सेकुलरिज़्म के पक्ष में अमन का ऐलान

[सहमत ने ३० जनवरी को जेएनयू में गांधीजी की पुण्यतिथि के दिन एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया। इस समूचे कार्यक्रम की रिपोर्ट हमारे साथी शुभनीत कौशिक ने तैयार की है। शुभनीत ने जिस अंदाज़ में एक विमर्श के साथ इस रिपोर्ट को पिरोया है, वह बहुत कुछ एक आलेख बन गया है। ३० जनवरी से शुरू हुयी हमारी सीरीज में यह तीसरी प्रस्तुति है.… ]


शुभनीत कौशिक 
आज हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ दक्षिणपंथ भारतीय समाज और संस्कृति पर अपनी खास परिभाषा को थोपने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। इस परिभाषा के अंतर्गत न सिर्फ़ एक हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना की जा रही है बल्कि खुद हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति को भी एक विशेष सांचे में ढालने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश महज़ अभिव्यक्ति की आज़ादी और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए ही खतरा नहीं है, बल्कि इससे उपजने वाले हौलनाक मंजर भारतीय समाज पर भी जाहिर होते रहे हैं। जब-जब मिली-जुली भारतीय संस्कृति या गंगा-जमुनी तहज़ीब पर, जो सामाजिक सहिष्णुता और सौहार्द्र की बुनियाद पर खड़ी है, हमले होते हैं तो हमें सचेत हो जाना चाहिए कि ये हमले महज़ हमारे वर्तमान को नहीं बल्कि अतीत और भविष्य को भी एक नए सिरे से रचने-गढ़ने की मुहिम का हिस्सा होते हैं। और अगर हम इस मुहिम के नतीजों को लेकर वाकई चिंतित है तो हमें उन लोगों के साथ एकजुट होकर खड़े होना होगा जो हमारी चिंताओं में बराबर के साझीदार हैं।


इसी एकजुटता और साझीदारी को एक अहम मौके पर अभिव्यक्त करने का प्रयास किया जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में आयोजित एक कार्यक्रम में, आल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजुकेशन, एस एफ आई के साथ मिलकर सहमत के साथियों ने। गौरतलब है कि पिछले 26 सालों में सहमत ने हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन से जुड़े मूल्यों को लेकर, मसलन समतावाद और सेकुलरिज़्म, संस्कृति की राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप करने में बख़ूबी अपनी भूमिका अदा की है। और यह अहम मौका था, 30 जनवरी 2015 को, महात्मा गांधी का 67वां शहादत दिवस।

30 जनवरी 1948 को एक धर्मांध हिन्दू द्वारा मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या कर दी गयी, पर यह हत्या सिर्फ़ गांधी के शरीर की हत्या नहीं थी। यह हत्या प्रतिरोध, सच्चाई और अहिंसा के विचार की भी हत्या थी। यह हत्या उस विचार को दर्शाती थी जिसके अनुसार असहमति का जवाब सिर्फ़ असहमति की आवाज़ को हमेशा के लिए खामोश कर देने के जरिये दिया जाना था। महात्मा गांधी से गोडसे, सावरकर या गोलवलकर जैसे लोगों की असहमति सिर्फ़ हिंदुस्तान के बँटवारे या हिंदुस्तान के मुस्लिमों के प्रति गांधी की सहानुभूति के कारण ही नहीं थी बल्कि इसकी गहराई में हिन्दू धर्म और भारतीय समाज-संस्कृति की दो बिल्कुल अलग वैचारिक संसारों के बीच उपजने वाला टकराव था। जहां गांधी भारत में भक्ति आंदोलन के संतों और सूफियों की उस महान परंपरा के प्रतीक थे, जिसके लिए मानवता से बढ़कर कोई धर्म न था, वहीं सावरकर, गोलवलकर धर्म-संस्कृति की ऐसी संकीर्ण विचारधारा के परिचायक थे जो बांटने, अलगाव करने और बहिष्कार में ही विश्वास करती थी।

