17 दिसंबर 2020

आचार्य विनोबा का साहित्यकारों को संदेश








आचार्य विनोबा भावे

[आचार्य विनोबा भावे ने समय-समय पर साहित्य से जुड़ा हुआ जो चिंतन अपने लेखन और प्रवचनों में व्यक्त किया है उसे कवि आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य ने संकलित करते हुए एक पुस्तक का स्वरूप दिया। यह पुस्तक साल 2019 में रज़ा फाउंडेशन की ओर से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुई है। पुस्तक के संबंध में कवि श्री अशोक वाजपेयी कहते हैं, "हमारे समय में ऐसे लोग विरले हैं जो किसी अन्य क्षेत्र में सक्रिय और निष्णात होते हुए साहित्य के बारे में कुछ विचारपूर्वक लिखे कहें। महात्मा गांधी के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी और अपने समय के अनूठे संत विनोबा भावे ने साहित्य पर कई बार विचार किया है जो अकसर हमारे ध्यान में नहीं आया और आता है। वरिष्ठ कवि आलोचक नंदकिशोर आचार्य विनोबा के साहित्य-चिन्तन को संकलित कर साहित्य पर सोचने की नई और विस्मृत दृष्टि को पुनरूज्जीवित किया है। हमें प्रसन्नता है कि रज़ा साहब के अत्यंत प्रिय विनोबाजी की यह सामग्री हम प्रस्तुत कर रहे हैं।"] 

साहित्य की शक्ति के संबंध में विनोबा कहते हैं,

दुनिया को आकार देने वाली 

लोकजीवन बदलना या उस पर स्थाई असर डालना उन्हीं से बन सका जिन्होंने या तो कुछ आध्यात्मिक खोज की थी या कुछ वैज्ञानिक खोज। विज्ञान का असर दुनिया के जीवन पर हुआ है और आगे भी होगा। आत्मज्ञान का असर भी अबतक के इतिहास में बहुत हुआ है और आगे भी होनेवाला है। लोक जीवन पर असर डालने वाली तीसरी शक्ति है वह है साहित्य की शक्ति। वह विज्ञान और आत्मज्ञान की शक्ति को जोड़ने वाली शक्ति है। वह विज्ञान और आत्मज्ञान को समन्वित कर लोगों के सामने उचित शब्दों में व्यक्त करती है, ताकि लोगों के चित्त पर उनके जरिए थोड़े में विचार की पकड़ रहे।

इस तरह वैज्ञानिक आध्यात्मिक खोज करने वाले और शब्द-शक्ति में नए-नए शब्द खोज कर लोगों के चिंतन के लिए जिन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया है, वही लोग दुनिया को आकार देंगे। इसलिए हमें साहित्य की शक्ति को भी पहचानना चाहिए। शब्द शक्ति की अगर हम उपासना नहीं करेंगे, तो हम हार जायेंगे।

ग़लत शब्द के कारण ग़लत चिंतन

आज हम पुराने शब्द जोड़कर नए शब्द 'इम्पोर्ट' (आयात) करते हैं उसका असर हमारे चिंतन पर पड़ता है। हमारे चिंतन में विचार-दोष आता है। हमको अपना चिंतन ठीक ढंग से करना चाहिए, तभी हिंदुस्तान को अपना मौलिक चिंतन होगा। आज बाहर से इम्पोर्टेड शब्द लाते हैं और हमारी भाषा पर लादते हैं। परिणाम यह होता है कि हमारे जीवन में वह शब्द 'ऐसिमिलेट' नहीं होता, हजम नहीं होता, एकरूप नहीं होता।

अब 'सेक्युलर स्टेट' की ही कल्पना लीजिए। यह बिलकुल एकांगी कल्पना है। वह हमें हजम नहीं हो सकती। यूरोप में वैसी परिस्थिति थी, तो वहां वैसा रिवाज चल सकता था। हिंदुस्तान में तो 'धर्म' शब्द निकला। धर्म यानी क्या? धर्म यानी सबको धारण करना, स्टेट को भी धारण करना है। 'स्टेट को धर्म से कोई ताल्लुक़ नहीं' - ऐसा कोई कहता है तो उसका हिंदुस्तान में बिल्कुल ही अलग अर्थ होता है!

