साझी विरासत
ज्योति सिडाना
जनसत्ता, 15 अक्तूबर, 2014
समाज विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी देश को महज नक्शे के आधार पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। सामाजिक प्राणी अपनी जिंदगी का आरंभ संस्कृति के अंतर्गत सुनिश्चित करता है। संस्कृति एक व्यापक अवधारणा है, जिसे कोई भी संकीर्ण चिंतन भ्रमवश धर्म के समकक्ष ले आता है। सच यह है कि संस्कृति जीवन जीने की पद्धति के परे जाकर जीवन को बदलने की पद्धति का हिस्सा भी है। भारत में प्राचीन दौर में जीवन जीने की वर्णवादी पद्धति से असहमति रखते हुए बौद्ध और जैन धर्म-दर्शन न केवल उभर कर आए, बल्कि जीवन जीने की नई पद्धतियों का ऐसा संदेश दे सके, जिसने भारत के अंदर और बाहर साझा सांस्कृतिक शैली की शुरुआत की। जीवन जीने और बदलने की ये पद्धतियां पारंपरिकता और आधुनिकता के बीच के उन अंतर्विरोधों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके प्रभाव भोजन, पोशाक, भाषा आदि पर पड़ते हैं।
साझा सांस्कृतिक शैली में विषयपरकता या पूर्वाग्रह नहीं है। यह तो एक सापेक्ष अवधारणा है और यही सांस्कृतिक सापेक्षतावाद सहिष्णुता को जन्म देता है। हम लोगों के बीच चाहे कितनी ही बहुलता और भिन्नताएं क्यों न हों, पर हम सबका जीवन एक दूसरे के बिना अधूरा है। बौद्ध और जैन चिंतन से शुरू हुई यह यात्रा इस्लाम, ईसाइयत, आस्तिक-नास्तिक, शैव, वैष्णव, उत्तरी, दक्षिणी, हिंदी, तमिल, नगरीय, ग्रामीण, आदिवासी, पुरुष, महिला के रूप में पता नहीं कितने खंडों में झलकती है, पर यही गुंथापन भी है।
हममें से अनेक विभिन्न कारणों से इस गुंथे स्वरूप को एक षड्यंत्र के तहत ‘हम’ बनाम ‘वे’ में बदल देते हैं और देश कई तरह के तनावों और संघर्षों का हिस्सा बन जाता है। असल में साझा सांस्कृतिक जीवनशैली ही धर्मनिरपेक्षता के दोनों अर्थों को स्थापित करती है। धर्मनिरपेक्षता, यानी सर्वधर्म समभाव, जो हमें हर क्रिया के संपादन में लचीलापन प्रदान करता है। धर्मनिरपेक्षता, यानी राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा; राज्य किसी भी समूह की संस्कृति को यह कह कर संरक्षण प्रदान नहीं करेगा कि यही श्रेष्ठ है। संस्कृति तो सरल या जटिल होती है, इसे श्रेष्ठ या निम्न की संज्ञा देने वाले असल में संस्कृति के प्रति हिंसा करने के आदी हैं। पर उन्हें शायद यह पता नहीं कि संस्कृतियां मरती नहीं हैं, क्योंकि साझापन और बदलाव संस्कृतियों को सदैव जिंदा बनाए रखता है।
विश्व के विभिन्न भागों में आतंकवाद के नाम पर हो रहे हमले सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई बन गए हैं। इसे कट््टरवाद में बदलने के लिए धार्मिक अस्मिता का सहारा दिया जा रहा है। इस तरह के संघर्ष को विकसित देश हवा दे रहे हैं, क्योंकि वे इस सांस्कृतिक लड़ाई में अपनी प्रौद्योगिकी के वर्चस्व का उभार देख रहे हैं। पर वे शायद इस सच को भुला बैठे हैं कि प्रौद्योगिकी का वर्चस्व श्मशान की शांति तो पैदा कर सकता है, पर सामाजिक जंगल में विभिन्न छोटे-बड़े समूहों की सांस्कृतिक उछल-कूद की जमीन तैयार नहीं कर सकता। भारत को यह सोचना पड़ेगा कि छोटे-बड़े समूह विकास के वाहक हैं और साथ ही विकास को प्रयुक्त करने की इकाइयां हैं। इसलिए बहुलता और विविधता से उत्पन्न हुई साझा सांस्कृतिक विरासत का कोई विकल्प नहीं है। शायद इस दौर में भारत को कबीर, मीरां, प्रेमचंद, मोहम्मद इकबाल और रसखान जैसों की आवश्यकता है, जो साथ चलने का संदेश देते हुए रूढ़ियों के प्रति संयुक्त संघर्ष की मशाल जलाते हैं, ताकि साझा संस्कृति जिंदा रहे।
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