29 जनवरी 2017

कोई नहीं है गाँधी का हत्यारा (Nobody killed Gandhi)

३० जनवरी १९४८ को महात्मा गाँधी को किसने मारा? आज की राजनीति के हिसाब से कहें तो सेमी-आटोमेटिक बेरेट्टा एम पिस्तौल से चली तीन गोलियों ने. न ही कोई विचारधारा और न ही कोई व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार था. अगर कोई अपनी सारी सूझ-बूझ को ताख पर रख दे तो ही उस सच को निगल सकता है जिसे ज़बरदस्ती हमारे गले में धकेला जा रहा है. लेकिन अगर कोई ऐसा न करे तो गाँधीजी की हत्या में आरएसएस की संलिप्तता के बारे बहुत कुछ है जिसे बार-बार याद करने, दोहराने और साबित करने की जरूरत है. मुद्दे से भटकने की कोई जरूरत नहीं है. यह लेख एक ऐसी साजिश की तरफ इशारा करता है जिसमें हिन्दू महासभा और आरएसएस दोनों बराबर के भागीदार थे.

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गाँधीजी की हत्या पर आर० के० लक्ष्मण का एक कार्टून 
आरएसएस कभी स्वीकार नहीं करता कि गाँधीजी की हत्या में उसका कोई हाथ था. उनके हिसाब से नाथूराम गोडसे द्वारा अदालत में दिया गया बयान इस आरोप को झूठा सिद्ध करने के लिए काफी है. जिसमें गोडसे ने संघ से अपना कोई भी सम्बन्ध होने से इनकार किया था और कहा था कि सिर्फ वो और नारायण आप्टे ही गाँधीजी की हत्या के षड़यंत्र में शामिल थे. आरएसएस के हिसाब से खुद हत्यारे की ओर से दिया गया यह बयान काफी होना चाहिए. लेकिन इसी बयान में नाथूराम हिन्दू महासभा के विनायक दामोदर सावरकर का हाथ होने से भी साफ़ मुकर गया था. क्या इसका अर्थ है कि न तो आरएसएस और न ही हिन्दू महासभा गाँधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार थे? दरअसल, नाथूराम से कहा गया था कि अदालती कार्यवाही में वो हिन्दू महासभा और आरएसएस का बचाव करे. इसीलिए पूरी कार्यवाही के दौरान उसने एक बार भी वी० डी० सावरकर की ओर आँख उठाकर नहीं देखा था. 

जब लालकृष्ण अडवानी ने आरएसएस को इस मामले में क्लीन चिट देने की कोशिश की थी तो नाथूराम गोडसे के भाई और साजिश करने वालों में एक गोपाल गोडसे बिफर उठे थे. न सिर्फ उसने मैंने गाँधी को क्यों मारा नामक किताब में बल्कि अन्य जगहों पर भी उसने जोर देकर कहा कि उसके बड़े भाई ने कभी भी आरएसएस नहीं छोड़ी और अंत तक संघ के बौद्धिक कार्यवाह के तौर पर काम करता रहा. जब उससे नाथूराम गोडसे के अदालती बयान एक बारे में पूछा गया तो गोपाल गोडसे ने कहा कि नाथूराम ने ऐसा इसलिए कहा कि “”गाँधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस काफी मुसीबत में पड़ गए थे”. “आप कह सकते हैं”, गोपाल गोडसे ने कहा, “आरएसएस ने कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया था कि जाओ और गाँधी को मार दो लेकिन आप उससे खुद को अलग नहीं कर सकते”. 

यह तो अदालती दस्तावेजों में दर्ज है कि फाँसी पर चढ़ने से पहले नाथूराम गोडसे ने आरएसएस की नयी संस्कृत प्रार्थना पढी थी जिसे पुरानी प्रार्थना की जगह १९४० में शामिल किया गया था. मृदुला मुख़र्जी, आदित्य मुख़र्जी और सुचेता महाजन अपनी किताब आरएसएस, स्कूल टेक्स्ट्स एंड मर्डर ऑफ़ महात्मा गाँधी में सही फरमाते हैं: “अगर वह तब आरएसएस में नहीं था, जैसा वह दावा करता है, तब वह नयी प्रार्थना से कैसे परिचित था और उस प्रार्थना को अपनी जिंदगी के ऐसे नाजुक मौके पर, जब वह मृत्यु के मुहाने पर खड़ा है, क्यों पढता है?” चलिए एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि आरएसएस इस षड़यंत्र में सीधे शामिल नहीं था. वह तो हिन्दू महासभा का काम था जिसे ऐसा स्वीकार करने में कभी कोई शर्म नहीं आयी. आज भी उसे इस मामले में जरा सा भी संकोच नहीं होता. बल्कि अभी हाल ही में उन्होंने गोडसे की मूर्तियाँ स्थापित करने और मंदिर बनाने की बाकायदा कोशिशें की हैं. तब हिन्दू महासभा और आरएसएस के बीच के संबंधों की जाँच-पड़ताल जरूरी हो जाती है.  

गृह मंत्रालय का एक रिकॉर्ड बताता है कि आरएसएस और हिन्दू महासभा के बीच आपसी रिश्ते कितने गहरे थे. ८ अगस्त १९४७ को गृह सचिव ने सीआईडी के डीआईजी और मुंबई के पुलिस कमिश्नर से हिन्दू महासभा और आरएसएस के सदस्यों की लिस्ट तैयार करने को कहा. पूना पुलिस ने सिर्फ हिन्दू महासभा के सदस्यों की लिस्ट ही जमा कराई और आरएसएस के सदस्यों की अलग लिस्ट नहीं भेजी. क्योंकि दोनों के सदस्यों की अलग पहचान करना बहुत मुश्किल था और गुप्त संगठन होने की वजह से आरएसएस के बारे में जानकारी जुटाना खुद में बहुत कठिन काम था. १९४० के बाद जब आरएसएस ने उत्तर भारत में ताकत जुटानी शुरू की थी, गुप्तचर विभाग उसकी कार्यप्रणाली की जानकारी जुटाने में भारी मशक्कत करता रहा. आरएसएस की गतिविधियों पर १७ सितम्बर १९४७ की एक रिपोर्ट बताती है कि ‘उसके (संघ के) ज्यादातर संगठनकर्ता और कार्यकर्ता या तो हिन्दू महासभा के सदस्य हैं या उसकी विचारधारा में यकीन करते हैं.’ इसीलिए जीवनलाल कपूर समिति इस नतीजे पर पहुँची थी कि ‘यह सिद्ध करने के लिए साक्ष्य मौजूद हैं कि बहुतेरे आरएसएस सदस्य हिन्दू महासभा के भी सदस्य हैं’.     

