हम आपके वारिस हैं खान बाबा

सभ्यता की एक सामूहिक याददाश्त होती है. हमारी याददाश्त दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है. हम जिस देश के झंडे पर फख्र करते हैं और जिस भारत माता की जयकार लगाते हैं, उसके सबसे जांबाज सपूतों को भुला चुके हैं. यह आश्चर्य की बात है कि बहुतेरे पढ़े-लिखे युवा ईमानदारी से बताते हैं कि वो खान अब्दुल गफ्फार खान को नहीं जानते. किसी को न जानने से कोई आफत नहीं आती, आफत तब आने वाली होती है जब आप अपने पुरखों को भूलने लगते हैं. जब आप अपने अतीत को भूलने लगते हैं तो यकीन मानिए आपके नीचे की जमीन दरक रही है. वो दिन दूर नहीं जब मौज से यूट्यूब पर गाँधीजी-नेहरुजी के बारे में चटकारेदार वीडिओ देखते-देखते आपके नीचे की जमीन अचानक धंस जायेगी. 

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गांधीजी के साथ बादशाह खान

आज खान अब्दुल गफ्फार खान की पुण्यतिथि के मौके पर यही चेताते हुए मैं आपसे पूछता हूँ कि आप अफगानिस्तान के जलालाबाद शहर को आप कैसे जानते हैं? जाहिर है आतंक के गढ़ के तौर पर; जहां आये दिन कोई न कोई आतंकी घटना होती रहती है. कितनों को पता है कि इसी जमीन के भीतर शान्ति का एक बेचैन मसीहा दफ़न है. खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें हम सब बादशाह खान के नाम से पुकारते हैं, की कब्र इसी दहशतज़दां शहर जलालाबाद में है. फ़र्ज़ कीजिये मुस्लिम लीग न होती, जिन्ना ने देश को तोड़ने में अपनी सारी प्रतिभा न लगा दी होती और भारत का बंटवारा न हुआ होता तो क्या होता? खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती वाले खुदाई खिदमतगार पूरे देश में घूम- घूमकर शान्ति और सद्भावना का सन्देश दे रहे होते. हमेशा से सशस्त्र संघर्षों में यकीन करने वाली लड़ाकू जातियों को अहिंसक सत्याग्रही बनाने का जादू काम कर गया होता और भारतीय उपमहाद्वीप के इस ऊपरी हिस्से की तस्वीर आज कुछ और होती. 

बहरहाल, इतिहास हमारी मर्जी से नहीं बनता- बिगड़ता. बादशाह खान को उनकी जन्मशती पर याद करते हुए भी यह कसक रह ही जाती है. 1890 में पेशावर के पास उत्मज़ई गाँव के एक सम्पन्न पठान परिवार में पैदा हुए बादशाह खान ऊंचे डील-डौल के मजबूत आदमी थे. इतने मजबूत कि एक बार अंग्रेज सरकार ने उनको पहनाने के लिए ख़ास मजबूत बेड़ियाँ आर्डर पर बनवाई थीं. लेकिन वो भीतर से और भी फौलाद निकले. एक तरफ अंगरेजी राज के जुल्म को सहते और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग की दुश्मनी को निबाहते बादशाह खान ने अहिंसा को अपनी सबसे मजबूत ढाल बना लिया. उन्होंने अपनी जिंदगी के तमाम साल न सिर्फ अंगरेजी जेलों में बिताये बल्कि आज़ाद पाकिस्तान की सरकार ने भी उनसे दुश्मनों सा ही बर्ताव किया क्योंकि बादशाह खान भारत के बंटवारे की मांग के सामने सीना तानकर खड़े रहे थे. मुस्लिम सांप्रदायिक उनसे इस हद तक घृणा करते थे कि 1946 में उनकी जान लेने की नाकाम कोशिश भी की गयी. 

एक बार बादशाह खान ने गांधीजी से कहा कि गर्म खून के पठान अहिंसा का पालन किस हद तक कर पायेंगे. गांधीजी बोले कि अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है. इसके लिए बहुत ज्यादा बहादुर होने की जरूरत है और पठान एक बहादुर कौम हैं इसलिए वो अहिंसा का सबसे दृढ़ता से पालन कर सकते हैं. वाकई यही हुआ. शायद ही गांधीजी का कोई दूसरा ऐसा सिपहसालार हो, जिसने अहिंसा का पालन करने में उतनी कुशलता हासिल की हो, जितनी बादशाह खान और उनके लालकुर्ती वालों ने की थी. बादशाह खान ने धार्मिक पठानों को अहिंसा के पालन का एक नायब नुस्खा दे दिया था. उन्होंने कहा कि अहिंसा उनके इमाम यानी आस्था का हिस्सा है. इस पर भी मुस्लिम लीग ने उन पर जबरदस्त हमला बोला और खूब हो-हल्ला मचाया गया. 

आज जब हम पूरी दुनिया में इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्याओं के बीच खड़े हैं, बादशाह खान और इस्लाम की उनकी समझ हमारे लिए मशाल की तरह हैं. किस तरह बादशाह खान इस इलाके के लिए शांतिदूत थे, इसे एक मिसाल से समझा जा सकता है. 1988 में उनकी मृत्यु के वक़्त अफगानिस्तान में शीत युद्ध की वजह से गृह युद्ध चल रहा था. सोवियत संघ समर्थित नजीबुल्लाह के खिलाफ अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन संघर्ष छेड़े हुए थे. लेकिन तकरीबन दो लाख लोगों का कारवाँ जब बादशाह खान के पार्थिव शरीर को लेकर पेशावर से जलालाबाद की ओर चला, तो दोनों तरफ़ से उनके सम्मान में युद्ध विराम घोषित कर दिया गया था. हमें आप जैसे पुरखों की रौशनी की जरूरत है खान बाबा. हम आपकी लड़ाई में साथ देने के लिए नहीं थे लेकिन इस पीढ़ी के जेहन में हम आपकी विरासत को हरहाल में जिंदा कर देंगे. आपके संघर्षों के बदले हमारे पास देने के लिए इससे तुच्छ और क्या हो सकता है? 

सौरभ बाजपेयी
संयोजक
राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट
(आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन)

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