हमारे समय के लिए नेहरु
राजमोहन गांधी
इंडियन एक्सप्रेस, 14 नवम्बर 2016
इंडियन एक्सप्रेस, 14 नवम्बर 2016
हालांकि,
एक स्वाभाविक प्रशंसा इन आलोचनाओं को बौना साबित कर देती थी और जब मैंने नेहरु से
पहली बार गंभीर बातचीत की तो वह मेरे ह्रदय को छू गयी. यह मुलाक़ात 1963 की
गर्मियों के अंत में उस जगह हुयी जो कुछ लोगों के लिए 1947 के ब्रिटिश राज की याद
थी जहां ब्रिटिश कमांडर इन चीफ रहा करता था और जिसे आम तौर पर तीन मूर्ति भवन के
नाम से जाना जाता है. इस मुलाक़ात के पहले भी मैंने पंडितजी को देखा था. लेकिन, अगर
आधुनिक शब्दावली में कहें तो, मैं उनसे एक-पर-एक कभी नहीं मिला था.
अब मैं
बताता हूँ कि मुझे उनसे क्यों मिलना था. हम कुछ लोग नवम्बर 1963 में अंतर्राष्ट्रीय
नैतिक पुनरस्त्रीकरण (मोरल रिआर्मामेंट या एमआरए) नाम से एक आयोजन कराना चाहते थे.
इसके लिए हम लोग आधे दिन के लिए विज्ञान भवन बुक करना चाहते थे लेकिन किसी भी
सरकारी दफ्तर में कोई भी हमें इसका तरीका बताने में दिलचस्पी नहीं रखता था. अंततः
हमें यह पता चला कि सिर्फ प्रधानमन्त्री ही तय कर सकते हैं कि यह जगह किसी गैर-सरकारी
व्यक्ति द्वारा किराए पर ली जा सकती है या नहीं. इसीलिये मैंने नेहरूजी से मिलने
का समय माँगा और खुशकिस्मती से मुझे वह मिल गया.
विमला
सिन्धी ने मेरा स्वागत किया जो बहुतों के द्वारा एक हंसमुख स्वभाव की महिला के तौर
पर याद की जाती हैं. मैंने उस जगह की ओर प्रस्थान किया जहां पंडितजी मौजूद थे. वो
ग्राउंड फ्लोर के एक कमरे में सोफे पर बैठे हुए थे. मुझे उनके सामने बैठने की जगह
दी गयी. नेहरु न सिर्फ अपने 74वे जन्मदिन के करीब थे बल्कि अस्वस्थ भी थे. एक साल
पहले चीन के साथ हुए युद्ध ने उन पर बुरा प्रभाव डाला था.
“कहिये”,
उन्होंने मुझ 28 बरस के युवा से कहा.
मैंने
उन्हें जहमत देने की वजह बतायी. उन्होंने थोडा अचरज जताया कि यह भी भारत के प्रधानमन्त्री
को ही तय करना था कि विज्ञान भवन ऑडिटोरियम किसी गैर-सरकारी व्यक्ति द्वारा भी बुक
कराया जा सकता है या नहीं. यह पूछते हुए उन्होनें मुझे आयोजन की तारीख पूछी, उसे
नोट किया और ओके कहकर बताया कि मुझे अब किससे मिलना होगा. यह मुलाक़ात महज़ कुछ मिनट
चली होगी लेकिन मैं इससे रोमांचित था. उनकी सेहत को देखकर मैं चिंतित हुआ और हालांकि मुझे उनकी सहायतापूर्ण
प्रतिक्रिया की कम ही उम्मीद थी क्योंकि नेहरु को एमआरए को लेकर कुछ आपत्तियां
थीं. इसके बावूद मैंने पाया कि वह चाहते थे कि यह आयोजन राजधानी के संभवतः सबसे
अच्छे स्थान पर हो.
जब यह
आयोजन हुआ, कई लोग इसमें उपस्थित रहे (राजाजी भी इनमें शामिल थे जो कि उस वक्त नेहरु
के तीखे आलोचक थे). यही नहीं पंडितजी ने मेरी एक और प्रार्थना स्वीकार कर ली. यह प्रार्थना
ब्रिटिश लेखक पीटर होवर्ड को मुलाक़ात का समय देने के बारे में थी. जब होवर्ड के साथ मैं नेहरु से मिलने उनके साउथ
ब्लोक ऑफिस गया, नेहरु दुर्बल दिख रहे थे. हमसे बात करते हुए उन्हें दवा की कुछ
गोलियां निगलनी पडीं लेकिन होवर्ड जो भी कह रहे थे उसमें और उन युवा भारतीयों के
फोटोग्राफ्स में उन्होनें काफी दिलचस्पी दिखाई जो एक “स्वच्छ, शक्तिशाली और एकजुट
भारत” के अभियान में रूचि रखते थे.