इसके अलावा, गाँधीजी की हत्या के पीछे निर्णायक भूमिका उस जहरीले प्रचार की थी जो १९३० के मध्य से देश भर में फैलाया जा रहा था. वास्तव में न सिर्फ हिन्दू सांप्रदायिक संगठन बल्कि मुस्लिम लीग भी गाँधी और अन्य कांग्रेस नेताओं के खिलाफ जहर फैला रही थी. हिन्दू और मुस्लिम दोनों तरह के साम्प्रदयिकताओं के लिए गाँधी साझे दुश्मन थे. हालांकि, आखिर में, भारत के बंटवारे के बाद वो हिन्दू साम्प्रदायिकता ही थी जिसे गाँधी भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के अपने पुराने सपने को साकार करने की दिशा में सबसे बड़ा रोड़ा लगते थे. यह भी सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तथ्य है कि उस समय के गृह मंत्री सरदार पटेल ने गोलवलकर को लिखे एक पत्र में साफ़ तौर पर कहा था कि “उनके (संघियों के) सभी भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे थे. इस जहर के परिणामस्वरुप देश को गाँधीजी के प्राणों की क्षति उठानी पड़ी.” “आरएसएस के लोगों ने”, पटेल ने आगे जोड़ा, “”गाँधीजी की मृत्यु के बाद ख़ुशी जाहिर की और मिठाइयाँ बांटीं.” १८ जुलाई १९४८ को श्यामाप्रसाद मुख़र्जी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा: “”गाँधीजी की हत्या और आरएसएस-हिन्दू महासभा के बारे में मामला न्यायालय में विचाराधीन है इसलिए इन दोनों (संगठनों) की संलिप्तता के बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा लेकिन हमारी सूचना बताती यह पुष्ट करती है कि इन दोनों संगठनों की गतिविधियों की वजह से, ख़ास तौर पर पहली (आरएसएस) की वजह से, देश में एक ऐसा वातावरण तैयार किया गया जिस कारण से यह खौफनाक हादसा संभव हुआ.”

मान लें कि अगर ऊपर लिखा यह सब निरा झूठ है और आरएसएस का गाँधीजी की हत्या से कोई लेना-देना नहीं है तो उसे नाथूराम गोडसे, सावरकर और हिन्दू महासभा की सार्वजनिक रूप से निंदा करनी चाहिए. उसे गाँधीजी के खिलाफ दिए गए जहरीले भाषणों के लिए माफी मांगनी चाहिए जो कि अभिलेखीय स्रोतों में साफ़ तौर पर दर्ज हैं. उसे एनडीए-1 के दौरान संसद परिसर में सावरकर की प्रतिमा लगाने के लिए भी सार्वजनिक क्षमा मांगनी चाहिए. उसे सरदार पटेल की सार्वजनिक भर्त्सना भी जरूर करनी चाहिए जिन्होंने न सिर्फ आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया था बल्कि अपने पत्राचार में संघ के बारे में इस तरह की ‘आपत्तिजनक’ टिप्पणियाँ भी की थीं. सबसे बढ़कर, उसे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के अपने सपने से छुटकारा पा लेना चाहिए जो कि उसकी विचारधारा से नाभिनालबद्ध है और जिसकी वजह से गाँधीजी की हत्या की गयी थी.    

सौरभ बाजपेयी 
(लेखक आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों को समर्पित राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

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Nobody killed Gandhi
Who killed Gandhi on 30 January 1948? Trying to be politically correct; three petty bullets fired from semi automatic Beretta M pistol. Neither any ideology nor any individual was responsible for that. If one surrenders one’s own faculty of critical enquiry would comfortably swallow the truth we are pushed to be swallowed nowadays. But, if not, then there is much to be reiterated, reasserted and remembered about RSS links to the murder of Mahatma Gandhi. There is no need to divert the issue. Hence, this article emphasizes on historical evidences which insinuate a conspiracy in which RSS and Hindu Mahasabha were equal stake holders.

RSS never accepted that it had anything to do with Gandhi’s murder conspiracy. For them, the proof is Nathuram Godse’s court statement. Godse denied any links with the RSS and said that only he and Narayan Apte were involved in the conspiracy. For RSS, this submission by the assassinator himself is more than enough. But in the same statement he also nullified Hindu Mahasabha and its mentor Savarkar’s hand in it. Does it prove neither RSS nor Hindu Mahasabha was responsible for Gandhi’s murder? Actually, Godse was instructed to shield the RSS and the Hindu Mahasabha. That’s why during the trial he never made an eye to eye contact with Savarkar.

When Lalkrishna Advani tried to give RSS a clean chit, Godse’s younger brother and one of the conspirator Gopal Godse infuriated. Not only he wrote a book on Gandhi’s assassination entitled as Why I Assassinated Gandhi but in other places too, he testified that the elder Godse had never left the RSS and served as its Bouddhik Karyavah (intellectual worker). When he was asked by a correspondent about Godse’s court statement, Gopal Godse said that Nathuram denied it because “Golwalkar and RSS were in a lot of trouble after the murder of Gandhi”. “You can say”, junior Godse added, “RSS did not pass a resolution, saying that, ‘go and assassinate Gandhi’. But you do not disown him.” It is a recorded fact that before going to gallows, Nathuram Godse had recited the new Sanskrit RSS prayer that replaced the old one in 1940. Mridula and Aditya Mukherjee, in their famous book RSS, School Texts and the Murder of Mahatma Gandhi rightly asked: “if he was no longer in the RSS, as he claimed, then how did he know the new prayer and why did he recite it at such a critical point in his life, on the threshold of its end?”

