गांधीजी की हत्या, आरoएसoएसo और मिठाईयाँ
आलोक बाजपेयी
[बतौर दूसरी किश्त पेश है आलोक बाजपेयी का यह आलेख। आलोक बाजपेयी गाँधी के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा गाँधी को पढ़ने और समझने में लगाया है। वह गाँधी और साम्प्रदायिकता के बीच छुपे बुनियादी अन्तर को इस आलेख के माध्यम से समझाते हैं....]
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के लिए महात्मा गांधी की हत्या हमेशा एक हर्ष, उन्माद और गौरव का प्रतीक रहा है। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक भी है। गांधी का जीवन हर उस चीज के खिलाफ था, जिसे आर0एस0एस0 सही समझता रहा है। जैसे धार्मिक दम्भ, अभिमान और अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझना और दूसरे धर्माें को नीचा मानना आर0एस0एस0 की धार्मिक सोच का एक स्थाई आधार है। यह सोच उनके लिए प्राण वायु के समान है। गांधी की सोच धर्म के मामले में इससे एकदम उलट है। उनके लिए धार्मिक होने का मतलब था, मानव मात्र से असीम प्यार, स्वयं के लघु होने का भाव और मुसीबतों में बिना विचलित हुए दृढ़ता से झूझने की आन्तरिक क्षमता का स्रोत। आर0एस0एस0 और गांधी धर्म की दो विपरीत व्याख्याओं के बिन्दु हैं। अतः यदि गांधी की हत्या पर आर0एस0एस0 ने खुशियां मनाईं या उनके संस्थानों में गांधी के हत्यारे गोडसे को नायक के रूप में चित्रित करने वाली किताबें बेची या पढ़वाई जाती हैं तो इसमें कुछ भी आश्चर्य सा नहीं। आखिर अपने सबसे प्रमुख शत्रु की हत्या पर खुश होने का अधिकार तो उन्हें मिलना ही चाहिए न?
अस्वाभाविक मात्र यह है कि आर0एस0एस0 गांधी की हत्या की इस खुशी को जहां एक ओर तमाम सूक्ष्म तरीकों से व्यक्त करता रहता है, वहीं दूसरी ओर इससे इनकार भी करता रहा है। यह लेख इसी व्यक्त-अव्यक्त खुशी को समझने का लघु प्रयास भर है।
पहली बात जो गांधी और आर0एस0एस0 के बीच का बुनियादी अन्र्तविरोध है, वह यह कि जहां गांधी सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता के हिमायती थे, वहीं गोपनीयता आर0एस0एस0 की मूलभूत विशेषता है। जहां गांधी अपने दिल और दिमाग को बेबाकी से बिना किसी से डरे हुए लिखते-बोलते रहते थे, वहीं दूसरी ओर आर0एस0एस0 के लाखों स्वयंसेवकों या उसके शीर्ष नेतृत्व के लोग सार्वजनिक तौर पर लिखने-पढ़ने या बोलने के तरीकों में विश्वास ही नहीं करते। गांधी का समग्र लेखन सौ जिल्दों में छपा है और उनके बारे में सब पढ़ने-जानने के लिए दस-बीस साल लग जाएंगे, वहीं आर0एस0एस0 के बारे में आर0एस0एस0 के लोगों द्वारा लिखा-बोला पुस्तक बाजार में लगभग अप्राप्य है। हेडगेवार, गोलवरकर और अन्य आर0एस0एस0 सरसंघ चालकों की जो भी मुटठी भर पुस्तिकाएं हैं भी, वो भी पुस्तक बाजार में अनुपलब्ध रखी जाती हैं। वास्तव में आर0एस0एस0 संगठन की सोच क्या है, यह जानना सामान्य जन के लिए बहुत मुश्किल है, क्योंकि एक दुर्दांत गोपनीयता आर0एस0एस0 के मूल विचार, उनकी कार्यपद्धति, उनके संगठन के लोगों के नाम पते, उनका वित्तीय आधार, उनके अभियान और वो सारी बातें, जिसे जानने का लोकतांत्रिक समाज में सभी को हक होना चाहिए, एक गोपनीय रहस्यालोक में ढका-छिपा रहता है। तो, गांधी और आर0एस0एस0 दो अलग-अलग तरह के एक-दूसरे के विरोधी विचार हैं। फिर, गांधी की हत्या पर आर0एस0एस0 क्यों न खुश हो?