ठीक शब्दों का उपयोग करते हैं, तो अच्छा है, अन्यथा उसे ग़लत धारणा भी हो जाती है। 'इंडिपेंडेंस' कितना निकम्मा शब्द है! दुनिया में क्या होता है? हर शख्स तो एक-दूसरे पर अवलंबित ही है। तब कहां रहा इंडिपेंडेंस? लेकिन 'स्वराज' भावात्मक अर्थ बताता है। वह स्वयंमेव रंजीत होता है। स्वयं-प्रकाशित होता है। आज तो हम यहां परदेश की ही बुद्धि लेते हैं, तो वह 'स्वराज्य' कैसे होगा? केवल हमारा राज हम चलाते हैं, इतने से क्या हो गया स्वराज्य?

वेद में आदित्य को स्वराज्य की उपमा दी है। सूर्य है 'स्वराट्', क्योंकि वह स्वयं प्रकाशित है। चन्द्र है, पर -प्रकाशित। वेद में अत्रि के मंडल में कहा है,  येतिमहि स्वराज्ये - स्वराज्य के लिए हम यत्न कर रहे हैं। आप क्या समझते हैं कि उस जमाने में किसी का उन पर राज था या वे परतंत्र थे? ऐसा नहीं है। मतलब यह है कि जब तक बुद्धि आत्म निष्ठ नहीं होती, तब तक स्वराज नहीं। अंदर से प्रकाश मिलेगा, तो स्वराज्य प्रकट होगा।

कहते हैं सोशियालिस्टिक स्टेट बनाना है। हिटलर का भी एक प्रकार का सोशियालिज़्म ही था। तो इस शब्द से कुछ अर्थ ही नहीं निकलता। व्यक्ति को समाज से अलग निकालते हैं और समाज को व्यक्ति से अलग समझते हैं, तब कैसे अर्थ निकलेगा? जो कल्पना से भी अलग नहीं हो सकते उनको तो पहले अलग कर दिया और फिर दोनों के बीच का झगड़ा मान्य किया। अब कहते हैं, उस झगड़े को मिटाने के लिए 'सोशियलिज़्म' लाना चाहिए। 

आज दुनिया में सब 'वर्ल्ड पीस' के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन बनता कुछ नहीं! इसका मतलब यह नहीं कि संतो महापुरुषों ने जो कार्य किया, उसका कुछ भी असर नहीं हुआ है। 'पीस' आज इसलिए नहीं है, क्योंकि उस शब्द में कुछ भी अर्थ नहीं है! वह शब्द ही अर्थशून्य है। जिसको हम शांति कहते हैं, वह 'पीस' नहीं है। वह 'पीस' तो 'वायलेण्ट' भी हो सकती है। किसी देश पर व्यापारी -बहिष्कार डाला जाता है। यह बिलकुल 'पीसफुल एक्शन' है। लेकिन इसमें भी हिंसा होती है। तो यह शांति नहीं है। शांति शब्द का 'पीस' के साथ कोई संबंध नहीं है। 'पीसफुल' यानी प्रत्यक्ष लाठी नहीं चलायेंगे; बल्कि युक्ति-प्रयुक्ति से किया हुआ काम भी 'पीसफुल' माना जाता है। इसलिए 'पीस' 'विश्व -शांति' करने में निकम्मी है। पाश्चात्य शब्द के परिणामस्वरूप हमारे चिंतन में यह सारे विचार-दोष आते हैं।

तो, सारा चिंतन ही ग़लत ढंग का चल रहा है। जब तक हम अपने शब्द की शक्ति नहीं पहचानेंगे और बाहर शब्द लेते जायेंगे तब तक हमारा चिंतन ऐसा ही ग़लत ढंग से जारी रहेगा। हम अपने शब्दों में चिंतन करेंगे, तो हमारा चिंतन मौलिक होगा। यह ठीक है कि जो अच्छी चीज़ है, हमारे लायक है, वह वहां से लेनी चाहिए। पर ऐसी ही चीज़ हम लें कि जो हमारे शब्दों में पैठती है। आज बहुत-से ग़लत शब्द हमारे चिंतन में पैठ गये हैं। परिणामस्वरूप ग़लत चिंतन होता है इसलिए शब्द शोधन का कार्य साहित्य का कार्य साहित्यिकों को करना चाहिए। ठीक शब्द लोगों के सामने रखने चाहिए। साहित्यिकों को इतना ही कहना है कि आप शब्द - शुचित्व की तरफ ध्यान दें। शुद्ध शब्द का आविष्कार होगा, तो आचार-विचार शुद्ध होगा और चिंतन भी शुद्ध होगा।