Let’s assume for a moment, RSS was not directly involved in the conspiracy. It was Hindu Mahasabha which never ever felt ashamed of the act. Even today, it does not show any sign of embarrassment in this regard. Rather, they, very recently, tried to erect statues and build temples after Godse’s name. How close the association between both the organisations was shown by a record of Home Ministry. On 8 August 1947, the Home Secretary asked the DIG of the CID and the Police Commissioner of Bombay to prepare a list of RSS and Hindu Mahasabha workers, the Poona Police only submitted the list of Hindu Mahasabha members and didn’t submit a separate list of the RSS members. Getting information about RSS organization was quite difficult as it was a secret organization. Since 1940s when the RSS was strengthening its position in northern India, the IB was struggling to get details of its modus operandi. A report on the activities of the RSS dated 17 September 1947 stated that ‘most of its prominent organizers and workers are either members of the Hindu Mahasabha or sponsors of the Hindu Mahasabha ideology’. Hence, the Jeevan Lal Kapur Commission reached on the conclusion that ‘there is evidence to show that many RSS members were members of the Hindu Mahasabha’.

Apart from that, the pivotal factor behind Gandhi’s assassination was the vicious atmosphere which had been created since middle of 1930s. Actually, not only the Hindu communal organizations like RSS and Hindu Mahasabha but the Muslim League too was spreading venom against Gandhi and other Congress leaders. Either for Hindu or Muslim communalism, Gandhi was the common enemy. However, at last, after partition of India, it was Hindu communalism which found Gandhi the biggest obstacle to achieve the long cherished goal of establishing a Hindu Raj in India. It is again a recorded fact that Sardar Patel, the then Home Minister of India, in a letter to Golwalkar, categorically said that “all their (RSS men) speeches were full of communal poison. As a result of their poison, the country had to suffer the sacrifice of the invaluable life of Gandhiji.” “RSS men”, Patel added, “expressed joy and distributed sweets after Gandhiji’s death.” In his letter to Syama Prasad Mookerjee dated 18 July 1947 Patel categorically wrote:“As regards the RSS and the Hindu Mahasabha, the case relating to Gandhiji’s murder is sub judice and I should not like to say anything about the participation of the two organisations, but our reports do confirm that, as a result of the activities of these two bodies, particularly the former, an atmosphere was created in the country in which such a ghastly tragedy became possible.”

Above all, if everything written above is false and RSS had nothing to do with Gandhi’s assassination, it must publically condemned Nathuram Godse, Savarkar and Hindu Mahasabha. It should also apologize for its hate speeches against Gandhi that is well documented in the archival records. It should make a public apology for erecting a statue of Savarkar in the premises of Parliament of India during NDA I. It must denunciate Sardar Patel who imposed a ban on the RSS and made such comments in his correspondence. Moreover, it should get rid of ideology of Hindu Rashtra which killed Gandhi.

Saurabh Bajpai
(The writer is the National Convener of the National Movement Front; an organization dedicated to uphold the values of the freedom struggle.)

20 जनवरी 2017

हम आपके वारिस हैं खान बाबा

सभ्यता की एक सामूहिक याददाश्त होती है. हमारी याददाश्त दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है. हम जिस देश के झंडे पर फख्र करते हैं और जिस भारत माता की जयकार लगाते हैं, उसके सबसे जांबाज सपूतों को भुला चुके हैं. यह आश्चर्य की बात है कि बहुतेरे पढ़े-लिखे युवा ईमानदारी से बताते हैं कि वो खान अब्दुल गफ्फार खान को नहीं जानते. किसी को न जानने से कोई आफत नहीं आती, आफत तब आने वाली होती है जब आप अपने पुरखों को भूलने लगते हैं. जब आप अपने अतीत को भूलने लगते हैं तो यकीन मानिए आपके नीचे की जमीन दरक रही है. वो दिन दूर नहीं जब मौज से यूट्यूब पर गाँधीजी-नेहरुजी के बारे में चटकारेदार वीडिओ देखते-देखते आपके नीचे की जमीन अचानक धंस जायेगी. 

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गांधीजी के साथ बादशाह खान

आज खान अब्दुल गफ्फार खान की पुण्यतिथि के मौके पर यही चेताते हुए मैं आपसे पूछता हूँ कि आप अफगानिस्तान के जलालाबाद शहर को आप कैसे जानते हैं? जाहिर है आतंक के गढ़ के तौर पर; जहां आये दिन कोई न कोई आतंकी घटना होती रहती है. कितनों को पता है कि इसी जमीन के भीतर शान्ति का एक बेचैन मसीहा दफ़न है. खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें हम सब बादशाह खान के नाम से पुकारते हैं, की कब्र इसी दहशतज़दां शहर जलालाबाद में है. फ़र्ज़ कीजिये मुस्लिम लीग न होती, जिन्ना ने देश को तोड़ने में अपनी सारी प्रतिभा न लगा दी होती और भारत का बंटवारा न हुआ होता तो क्या होता? खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती वाले खुदाई खिदमतगार पूरे देश में घूम- घूमकर शान्ति और सद्भावना का सन्देश दे रहे होते. हमेशा से सशस्त्र संघर्षों में यकीन करने वाली लड़ाकू जातियों को अहिंसक सत्याग्रही बनाने का जादू काम कर गया होता और भारतीय उपमहाद्वीप के इस ऊपरी हिस्से की तस्वीर आज कुछ और होती. 

बहरहाल, इतिहास हमारी मर्जी से नहीं बनता- बिगड़ता. बादशाह खान को उनकी जन्मशती पर याद करते हुए भी यह कसक रह ही जाती है. 1890 में पेशावर के पास उत्मज़ई गाँव के एक सम्पन्न पठान परिवार में पैदा हुए बादशाह खान ऊंचे डील-डौल के मजबूत आदमी थे. इतने मजबूत कि एक बार अंग्रेज सरकार ने उनको पहनाने के लिए ख़ास मजबूत बेड़ियाँ आर्डर पर बनवाई थीं. लेकिन वो भीतर से और भी फौलाद निकले. एक तरफ अंगरेजी राज के जुल्म को सहते और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग की दुश्मनी को निबाहते बादशाह खान ने अहिंसा को अपनी सबसे मजबूत ढाल बना लिया. उन्होंने अपनी जिंदगी के तमाम साल न सिर्फ अंगरेजी जेलों में बिताये बल्कि आज़ाद पाकिस्तान की सरकार ने भी उनसे दुश्मनों सा ही बर्ताव किया क्योंकि बादशाह खान भारत के बंटवारे की मांग के सामने सीना तानकर खड़े रहे थे. मुस्लिम सांप्रदायिक उनसे इस हद तक घृणा करते थे कि 1946 में उनकी जान लेने की नाकाम कोशिश भी की गयी. 

