मुसलमान

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[आज ईद के मौके पर देवी प्रसाद मिश्र की "मुसलमान" कविता "स्वाधीन" के पाठकों के लिए पेश है, इस कविता को पढ़कर जानिए कि मुसलमानों का इस देश के निर्माण में क्या खून- पसीना लगा है... और कैसे ये फुफकारते यवन सांप' इस देश का हिस्सा बन गए...]

Devi prasad Mishra.jpg
देवी प्रसाद मिश्र 

मुसलमान 
कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की 
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के 
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे


यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें 
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार 
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो 
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे.

टिप्पणियाँ

  1. तो वो अब क्या हैं??
    वो हैं पर नहीं हैं...वो हैं और होने पर शर्मिंदा भी.
    उनके पास अब जिरह कोसने और दुखड़े हैं.
    वो हैं एक काले अंधेरे की तरह जो होता है पर उसको देखना कोई नहीं चाहता ...उसमें रहना कोई नहीं चाहता.
    एक दुत्कार हैं एक धित्कार हैं सबकी और खुद पर.
    क्यूं कहते हो कब तक कहोगे वो मुसलमान हैं.
    मान क्यूं नहीं देते ? मान क्यूं नहीं लेते कि वो इंसान हैं ... क्या हुआ गर वो मुसलमान हैं.

    "आपका शुक्रिया कविवर सबको कुछ बताने के लिये._"

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  2. खुबसूरत यात्रा वृतांत । भावपूर्ण रचना

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  3. Bahot sundar rachna. Satyata see bhari hui.
    Sukriya, dhanyvad aur thanks.

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  4. Bahot sundar rachna. Satyata see bhari hui.
    Sukriya, dhanyvad aur thanks.

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  5. Bahot sundar rachna. Satyata see bhari hui.
    Sukriya, dhanyvad aur thanks.

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  6. देश और समाज की हकीकत को भावपूर्ण शब्दों में कहती-बोलती कहानी-कविता. प्रशंसनीय

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  7. Yahi sabsay badi vidambana ha ki vo musalm an thay aur aaj bhi unhay desh ke nagrik se zyada musalman ke nazariya se hi dekha jata ha ...yahi pehchana ha ki hum musalman ha

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  8. सैकड़ो सालों से मैं तन्हा हूँ परेशान हूँ

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क का मुसलमान हूँ।

    अपने पुरखो की वतनपरस्ती के सबूत ढूंढ रहा हूँ।

    इसी मुल्क में पैदा होकर अपना वज़ूद ढूंढ रहा हूँ

    सिर्फ चुनावी मोहरा नहीं हूँ
    मैं सियासत का हिस्सेदार हूँ

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क का मुसलमान हूँ

    देश में दंगे करवाने वाले देशभक्ति
    हमें सिखाते
    जिसने गांधी की हत्या की
    देश में उसका मंदिर बनवाते
    इनकी नज़रो में तो केवल मैं ही बुरा इंसान हूँ

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क का मसलमान हूँ।

    भूल गये तुम मेरी हकीकत
     जब चारो ओर अँधियारा था
    ब्रिटिश हुकूमत को सबसे पहले
    मैंने ही ललकारा था

    कर्नाटक के मैसूर में जन्मा
    मैं ही टीपू सुलतान हूँ
    मैं कोई गैर नहीं हूँ

    इसी मुल्क का मुसलमान हूँ

    आज मुझसे पूछते हो
    देश को मैंने क्या दिया
    तो फिर आकर देख लो
    आगरे का ताजमहल
    और दिल्ली का लालकिला
    जिसको तुम सब ढूंढते हो
    मैं भारत का वही खोया हुआ
    सम्मान हूँ

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क का
    मुसलमान हूँ

    आज़ादी की खातिर
     गर्दन मेने भी कटवाई है
    जलियावाला बाग़ में गोली
    मैंने भी तो खाई है

    फिर भी देशभक्ति की कसौटी
    पर में ही सवालिया निशान हूँ।
    मैं कोई गैर नहीं हूँ

    इसी मुल्क का मुसलमान हूँ

    क्या फर्क है तुझमे मुझमे
    दोनों देश के लाल है
    खून तेरा भी लाल है
    खून मेरा भी लाल है
    जान से ज्यादा प्यारे
    तिरंगे पर मैं भी तो क़ुर्बान हूँ

    मैं कोई गैर नहीं हूँ
    इसी मुल्क का मुसलमान हूँ

    देश में शांति चाहते है हम
    इसीलिए चुप रहते है
    तेरी चुभती बातो को भी
    ख़ामोशी से सहते है

    जिस दिन अपना मुह
    खोला "इश्क़ " तो फिर
    मैं एक तूफ़ान हूँ।

    मैं कोई गैर नहीं हूँ
    इसी मुल्क का मुसलमान हूँ 

    संविधान के दायरे में रहकर
    हम अपना हक़ मांगते है

    मेरा हक इज़्ज़त से दे वरना.....
    दूसरा रास्ता भी जानते है।
    आ गया अगर "इश्क़ "अपने रंग में 
    तो फिर सबके लिए नुक्सान हूँ।

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क
    का मुसलमान हूँ।

    जब तक मैं हद में हूँ
    तब तक सब कुछ हद में है
    आ गया अगर मैं हद से बाहर
    फिर ना कुछ तेरे बस में है

    जब तक चुप हूँ तब तक चुप हूँ
    जाग गया अगर मैं तो फिर
    घायल शेर समान हूँ।

    मैं कोई गैर नहीं हूँ इसी मुल्क का मुसलमान हूँ।

    जवाब देंहटाएं

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