिधित्व और इस तरह खुद के लिए एक सांप्रदायिक संगठन बन जाने की स्थिति स्वीकार नहीं कर सकती”।
पर त्रिपुरी कांग्रेस में जिस तरह सुभाष बाबू को अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्हें अलग-थलग कर दिया गया, और कार्यकारिणी समिति के सदस्यों ने सहयोग के आश्वासन के बावजूद जिस तरह सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया, वह राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में काले धब्बे की तरह है। पर इसके बावजूद अगर आप सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी और नेहरू के खत पढ़ें, जो नेताजी वांग्मय के अंतिम खंड में संकलित हैं तो आप पाएंगे कि असहमतियाँ होने के बावजूद, कांग्रेस नेतृत्व और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर विचारों में गहरी दरार उभर आने के बावजूद, इन तीनों राष्ट्रीय नेताओं में कोई मनमुटाव नहीं था। याद रहे कि यह सब कुछ घटित होने के बावजूद ये सुभाष बाबू ही थे, जिन्होंने 6 जुलाई, 1944 को आज़ाद हिंद रेडियो पर दिये गए वक्तव्य में, महात्मा गांधी को पहली बार “राष्ट्रपिता” कहा था और उनसे हिंदुस्तान की आज़ादी की आखिरी लड़ाई के लिए और इस मुक्ति-संग्राम में विजय पाने के लिए आशीर्वाद मांगा था।
“नेताजी संपूर्ण वांग्मय”, शिशिर बोस और सुगता बोस द्वारा संपादित, 9 खंडों में, हिन्दी में, प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें सुभाष बाबू के भाषण, पत्र और उनकी दो पुस्तकों “द इंडियन स्ट्रगल” और उनकी आत्मकथा “एन इंडियन पिलग्रिम” के अनुवाद भी संकलित हैं। हिंदी में, सुभाष बाबू की जीवन-यात्रा और उनके चिंतन के बारे में पढ़ना चाहें तो शिशिर बोस द्वारा लिखी सुभाष बाबू की जीवनी पढ़िये। आने वाली पीढ़ियाँ, शिशिर बोस और कोलकाता स्थित ‘नेताजी रिसर्च ब्यूरो’ की कृतज्ञ रहेंगी, कि उनके प्रयासों से नेताजी के भाषण, लेख, किताबें हमारे सामने हैं और आने वाले समय में भी हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
जो लोग अंग्रेज़ी में पढ़ सकते हों, उन्हें बोस बंधुओं (शरत चंद्र बोस एवं सुभाष चंद्र बोस) के बारे में लियोनार्ड गॉर्डन की किताब “ब्रदर्स अगेन्स्ट द राज़ : ए बायोग्राफी ऑफ इंडियन नेशनलिस्ट्स शरत एंड सुभाष चंद्र बोस” और सुगता बोस की किताब “हिज मेजेस्टीज़’ अपोनेंट्स सुभाष चंद्र बोस एंड इंडियाज़’ स्ट्रगल अगेन्स्ट एंपायर” पढ़नी चाहिए।
कृतघ्न हिंदुस्तानियों ने नेताजी की पत्नी, एमिली शेंकल (Emilie Schenkl) और उनकी बेटी अनीता की भी कभी कोई खोज-खबर नहीं ली। बहुत-से लोग तो जानते भी नहीं हैं कि दिसंबर 1937 में ही नेताजी एमिली शेंकल से शादी कर ली थी। नेताजी वांग्मय के सातवें खंड में सुभाष बाबू के वे खत शामिल हैं, जो उन्होंने 1934-1942 के दौरान, एमिली शेंकल को लिखे थे।
अंत में, सुभाष बाबू के लिए सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ये पंक्तियाँ, जो उन्होंने डॉ लोहिया के प्रति लिखी थीं:
“बर्फ़ में गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर 
वह गरमाता रहा
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
खत्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियो
एक चिंगारी और”। 
-शुभनीत कौशिक

टिप्पणियाँ

  1. शुभनीत जी ने सुभाष चन्द्र बोस पर बहुत ही उम्दा लेख लिखा है. मौजूदा समय में सुभाष जी को लेकर जो गन्दी राजनीति की जा रही है उसकी भी लेखक ने खबर ली है.

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