दोनों में एक दूसरा बुनियादी अन्तर राजनीतिक विचारधारा का है। गांधी जहां लोकतंत्र के दायरे में कार्य करते थे और अहिंसा, सत्य जैसे सिद्धान्तों के सहारे अपनी बातों को फैलाने में कुशल रणनीतिज्ञ थे, वहीं आर0एस0एस0 का मुख्य वैचारिक आधार और रूझान फासीवाद है। फासीवाद के नायक हिटलर उनके आदर्श आज भी हैं। फासीवाद एक सोच है, जिसके काम करने के तौर-तरीके जहां एक ओर गोपनीय एजेण्डे के तहत चलते हैं, वहीं दूसरी ओर उसमें किसी धर्म विशेष के प्रति नफरत, हिंसा अपने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में गुथी रहती है। भारत में आर0एस0एस0 के अधीन जो फासीवादी विचारधारा उसकी स्थापना के दिन से ही पल-बढ़ रही है, उसके मूल में मुस्लिम विरोध है। इसी कारण से आर0एस0एस0 उन्हीं प्रश्नों में दिलचस्पी लेता है, जिसमें घुमा-फिरा कर किसी न किसी तरह किसी मुस्लिम व्यक्ति या इस्लाम को दोषी बनाया जा सके। चूंकि आर0एस0एस0 एक लोकतांत्रिक संगठन नहीं है, अतः उसके भीतर निर्भीक व तर्कपूर्ण ढ़ंग से बात रखने की न तो कोई परम्परा रही है और न ही यह स्पेस रखा गया है। यही कारण है कि आर0एस0एस0 के लोगों के साथ कोई अर्थपूर्ण संवाद-विवाद किया जा सकना लगभग असम्भव है। चूंकि आर0एस0एस0 एक फासीवादी परिधि में ही सोच पाती है, अतः छल-कपट, धोखा, झूठ का व्यापार और कुटिल चालाकी उनके सोच व कार्य पद्धति का एक अभिन्न अंग है। आर0एस0एस0 में मानवीय मूल्य और नैतिकता जैसी चीजों का स्थान नहीं रहता, क्योंकि फासीवादी सोच पद्धति में साध्य ही अभीष्ट रखा जाता है, साधन की शुचिता एक अनर्गल प्रलाप समझा जाता है। यही कारण है कि हिंसा (शारीरिक व मानसिक) उनका सबसे विश्वसनीय हथियार आज भी बना हुआ है। तो गांधी और आर0एस0एस0 के तौर-तरीके, सोच में इतना दुश्मनीपूर्ण अन्तर है कि आर0एस0एस0 के पास गांधी की हत्या पर दुखी होने का लेशमात्र भी कारण मौजूद नहीं है।
दोनों में एक अन्य बुनियादी अन्तर राष्ट्रवाद की अवधारणा का है। गांधी का राष्ट्रवाद से तात्पर्य सभी भारतवासियों से था, जिसमें सभी को अपनी इच्छा अनुरूप जीने का हक हो और सभी का मान-सम्मान सुरक्षित रहे। कोई एक बिरादरी दूसरी बिरादरी पर हावी न होने की कोशिश करे, एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को नीचा दिखाने की ही जुगत में न लगी रहे। गांधी के लिए लगातार देशवासियों को यह याद दिलाना जरूरी था कि अपने देश से लगाव रखने का मतलब यह नहीं कि हम अपने आप को इतना श्रेष्ठ समझने लगें कि दूसरे मुल्क और उनकी संस्कृतियां बिल्कुल हीन लगें। इसके अलावा गांधी ने धर्म के आधार पर राष्ट्रवाद की आवधारणा को पूर्णतः नकार दिया। यानि कि हिन्दुस्तान में कोई एक धर्म वाला समुदाय ही अपने को उसका कर्णधार समझने लगे। संक्षिप्त में, राष्ट्र