23 दिसंबर 2015

संविधान की समावेशी प्रवृत्ति के विरुद्ध है हरियाणा का पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम

(जस्टिस के० चंद्रू एक अनोखी शक्सियत हैं. उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट में अपने न्यायाधीश होने के दौरान कई ऐसी परम्पराओं को तोड़ दिया जो इस पद को बेहद सामंती और औपनिवेशिक बनाती थीं. उनके कोर्ट में आने पर कोई आवाज़ लगाकर सूचना नहीं देता था. उन्होंने अपने लिए सुरक्षा लेने से मना कर दिया था. उन्होंने खुद को माय लार्ड पुकारे जाने पर रोक लगा दी थी. इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था. ऐसे व्यक्ति को ही इस बात की चिंता हो सकती थी कि सार्वभौमिक मताधिकार और चुनाव लड़ने के सार्वभौमिक अधिकार को चुनौती देना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए खतरा है. यह उस युग में वापस जाने जैसा है जहां शिक्षित और संपन्न वर्ग ही लोकतांत्रिक चुनावों पर काबिज थे. शुभनीत कौशिक ने यह अनुवाद करके हिंदी भाषी लोगों तक जस्टिस के० चंद्रू का परिप्रेक्ष्य पहुँचाने का काम किया है...)
Chinese Education
के. चंद्रू 
साभार: द हिन्दू, 16 दिसंबर, 2015।
(के. चंद्रू मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं।)
अनुवाद- शुभनीत कौशिक

लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्यपाल का पद एक ऐसा पद है, जिसके लिए, सबसे कम अर्हताएँ निर्धारित की गई हैं। राज्यपाल बनने के लिए, किसी भारतीय को 35 वर्ष से अधिक उम्र का होना चाहिए। किसी को, भारत के राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य ठहराने के लिए एक प्रावधान यह है कि उसे पागल या दिवालिया नहीं होना चाहिए। उच्चतर न्यायपालिका को छोड़ दें, तो किसी भी संवैधानिक पद के लिए, किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता की शर्त नहीं रखी गई है।
फिर भी, उच्चतम न्यायालय ने राजबाला बनाम हरियाणा सरकार के मुकदमे में (दिसंबर 2015) दिये गए अपने निर्णय में, हरियाणा के पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध ठहराया है, जिसके अंतर्गत पंचायत का मुखिया होने या वार्ड सदस्य होने के लिए 10वीं पास होना अनिवार्य कर दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 175 के अनुसार पंचायत चुनाव लड़ने के लिए कई सारी अर्हताएँ और किसी प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराने के लिए भी, कई प्रावधान निश्चित किए गए हैं। मसलन, एक व्यक्ति को चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य पाया जाएगा, अगर उसके ऊपर ऐसा आपराधिक मुकदमा चल रहा हो, जिसमें उसे 10 साल की सजा दी जा सकती हो, और उसके ऊपर चार्ज दायर किया जा चुका हो। अगर उस व्यक्ति पर सहकारी समितियों का बकाया हो; या उसने बिजली बिल न चुकाया हो; या अगर उसके पास एक शौचालय न हो, तब भी वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होगा। भाजपाशासित हरियाणा सरकार द्वारा लिए गए ये निर्णय हमें पीछे उस दौर में ले जाएँगे, जब 20वीं सदी के तीसरे दशक में जिला बोर्डों और अन्य स्थानीय निकायों में, केवल जमींदार वर्ग के लोग ही चुने जाते थे।

अपवर्जन का विचित्र तर्क
उच्चतम न्यायालय ने इन बाध्यकारी अर्हताओं को वैध ठहराते हुए, तर्क की एक विचित्र प्रणाली अपनाई है। उच्चतम न्यायालय के अनुसार, “इन अर्हताओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वे लोग जो पंचायतों का चुनाव लड़ना चाहते हों, उन्हें कम-से-कम बेसिक शिक्षा जरूर मिली हो, जिससे वे पंचायतों के प्रतिनिधि के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का निर्वहन, बेहतर ढंग से कर सकें। इस उद्देश्य को अतार्किक या अवैध नहीं ठहराया जा सकता, और न ही यह अधिनियम के उद्देश्यों और संविधान के भाग 11 के प्रावधानों से असंबंधित है”।