जहां शब्द-शक्ति कुंठित होती है, वहां उसकी जगह शस्त्र-शक्ति ले लेती है। अगर हम चाहते हैं कि शस्त्र-शक्ति समाप्त हो - क्योंकि मसले हल करने में नाकाम सिद्ध हो चुकी है - तो शब्द-शक्ति बढ़ानी चाहिए। शब्द-शक्ति के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि हम जो बोलते हैं, उसका वही अर्थ प्रकट हो, जो हमारे मन में है। शब्द-शक्ति के दूसरे मानी हैं - किसी के शब्दों से लाखों को प्रेरणा मिलना। पहले प्रकार की शक्ति सत्य पर निर्भर है, किन्तु दूसरी के लिए सत्य के साथ ही तप भी आवश्यक है। और इन दोनों को मिलाकर ही शब्द-शक्ति का पूर्ण स्वरूप निर्मित होता है।

(संकलनकर्ता- श्री अंकेश मद्धेशिया)

3 दिसंबर 2020

नेहरू को कोसने वाले उनका महत्व समझते हैं, इसीलिए उन्हें डराता रहता है उनका भूत भी

पुरुषोत्तम अग्रवाल 

प्रख्यात चिंतक; आलोचक

कौन है भारत माता? इस सवाल के पीछे जवाहरलाल नेहरू के चिंतन का रेजोनेन्स (अनुकंपन) है। भारत माता की जय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों का बहुत लोकप्रिय नारा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इस पर विचार करते हैं। संस्मरण की तरह विचार करते हैं कि मैं जब भी किसी सभा में जाता हूं, तो वहां नारा लगता है ‘भारत माता की जय।’ मैं लोगों से पूछता हूं कि कौन है भारत माता जिसकी हम जय बोलते हैं। तब कोई कहता है हमारे गांव की धरती। कोई कहता है देश की धरती। मैं लोगों से कहता हूं कि हां, यह सब तो है ही लेकिन असल में इस देश की जनता, आप। आप हैं भारत माता। आपकी जय भारत माता की जय है। नेहरू इस रिफ्लेक्शन में भारत माता की जय की पाॅपुलर इमेज पर भी चर्चा करते हैं। वह कहते हैं कि भारत माता एक ऐसी देवी के रूप में हमारे दिमाग में है जो एटर्नल है, कालातीत है, बहुत प्रभावी है, सुंदर है और उसी रूप में हम उन्हें देखते हैं। वास्तविकता यह है कि जो हमारी असली भारत माता है, वह गरीबी की जकड़ में है। बहुत ही मार्मिक वाक्य है नेहरू का- एंड पाॅवर्टी इज नाॅट ब्यूटीफुल। गरीबी सुंदर नहीं है। सादगी सुंदर हो सकती है, गरीबी सुंदर नहीं है। संयम सुंदर है, मजबूरी सुंदर नहीं है। इसलिए जिस भारत माता को देखते हैं तस्वीरों में, हकीकत कुछ और है। तो भारत माता की असली जय तब होगी जब हिंदुस्तान का हर गरीब, औरत और मर्द एक बुनियादी स्तर, एक बुनियादी ह्यूमिनिटी हासिल कर सके। वही है भारत माता की जय। नेहरू की ये बातें गांधी जी के उस मशहूर वक्तव्य से जाकर जुड़ती हैं कि जब भी तुम्हारे मन में कोई नैतिक उलझन हो कि क्या सही है या क्या गलत है, तो जो भी सबसे कमजोर आदमी तुम्हें याद आए, उसका चेहरा याद करो। उस इंसान को जिसे तुमने देखा हो और यह सोचो कि तुम्हारे इस काम से उसका फायदा होगा या नुकसान होगा। तो भारत माता की जय उस अंतिम आदमी-औरत की जय है। स्वाधीनता आंदोलन के लिए भारत माता का मतलब यह था।  


पूरा व्याख्यान राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के यूट्यूब चैनल द नेशनलिस्ट अड्डा पर सूना जा सकता है.

