23 अक्टूबर 2014

तहजीब की सरहद

अभिषेक श्रीवास्तव

जनसत्ता 10 अक्तूबर, 2014: शहर से उस गांव की दूरी करीब बीस किलोमीटर रही होगी। रास्ते, आकाश और मन में सिर्फ रेत ही रेत थी। हाइवे पर सन्नाटा था और दिल में फ़ैज़ की नज्म बीते चौबीस घंटे से बज रही थी- ‘…चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले!’ शायद नौवें दरजे में कुछ कश्मीरियों की सोहबत में जब गुलाम अली और मेहदी हसन का चस्का एक साथ लगा था, तब यह गजल पहली बार सुनी थी। तब से जाने कितनी बार इसे गुनगुनाया, लेकिनहैदरफिल्म में इसका आना कुछ यों हुआ कि हम, जो राजस्थान की सीमा से सटे हरियाणा के गांवों में चुनावी सर्वे कर रहे थे, अचानक सब छोड़ कर लूना निकल पड़े।
झुंझनू जिले का एक छोटा-सा गांव है लूना, जहां गजल के बादशाह मेहदी हसन पैदा हुए थे। एक पेड़ के नीचे कुछ लोग ताश खेलते दिखे। हमने उनसे मेहदी हसन के पुश्तैनी मकान का पता पूछा। उन्हें जानते सब थे, लेकिन किसी गैर की तरह। यहां उनकी गजलें कोई नहीं सुनता, ऐसा दो लड़कों ने बताया। एक पुराने फौजी मिले। वे हमें प्राथमिक स्कूल के परिसर में ले गए जहां दो कब्रें अगल-बगल बनी थीं। एक मेहदी हसन के दादा की, दूसरी उनकी मां की। फौजी ने इशारा करते हुए बताया कि दूर नीम के पेड़ के नीचे गेरुआ कपड़ों में एक वृद्ध खाट पर लेटा होगा। हमें उनसे मिलना चाहिए।
उन्होंने ठीक बताया था। सौ से कुछ कम उम्र के ये नारायण सिंह शेखावत थे, मेहदी हसन के बाल-सखा। पहली नजर में उन्हें आश्चर्य हुआ। शायद इसलिए कि मेहदी हसन को गुजरे दो बरस से ज्यादा हो गए। वे बोले- ‘जिस दिन उसकी मौत हुई थी, उस दिन पचासेक पत्रकार मेरे पास आए थे। उसके बाद से कोई नहीं आया।बताने लगे कि मेहदी हसन के दादा बड़े शास्त्रीय गायक थे और उन्होंने बचपन में ही मेहदी साहब को बस्ती के महाराजा के दरबार में गाने के लिए भेजा था। जो कब्र हम देख कर आए थे, उनमें एकफर्जीथी, ऐसा उन्होंने बताया। दरअसल, मेहदी हसन की वालिदा का इंतकाल बचपन में हो गया था। कोई नहीं जानता कि उन्हें कहां दफनाया गया। बाद में दादा की कब्र के बगल में लाकर एक पत्थर मां के नाम का लगा दिया गया।
उन्होंने एक पुस्तिका अपनी गठरी में से निकाली। यह मेहदी हसन पर लिखी उनकी कविताओं का संकलन था। फिर वे हमें अपनी कोठरी में लेकर गए। वहां गठरियों में बंधीं असंख्य किताबें थीं। उन्होंने हमें गीता, रामचरितमानस और हनुमान चालीसा भी दिखाए। हम स्तब्ध थे, क्योंकि ये सारी किताबें उर्दू में थीं। अशोक वाटिका में हनुमान, राम-सीता प्रणय और विश्वरूप की तस्वीरों के नीचेकैप्शनउर्दू में! ये हम किस देश में गए थे, जहां हिंदू धर्मग्रंथ उर्दू में प्रकाशित हैं! ऐसी हजारों किताबें उनके पास सुरक्षित हैं।
आप कोई लाइब्रेरी क्यों नहीं खोल लेते, हमने जिज्ञासा में पूछा। बाबा हंसे और बोले- ‘अब कौन पढ़ेगा ये सब!’ उन्होंने बताया कि अपनी पोती को उर्दू पढ़ाने के लिए एक मास्टर लगाया हुआ है। हमने उनकी पोती से पूछा कि क्या पढ़ती हो! उसने उर्दू मेंगीताऔररामायणका नाम लिया। हम उसे देखते रह गए। उनका पोता पढ़ता कम है, उछल-कूद ज्यादा करता है। बाबा ने बताया कि यह बड़ा होकर कलाकार ही बनेगा। फिर उनके कहने पर उनका पोता बंदर की तरह हमारे सामने गुलटियां खाने लगा। वे हंसते रहे। बाबा के चार बेटे हैं। दो कुवैत में हैं, दो गांव में खेती करते हैं। शेखावत अब भी ग्रंथों का पाठ करते रहते हैं। शास्त्रीय संगीत उन्होंने भी मेहदी हसन के साथ सीखा था। उनके घर में हारमोनियम अब भी बजता है।
कहते हैं कि अपनी मौत से पहले 2009 में जब मेहदी हसन पाकिस्तान से लूना आए थे तो गांव में शंकर के मंदिर से लिपट कर रोने लगे थे। वे बचपन में वहां भजन गाते थे। नारायण सिंह शेखावत इस घटना को सुनाते-सुनाते अतीत में खो जाते हैं। वे किन्हीं धर साहब का भी जिक्र करते हैं जो मेहदी हसन की याद में हर साल स्कूल के प्रांगण में कार्यक्रम करवाते हैं। हिंदुस्तानी जबान में बोलने, उर्दू पढ़ने और उसे बरतने वाले गेरुआधारी बाबा शेखावत फ़ैज और मेहदी हसन की परंपरा की आखिरी कड़ी हैं। वे इस देश की उस तहजीब की भी शायद आखिरी कड़ी हैं, जो आज अंतिम सांसें गिन रही है!
लूना से लौटते वक्त मेरे मित्र ने खीझ कर कहा था- ‘अगर आज के बाद इस देश के बारे में कोई भी व्यक्तिजनरलाइज्डबयान देगा तो उसे खींच कर मारूंगा और पूछूंगा कि क्या जानते हो तुम इस देश के बारे में।मुझे लगता है कि वे ठीक ही कह रहे थे। कभी-कभार किसी चीज की उपयोगिता किसी ऐसी जगह होती है, जिसकी अहमियत सिर्फ खोजने वाला जान पाता है। कह सकते हैं कि मौके परहैदरफिल्म आई होती तो मेहदी साहब का लूना गांव दुनिया को समझने की हमारी खिड़की बन पाता। फ़ैज़ कहते हैं- ‘कफस उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो…!’ अक्तूबर 2014 में उर्दू पढ़ती एक हिंदू बच्ची की कहानी क्या सबको नहीं बताई जानी चाहिए!


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