शायद उच्चतम न्यायालय के लिए यह बात मायने नहीं रखती कि इस अधिनियम के प्रावधानों के लागू होने से, हरियाणा के कुल 96 लाख मतदाताओं में से, 42 लाख पंचायती चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिये जाएँगे। अनुसूचित जातियों के संदर्भ में देखें तो, 68 फीसदी महिलाएं और 41 फीसदी पुरुष भी चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य हो जाएँगे।
उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को यह कहते हुए वैध ठहराया कि “अगर संविधान के अनुसार कुछ लोगों को संवैधानिक पदों पर बैठने से रोकना उचित और न्यायसंगत हो, तो हमारी समझ में, ऐसे लोगों की संख्या का पक्ष, इस बात पर विचार करने में मायने नहीं रखता कि क्या ऐसी बाध्यकारी अर्हता जो कुछ लोगों को अयोग्य ठहराए, संविधानसम्मत है। जबतक कि ये प्रावधान ऐसी प्रकृति के न हों, कि वे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें, कि विभिन्न निकायों के लिए चुनाव कराना ही असंभव हो जाये, और इस तरह ये प्रावधान संविधान की योजना के लिए ही खतरा बन जाएँ”।

अतीत के कुछ उदाहरण
उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य का संज्ञान नहीं लिया कि आख़िर क्यों संविधान निर्माताओं ने विधानसभा और संसद के सदस्यों के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता रखना जरूरी नहीं समझा। स्वयं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, और राष्ट्रपति के पद हेतु भी कोई शैक्षणिक योगिता निर्धारित नहीं की गई है। संविधान के अनुच्छेद 171 में, राज्य में विधान परिषदों के संघटन का विस्तृत ब्योरा दिया गया है। इस अनुच्छेद में राज्य के स्नातकों की एक अलग निर्वाचक इकाई बनाई गई है, जो विधान परिषदों के लिए कुछ सदस्यों का चुनाव करती है। इस निर्वाचक इकाई का हिस्सा बनने के लिए स्नातक होना जरूरी है, पर यह जरूरी नहीं है कि स्नातकों द्वारा परिषद के लिए चुना गया व्यक्ति भी स्नातक हो।

इसी संदर्भ में, एस. नारायणस्वामी बनाम जी. पणिरसेल्वम (1972) के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था: “ऐसे प्रतिनिधित्व के धारणा में, यह बात अनिवार्य परिणति के रूप में निहित नहीं है कि प्रतिनिधि में भी वही सारी योग्यताएँ/अर्हताएँ हों, जो उन लोगों के पास हैं, जिनका वह प्रतिनिधित्व कर रहा है... यह बात किसी निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं पर ही छोड़ दी जानी चाहिए कि वे खुद यह निर्णय लें, कि उनके निर्वाचन-क्षेत्र से जो लोग चुनाव लड़ रहे हैं, क्या उनके पास कुछ निश्चित मानदंडों पर खरा उतारने वाला, उचित ज्ञान, अनुभव और बुद्धि है। शायद यही कारण रहा होगा कि संविधान-निर्माताओं ने, स्नातकों के निर्वाचक इकाई द्वारा चुने जाने वाले परिषद सदस्य के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं की”।
पिछले 70 वर्षों में, तमिलनाडु में ऐसे कम-से-कम सात मुख्यमंत्री रहे हैं, जो 10वीं पास भी नहीं थे। केंद्र और अन्य राज्यों में भी ऐसे पदाधिकारी रहे हैं, जिन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं की थी। वर्ष 2002 में एक संविधान संशोधन के जरिये शिक्षा को 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
इस प्रावधान के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए, बाद के कुछ वर्षों में कानून बनाए गए। इस कानून के अनुसार भी बच्चों को कक्षा 8 तक ही पढ़ाना अनिवार्य है। हरियाणा का यह पंचायती अधिनियम अपनी प्रकृति में न सिर्फ गरीबों और दलितों का विरोधी है, बल्कि इसके क्रियान्वयन से अल्पतन्त्र पनपने का भी खतरा होगा। 
बिजली बिल और सहकारी समितियों द्वारा दिये गए ऋण के बकाए के आधार पर, किसी को अयोग्य ठहराने का भी तर्क समझ में नहीं आता। बिजली बिल न अदा करने पर बिजली की आपूर्ति बंद कर दी जाती है, और यह पूरा विषय तो सेवा-प्रदाता, उपभोक्ता और सेवा की अक्षमता से जुड़ा है, भला इसके आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से कैसे रोका जा सकता है।