इस अवसर पर तीस्ता सीतलवाड द्वारा महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े दस्तावेजों पर संकलित-संपादित एक पुस्तक बियोंड डाउट: ए डासियर ऑन गांधीज़ एसेसिनेशन का भी विमोचन किया गया। इस किताब पर टिप्पणी करते हुए अनिल नौरिया ने अपने विचार रखे। उन्होंने इस संदर्भ में के एल गाबा की पुस्तक एसेसिनेशन ऑफ महात्मा गांधी और गांधी की हत्या के षड्यंत्र जांच करने के लिए बने जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट (1969) का भी ज़िक्र किया। रिपोर्ट के हवाले से उन्होंने कहा कि गांधी की हत्या का कारण विभाजन या पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिया जाना भर कतई नहीं था। ये कारण कहीं अधिक व्यापक और जटिल थे। इसमें गोडसे के वैचारिक गुरु सावरकर के द्विराष्ट्रवादी विचारों का भी योगदान था। सावरकर के ये विचार न केवल हिन्दू महासभा के द्विराष्ट्रवादी राजनीतिक अवधारणा का आधार बने बल्कि बाद में, खुद मुस्लिम लीग ने भी इसे औपचारिक तौर पर इसे अपने नीतिगत कार्यक्रमों में जगह दी। हिन्दू-मुस्लिम एका और बाद में, भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को लेकर महात्मा गांधी का रवैया भी गांधी के प्रति हिन्दू संगठनों के गुस्से का कारण था। अस्पृश्यता के सवाल को लेकर 1934 से ही लेकर लगातार सक्रिय सनातनी हिन्दूगांधी भला कट्टर और संकीर्ण हिन्दुत्व की राजनीति के पोषकों को स्वीकार्य भी कैसे होते? इस सवाल को कहीं स्पष्ट संदर्भ में रखा था, समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव ने, उनके अनुसार गांधीजी किसी भी अर्थ में एक पुरातनपंथी हिन्दू न थे... उन्होंने उन सभी संकीर्ण नियमों और मान्यताओं को तोड़ा जिनमें एक पुरातनपंथी हिन्दू यकीन करता था

महात्मा गांधी की हत्या पर टिप्पणी करते हुए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा था कि गांधीजी की हत्या हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्व का नतीजा उतना नहीं थी जितना कि वो हिन्दू धर्म के उदार और कट्टर धड़े के बीच टकराव का नतीजा थी। जाति, महिला और सहिष्णुता के संदर्भ में धर्मांध हिन्दू मान्यताओं को किसी ने इतनी खुली चुनौती न दी थी, जितनी कि गांधीजी ने। उनके प्रति वह पूरा गुस्सा, द्वेष इकट्ठा हो रहा था। गांधी की जान लेने के प्रयास एक दफा पहले भी किए गए। तब इसका खुला उद्देश्य जाति के संदर्भ में हिन्दू धर्म को बचाने से था। गांधी की हत्या का अंतिम और सफल प्रयास मुस्लिम प्रभाव से हिन्दू धर्म को बचाने के उद्देश्य से किया गया, लेकिन... यह उदार धड़े से पस्त होते कट्टरपंथियों द्वारा लगाया गया सबसे बड़ा और सबसे आपराधिक जुआ था।    

देहरूप में गांधी को खत्म करने के सिलसिलेवार प्रयास किए गए। मसलन, पूना में 25 जून 1934 को गांधी पर उनके अस्पृश्यता के विरोध में किए जा रहे देशव्यापी यात्रा के दौरान बम फेंका गया। 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या से ठीक दस दिन पहले भी गांधी पर जानलेवा हमले का प्रयास किया गया। गांधी की हत्या में सांप्रदायिक संगठनों के अलावे सम्पन्न पूंजीपति वर्ग और देसी रियासतों, मसलन भरतपुर और अलवर ने भी आर्थिक संसाधन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

इस अवसर पर प्रो. इरफ़ान हबीब द्वारा महात्मा गांधी के योगदान को रेखांकित करते हुए एक व्याख्यान दिया गया, जिसका शीर्षक था गांधीजीज फाइनेस्ट अवर। इस व्याख्यान में प्रो. हबीब ने समाजवादी और साम्यवादी समूहों-दलों के लिए गांधी से मतभेदों की जगह, गांधी और उनकी राजनीति से समानता पर ज़ोर दिया। उन्होंने गरीबों और आमजन के सरोकारों को लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी की भागीदारी पर प्रकाश डाला। दक्षिण अफ्रीका में बिताए गांधी के दिनों से लेकर, जहाँ गांधी ने पहले-पहल सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के अपने प्रयोग शुरू किए, चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद में मिल मजदूरों द्वारा की गयी हड़ताल में गांधी की भागीदारी की चर्चा प्रो. हबीब ने विस्तार से की। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को इसका व्यापक जनवादी चरित्र देने में महात्मा गांधी की भूमिका अग्रणी थी, उनकी इसी भूमिका से प्रभावित होकर शायर अकबर इलाहाबादी ने उस दौर में गांधीनामा की रचना की थी। इसकी शुरुआत में वे लिखते हैं:
इन्क़िलाब आया, नई दुनिया, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।