एक बार बादशाह खान ने गांधीजी से कहा कि गर्म खून के पठान अहिंसा का पालन किस हद तक कर पायेंगे. गांधीजी बोले कि अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है. इसके लिए बहुत ज्यादा बहादुर होने की जरूरत है और पठान एक बहादुर कौम हैं इसलिए वो अहिंसा का सबसे दृढ़ता से पालन कर सकते हैं. वाकई यही हुआ. शायद ही गांधीजी का कोई दूसरा ऐसा सिपहसालार हो, जिसने अहिंसा का पालन करने में उतनी कुशलता हासिल की हो, जितनी बादशाह खान और उनके लालकुर्ती वालों ने की थी. बादशाह खान ने धार्मिक पठानों को अहिंसा के पालन का एक नायब नुस्खा दे दिया था. उन्होंने कहा कि अहिंसा उनके इमाम यानी आस्था का हिस्सा है. इस पर भी मुस्लिम लीग ने उन पर जबरदस्त हमला बोला और खूब हो-हल्ला मचाया गया. 

आज जब हम पूरी दुनिया में इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्याओं के बीच खड़े हैं, बादशाह खान और इस्लाम की उनकी समझ हमारे लिए मशाल की तरह हैं. किस तरह बादशाह खान इस इलाके के लिए शांतिदूत थे, इसे एक मिसाल से समझा जा सकता है. 1988 में उनकी मृत्यु के वक़्त अफगानिस्तान में शीत युद्ध की वजह से गृह युद्ध चल रहा था. सोवियत संघ समर्थित नजीबुल्लाह के खिलाफ अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन संघर्ष छेड़े हुए थे. लेकिन तकरीबन दो लाख लोगों का कारवाँ जब बादशाह खान के पार्थिव शरीर को लेकर पेशावर से जलालाबाद की ओर चला, तो दोनों तरफ़ से उनके सम्मान में युद्ध विराम घोषित कर दिया गया था. हमें आप जैसे पुरखों की रौशनी की जरूरत है खान बाबा. हम आपकी लड़ाई में साथ देने के लिए नहीं थे लेकिन इस पीढ़ी के जेहन में हम आपकी विरासत को हरहाल में जिंदा कर देंगे. आपके संघर्षों के बदले हमारे पास देने के लिए इससे तुच्छ और क्या हो सकता है? 

सौरभ बाजपेयी
संयोजक
राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट
(आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन)

17 जनवरी 2017

दर्शन-रहित खादी सिर्फ एक कपड़ा है.

सौरभ बाजपेयी

क्या गाँधीजी के लिए चर्खा एक ब्रांड था? क्या गाँधीजी चर्खे के ब्रांड एम्बेसडर थे? आजकल हर चीज़ को बाज़ार की शब्दावली में पिरोने का बड़ा चलन है. मोदीजी इस कला के माहिर हैं. उनके लिए कहा जाता है कि वो इवेंट मैनेजर हैं. वो हर चीज़ को बाजारी जुमले में परोसते हैं. मेड इन इंडिया में कुछ भी इंडियन नहीं है, पर बाजारबोध है. यही हाल कमोबेश उनकी हर योजना का है. मोदीजी विकास के नाम पर वोट मांगकर सत्ता में आये हैं. उनकी मजबूरी है कि वो हर कहीं अच्छे दिन का अहसास दिलाते रहें. इसलिए इस साल खादी की बिक्री में हुयी बढ़ोत्तरी को वो अपनी उपलब्धि की तरह पेश करना चाहते हैं. इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन आत्मरति की एक सीमा होती है. वो उस सीमा को पार कर गए हैं. उन्हें अपनी छवि इतनी विराट दिखने लगी है कि वो गाँधीजी की जगह खुद को देखना चाहते हैं. लेकिन क्या यह कोई आसान सपना है? 

गाँधीजी के लिए चरखा कातना और खद्दर पहनना भारत की आम गरीब जनता के साथ एकाकार होने का जरिया था. गाँधीजी ने खादी अपनाई थी क्योंकि वो भारत के आम गरीब लोगों की तरह दिखना चाहते थे. आज जो लोग खादी पहनकर उसके ब्रांड अम्बेसडर बनना चाहते हैं, वो आम लोगों के बीच ख़ास दिखना चाहते हैं. गाँधीजी ने अपने करियर को स्वेच्छा से त्यागकर गरीबी को अपना लिया था. वो पैदाइशी गरीब नहीं थे, उन्होंने गरीब हो जाने के रास्ते को सोच-समझकर चुना था. आज जो लोग कैलेंडर पर चरखा कात रहे हैं वो कहते हैं कि वो पैदाइशी गरीब थे. उन्होंने—उनके खुद के कहे मुताबिक़— रेलवे स्टेशन पर चाय तक बेची है. लेकिन अपने हाथ में ताकत आते ही उन्होंने अमीर रजवाड़ों जैसी जिंदगी चुन ली है. वो भोग-विलास और सुख-सुविधा की जिंदगी जीने वाले व्यक्ति हैं. महंगे कपडे उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा हैं. कई बार तो उनके सूट की कीमत कई-कई लाख होती है. उनके द्वारा इस्तेमाल किये गए पेन और घड़ियाँ भी दुनिया के सबसे महंगे ब्रांड हैं.

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इसलिए गाँधीजी जब चरखा कातते थे तो उसके पीछे त्याग की एक पूरी गाथा छिपी थी. जो व्यक्ति लन्दन से बैरिस्टरी पढ़कर शानो-शौकत की जिंदगी बसर कर सकता था, उसने अपने लिए ताउम्र संघर्ष की राह चुनी थी. सादा-कठोर जीवन और थकाने वाली दिनचर्या— गाँधीजी के चरखे के पीछे यह नैतिक ताकत काम करती थी. गाँधीजी विलायत से लौटकर भारत आये तो वापस नहीं गए. दूसरे गोलमेज सम्मलेन के लिए ही वो लन्दन गए और वहाँ भी उन्होंने अपनी वेशभूषा नहीं बदली. अपनी धोती को आधा पहने और आधा ओढ़े वो फ़कीर यूरोप की ठंडी आबोहवा में भी ब्रिटिश राज की आँख की किरकिरी बना रहा. लेकिन आज जो लोग कैलेंडर पर गाँधीजी की जगह लेने की हसरत पाल बैठे हैं, वो पूरी दुनिया का चक्कर लगाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री बने हैं. उनका दिल अपने देश, अपने देश के लोगों और उसकी मिट्टी में लगने से ज्यादा विदेश में रमता है. गाँधीजी ने खुद को हर तरह के झूठ-फरेब और धोखाधड़ी से बचाकर आत्मबल इकठ्ठा किया था. मोदीजी अपने हवाई जुमलों, झूठे वायदों और कॉर्पोरेट के पक्ष में आम गरीब लोगों को ठगने के लिए जाने जाते हैं. गाँधीजी के विरोधी उन्हें गाली देने के लिए “अधनंगा फ़कीर” कहते थे. मोदीजी जब खुद को फ़कीर कहते हैं तो लोग सिवाय खिल्ली उड़ाने के उनको गंभीरता से नहीं लेते.   

यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि खादी कोई उत्पाद नहीं है. अगर है भी तो बिना अपने दर्शन के तो कतई नहीं. सवाल है कि क्या खादी की बिक्री के साथ ही खादी दर्शन का भी इजाफा हुआ है? अगर नहीं तो यह खादी हमारे किस काम की? फिर तो चाहे हम खादी पहनें या रेशम— उसका हमारे लिए कोई मोल नहीं. खादी एवं ग्रामोद्योग कमीशन का दावा है कि मोदीजी द्वारा खादी पहनने की अपील के बाद खादी की बिक्री में ३४% का इजाफा हुया है. इसलिए बदले जमाने में जो खादी की बिक्री में उछाल लाएगा वही उसका ब्रांड अम्बेसडर बन जाएगा. ठीक है लेकिन सवाल तो बनता है कि खादी के पीछे गाँधीजी ने जो दर्शन जोड़ा था क्या मोदीजी उसकी बिक्री में उछाल लाने की कोई कोशिश करने को तैयार हैं? गाँधीजी आम गरीब भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए चरखे को मुद्रा व्यवस्था की तरह सार्वभौमिक बनाना चाहते थे. यहाँ मोदीजी आम गरीब की फ़िक्र किये बिना चरखे को मुद्रा व्यवस्था बनाना तो दूर, खुद मुद्रा का ही विमुद्रीकरण कर देते हैं. पिछले कुछ महीनों से नोटबंदी की वजह से तकरीबन पांच-छह करोड़ मजदूर बेरोजगार हो गए हैं. गाँधीजी होते तो उनके हाथ में चरखा देकर मोदी सरकार के विरुद्ध प्रतिरोध खड़ा कर देते.

खादी के दर्शन को समझने के कई आयाम हैं. पहला उसके पीछे छुपा आर्थिक आत्मनिर्भरता का सूत्र है. गाँधीजी सबसे पहले और मूल रूप से राजनीतिज्ञ थे. उन्होंने अपने समयकाल परिस्थिति के अनुसार अपनी रणनीति बनायी थी. अंगरेजी राज के बर्बर आर्थिक शोषण ने भारत को खोखला कर दिया था. परंपरागत हस्तशिल्प और करघा उद्योग को बर्बाद करके विदेशी कपड़ों से भारत के बाजार को पाट दिया था. लन्दन और मैनचेस्टर के कारखानों में बने कपड़े के लिए भारत एक बाज़ार बन गया था. बुनकरों की दशा ऐसी हो गयी थी कि वो हमेशा मौत की कगार पर खड़े रहते थे. भारत में खेती और अन्य उद्योग एक दूसरे के पूरक थे. जो बुनकर थे वो किसान भी थे और जो किसान थे वे भी बुनकरी जैसे काम करते रहते थे. इस हाल में स्वदेशी आन्दोलन के नेताओं ने विदेशी माल और संस्थानों का बहिष्कार किया. गाँधीजी ने इसी भाव को विस्तार देने के लिए १९०८ के बाद चरखे को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बना दिया. 

चरखा उनके लिए कई मायनों में बहुत उपयोगी अस्त्र रहा. वे हर हाथ को काम देने के पक्षधर थे. मशीन से हुआ उत्पादन उन्हें मानव श्रम के विरुद्ध लगता था. इसलिए भी चरखा कातना उन्हें मशीन के प्रति प्रतिरोध जैसा लगता था. दूसरी चीज थी कि यह भयंकर गरीबी से जूझ रहे लोगों के लिए एक ही साथ आर्थिक संबल और राजनीतिक हथियार था. आम गरीब लोग लम्बे समय तक जेल नहीं आ सकते थे. उनकी संघर्ष की क्षमता कम थी क्योंकि उन्हें अपने परिवार का पेट भी पालना होता था. इसलिए चरखा कातकर वो अपने लिए कपड़ा जुटा सकते थे, उनकी कुछ आय भी हो जाती थी और वो ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ चल रहे महासंग्राम का हिस्सा भी बन जाते थे. तीसरे, चरखा कातने के कार्यक्रम में महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले सकती थीं. उनके लिए यह आराम से उनकी दिनचर्या का हिस्सा हो सकता था. महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनाना गाँधीजी का एक महत्वपूर्ण योगदान था. 

गाँधी चरखे को इतना महत्त्व देते थे कि उन्होंने चरखे को स्वराज के बराबर बताया था. उन्होनें कहा कि जो चरखे का महत्त्व नहीं समझते, वो स्वराज के अर्थ नहीं समझ सकते. मोदीजी और उनकी संगठन आरएसएस ने बहुत पहले ही स्वराज को सुराज में तब्दील कर दिया है. स्वराज का मतलब है हर भारतीय का अपना राज जबकि सुराज का मतलब है सत्ता चाहे किसी के हाथ हो उसे ठीक ढंग से संचालित करना. यानी उन्होंने गाँधीजी के चरखे से जुड़े दर्शन को सिर के बल खड़ा कर दिया है. हर भारतीय के हाथ में सत्ता के बजाय अब सत्ता अम्बानी-अडानी के हाथ में भी हो सकती है. और, मोदीजी उनके लिए जमीन से लेकर संसाधन तक जुटाने के लिए श्रमिक कानूनों में सुराज के नाम पर श्रमिक विरोधी बदलाव कर सकते हैं. अगर किसान अपनी जमीनें स्वेच्छा से सरकार को सौंपने को तैयार न हों तो मोदीजी सुराज के नाम पर भूमि अधिग्रहण बिल में किसान-विरोधी संशोधन कर सकते हैं.   