इसी तरह जब लोगों के पास रहने के लिए कोई आश्रय तक न हो, ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए शौचालय होने की अनिवार्यता पर ज़ोर देना, साफ तौर पर, पंचायतों के प्रबंधन से गरीबों को अलग-थलग रखने की नीति को दर्शाता है। संविधान के अनुच्छेद 243 (W) के अनुसार, नगरपालिकाओं का यह दायित्व है कि वे जन-सुविधाओं (public convenience) का ख़्याल रखें। पर पंचायतों के संदर्भ में, कहीं भी जन-सुविधाओं की बात नहीं की गई है, अलबत्ता संविधान का अनुच्छेद 243 (G) में यह जरूर कहा गया है कि पंचायतें स्वास्थ्य और सफाई का ध्यान रखें। सार्वजनिक और निजी कोषों से करोड़ों रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनवाने पर और गाँवों में शौचालय का अभाव खत्म करने पर खर्च किए गए हैं। एक दशक पहले भी, उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में, हरियाणा सरकार द्वारा बनाए गए उस कानून को वैध ठहराया था, जिसमें चुनावों में खड़ा होने के लिए अधिकतम दो बच्चे होने की सीमा निर्धारित की गई थी (जावेद बनाम हरियाणा सरकार, 2003)।


भाजपशासित राज्यों की सरकारें पंचायती क़ानूनों में फेरबदल करके, पंचायतों को आभिजात्य राजनीतिक संस्था में तब्दील कर देना चाहती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि उच्चतम न्यायलय ने एक ऐसे प्रावधानों को, जो पंचायतों को गैर-प्रतिनिधित्व वाले निकायों में बदल देंगे, अपने फैसले में वैध ठहराया है। उच्चतम न्यायलय के इस फैसले में आधारभूत कमी यह है कि न्यायालय निर्वाचित होने के अधिकार को, सिर्फ वैधानिक अधिकार के रूप में देख रही है न कि संवैधानिक सशक्तिकरण के माध्यम के रूप में 

22 दिसंबर 2015

Dara Shukoh and His Library


“So what do you feel about my latest effort?” asked Prince Dara Shikoh looking at the assembled scholars keenly.