यह बात ध्यान में रखने की है कि जवाहरलाल नेहरू पाॅपुलर मायथोलाॅजी के विरुद्ध और जो मायथोलाॅजी कंस्ट्रक्ट की गई है, उसके विरुद्ध भारतीय परंपरा, भारतीय सोच और भारतीय इमैजिनेशन के प्रति कोई अवज्ञा का भाव नहीं रखते थे। भारत माता और भारत देश माता के रूप में यह कल्पना तो बहुत पुरानी नहीं है। पृथ्वी मां है, मैं पुत्र हूं यह बात बहुत पहले से मिलती है। जननी जन्म भूमि मिलती है लेकिन भारत नाम का भूखंड माता है, यह कल्पना बाद की है। भारत नाम के भूखंड की अपनी स्पष्ट पहचान है। ये कल्पना, ये बोध कम-से-कम ईसवी-सन के आरंभ होने तक स्पष्ट हो चुका है। विष्णु पुराण साफ तौर से हिमालय के दक्षिण और समुद्र के उत्तर वाले हिस्से को भारत और वहां निवास करने वालों को भारतीय कहता है। एक सेंस कि एक विशिष्ट भूखंड है जिसका नाम भारत है। यह है। उसकी कल्पना माता के रूप में करना, उस कल्पना को इस बात से जोड़ना कि हिंदुस्तान का गरीब से गरीब आदमी असल में भारत माता का प्रतीक है या भारत माता का असली रूप है- ये मॉडर्न नेशन बिल्डिंग, मॉडर्न नेशनलिज्म की सोच से जुड़ी हुई चीज है। यह सवाल हमें पूछना चाहिए कि हमारा नेशन का कॉन्सेप्ट क्या है, राष्ट्र का कांसेप्ट क्या है, राष्ट्र का मतलब क्या है।


इस समय एक आइडिया आॅफ इंडिया को, आइडिया आॅफ नेशन को रीडिजाइन करने की प्रक्रिया चल रही है। हिंदुत्व की, हिंदू परंपरा की, हिंदू भावनाओं की उपेक्षा की गई, मुसलमानों का एपीजमेंट किया गया आदि-आदि। इस सबको ठीक करने का समय अब आ गया है। इसलिए हम इस प्रक्रिया को रीडिजाइन कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में माननीय प्रधानमंत्री जी लगे हुए हैं। इसलिए अगर आपको थोड़ी-बहुत तकलीफ होती है, तो आप झेल लीजिए। यहां यह सवाल पैदा होता है। एक एकेडमिक के तौर पर, एक सोचने-विचारने वाले व्यक्ति के तौर पर हू इज भारत माता केवल एकेडमिक क्योरी, केवल पाॅलिटिकल क्योरी तक न रह करके एक तरह की फिलाॅसाॅफिकल क्योरी बन जाती है। जिस यूनिटी इन डायवर्सिटी में कंपोजिट कल्चर की बात की जाती है, क्या वह केवल एक नारा था। किसी तरह हिंदू-मुसलमान की एकता कायम कर अंग्रेजों को हटा देने का जो किसी हद तक सफल हुआ, किसी हद तक असफल हुआ। क्योंकि अंततः सांप्रदायिक आधार पर विभाजन हुआ। सांप्रदायिक राजनीति भारत के विभाजन के साथ खत्म हो गई, वैसा भी नहीं हुआ। तो क्या यह केवल एक नारा था, एक पाॅलिटिकल एक्सपीरिएंसी थी। इस बात को अच्छी तरह याद रखा जाना चाहिए कि भारत एक सामासिक संस्कृति पर आधारित नेशन है।