महज राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति को ही नहीं बल्कि समाज सुधार के प्रयासों को नया जीवन देने में गांधी की भूमिका की भी प्रो. हबीब ने चर्चा की। समाज-सुधार गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों का अभिन्न अंग था, इसके अंतर्गत अस्पृश्यता उन्मूलन, शराब और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, चरखा भी थे। 1932 में पूना समझौते के बाद गांधी ने अस्पृश्यता उन्मूलन और हरिजनों के उद्धार को अपना मुख्य उद्देश्य घोषित किया। मंदिरों में अछूतों को प्रवेश दिलाने के लिए और हरिजनों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव के लिए गांधी ने देश भर में यात्राएं कीं और इस सिलसिले में कट्टरपंथी हिंदुओं के गुस्से और घृणा का दंश भी लगातार झेला। गांधी ने असहयोग आंदोलन, सिविल नाफ़रमानी आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में राष्ट्रीय आंदोलन को हिंदुस्तान के गाँव तक पहुँचाने में और लोगों में राजनीतिक चेतना पैदा करने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। महात्मा गांधी ने ही लाहौर कांग्रेस के दौरान 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाने के लिए देश भर के गाँव और शहरों में पढे जाने के लिए प्रस्ताव के मसौदे को तैयार किया था, जिसमें उन्होंने औपनिवेशिक शासन के आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना और प्रभावों को बखूबी समझा और उजागर किया था। 1931 के करांची अधिवेशन में मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम के मसौदे को तैयार करने में भी गांधी ने प्रमुख भूमिका निभाई। इस मसौदे के प्रस्तावों पर; मसलन, अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान बनाए रखने, भाषाई अस्मिता को संरक्षण देने और सार्वभौम वयस्क मताधिकारआदि; गांधी की छाप स्पष्ट थी।

गांधी के जीवन, उनके विचारों और कार्यों से सीख लेने की बात करते हुए प्रो. हबीब ने वर्तमान संदर्भ में एक उद्देश्य के लिए, सेकुलर और समाजवादी भारत, (ध्यान दें कि ये वे दो शब्द हैं जिन्हें संविधान की प्रस्तावना से हटाने को लेकर चर्चा चल रही है!), हरसंभव एकता बनाने पर ज़ोर दिया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बिताए अपने तत्कालीन दिनों को याद करते हुए प्रो. हबीब ने गांधी की हत्या, शरणार्थियों की समस्या, अल्पसंख्यकों की चिंता, सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका का ब्योरा दिया। प्रार्थना सभा में गांधी के प्रवचनों और उन सभाओं में पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थियों और दिल्ली के मुस्लिमों से संवाद करने के गांधी के प्रयासों का भी उन्होंने जिक्र किया। जाहिर है कि अपने इन प्रयासों के चलते गांधी न केवल कट्टरपंथियों के कोपभाजन के पात्र बने बल्कि कई बार कांग्रेस के नेतृत्व की नाराज़गी भी उन्हें उठानी पड़ी। 

प्रो. हबीब के व्याख्यान के बाद बिगुल के साथियों द्वारा भीष्म साहनी की एक कहानी पर आधारित एक नुक्कड़ नाटक सफाई अभियान भी मंचित किया गया। जिसमें वर्तमान सरकार की स्वच्छता अभियान की असल तस्वीर दर्शाने की कोशिश की गयी। बाद में, एक संगीत संध्या का भी आयोजन किया गया। जिसमें तनवीर अहमद खान, प्रिया कानूनगो, हरप्रीत, ध्रुव संगारी और मदन गोपाल सिंह ने प्रस्तुति दी। तनवीर ने, जो दिल्ली घराने से जुड़े हैं और ख़याल गायन करते हैं, कबीर के भजन मन लागो मेरो यार फकीरी में’, और 1950-55 के हिंदुस्तानी फिल्मों के गीत जैसे न हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा और देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान सुनाया। वहीं प्रिया ने, जो दिल्ली और बनारस घराने से जुड़ी हैं, गांधीजी के प्रिय भजन वैष्णव जन तो तेने कहिए’ (नरसी मेहता) और मीराबाई के पद प्रभु मैं तेरे चरनन की दासी गाया। युवा हरप्रीत ने गिटार के साथ अपने मधुर गले से बाबा बुल्ले शाह की रचनाओं और अन्य गीतों को गाकर सुनाया।

अंत में, मदन गोपाल सिंह और ध्रुव संगारी ने सूफियाना रस से सराबोर और दिल को छू जाने वाले गीत सुनाये। मदन जी ने शुरुआत करते हुए पंजाब की परंपरा के अनुरूप गुजरे हुए अज़ीज़ शख्स को श्रद्धांजलि देते हुए आनंद गाया। ध्रुव संगारी ने, जो बिलाल चिश्ती के नाम से भी जाने जाते हैं, ‘हक़ अली मौला गाकर दिल के तार झंकृत किए और फिर मदन जी ने की बेदरदा के संग यारी गाकर इस शाम को उसके आखिरी पड़ाव पर पहुंचाया। यह गीत उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद धारा 144 तोड़ते हुए भी गाया था। इस पूरी सभा ने हिंदुस्तान में सेकुलरिज़्म के पक्ष में अमन का ऐलान बखूबी किया।                  

आखिर में, आज के लिहाज़ से एक बहुत मौजूँ बात जिसे अपनी मशहूर नज़्म जश्ने ग़ालिब में साहिर लुधियानवी ने लिखा है:  

यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं ।
  
  


   

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