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The eldest and most beloved among Shah Jahan’s sons, he was a true scholar. Like Humayun, Dara Shikoh also had his own library. A true mystic, he spent long hours studying and discussing philosophy with saints and scholars belonging to different religions. Dara Shikoh mixed with them freely, trying to understand their ideas and concepts. He had learnt Sanskrit and studied the Hindu scriptures in the original. He had just completed translating the 52 Upanishads into Persian directly from Sanskrit and called it Sirr-e-Akbar (The Great Mystery). It came to be considered his most significant and controversial work in later years. 
“I feel it is quite remarkable, your highness” replied one of the Hindu scholars, “The way you have grasped the central idea and expressed it is nothing short of wonderful.” “But it is bound to give rise to a lot of controversies, your highness” remarked one of the maulavis, “it is so different from what we feel”. “I don’t mind that” said the prince, “Controversies lead to discussion and help us understand other points of view. I think it is a sound way of acquiring knowledge.”
Dara Shikoh not only collected books but also wrote several books himself. What is even more remarkable, he knew how to value books in an age when they were rare. He also got a large number of Sanskrit classics translated into Persian by scholars. They included the Yoga Vasishta and the Bhagavad Gita. The most important book written by Dara Shikoh, however, was Majmua-ul-Baharain. It is a comparative study of Islam and Hinduism and is a plea for the “mingling of two oceans”. In this masterly work he explained his theory and conviction that the two faiths were not contradictory because both arrived at the same truth. The book is a living example of Dara Shikoh’s breadth of mind and his liberal views on religion.
Dara Shikoh carried on the tradition of religious tolerance set by Akbar and continued by Jahangir and Shah Jahan. We get to know from the records of Shah Jahan’s reign that many Hindus enjoyed positions of trust and great responsibility. Many of them were Rajputs. One such person was Rai Rayan Raja Raghunath Das who started as an oordinary worker but eventually became the Emperor’s Diwan-i-tan or Prime Minister in 1641. Rai Rayan’s outstanding administrative ability and other qualities are described in great details in Umrae Hanood, an important document of Mughal India. Bhawani Dass was another learned scholar in Shah Jahan’s court.
His first library was in Agra where the royal family lived before Shah Jahan decided to shift his capital to Delhi. Prince Dara Shikoh would often walk across from the fort to his library by the river Jamuna. Sometimes he would spend the entire night studying and wake up to find the rays of the morning sun reflected in the river. His library, after he moved to Delhi with his father, was also by the river Jamuna, as it flowed close to the Kashmiri Gate in those days. Many carriages must have been required to carry Dara Shikoh’s vast collection of books from Agra to Delhi. Being the heir apparent, he had to be near his father who depended a great deal on him. Also, being aware of the intrigues and counter-intrigues within the family Dara Shikoh must have thought it wise to remain as close to Shah Jahan as possible.
Dara Shikoh’s library near the Kashmiri Gate contained invaluable tomes, both from India and abroad, especially Turkey, Greece, Egypt and Iran. Dara Shikoh’s love of learning was probably inherited from Babar and his daughter Gulbadan Begum, whose Memoirs are famous to this day. Akbar too had the best collection of books in his time. Had Dara Shikoh been the next ruler after Shah Jahan the history of India might have been considerably different! However, that was not to be. The war of succession broke out soon after the completion of the Sirr-i-Akbar and Dara Shikoh, defeated by Aurangzeb, fled to Sindh where he was betrayed by his host, Malik Jiwan, a Baluch chieftain, whom he had once saved from the wrath of Shah Jahan. Dara Shikoh was brutally executed by Aurangzeb who became the next emperor. That, however, is a different story.
The death of Dara Shikoh also meant the destruction of his library. His estate, comprising the palace, library and garden were given to the subedar of Lahore, Ali Mardan Khan, and later taken over by Wazir Safdarjung, before being captured by the British..The building changed hands many more times and each time it was modified by its new owner. When the British set up their residency at Delhi, they chose Dara Shikoh’s library as the office of the East India Company and it went to Sir David Ochterlony Bart around 1803. The death of Dara Shikoh also meant the destruction of a large number of books in his libraries which were regarded as heretical by Aurangzeb. Some of them were definitely saved but no one knows where they are today. Perhaps a few found their way to England after the library became the living quarters of the British Resident.
The building, which was refurbished in the western style, housed the Delhi College of Engineering until it recently shifted to their new building in Rohini, and an office of the Archaeological Survey of India. You can see the only remnants of Mughal architecture in the basement which were hidden by debris and a staircase until recently. Once the debris and the stairs were removed in 2001 the original red sand stone arches and ornamental pillars were discovered. In fact, if you look carefully at the building you might even locate the tablet with faded letters, Kutub Khana Dara Shikoh (Dara Shikoh’s library). The place is certainly worth a visit if only to remember its glorious past.
(Originally posted on swapnatravel.wordpress.com by Swapnadutta2015)

10 दिसंबर 2015

रमाशंकर यादव 'विद्रोही': आशियाने की तलाश में एक कवि

[विद्रोहीजी जेएनयू के लिए उसके अतीत का दस्तावेज़ थे. हर वक़्त यह अहसास कराते हुए कि यह धरती जियाले पैदा करती है. ऐसे विद्रोही जो भले ही उम्र भर "बांह छाती मुंह  छपाछप" और "फिर भी मैल फिर भी मैल" करते रह जाएं पर क्रान्ति का संधान करने में किसी ब्रह्मराक्षस से कम नहीं. गंगा ढाबे पर उनको अनवरत संस्कृत गालियों का ज्वार उड़ेलते हुए मुझे हमेशा मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस याद आये. प्रचंड विद्वता का ताप और समाज के प्रति गहन संवेदना सहेजे विद्रोहीजी हमेशा हम सबके बीच मौजूद रहे. उनके साथ हुयी बातचीत में हमेशा अपने मतभेदों को जितनी विनम्रता से रखा जा सकता था, रखा गया. क्योंकि हम सबको हर वक्त यह अहसास था कि हम हम उस रमाशंकर यादव "विद्रोही" से बात कर रहे हैं जिसने अपनी उत्कट प्रतिभा का बड़े- बड़ों को लोहा मनवाया था . एक बार प्रणय कृष्ण के सामने किसी ने विद्रोहीजी का मखौल उड़ाते हुए कहा कि विद्रोही तो जेएनयू के राष्ट्रकवि हैं. पलटकर प्रणय कृष्ण बोले-- काश! पूरा राष्ट्र जेएनयू होता. राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट की तरफ से अपने चहेते बुजुर्ग कामरेड को लाल सलाम ... यह लेख 2010 में तब प्रकाशित हुआ था जब कुछ शुद्धतावादियों की दरख्वास्त पर जेएनयू प्रशासन ने उन पर कैंपस में आने पर तीन साल की पाबंदी लगा दी थी. साथ ही पेश है गांधीजी पर विद्रोहीजी का संक्षिप्त संबोधन.]