का आधार धर्म नहीं हो सकता। गांधी समझते थे कि जिन देशों में वहां की जनता ने गुमराह होकर धर्म को राष्ट्र का आधार बनाया, उन्होंने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। इसीलिए गांधी ने राष्ट्रवाद की एक उदार, उदात्त, बहुसंस्कृति धर्मी और अन्तर्राष्ट्रीयतावादी तहजीब को ही अपनी सोच का आधार बनाया। आर0एस0एस0 की सोच इसके ठीक उलट है। आर0एस0एस0 स्वयं को एक ’’राष्ट्रवादी’’ संगठन कहता तो जरूर है, परन्तु उसका तथाकथित राष्ट्रवाद मात्र ’’हिन्दू पुनरूत्थानवाद’’ और संकीर्ण फिरकापरस्ती से ज्यादा कुछ नहीं। सच तो यह है कि भारत में राष्ट्रवाद का जो नक्शा दादाभाई नौरोजी, रानाडे और अन्य महान देशभक्तों ने बनाया तथा जिसे बाद में गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष बोस व अन्य ने अपने खून-पसीने से सीचा, उसका आर0एस0एस0 के हिन्दू पुनरूत्थानवादी दृष्टिकोण से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं है। आर0एस0एस0 के लिए राष्ट्रवाद की एकमात्र बुनियादी बात मुस्लिम विरोध है। तो फिर यह समझना आसान ही है कि क्यों आर0एस0एस0 ने गांधी की हत्या पर खुशियां मनाईं, जो आज भी किसी न किसी रूप मंे जारी हैं।
आर0एस0एस0 हिन्दू पुनरूत्थान के नाम पर जो काम अपनी पैदाइश से करता रहा है, वहीं काम आजादी के पहले मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए किया। मुस्लिम लीग को अपनी फिरकापरस्ती के कुचक्र में आर0एस0एस0 से ज्यादा सफलता मिल गई और वो पाकिस्तान बना लेने में कामयाब भी हो गया। हिन्दुस्तान में आर0एस0एस0 को यह बुरी तरह सालने लगा कि मुस्लिम लीग ने तो मुसलमानों को एकजुट कर पाकिस्तान बना लिया, लेकिन हिन्दू बेवकूफ के बेवकूफ ही रहे और वो आर0एस0एस0 के झण्डे तले नहीं आए और एक हिन्दू राष्ट्र नहीं बना पाए। चूंकि गांधी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के सबसे बड़े नेता और प्रतीक थे, तो आर0एस0एस0 ने इसका ठीकरा उन्हीं के सर पर फोड़ना सही समझा। उसे यह एक अवसर भी लगा कि देश बटवारे से लोगों के मन में जो गुस्सा मुसलमानों के खिलाफ भर गया है, उसका फायदा उठाना चाहिए। नाथूराम गोडसे, जो कि हिन्दू पुनरूत्थानवादी सोच और आर0एस0एस0 की विचारधारा से ग्रसित था, उसने 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या कर वह अवसर आर0एस0एस0 को दे दिया कि वह खुशियां मना सके, मिठाईयां बांट सके। अब वही सोच गोडसे की मूर्तियां लगा कर पुराना कर्ज उतारना चाहती है।
गांधी ने कहा था कि मेरी जान की चिन्ता मत करो मैं अपनी कब्र से भी बोलता रहूंगा। गांधी अभी भी बोल रहे हैं।
(आलोक बाजपेयी एक इतिहासकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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