संविधान की समावेशी प्रवृत्ति के विरुद्ध है हरियाणा का पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम

(जस्टिस के० चंद्रू एक अनोखी शक्सियत हैं. उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट में अपने न्यायाधीश होने के दौरान कई ऐसी परम्पराओं को तोड़ दिया जो इस पद को बेहद सामंती और औपनिवेशिक बनाती थीं. उनके कोर्ट में आने पर कोई आवाज़ लगाकर सूचना नहीं देता था. उन्होंने अपने लिए सुरक्षा लेने से मना कर दिया था. उन्होंने खुद को माय लार्ड पुकारे जाने पर रोक लगा दी थी. इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था. ऐसे व्यक्ति को ही इस बात की चिंता हो सकती थी कि सार्वभौमिक मताधिकार और चुनाव लड़ने के सार्वभौमिक अधिकार को चुनौती देना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए खतरा है. यह उस युग में वापस जाने जैसा है जहां शिक्षित और संपन्न वर्ग ही लोकतांत्रिक चुनावों पर काबिज थे. शुभनीत कौशिक ने यह अनुवाद करके हिंदी भाषी लोगों तक जस्टिस के० चंद्रू का परिप्रेक्ष्य पहुँचाने का काम किया है...)
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के. चंद्रू 
साभार: द हिन्दू, 16 दिसंबर, 2015।
(के. चंद्रू मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं।)
अनुवाद- शुभनीत कौशिक

लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्यपाल का पद एक ऐसा पद है, जिसके लिए, सबसे कम अर्हताएँ निर्धारित की गई हैं। राज्यपाल बनने के लिए, किसी भारतीय को 35 वर्ष से अधिक उम्र का होना चाहिए। किसी को, भारत के राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य ठहराने के लिए एक प्रावधान यह है कि उसे पागल या दिवालिया नहीं होना चाहिए। उच्चतर न्यायपालिका को छोड़ दें, तो किसी भी संवैधानिक पद के लिए, किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता की शर्त नहीं रखी गई है।
फिर भी, उच्चतम न्यायालय ने राजबाला बनाम हरियाणा सरकार के मुकदमे में (दिसंबर 2015) दिये गए अपने निर्णय में, हरियाणा के पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध ठहराया है, जिसके अंतर्गत पंचायत का मुखिया होने या वार्ड सदस्य होने के लिए 10वीं पास होना अनिवार्य कर दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 175 के अनुसार पंचायत चुनाव लड़ने के लिए कई सारी अर्हताएँ और किसी प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराने के लिए भी, कई प्रावधान निश्चित किए गए हैं। मसलन, एक व्यक्ति को चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य पाया जाएगा, अगर उसके ऊपर ऐसा आपराधिक मुकदमा चल रहा हो, जिसमें उसे 10 साल की सजा दी जा सकती हो, और उसके ऊपर चार्ज दायर किया जा चुका हो। अगर उस व्यक्ति पर सहकारी समितियों का बकाया हो; या उसने बिजली बिल न चुकाया हो; या अगर उसके पास एक शौचालय न हो, तब भी वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होगा। भाजपाशासित हरियाणा सरकार द्वारा लिए गए ये निर्णय हमें पीछे उस दौर में ले जाएँगे, जब 20वीं सदी के तीसरे दशक में जिला बोर्डों और अन्य स्थानीय निकायों में, केवल जमींदार वर्ग के लोग ही चुने जाते थे।

अपवर्जन का विचित्र तर्क
उच्चतम न्यायालय ने इन बाध्यकारी अर्हताओं को वैध ठहराते हुए, तर्क की एक विचित्र प्रणाली अपनाई है। उच्चतम न्यायालय के अनुसार, “इन अर्हताओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वे लोग जो पंचायतों का चुनाव लड़ना चाहते हों, उन्हें कम-से-कम बेसिक शिक्षा जरूर मिली हो, जिससे वे पंचायतों के प्रतिनिधि के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का निर्वहन, बेहतर ढंग से कर सकें। इस उद्देश्य को अतार्किक या अवैध नहीं ठहराया जा सकता, और न ही यह अधिनियम के उद्देश्यों और संविधान के भाग 11 के प्रावधानों से असंबंधित है”।

शायद उच्चतम न्यायालय के लिए यह बात मायने नहीं रखती कि इस अधिनियम के प्रावधानों के लागू होने से, हरियाणा के कुल 96 लाख मतदाताओं में से, 42 लाख पंचायती चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिये जाएँगे। अनुसूचित जातियों के संदर्भ में देखें तो, 68 फीसदी महिलाएं और 41 फीसदी पुरुष भी चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य हो जाएँगे।
उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को यह कहते हुए वैध ठहराया कि “अगर संविधान के अनुसार कुछ लोगों को संवैधानिक पदों पर बैठने से रोकना उचित और न्यायसंगत हो, तो हमारी समझ में, ऐसे लोगों की संख्या का पक्ष, इस बात पर विचार करने में मायने नहीं रखता कि क्या ऐसी बाध्यकारी अर्हता जो कुछ लोगों को अयोग्य ठहराए, संविधानसम्मत है। जबतक कि ये प्रावधान ऐसी प्रकृति के न हों, कि वे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें, कि विभिन्न निकायों के लिए चुनाव कराना ही असंभव हो जाये, और इस तरह ये प्रावधान संविधान की योजना के लिए ही खतरा बन जाएँ”।