अरविंद दास
अरविंद दास
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
31 अगस्त 2010

हिंदी साहित्य के हलकों में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' भले ही अनजान हों, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के बीच इस कवि की कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही है. प्रगतिशील चेतना और वाम विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू कैंपस में 'विद्रोही' ने जीवन के कई वसंत गुज़ारे हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से वहां की फ़िज़ा में उनकी कविता नहीं गूंजती. अब वे एक आशियाने की तलाश में भटक रहे हैं. पिछले हफ़्ते जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पांबदी लगा दी है. जेएनयू का छात्र समूह प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध कर रहा है. उनका कहना है कि पिछले तीन दशकों से विद्रोही ने जेएनयू को घर समझा है और कैंपस से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं है. उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर ज़िले के रहने वाले विद्रोही का अपना घर-परिवार है, लेकिन अपनी कविता की धुन में छात्र जीवन के बाद भी उन्होंने जेएनयू कैंपस को ही अपना बसेरा माना. 

रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

प्रगतिशील चेतना
वे कहते हैं, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं." वाम आंदोलन से जुड़ने की ख़्वाहिश और जेएनयू के अंदर के लोकतांत्रिक माहौल ने वर्षों से 'विद्रोही' को कैंपस में रोक रखा है. शरीर से कमज़ोर लेकिन मन से सचेत और मज़बूत इस कवि ने अपनी कविताओं को कभी कागज़ पर नहीं उतारा. मौखिक रूप से वे अपनी कविताओं को छात्रों के बीच सुनाते रहे हैं. जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं. जेएनयू के एक शोध छात्र बृजेश का कहना है, "मैं पिछले पाँच वर्षों से विद्रोही जी को जानता हूँ. उनकी कविता का भाव बोध और तेवर हिंदी के कई समकालीन कवियों से बेहतर है." उनकी कविताओं में वाम रुझान और प्रगतिशील चेतना साफ़ झलकती है. वाचिक पंरपरा के कवि होने की वजह से उनकी कविता में मुक्त छंद और लय का अनोखा मेल दिखता है. विद्रोही कहते हैं, "मेरे पास क़रीब तीन-चार सौ कविताएँ हैं. कुछ पत्रिकाओं में फुटकर मेरी कविता छपी है लेकिन मैंने ज्यादातर दिल्ली और बाहर के विश्वविद्यालयों में ही घूम-घूम कर अपनी कविताएँ सुनाई हैं."
'विद्रोही' बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं. हालांकि कैंपस के पुराने छात्र उनकी मानसिक अस्वस्थता के बारे में भी जिक्र करते हैं, पर उनका कहना है कि कभी भी उन्होंने किसी व्यक्ति को क्षति नहीं पहुँचाई है, न हीं अपशब्द कहे हैं. मानसिक अस्वस्थता के सवाल पर विद्रोही कहते हैं, "हर यूनिवर्सिटी में दो-चार पागल और सनकी लोग रहते हैं पर उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती. मुझे इस तरह निकाला गया जैसे मैं जेएनयू का एक छात्र हूँ." ख़ुद को नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, और कबीर की परंपरा से जोड़ने वाला यह कवि जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए अब तक अलक्षित रहा है, पर फिलहाल इनकी ख़्वाहिश कैंपस में लौटने की है जहाँ से कविता और ख़ुद के लिए वे जीवन रस पाते रहे हैं.



रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कुछ कविताएँ
नई खेती
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

औरतें
…इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.

मोहनजोदाड़ो
...और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियाँ
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियाँ बिखेरना

जन-गण-मन
मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा.

6 दिसंबर 2015

डॉ० ब्रह्मदेव शर्माजी को सादर नमन

(वरिष्ठ गांधीवादी डॉ० ब्रह्मदेव शर्माजी को राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट की तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि..)