मोदीजी की बात अलग है. वो इतिहास का हर पन्ना फाड़कर हर कहीं अपना नाम लिखने को बेताब हैं. अगर ऐसा वो अपने कामों के बूते करते तो अलग बात थी. वो अपने प्रचार माध्यम से लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वो किसी भी महापुरुष से बड़े महापुरुष हैं. पहले उन्होंने नेहरु के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए खुद को सरदार पटेल की तरह पेश किया. यह बात अलग है कि सरदार पटेल और नेहरु आपस में प्रतिद्वंदी नहीं सहयोगी थे. सरदार पटेल ने गाँधीजी की हत्या के बाद जाने कितनी बार लोगों से नेहरु को अपना नेता मानने की अपील की थी. लेकिन आरएसएस और उसके उत्पाद मोदीजी को इतिहास के सत्य से मतलब नहीं. उन्हें लोगों के दिमाग में यह कीड़ा डालने से मतलब है कि अगर नेहरु की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो इतिहास कुछ और ही होता. गाँधीजी पर सीधा हमला बोलने की कुव्वत इस देश में किसी के पास नहीं है. लेकिन अपरोक्ष रूप से इसी बहाने वो गाँधीजी पर भी हमला बोल लेते हैं. गाँधीजी के आस-पास के सभी महापुरुष अगर आपस में लड़ने-झगड़ने वाले तुच्छ स्वार्थी सिद्ध हो गए तो गाँधीजी सहित आजादी की समूची लड़ाई को ध्वस्त करना आसान हो जाएगा. यह कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी की लड़ाई से धोखा करने वालों के पास अपना चेहरा बचाने का सिर्फ एक रास्ता है— स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत को जड़ से मिटा देना.  

गाँधीजी के बारे में उल-जुलूल बातें फैलाना और इतिहास के तथ्यों को विकृत करके पेश करना इसी योजना का हिस्सा है. हाल ही में इन्टरनेट के प्रसार के बाद संघ और उससे जुड़े संगठनों ने सोशल मीडिया और डिजिटल स्पेस के जरिये लोगों के मन में गाँधीजी के प्रति नफरत फैलाने का काम और तेज किया है. अब यह पहले से कहीं सस्ता और सुलभ साधन है. इसलिए हर तरह की सोशल नेटवर्किंग साइट्स और यूट्यूब आदि पर गाँधीजी के विरुद्ध घृणित दुष्प्रचार किया है. ये कौन लोग हैं? यह ऐसा सवाल है जिसका उत्तर एकदम आसान है. गाँधीजी की हत्या में संलिप्तता के बावजूद संघ ने कभी यह नहीं माना कि उसने गाँधीजी की हत्या में हाथ बंटाया. उसी तरह कौन नहीं जानता कि छद्म नामों से इन्टरनेट पर गाँधीजी के खिलाफ अभियान चलने वाले कौन हैं और किस विचारधारा के हामी हैं. 

आज जो भी समाज सेवा या राजनीति के क्षेत्र में आता है, खादी उसका स्वाभाविक पहनावा बन जाता है. गाँधीवादी कार्यकर्ता ही नहीं, अन्य सभी खादी के बने कुरते पहने दिखाई देते हैं. राजनीति में तो खादी एक तरह से राजनीतिक होने का प्रतीक बन गयी है. खद्दर पहनकर लोग बिना कुछ त्याग किये एक दर्जा हासिल कर लेते हैं. वह दर्जा है गाँधीजी की तरह देश और समाज के लिए समर्पित होने का. जब भी कोई राजनीति में हाथ अजमाने का विचार करता है, वह सीधा खादी भण्डार की ओर चल देता है. यह कई लोगों की गाँधी के प्रति श्रृद्धा है. वो गांधी को अपना आदर्श मानते हैं. इसलिए गाँधीजी जैसा पहनावा और उसके पीछे का दर्शन उनके जीवन का अंग बन जाता है. कई समर्पित गाँधीवादी कार्यकर्ता आज भी रोजाना चरखा कातते हैं. कई आजीवन खादी को पहनकर सादगीपूर्ण जीवन जीते हैं. इसलिए वो लोग इस विवेचना के दायरे में नहीं आते. मैं उन सब लोगों के प्रति चिंतित हूँ जो खादी को अपनी कमियाँ-कमजोरियाँ छुपाने की ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं. 

कभी-कभार खादी पहनने के बावजूद मैं खुद को यह नहीं समझा पाता कि एक गाँधीवादी कार्यकर्ता होने के नाते मुझे हमेशा खादी पहननी चाहिए. इसकी वजह है कि आज खादी भंडारों पर बिकने वाली खादी के पीछे गाँधीजी का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन लापता है. अब यह किसी राजनीतिक लड़ाई का अस्त्र नहीं है, सामाजिक रूपांतरण का साधन नहीं है. केवल एक चीज है कि खादी की बुनाई-कताई में लगे लोगों के लिए खादी आज भी रोजगार का साधन है और खादी ग्रामोद्योग जैसे संस्थानों के लिए मोटी कमाई और मुनाफे का जरिया. हाल की इस घटना ने मेरे इस विश्वास को पुख्ता कर दिया है कि यह खादी वह खादी नहीं है. वैसे भी गाँधीजी कहते थे कि कातो तो पहनो और पहनो तो कातो. अब कातने वाले महँगी होने की वजह से खादी पहनते नहीं और पहनने वाले खादी-दर्शन के प्रति श्रद्धा न होने की वजह से कातते नहीं. इसीलिए लोगों से खादी पहनने की अपील करके खादी की बिक्री में अभूतपूर्व उछाल लाने वाले मोदीजी जब लुधियाना में चरखा कातते हैं तो चरखा नहीं कात पाते, महज़ फोटो सेशन करते हैं. और, सिर्फ मोदीजी ही क्यों, राजनीतिक गलियारों में ठाठ से खादी पहनकर घूमने वालों में जाने कितनों को तकली पकड़ना तक नहीं आता होगा. बस उनमें और मोदीजी में इतना फर्क है कि सारी अज्ञानता के बावजूद वो गाँधीजी की जगह अपनी फोटो लगवाने की बात सोच तक नहीं सकते और मोदीजी संघ की पाठशाला से भारत के चप्पे-चप्पे से गाँधीजी का नामो-निशान मिटाने की हसरत लेकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे हैं.