क्या बगैर भारतीय के हमारी कोई साझा सांस्कृतिक पूंजी है या हम एकता की बातें केवल हवा में करते हैं? इसीलिए वे बातें धराशायी हो जाती हैं, वे चल नहीं पातीं। जब हम साझा सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं, तो बात केवल हिदू-मुसलमान के संदर्भ में नहीं है। हमारे जो हिंदुत्ववादी मित्र हैं, वे भारतीय संविधान की जो हस्तलिखित प्रति है, उसमें इस बात को बार-बार रेखांकित करते हैं कि उसमें राम कथा से संबंधित चित्र हैं। वे ये अंडरलाइन करने के लिए इस बात को करते हैं कि जो लोग राम मंदिर आंदोलन के विरुद्ध या जो संघ की राजनीति के विरोधी हैं, वे भारतीय संविधान की आत्मा के भी विरोधी हैं। संविधान की पहली प्रति में रामकथा से संबंधित चित्र हैं लेकिन इसके साथ, नंदलाल बोस और उनके छात्रों द्वारा बनाई गई उन पेन्टिंग्स में, सिंधु घाटी के चित्र, गीता का उपदेश, बुद्ध हैं, महावीर हैं, चोल हैं, नटराज की प्रतिमा का चित्र है, अशोक हैं, विक्रमादित्य हैं, और हिन्दुत्ववादी मित्रों की सूचना के लिए, अकबर हैं, टीपू सुल्तान हैं, शिवाजी हैं, गुरु गोविंद सिंह हैं और बाय द वे, सुभाषचंद्र बोस हैं। दरअसल, जो इमेजिनेशन आॅफ नेशन है, उसमें राम कथा और अकबर एक दूसरे को एक्सक्लूड नहीं करते, गुरु गोविंद सिंह और टीपू सुल्तान एक दूसरे को एक्सक्लूड नहीं करते।


इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दुनिया के किसी भी समाज की तरह भारतीय समाज एक ऐतिहासिक समाज है। किसी भी समाज की तरह, इस समाज में भी संघर्ष रहे, झगड़े रहे, हिंसा रही। महत्वपूर्ण यह है कि इस समाज में एक मिडिल पाथ की खोज की चेष्टा भी लगातार रही। आप सीधे ऋगवेद के नासदीय सूक्त से इसे शुरू कर सकते हैं। नासदीय सूक्त को जवाहरलाल जी ने गहरी प्रशंसा और कृतज्ञता के बोध के साथ पूरे का पूरा उद्धृत किया है डिस्कवरी आॅफ इंडिया में। क्या है नासदीय सूक्त का सार– इस ब्रह्मांड के, सृष्टि के रहस्य को कोई नहीं जानता। इसका दार्शनिक इम्प्लीकेशन क्या है। यह है कि कोई भी नाॅलेज सिस्टम हो, व्यक्ति हो, वह अंतिम ज्ञान को पा लेने का दावा नहीं कर सकता। नेहरू बहुत गहराई से इसका अनुभव करते थे। डिस्कवरी आॅफ इंडिया का अंत वह इससे करते हैं। ये बात अच्छी तरह समझ लेने की जरूरत है कि वहां उन्होंने राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया है कि कोई भी राष्ट्र सत्य पर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता। एक ठेठ इंडियन क्लैसिकल पोजीशन। अब कहा जा रहा है न्यू इंडिया। काहे का न्यू इंडिया? इस अर्थ में कि अब तक जो इंडिया था, उसको रिजेक्ट करके हम एक नए इंडिया का कांसेप्ट बनाएंगे। इसलिए ये न्यू इंडिया है। उस अवधारणा को क्या हमें मान लेना चाहिए कि न्यू इंडिया ही सही है इसलिए यह सवाल बुनियादी है।


1928 में साइमन कमीशन के विरोध में कांग्रेस ने संविधान के लिए अपनी ओर से मोतीलाल नेहरू की सदारत में नेहरू कमेटी का गठन किया। नेहरू और बोस उसके सदस्य नहीं थे। नेहरू कमेटी के समक्ष सवाल यह था जो आज फिर जरूरी सवाल हो गया है कि किसी डेमोक्रेसी में कम्युनिटी के आधार पर, कास्ट के आधार पर बनी हुई मेजारिटी या माइनारिटी परमानेंट होगी या पालिटिकल च्वाइस के आधार पर बनी मेजारिटी या माइनारिटी बदलती रहेगी। जब हम मेजारिटी कहते हैं, तो इसका मतलब यह कि इस मुल्क में हिंदू मेजारिटी हैं क्योंकि उनकी तादाद ज्यादा है। ये कम्युनल मेजारिटी है, रिलीजियस मेजारिटी है, ये पालिटिकल मेजारिटी भी है। क्या सारे के सारे हिंदू किसी एक पालिटिकल पार्टी के साथ हैं या उन्हें होना चाहिए। नेहरू कमेटी के सामने यह सवाल था कि अगर हम सचमुच हिंदुस्तान को एक डेमोक्रेटिक सोसायटी बनाना चाहते हैं, एक प्रोग्रेसिव नेशन बनाना चाहते हैं, तो हमें चेंजिंग मेजारिटीज को स्थापित करना होगा। इसलिए ये जो फिक्स रिप्रजेंटेशन है, ये नहीं चलेगा।