ग्वालियर। आदिवासियों के खातिर अपने पद से इस्तीफा देने वाले केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर ब्रह्मदेव शर्मा नहीं रहे। ग्वालियर में रहते हुए उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। वे पिछले एक साल से ही काफी बीमार चल रहे थे और बीच में उनकी याददाश्त भी कमजोर होने लग गई थी। जिस वजह से वो ज्यादातर अपने घर की चार दिवारी में ही बंद रहने लगे थे। सोमवार को ग्वालियर में ही दोपहर करीब 12 बजे उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

डॉ. ब्रह्मदेव वो शख्स थे जिन्हें सरकार ने नक्सलियों के साथ बात करने के लिए मध्यस्थता करने के लिए भेजा था। दरअसल 2012 में नक्सलियों ने तत्कालीन कलक्टर अलेक्स पॉल मेनन को अगवा कर लिया था। इस घटना ने सरकार को हिला कर रख दिया था। ऐसे में जब बातचीत की संभावना बनी तो सरकार ने डॉक्टर ब्रह्मदेव को नक्सलियों का समझाने और कलक्टर को आजाद करवाने की जिम्मेदारी सौंपी,जिसमें उन्हें सफलता भी हासिल हुई।

आदिवासियों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसे कई मौके आए जब डॉक्टर बह्मदेव सरकार के खिलाफ खड़े हो गए।1973-74 में वो केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी। इस दौरान सरकार बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई,जिसका उन्होंने खुलकर विरोध किया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है। आखिरकार 1980 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया।

आदिवासियों के खातिर उठाए कड़े कदम
डॉक्टर ब्रह्मदेव को बैलाडीला के एक चर्चित कांड से भी जाना जाता है, जिसमें उन्हें करीब 300 आदिवासी लड़कियों की गैर जनजातीय पुरुषों से करवा दी थी। दरअसल, 1968 के दौरान जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक था तो ब्रह्मदेव बस्तर के कलक्टर थे। निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ। इसके बाद 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई।

(www.patrika.com से साभार)


'Stop signing MoUs with big companies, 
the violence will stop'
   By  Onkareshwar Pandey 
   07 Dec 2015 Posted 24-May-2012 
Vol 3 Issue 21

A couple of months ago, a fleet of Municipal Corporation of Delhi (MCD) vans suddenly landed up near a stinking by-lane of Delhi's East Nizammuddin area and earnestly began clearing off months of accumulated garbage and cleaning up the sewer lines.
As the neighbours looked on in amazement, the assembled crew walked up to a nondescript home and rang the doorbell.
During his tenure as the DM of Bastar, Sharma refused to sign any mining lease (Photo: The Sunday Indian)
No sooner had the dhoti-kurta clad old gentleman opened the door, the officers began apologising. “We had no idea that you lived here sir. We are cleaning up the area completely,” they told him with folded hands.
Indeed, if you walk into the same neighbourhood today – you'll notice with surprise that the MCD brigade – for once – kept its promise.
Till the arrival of the MCD vans on their doorsteps that fateful day, hardly anybody in the locality gave the 81-year-old former IAS officer BD Sharma a second glance.
But overnight, the man had not only become a messiah for residents in this locality – for bringing about a 'clean' revolution - but had also shot to fame in the national consciousness for being the key man behind the release of Sukma collector Alex Paul Menon after 12 days in Maoist captivity.
Interestingly, it was the Maoists who had handpicked Sharma to be their interlocutor with the government for mediating the release of the abducted Sukma collector.
But why Sharma? More pertinently, why do Maoists have a soft spot for this feeble elderly gentleman?
The answer to that question is Sharma's decades of work among the tribals of the region, first as the Collector of the undivided Bastar district of Madhya Pradesh and then as a social activist.
The 1968-69 Bailadila incident is particularly famous wherein Sharma forced non-tribals working in nearby mines to marry 300 tribal women – whom they had been sexually exploiting for years.
Ever since, he is looked upon with immense admiration among the tribals of the region, and has also campaigned extensively for their cause. In conversation with Onkareshwar Pandey, Sharma spoke at length about the potential solutions for unrest in Maoist affected areas.

Excerpts from the interview:

Red terror is on a rise. How can the menace be tackled?
The tribals are raising some important questions, which have to be discussed. Before independence, all tribal areas were treated as secluded parts where no rules were followed.
According to Tribal Act 1935, only the Governor was vested with the power of deciding the laws to be implemented in the respective tribal areas. But of late, Governors have forgotten to use their discretion. As a result, almost all laws are enacted in tribal areas. Since tribals have for centuries followed their own rules, obviously there will be a clash with the State.