(लेखक राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक है. यह संगठन स्वाधीनता संघर्ष के मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए समर्पित है.) 
ईमेल: saurabhvajpeyi@gmail.com

15 जनवरी 2017

गांधी, खादी और मोदी

कुमार प्रशांत



फुर्सत के पल में, जब दूसरा कुछ न सूझे तो हम सबका एक शगल होता है : कलम ले कर किसी लड़की के फोटो पर दाढ़ी-मूंछ चस्पां करना या कि किसी पुरुष चेहरे को लड़कीनुमा बनाना !अापने भी कभी-न-कभी ऐसी कलमकारी की होगी अौर फिर अपनी ही निरुद्देश्यता पर शर्माए होंगे. ऐसे ही कई कारनामे इन दिनों राजधानी दिल्ली के निरुद्देश्य गद्दीनशीं कर रहे हैं जिसमें चापलूसी का तड़का भी जी भर कर उड़ेला जा रहा है. सबसे ताजा है वह कारनामा जो सरकारी खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने किया है - उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटो पर कलमकारी कर उसे महात्मा गांधी बनाने की कोशिश की है याकि महात्मा गांधी के फोटो पर कलमकारी कर, उसे नरेंद्र मोदी बनाने का उपक्रम किया है. दोनों ही मामलों में किरकिरी तो नरेंद्र मोदी की ही हुई है - एक पूरा का सारा इंसान कार्टून बना कर छोड़ दिया गया है.

देश में इससे बड़ी हलचल पैदा हुई है - यहां तक कि खादी-ग्रामोद्योग अायोग के कर्मचारी भी अपने ही नौकरीदाताअों के खिलाफ खड़े हो गए हैं ! ऐसा इसलिए हो रहा है कि चापलूसों की फौज नरेंद्र मोदी का कितना भी कार्टून बनाए देश को उससे फर्क नहीं पड़ता है लेकिन यहां मामला यह बना है कि नरेंद्र मोदी का फोटो लगाने के लिए महात्मा गांधी का फोटो हटाया गया है ! खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने २०१७ को अपने कैलेंडर व डायरी पर चरखा कातते नरेंद्र मोदी का वैसा फोटो छापा है जिसे संसार महात्मा गांधी के फोटो के रूप में पहचानता है. लेकिन फर्क भी है : जैसा चर्खा मोदी हिला रहे हैं वैसा चर्खा न तो गांधीजी ने कभी काता, न वैसा चर्खा बनाने की इजाजत ही वे कभी देते; फोटो-शूट का यह सरकारी अायोजन जिस ताम-झाम से किया गया है वैसा अायोजन कर, उसमें गांधीजी को बुलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था; इस फोटो-शूट में मोदीजी ने जैसे कपड़े पहन रखें हैं वैसे कपड़े गांधीजी ने तो कभी नहीं ही पहने, ऐसी धज में उनके सामने जाने की हिमाकत कोई नहीं करता; जैसे टेबल पर चरखा रखा गया है अौर जैसे टेबल पर बैठ कर मोदीजी उस तथाकथित चर्खे को घुमा रहे हैं, गांधीजी वहां होते तो पहली बात तो यही कहते कि तुम ऐसा दिखावटी तामझाम नहीं करते तो इन्हीं साधनों से हम कितने ही नये चर्खे बना लेते ! सवाल कितने ही हैं लेकिन अाज माहौल ऐसा बनाया गया है कि सवाल पूछना देशद्रोह से जोड़ दिया गया.

अगर यह कैलेंडर अौर यह डायरी नरेंद्र मोदी की सहमति व इजाजत से छापी गई है तो मुझे उन पर दया अा रही है, क्योंकि अाज वे गहरे पश्चाताप में होंगे. कई बार हम किसी मौज में ऐसे काम कर जाते हैं जिसके परिणाम का हमें अंदाजा नहीं होता है. जैसे गांधीजी की फोटोबंदी का यह फैसला या फिर नोटबंदी का वह फैसला ! अगर फोटोबंदी का यह फैसला नरेंद्र मोदी की जानकारी या सहमति के बिना हुअा है तो यह खतरे की घंटी है : चापलूसों अौर चापलूसी से सावधान ! ऐसे चापलूसों ने कितने ही वक्ती नायकों को इतिहास के कूड़ाघर में जा पटका है. इसलिए फैसला प्रधानमंत्री को करना है : वे अायोग के कर्मचारियों की बात मान कर इन सारी डायरियों व कैलेंडर को कूड़ाघर भिजवा दें ! ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी अायोग ने ऐसे कैलेंडर/डायरी नहीं छापे कि जिन पर गांधीजी का फोटो नहीं था. भाजपा का हर प्रवक्ता वैसे सालों की सूची बना कर घूम रहा है अौर बता रहा है कि संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है कि जिसके तहत महात्मा गांधी का फोटो हटाना अपराध हो ! यह सच है. संविधान पर ऐसी कोई धारा नहीं है. इन बेचारों के लिए यह समझना कठिन है कि जो संविधान में नहीं है, वह समाज में मान्य कैसे है !! ये नासमझ लोग संविधान के पन्ने पलटते हैं अौर परेशान पूछते हैं कि इसमें कहां लिखा है कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं ? कहीं नहीं लिखा है लेकिन समाज इसे इस कदर मान्य किए बैठा है कि इस प्रतीक को छूते ही करेंट लगता है भले हमारे अपने जीवन का बहुत सरोकार इससे न हो ! जिस समाज ने संविधान में प्राण फूंके हैं उसी समाज ने गांधी को अपने मन-प्राणों में बसा रखा है. इसलिए अायोग ने जब-जब गांधी का फोटो नहीं छापा तब-तब किसी दूसरे का फोटो भी नहीं छापा. मतलब साफ था : गांधी का विकल्प नहीं है ! अब अाप अाज समाज को नई बारहखड़ी रटवाना चाह रहे हैं कि ‘म’ से ‘महात्मा’, ‘म’ से ‘मोदी’ ! लेकिन सत्ता की ताकत से, सत्ता की पूंजी से, सत्ता के अादेश से अौर सत्ता के अातंक से समाज ऐसी बारहखड़ी नहीं सीखता है.