छह
महीने बाद, 27 मई 1964 को मैं कई युवा भारतीयों के साथ निलगिरी पर एक कैंप में था
जब हमें नेहरु की मृत्यु के बारे में खबर मिली. मेरी तो घिग्घी बांध गयी और हर कोई इस खबर से शोकसंतप्त
था.
लगभग 52 साल बाद, मेरे जैसे लोग उस आश्चर्यचकित करने वाले व्यक्तित्व— जो लाखों का चहेता
था और लोग जिस पर गर्व करते थे— के बारे में फैलाई जा रही झूठी कहानियों से व्यथित
हैं जो भले ही इंसान ही था और उसमें भी कमियाँ थीं. अहम बात है भारतीय
मेधा के बारे में नेहरु की निरंतर चिंताओं को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. वो चाहते
थे कि दिमाग नए विचारों का संधान करने वाले, तार्किक और स्वतंत्र हों. जब भी कोई हिंसक
ताकत देश-दुनिया में कहीं भी उभरती थी, नेहरु उसको गलत ठहराने के लिए खड़े हो जाते
थे. जेलों में बिताये उनके 14 वर्ष, उनके अथक परिश्रम के 55 वर्ष, उपलब्धियों से
भरे उनके 17 वर्ष से ज्यादा यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए यह उनका प्रेम था जिसे
आज के भारत को सबसे ज्यादा याद करना चाहिये. और शब्दों के साथ उनके सुरुचि को भी.
बहुत किताबें नहीं होंगी जिन्होंने भारत की कुछ पीढ़ियों को इस तरह प्रोत्साहित
किया हो जिस तरह नेहरु की आत्मकथा और भारत एक खोज ने किया है. कुछ ही भाषण होंगे
जो “नियति के साथ समझौता” या “हमारे
बीच से रौशनी चली गयी है” की तरह प्रभावित करते हैं. दोनों ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता
के लिए उनके जूनून से जुडी हुई बातें हैं.
दुनिया
जानती है कि एक राज्य आततायी हो सकता है या कि समाज के कुछ तत्व भी. एक सरकार भय
पैदा करने वाले गैर-सरकारी लोगों को तब तक आगे बढ़ने दे सकती है हब तक राज्य द्वारा
सीधे दमन का समय नहीं आ जाता— या जब तक भय फैलाने वाले सरकार पर कब्जा नहीं कर
लेते. आज हम बहादुर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज़ को चुप कराने वाली या
पाकिस्तानी अभिनेताओं के साथ फिल्म बनाने वालों को बर्बाद करने की धमकी देने वाली
आवाजें सुनते हैं. हतोत्साहित करने वाली बातें की जाती हैं. पुलिसवालों का
महिमामंडन किया जाता है जब वो “बुरे” आतंकवादियों के खिलाफ कदम उठाते हैं लेकिन अगर
वो “अच्छे” आतंकियों के खिलाफ मोर्चा सँभालते हैं तो उन पर मुकदमा चलाया जा सकता
है. तथाकथित रूप से मुठभेड़ में हुयी हत्याओं की मांगों का मुंह बंद कराया जा सकता
है.
हम
अपने पडोसी देश का प्रतिबिम्ब बनते जा रहे हैं और यह भी हो सकता है कि अखबारों, टीवी
चैनलों, फिल्मों, स्कूल और विश्वविद्यालयों से उन सामग्री को हटाने की मांग की जाए
जो कि उपद्रवी समूहों को नापसंद हों.
स्वतंत्रता
के प्रेमियों को तैयार रहना चाहिए.
(लेखक जो कि महात्मा गांधी के पौत्र हैं, सेंटर फॉर साउथ एशियन एंड मिडिल ईस्टर्न
स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ इल्लीनोइस में शोध प्रवक्ता हैं होने के अलावा प्रसिद्ध जीवनीकार
हैं.)
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