But what are Naxals demanding now?
The tribals want to have ownership of all natural resources in their areas. The resources, they feel were theirs to start with. Their long standing demand is that natural resources should be owned by the people and not the government.

But are guns the solution?
Well, this may continue till such time as the ownership issue is resolved. This was also the reason for Tana Bhagat's revolt.

You adamantly refused to sign any mining lease during your tenure as the DM of Bastar. Why? 
I never sanctioned any mining lease because I knew that it would be against tribal interests. You cannot do developmental work in a tribal region solely on the basis of money. I wrote this on every file that I rejected.

Why did you resign from the IAS?
It was due to my differences with the government over the Bastar Pine Project. At that time, I was the Secretary, Tribal Affairs in MP. The government wanted to set up 15 industries by taking a loan of Rs. 200 crore from the World Bank. I had protested and so the project was cancelled. This led to my resignation.

You were the last SC/ST commissioner who worked at a notional salary of Re.1 per month. How was the experience?
Money was not my reason for taking on the responsibility of welfare of the SC/ST communities. Just 18 days before her assassination, Indira Gandhi had asked me to take the responsibility. I handled the charge from 1986 till 1991. Only after a thorough study of the issue did I finally submit the 28th report on SC/ST to the President.

You now lead the Bharat Jan Andolan. What is the movement about?
This movement was started with an aim to fight for free water, forest and land to tribals. It has huge support from tribals. This is why the government was forced to bring in the PESA –Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) - Act. Sadly, this act has not been enacted in its true spirit. Even the Forest Act 2006 has not been implemented honestly.

How can we prevent Maoists from indulging in violence?
If we stop signing MoUs that allow major companies to take land on lease for setting up industries, violence will automatically stop. It is sad but there is hardly any talks held with Maoists. Only dialogue can get a solution. Fortunately, some initiative in this direction has recently come from social activists.



श्रद्धांजलियाँ 

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा (Dr. B D Sharma) को अश्रुपूरित नमन...
सुमन केसरी 