अतीत के कुछ उदाहरण
उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य का संज्ञान नहीं लिया कि आख़िर क्यों संविधान निर्माताओं ने विधानसभा और संसद के सदस्यों के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता रखना जरूरी नहीं समझा। स्वयं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, और राष्ट्रपति के पद हेतु भी कोई शैक्षणिक योगिता निर्धारित नहीं की गई है। संविधान के अनुच्छेद 171 में, राज्य में विधान परिषदों के संघटन का विस्तृत ब्योरा दिया गया है। इस अनुच्छेद में राज्य के स्नातकों की एक अलग निर्वाचक इकाई बनाई गई है, जो विधान परिषदों के लिए कुछ सदस्यों का चुनाव करती है। इस निर्वाचक इकाई का हिस्सा बनने के लिए स्नातक होना जरूरी है, पर यह जरूरी नहीं है कि स्नातकों द्वारा परिषद के लिए चुना गया व्यक्ति भी स्नातक हो।

इसी संदर्भ में, एस. नारायणस्वामी बनाम जी. पणिरसेल्वम (1972) के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था: “ऐसे प्रतिनिधित्व के धारणा में, यह बात अनिवार्य परिणति के रूप में निहित नहीं है कि प्रतिनिधि में भी वही सारी योग्यताएँ/अर्हताएँ हों, जो उन लोगों के पास हैं, जिनका वह प्रतिनिधित्व कर रहा है... यह बात किसी निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं पर ही छोड़ दी जानी चाहिए कि वे खुद यह निर्णय लें, कि उनके निर्वाचन-क्षेत्र से जो लोग चुनाव लड़ रहे हैं, क्या उनके पास कुछ निश्चित मानदंडों पर खरा उतारने वाला, उचित ज्ञान, अनुभव और बुद्धि है। शायद यही कारण रहा होगा कि संविधान-निर्माताओं ने, स्नातकों के निर्वाचक इकाई द्वारा चुने जाने वाले परिषद सदस्य के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं की”।
पिछले 70 वर्षों में, तमिलनाडु में ऐसे कम-से-कम सात मुख्यमंत्री रहे हैं, जो 10वीं पास भी नहीं थे। केंद्र और अन्य राज्यों में भी ऐसे पदाधिकारी रहे हैं, जिन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं की थी। वर्ष 2002 में एक संविधान संशोधन के जरिये शिक्षा को 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
इस प्रावधान के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए, बाद के कुछ वर्षों में कानून बनाए गए। इस कानून के अनुसार भी बच्चों को कक्षा 8 तक ही पढ़ाना अनिवार्य है। हरियाणा का यह पंचायती अधिनियम अपनी प्रकृति में न सिर्फ गरीबों और दलितों का विरोधी है, बल्कि इसके क्रियान्वयन से अल्पतन्त्र पनपने का भी खतरा होगा। 
बिजली बिल और सहकारी समितियों द्वारा दिये गए ऋण के बकाए के आधार पर, किसी को अयोग्य ठहराने का भी तर्क समझ में नहीं आता। बिजली बिल न अदा करने पर बिजली की आपूर्ति बंद कर दी जाती है, और यह पूरा विषय तो सेवा-प्रदाता, उपभोक्ता और सेवा की अक्षमता से जुड़ा है, भला इसके आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से कैसे रोका जा सकता है।

इसी तरह जब लोगों के पास रहने के लिए कोई आश्रय तक न हो, ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए शौचालय होने की अनिवार्यता पर ज़ोर देना, साफ तौर पर, पंचायतों के प्रबंधन से गरीबों को अलग-थलग रखने की नीति को दर्शाता है। संविधान के अनुच्छेद 243 (W) के अनुसार, नगरपालिकाओं का यह दायित्व है कि वे जन-सुविधाओं (public convenience) का ख़्याल रखें। पर पंचायतों के संदर्भ में, कहीं भी जन-सुविधाओं की बात नहीं की गई है, अलबत्ता संविधान का अनुच्छेद 243 (G) में यह जरूर कहा गया है कि पंचायतें स्वास्थ्य और सफाई का ध्यान रखें। सार्वजनिक और निजी कोषों से करोड़ों रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनवाने पर और गाँवों में शौचालय का अभाव खत्म करने पर खर्च किए गए हैं। एक दशक पहले भी, उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में, हरियाणा सरकार द्वारा बनाए गए उस कानून को वैध ठहराया था, जिसमें चुनावों में खड़ा होने के लिए अधिकतम दो बच्चे होने की सीमा निर्धारित की गई थी (जावेद बनाम हरियाणा सरकार, 2003)।


भाजपशासित राज्यों की सरकारें पंचायती क़ानूनों में फेरबदल करके, पंचायतों को आभिजात्य राजनीतिक संस्था में तब्दील कर देना चाहती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि उच्चतम न्यायलय ने एक ऐसे प्रावधानों को, जो पंचायतों को गैर-प्रतिनिधित्व वाले निकायों में बदल देंगे, अपने फैसले में वैध ठहराया है। उच्चतम न्यायलय के इस फैसले में आधारभूत कमी यह है कि न्यायालय निर्वाचित होने के अधिकार को, सिर्फ वैधानिक अधिकार के रूप में देख रही है न कि संवैधानिक सशक्तिकरण के माध्यम के रूप में 

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