आज जो लोग हिंदुत्व की राजनीति करते हैं, मुसलिम हितों की राजनीति करते हैं, वो घुमा-फिराकर इसी रिलीजियस या सोशल मेजारिटी को फिक्स्ड मेजारिटी में बदल देना चाहते हैं। इसीलिए इसका विरोध होता है और हो रहा है। जिसे इंटिग्रेटेड नेशनलिज्म कहा जा रहा है, वह बुनियादी तौर पर इंडिविजुअलिटी की अवधारणा पर आधारित है। इंडिविजुअलटी की धारणा डेमोक्रेसी का आधार है।


नेहरू के व्यक्तित्व को रेखांकित करने वाली मेरी पुस्तक ‘हू इज भारत माता’ पर पिछले साल बेंगलुरु लिटरेचर फेस्ट में चर्चा हुई थी। चर्चा में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा था कि नेहरू का अनोखापन इसमें था कि वे उत्तर भारतीय थे और हिंदी भाषी थे और तमिल भाषी की चिंता समझते थे। ब्राह्मण थे और दलित की चिंता समझते थे। पुरुष थे और भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति समझते थे।


नेहरू जी से वर्तमान सत्ता जिस तरह भयभीत रहती है, उस पर मैंने नारा गढ़ा है: नेहरू का भूत, सबसे मजबूत। इसलिए कि नेहरू का आइडिया आॅफ इंडिया सही मायनों में इंक्ल्यूसिव, डेमोक्रेटाइजिंग है। भारतीय इतिहास की वास्तविकताओं पर आधारित है। मैं कहता हूं कि इंडिया इज होपलेसली डायवर्स। इंडिया की डायवर्सिटी को जो डिनाई करेगा, वह इंडिया के इगजिस्टेंस को डिनाई करेगा। इसलिए नेहरू से चिढ़ है क्योंकि नेहरू भारत की डायवर्सिटी को गहराई से समझते थे और इसीलिए इतना प्रचार है नेहरू की तथाकथित अभारतीयता, तथाकथित अहिंदूपन का। नेहरू की भारतीयता उनके स्वभाव में है। हिंदू धर्म की गहरी समझ नेहरू के स्वभाव में है। उन्हें दिखाने, जताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह सहज है। इसीलिए नेहरू से डर है।


पाकिस्तान में जब दस साल के भीतर-भीतर डेमोक्रेसी खत्म हो गई और जनरल अयूब सत्ता में आ गए, तो पाकिस्तान के इंटेलेक्चुअल्स ने यह महसूस किया और लोगों ने लिखा कि द डिफरेंस बिट्वीन इंडिया एंड पाकिस्तान वाज एंड इज इज जवाहरलाल नेहरू। बिना नेहरू के कैसे भारत की कल्पना की जा सकती है? यह न भूलें कि नेहरू इस लिहाज से बहुत रेयर व्यक्ति थे कि ऐपरेंटली जो लोग बहुत कंजर्वेटिव और बहुत आर्थोडाग्स थे और जो नेहरू के जीवनकाल में उन्हें कोसते ही रहते थे, वे भी नेहरू के निधन पर बिलख-बिलखकर रोए थे। नेहरू ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में कहा था कि हिंदुस्तान में बड़े बुनियादी परिवर्तन आएंगे लेकिन वे आएंगे इन एकार्डेंस विथ इंडियन जीनियस। मैं यह नहीं मानता कि नेहरू को केवल कोसना मिला। आज भी कितने ही लोग नेहरू को मिस करते हैं। किसी भी पायनियर को इस तरह का कोसना झेलना होता है। ये न भूलें कि सारा प्रपंच ही इसीलिए है कि आप मानें या न मानें, समझें या न समझें, नेहरू को कोसने वाले उनका महत्व समझते हैं।

(राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट ‘जागो देश हमारा’ अभियान के अंतर्गत दिए गए व्याख्यान का नवजीवन समाचार पत्र द्वारा प्रकशित संपादित अंश}

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...