गणित जगत की सैर, बेजुबान, वेब ऑफ़ पावर्टी, फोर्स्ड मैरिज़ इन बेलाडिला, दलित्स बिट्रेड आदि अनेक विचारणीय पुस्तकें लिखने वाले और हस्तलिखित पत्रिका भूमिकाल का संपादन करने वाले बी डी नहीं रहे...
उनसे पहली मुलाकात 1979 -80 के आसपास हुई थी। गोकि अजय से मेरी मुलाकात 1977 में ही हो गई थी। जाने कितनी बातें सुनीं उनके बारे में पुरुषोत्तम के मुख से...हर बार एक बात जरूर रहती और वह थी गहरे आदर और सम्मान का भाव। जब उनसे मिली तो सम्मान का भाव एकदम आ गया...वे थे (लिखना कठिन है!) ही ऐसे...
गहरे में गाँधीवादी...
कहते अगर संविधान को सही में लागू कर दिया जाए तो भारत की समस्याएं हल हो जाएंगी, परेशानी यह है कि संविधान पुस्तक बन कर रह गई है...
वे ज्यादातर तो मुझे बहू ही पुकारते, कभी कभी सुमन भी...
कुछ बातें जो कभी नहीं भूल पाऊंगी उनमे से एक यह कि," मैं तो सोचता था कि तुम आदिवासियों के बीच काम करोगी, तुमने तो नौकरी शुरु कर दी..." वे स्पष्टतः दुखी थे..
दूसरी बात अभी कुछ साल पहले की है - एक गाँधीवादी के मुँह से सुनना- गजब का अनुभव था वह, एक बेबसी का अहसास भी...
"सुमन (इस बार उन्होंने बहू नहीं कहा था मुझे...एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात कर रहा था,,,रिश्तों के परे...मनुष्य- मनुष्य से..) अगर तुम वहाँ बस्तर में चली जाओ तो सोचोगी इन्होंने इतनी देर से बंदूकें क्यों उठाईं?..." मैं हतप्रभ थी..उन्हें जानती थी इसीलिए और ज्यादा...पर वे अपनी बात पर अडिग थे... 
वे आखिरी समय तक अन्याय और हिंसा के खिलाफ़ लड़ते रहे... भारत में आरक्षण की जरूरत पर उन्होंने बहस करके हमारी दृष्टि साफ़ की थी...
मुझे याद है वह दिन भी जब बस्तर में शराब- भू माफ़िया ने उनके मुख पर कालिख पोता था...यह वही बस्तर था, जहाँ वे भगवान की तरह पुजते थे...उसके बाद जे एन यू में पुरुषोत्तम आदि ने उनकी सभा आयोजित की जिसमें तिल रखने को जगह न थी...
X X X
अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है, जब आपसे मिलने मैं और पुरुषोत्तम खेरापति कॉलोनी, गवालियर वाले घर पर पहुँचे थे...
ब्रह्मदेव जी अपने अंतिम दिनों में स्मृतिलोप (dementia) से जूझ रहे थे...उन्हें कुछ भी याद न रहता था...पर एक बात वे अपने अंतिम पल तक न भूले- काम, लोगों के हित के लिए, उनके हर तरह के दारिद्रय को दूर करने के लिए काम करना नहीं भूले...
जब हम उनसे मिलने पहँचे तो उन्हें कुछ याद था कि हम भी उन्हीं की राह के पथिक हैं...देखते ही खुश हो गए..."पुरुषोत्तम तुम एक मीटिंग बुला लो..बहुत काम है, समग्र दृष्टि की जरूरत है...ऐसे नहीं हालात सुधरेंगे...वी हैव टू हैव अ कॉम्प्रिहेंसिव एजेंडा..." ..
हमारी आँखों में आंसू थे...
अजय ने बताया कि "उन्हें शांत रखने का, खिलाने का, सुलाने का एक ही तरीका है कि बता दो मीटिंग वाले आए हैं, आपको जल्दी जाना है..."
एक कर्मठ व्यक्ति..सतत कर्मठ...
याद है न अभी कुछ महीने पहले ही तो वे मोटर साइकिल में पीछे बैठे अपहृत आइ ए एस को छुड़ाने नक्सलियों के पास गए थे...भेजे गए थे...अद्भुत डायलॉग था उनका आदिवासियों से भी और नक्सलियों से भी...
वे 1956 बैच के मध्यप्रदेश काडर के आई ए एस थे, एस सी एस टी कमीशन के अध्यक्ष और उस जमाने में नेहू के वाइस चांसलर जब वहाँ हिंसा का दौर था...सुना है कि उनसे पहले वाले वाइस चांसलर की कुर्सी के नीचे बम फटा था...तब इंदिरा जी ने उन्हें वहाँ भेजा था...
अभी अभी अजय शर्मा का फोन आया, इतनी रात गए फ़ोन...मन डर गया और आशंका सच निकली
अंकल नहीं रहे...
आपको प्रणाम...आप हमारे मन में तो सदा जीवित ही रहेंगे अंकल..


कहाँ से लायेंगे एेसे व्यक्ति को हम?
 प्रो० भूपेंद्र यादव 
1969 - बस्तर ज़िले का कलेक्टर जिसने वहाँ की 300 जन-जातिय औरतों से बाहरी आदमियों की शादी करवाई। वरना यह औरतें केवल बाहरी लोगों के मनोरंजन का साधन मात्र रहतीं।
1972 - मध्य प्रदेश के DPI की हैसियत से होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम को स्वीकृति दी।
1981 - IAS से त्याग पत्र दिया क्यों कि मध्य प्रदेश सरकार जंगल पदार्थों का दोहन कर के जन जातियों को दूर भगाना चाहती थी।
इन्दिरा गांधी ने अपनी हतया के 18 दिन पहले इन को भारत का का SC/ ST Commissioner बन ने को कहा। इस ओहदे पर इन की रिपोर्ट 28 वीं थी। पर एक मील का पत्थर समझी गई।
भारत जन आन्दोलन के जनक और सामाजिक कार्यों मे आख़िर तक लगे रहने वाले, ब्रह्म देव शर्मा को हमें भी मिलने का सौभाग्य मिला था।
ऐसा अफ़सर, जो रिटायर होने के बाद, एक ग़रीबों की बसती से अपना दफ़्तर चलाता हो।
एेसा बुज़ुर्ग, जो बिमार होने के बावजूद, घर आये लोगों से उत्साह पूर्वक बात चीत करने बैठ जाये।
ऐसा ब्राह्मण जिसने SC/ ST Commission का अध्यक्ष बन कर अत्यन्त सराहनिये रिपोर्ट लिखी हो।
कहाँ से लायेंगे एेसे व्यक्ति को हम?

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...