यह समझना जरूरी है कि खादी कनॉटप्लेस पर बनी दूकान नहीं है कि जिसे चमकाने में सारी सरकार जुटी हुई है; खादी बिक्री के बढ़ते अांकड़ों में छिपा व्यापार नहीं है; जो हर पहर पोशाक बदलते हैं अौर समाज में उसकी कीमत का अातंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की समाज को इससे फर्क नहीं पड़ता है. पोशोकों अौर मुद्राअों के पीछे की असलियत समाज पहचानता है. खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं : कातो तब पहनो, पहनो तब कातो अौर समझ-बूझ कर कातो ! अाज हालत यह है कि खादी कमीशन ने कर्ज देने के नाम पर सारी खादी उत्पादक संस्थाअों की गर्दन दबोच रखी है; उनकी चल-अचल संपत्ति अपने यहां गिरवी रख रखी है अौर अपनी नौकरशाही के अादेश पूरा करने का उन पर भयंकर दवाब डाल रखा है. यह स्थिति अाज की नहीं है बल्कि कमीशन बनने के बाद से शनै-शनै यह स्थिति बनी है. सरकार अौर बाजार मिल कर गांधी की खादी की हत्या ही कर डालेंगे, यह देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था अौर कहा था : जो अ-सरकारी होगा, वही असरकारी होगा ! लेकिन खादी के काम में लगे लोग भी तो माटी के ही पुतले हैं न ! सरकारी पैसों का अासान रास्ता अौर उससे बचने का भ्रष्ट रास्ता सबकी तरह इन्हें भी अासान लगता रहा अौर कमीशन का अजगर उन्हें अपनी जकड़ में लेता गया. गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने लोग मिल कर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने अौर फिर पहनने से कितने लोग जुड़ते हैं. खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो अौर इसका उत्पादक ही इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो. जब गांधी ने यह सब सोचा-कहा तब कम नहीं थे ऐसी अापत्ति उठाने वाले कि यह सब अव्यवहारिक है, यह बैलगाड़ी युग में देश को ले जाने की गांधी की खब्त है, यह अाधुनिक प्रगति के चक्र को उल्टा घुमाने की कोशिश है ! अाज भी तथाकथित अाधुनिक लोग, खादी कमीशन के ‘निरक्षर खादी अधिकारी’ अादि ऐसा ही कहते हैं. इन सारे महानुभावों की बातों का जवाब हुए लेकिन अपने विश्वास में अडिग गांधी ने खादी के काम को इस तरह अागे बढ़ाया कि शून्य में से ताकत खड़ी होने लगी अौर सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की मिलें बंद होने लगीं. गांधी कहते भी थे कि वह खादी है ही नहीं जो मिलों के सामने अस्तित्व का सवाल न खड़ा करती हो. राजनीतिक दलों, सरकारों का क्षद्म उन्होंने पहचान लिया था अौर इसलिए अाजादी के बाद देश में बनी सरकारें गांधी से मिलने, उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करने अौर खादी के बारे में तरह-तरह के अाश्वासन देने अाने लगीं तो गांधी खासे कठोर हो कर उनसे अपनी बातें कहने लगे थे अौर पूछने लगे थे कि क्या मैं मानूं कि अाप अपने यहां खादी को इतना मजबूत बनाएंगे कि अापके राज्य में मिलें बंद हो जाएंगी ? बिहार की सरकार से कहा कि अाप अपने मन में यह क्षद्म मत रखना कि खादी भी चलेगी अौर मिल भी चलेगी ! अाज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत, नागरिकों की अौर प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट अादि को जो जानते-समझते हैं, वे सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे अाधुनिक अौर वैज्ञानिक चिंतक थे जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखला दिया.

पहले सरकारों ने इतना अनुशासन रखा था कि खादी का कोई मान्य व्यक्ति ही खादी कमीशन का अध्यक्ष बनाया जाता था. फिर यह तरीका बना है कि खादी कमीशन का अध्यक्ष सरकारी पार्टी का सबसे कमजोर सदस्य बना दिया जाता है ताकि गुड़ भी खाएं अौर गुलगुले से परहेज भी रखें. कई बार तो कोई नौकरशाह ही इस कुर्सी पर बिठा दिया गया है. इसलिए खादी उत्पादन अौर बिक्री का सारा अनुशासन,जो गांधीजी ने ही तैयार किया था, रद्दी की टोकड़ी में फेंक दिया गया अौर खादी कमीशन सरकारी भोंपू में बदल दिया गया. अाज सरकार जैसी कोई चीज बची नहीं है, एक व्यक्ति है जो सब कुछ है ! इसलिए कमीशन का ‘पप्पू’ अध्यक्ष टीवी पर अा कर यह बताता है कि मोदीजी के खादी-प्रेम से खादी की बिक्री कितनी बढ़ी है. वह यह नहीं बताता है कि खादी का उत्पादन कितना बढ़ा है, खादी की काम करने वाली संस्थाएं कितनी बढ़ी हैं, खादी कातने वाले अौर खादी बुनने वाले कितने बढ़े हैं. यदि ये अांकड़े नहीं बढ़े हैं तो बिक्री के अांकड़े कैसे बढ़ रहे हैं ? फिर तो ये अांकड़े ही बता देते हैं कि जो बिक रहा है या बेचा जा रहा है वह खादी नहीं है ! अाज स्थिति यह है कि बाजार में मिलने वाला, खादी के नाम पर बिक रहा ९०% कपड़ा खादी है ही नहीं ! इस कारनामे में प्रधानमंत्री का गुजरात काफी अागे है.

गांधी ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता को स्वावलंबी बनाने का अौजार माना था. वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र व लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है ? अाज सारी सत्ता येनकेनप्रकारेण अपने हाथों में समेट लेने की भूख ऐसी प्रबल है कि वह न तो कोई विवेक स्वीकारती है, न किसी मर्यादा का पालन करती है. लेकिन वह भूल गई है कि अाप तस्वीर तो बदल सकते हैं लेकिन विचारों की तासीर का क्या करेंगे ? वह गांधी की तासीर ही थी जिससे टकरा कर संसार का सबसे बड़ा साम्राज्य ऐसा ढहा कि फिर जुड़ न सका; वह विचारों की तासीर ही थी कि जिसके बल पर दिल्ली से कांग्रेस का खानदानी शासन ऐसा टूटा कि अब तक, ४० सालों बाद तक अपने बूते लौट नहीं सका है. अब ये अपने शेखचिल्लीपन में तस्वीरें बदलने में लगे हैं. देखिए, इतिहास क्या-क्या बदलता है.
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स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...