रमाशंकर यादव 'विद्रोही': आशियाने की तलाश में एक कवि
[विद्रोहीजी जेएनयू के लिए उसके अतीत का दस्तावेज़ थे. हर वक़्त यह अहसास कराते हुए कि यह धरती जियाले पैदा करती है. ऐसे विद्रोही जो भले ही उम्र भर "बांह छाती मुंह छपाछप" और "फिर भी मैल फिर भी मैल" करते रह जाएं पर क्रान्ति का संधान करने में किसी ब्रह्मराक्षस से कम नहीं. गंगा ढाबे पर उनको अनवरत संस्कृत गालियों का ज्वार उड़ेलते हुए मुझे हमेशा मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस याद आये. प्रचंड विद्वता का ताप और समाज के प्रति गहन संवेदना सहेजे विद्रोहीजी हमेशा हम सबके बीच मौजूद रहे. उनके साथ हुयी बातचीत में हमेशा अपने मतभेदों को जितनी विनम्रता से रखा जा सकता था, रखा गया. क्योंकि हम सबको हर वक्त यह अहसास था कि हम हम उस रमाशंकर यादव "विद्रोही" से बात कर रहे हैं जिसने अपनी उत्कट प्रतिभा का बड़े- बड़ों को लोहा मनवाया था . एक बार प्रणय कृष्ण के सामने किसी ने विद्रोहीजी का मखौल उड़ाते हुए कहा कि विद्रोही तो जेएनयू के राष्ट्रकवि हैं. पलटकर प्रणय कृष्ण बोले-- काश! पूरा राष्ट्र जेएनयू होता. राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट की तरफ से अपने चहेते बुजुर्ग कामरेड को लाल सलाम ... यह लेख 2010 में तब प्रकाशित हुआ था जब कुछ शुद्धतावादियों की दरख्वास्त पर जेएनयू प्रशासन ने उन पर कैंपस में आने पर तीन साल की पाबंदी लगा दी थी. साथ ही पेश है गांधीजी पर विद्रोहीजी का संक्षिप्त संबोधन.]
अरविंद दास
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
31 अगस्त 2010
हिंदी साहित्य के हलकों में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' भले ही अनजान हों, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के बीच इस कवि की कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही है. प्रगतिशील चेतना और वाम विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू कैंपस में 'विद्रोही' ने जीवन के कई वसंत गुज़ारे हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से वहां की फ़िज़ा में उनकी कविता नहीं गूंजती. अब वे एक आशियाने की तलाश में भटक रहे हैं. पिछले हफ़्ते जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पांबदी लगा दी है. जेएनयू का छात्र समूह प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध कर रहा है. उनका कहना है कि पिछले तीन दशकों से विद्रोही ने जेएनयू को घर समझा है और कैंपस से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं है. उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर ज़िले के रहने वाले विद्रोही का अपना घर-परिवार है, लेकिन अपनी कविता की धुन में छात्र जीवन के बाद भी उन्होंने जेएनयू कैंपस को ही अपना बसेरा माना.
प्रगतिशील चेतना
वे कहते हैं, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं." वाम आंदोलन से जुड़ने की ख़्वाहिश और जेएनयू के अंदर के लोकतांत्रिक माहौल ने वर्षों से 'विद्रोही' को कैंपस में रोक रखा है. शरीर से कमज़ोर लेकिन मन से सचेत और मज़बूत इस कवि ने अपनी कविताओं को कभी कागज़ पर नहीं उतारा. मौखिक रूप से वे अपनी कविताओं को छात्रों के बीच सुनाते रहे हैं. जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं. जेएनयू के एक शोध छात्र बृजेश का कहना है, "मैं पिछले पाँच वर्षों से विद्रोही जी को जानता हूँ. उनकी कविता का भाव बोध और तेवर हिंदी के कई समकालीन कवियों से बेहतर है." उनकी कविताओं में वाम रुझान और प्रगतिशील चेतना साफ़ झलकती है. वाचिक पंरपरा के कवि होने की वजह से उनकी कविता में मुक्त छंद और लय का अनोखा मेल दिखता है. विद्रोही कहते हैं, "मेरे पास क़रीब तीन-चार सौ कविताएँ हैं. कुछ पत्रिकाओं में फुटकर मेरी कविता छपी है लेकिन मैंने ज्यादातर दिल्ली और बाहर के विश्वविद्यालयों में ही घूम-घूम कर अपनी कविताएँ सुनाई हैं."
'विद्रोही' बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं. हालांकि कैंपस के पुराने छात्र उनकी मानसिक अस्वस्थता के बारे में भी जिक्र करते हैं, पर उनका कहना है कि कभी भी उन्होंने किसी व्यक्ति को क्षति नहीं पहुँचाई है, न हीं अपशब्द कहे हैं. मानसिक अस्वस्थता के सवाल पर विद्रोही कहते हैं, "हर यूनिवर्सिटी में दो-चार पागल और सनकी लोग रहते हैं पर उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती. मुझे इस तरह निकाला गया जैसे मैं जेएनयू का एक छात्र हूँ." ख़ुद को नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, और कबीर की परंपरा से जोड़ने वाला यह कवि जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए अब तक अलक्षित रहा है, पर फिलहाल इनकी ख़्वाहिश कैंपस में लौटने की है जहाँ से कविता और ख़ुद के लिए वे जीवन रस पाते रहे हैं.
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कुछ कविताएँ
नई खेतीमैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
औरतें
…इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.
मोहनजोदाड़ो
...और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियाँ
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियाँ बिखेरना
जन-गण-मन
मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा.
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