23 अक्टूबर 2014

अहिंसा के अभिप्राय

शुभू पटवा
जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2014 

चाहे हिंसा के बरक्स अहिंसा को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की बात हो धर्म-ध्वजा को और ऊंचा फहराने की, दोनों ही स्थितियों में अगर अहिंसा का इतना भर अभिप्राय रहेगा, तो इसे इसकी साधना कहना उचित नहीं होगा। अहिंसा के अभिप्राय इन बातों से अधिक गहरे और व्यापक हैं। दरअसल, अहिंसा को आत्मसात कर लेना आज के मनुष्य की सीमा में नहीं है। इसीलिए हम इस पर बात भर करके चुप बैठ जाते हैं। जितनी अधिक बात होती है, उसी अनुपात में हिंसा के संसाधन जुटाने के लिए हम कहीं अधिक तत्पर रहते हैं। पूरी दुनिया में सरकारों के सालाना बजट से इस कथन की पुष्टि हो सकती है। खुद भारत के, जहां गांधी जन्मे, बजट की भी यही स्थिति है। विश्व स्तर पर जो हालात बने हुए हैं और जिन विकट हालात से भारत घिरा हुआ है, उनके चलते ऐसा होना भारत की विवशता कही जा सकती है। लेकिन सन 2007 में दो अक्तूबर के दिन जब अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोेषित हुआ, तो माना गया कि अब तो अहिंसा की दृष्टि से कुछ ठोस होगा। लेकिन हुआ क्या, हम यह देख सकते हैं।
इन सालों में क्या ऐसा कुछ करने की प्रतिबद्धता भी कहीं दिखाई दी? हम अहिंसक समाज संरचना के प्रति थोड़े भी आश्वस्त हो सके? महात्मा गांधी कहते रहे हैं कि- ‘जैसे हिंसा की तालीम में मारना सीखना जरूरी है, उसी तरह अहिंसा की तालीम में मरना सीखना पड़ता है। हिंसा में भय से मुक्ति नहीं मिलती, लेकिन भय से बचने का इलाज ढ़ूंढ़ना पड़ता है। अहिंसा में भय के लिए स्थान नहीं है। भयमुक्त होने के लिए अहिंसा के उपासक को उच्च कोटि की त्यागवृत्ति विकसित करनी चाहिए। जिसने सब प्रकार के भय को नहीं जीता, वह पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकता।’ महात्मा गांधी की इस कसौटी पर चढ़ पाना कठिन है। यह बात आज तो सही है ही, लेकिन खुद गांधी अपने जीवनकाल में भी इसे क्या आसान मानते थे?
बेशक गांधी के बल के बूते उनकी राह पर लोग चल जाते थे। नमक बनाने के लिए उनका ‘दांडी मार्च’ और फिर समुद्र के किनारे का दृश्य हम याद करें। मानना होगा कि उनकी राह पर चलने के लिए तब जनता-जनार्दन प्रतिबद्ध हो जाती थी। आज न गांधी-सा राहगीर है और न उस ओर चलने के लिए उन्मुख लोग। इसीलिए हमने कहा कि अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित होेने से लेकर अब तक हमने मात्र बात भर की है। अहिंसा के अभिप्राय को समझने और उसे आत्मसात करने के लिए अनुकरण से कहीं अधिक यह देखना जरूरी है कि वह हमारी अस्मिता का अंग बने। ऐसा होना न केवल अहिंसा के अभिप्राय को समझना होगा, बल्कि उसके मर्म को समझते हुए उसे आत्मसात करना भी समझा जाएगा। अहिंसा जब हर एक की अस्मिता का अंग हो जाए तो गांधी के कथनानुसार धन, जमीन या शरीर की सुरक्षा-असुरक्षा जैसी बातों के लिए स्थान नहीं रहेगा।
मैं दूसरों की अस्मिता को ठेस नहीं पहुंचाऊंगा, तो मेरी अस्मिता अपने आप कायम रह सकेगी। जिस उच्च कोटि की त्यागवृत्ति के विकसित होने की बात महात्मा गांधी ने कही है, वह तभी आ सकेगी। लेकिन ऐसा संभव तभी है, जब हमारा विवेक और प्रज्ञा पूर्ण जाग्रत हो। भगवद्गीता में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस संसार में ज्ञान जैसी पवित्र, यानी शुद्ध करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। हम जिस प्रज्ञा और विवेक की बात कहते हैं, वह ऐसे ही ज्ञान से उपज सकती है। अहिंसा के लिए ऐसे ही ज्ञानपूर्वक आचरण की आवश्यकता है। ज्ञान और आचरण के प्रसंग पर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का एक मंतव्य है- ‘जहां ज्ञान और आचरण बंट जाता है, तो वह ज्ञान सम्यक् नहीं होता और आचरण भी सम्यक् नहीं होता। जहां ज्ञान सत्य हो गया, यथार्थ हो गया, वहां ज्ञान और आचरण की दूरी मिट गई। तब ये दोनों साथ-साथ चलेंगे। …ज्ञान और दर्शन अगर सम्यक् हैं तो आचरण भी सम्यक् ही होगा।’ वे इसे रत्न-त्रयी कहते हैं और मानते हैं कि इसी त्रिपदी से अहिंसक समाज संरचना संभव हो सकती है।
इस दृष्टि से विश्व स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय काम हुआ है। मानवाधिकारों के लिए विश्व के देशों की आपसी समझ को विकसित करने के लिए अब तक उठाए गए कदमों को हमें इस दृष्टि से देखना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र ने दस दिसंबर, 1948 को जिन मानवाधिकारों की घोषणा की और वर्ष 1995-2004 का दशक ‘मानवाधिकार दशक’ के रूप में घोषित हुआ, वह यह बताता है कि आज की विषम परिस्थितियों के चलते मानवाधिकारों के सभी अनुच्छेद अहिंसा के अभिप्राय को स्पष्ट करते हैं। भारत सहित अनेक देशों ने इस ‘मानवाधिकार घोषणा-पत्र’ पर हस्ताक्षर कर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर ही है। इस घोषणा-पत्र को हम अहिंसक समाज की संरचना की तजवीज के रूप में उठाया गया एक रचनात्मक कदम मान सकते हैं। लेकिन अभी यह मानना चाहिए कि इन ‘मानवाधिकारों’ के प्रति हमारी सरकारें और सक्षम लोग पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं हैं। वे पूरी तरह जवाबदेह बनें और अपने दायित्वों को मानवाधिकारों की रक्षा से जोड़ें, इसकी गहरी आवश्यकता है। अगर इतना हो जाए तो अहिंसा का अभिप्राय सिद्ध होते हुए नजर आ सकता है। इस बार ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ पर इस दृष्टि से विचार होना चाहिए।

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