14 नवंबर 2016

हमारे समय के लिए नेहरु

राजमोहन गांधी 
इंडियन एक्सप्रेस, 14 नवम्बर 2016 


नेहरुजी के 17 साल के शासनकाल— 1947 से 1964—के दौरान यह लेखक 11 साल के स्कूल जाने वाले बच्चे की उम्र से 28  बरस का हो गया. यह नौजवान इतना गुस्ताख था कि 20 की उम्र में भी ‘पंडितजी’ की कुछ नीतियों में कमियाँ खोजता रहता था. उस समय लगभग हर कोई अपने अति-लोकप्रिय प्रधानमंत्री को इसी नाम से पुकारता था जिन्होंने ताउम्र भारत की आज़ादी के लिए कठोर परिश्रम किया था. 1950 के आखिरी सालों में, मैं यह समझने में अनभिज्ञ था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नेहरु जैसा प्रेमी सोवियत राज्य के दमन को कैसे नज़रंदाज़ कर सकता था. इसी तरह नेहरु जिस समाजवाद की हिमायत करते थे वह मुझे भी अपील करता था लेकिन राजाजी द्वारा नेहरु के नेतृत्व में लाये गए लाइसेंस-परमिट-कोटा राज की आलोचना भी मुझे आकर्षित करती थी.

हालांकि, एक स्वाभाविक प्रशंसा इन आलोचनाओं को बौना साबित कर देती थी और जब मैंने नेहरु से पहली बार गंभीर बातचीत की तो वह मेरे ह्रदय को छू गयी. यह मुलाक़ात 1963 की गर्मियों के अंत में उस जगह हुयी जो कुछ लोगों के लिए 1947 के ब्रिटिश राज की याद थी जहां ब्रिटिश कमांडर इन चीफ रहा करता था और जिसे आम तौर पर तीन मूर्ति भवन के नाम से जाना जाता है. इस मुलाक़ात के पहले भी मैंने पंडितजी को देखा था. लेकिन, अगर आधुनिक शब्दावली में कहें तो, मैं उनसे एक-पर-एक कभी नहीं मिला था.

अब मैं बताता हूँ कि मुझे उनसे क्यों मिलना था. हम कुछ लोग नवम्बर 1963 में अंतर्राष्ट्रीय नैतिक पुनरस्त्रीकरण (मोरल रिआर्मामेंट या एमआरए) नाम से एक आयोजन कराना चाहते थे. इसके लिए हम लोग आधे दिन के लिए विज्ञान भवन बुक करना चाहते थे लेकिन किसी भी सरकारी दफ्तर में कोई भी हमें इसका तरीका बताने में दिलचस्पी नहीं रखता था. अंततः हमें यह पता चला कि सिर्फ प्रधानमन्त्री ही तय कर सकते हैं कि यह जगह किसी गैर-सरकारी व्यक्ति द्वारा किराए पर ली जा सकती है या नहीं. इसीलिये मैंने नेहरूजी से मिलने का समय माँगा और खुशकिस्मती से मुझे वह मिल गया.

विमला सिन्धी ने मेरा स्वागत किया जो बहुतों के द्वारा एक हंसमुख स्वभाव की महिला के तौर पर याद की जाती हैं. मैंने उस जगह की ओर प्रस्थान किया जहां पंडितजी मौजूद थे. वो ग्राउंड फ्लोर के एक कमरे में सोफे पर बैठे हुए थे. मुझे उनके सामने बैठने की जगह दी गयी. नेहरु न सिर्फ अपने 74वे जन्मदिन के करीब थे बल्कि अस्वस्थ भी थे. एक साल पहले चीन के साथ हुए युद्ध ने उन पर बुरा प्रभाव डाला था.

“कहिये”, उन्होंने मुझ 28 बरस के युवा से कहा.

मैंने उन्हें जहमत देने की वजह बतायी. उन्होंने थोडा अचरज जताया कि यह भी भारत के प्रधानमन्त्री को ही तय करना था कि विज्ञान भवन ऑडिटोरियम किसी गैर-सरकारी व्यक्ति द्वारा भी बुक कराया जा सकता है या नहीं. यह पूछते हुए उन्होनें मुझे आयोजन की तारीख पूछी, उसे नोट किया और ओके कहकर बताया कि मुझे अब किससे मिलना होगा. यह मुलाक़ात महज़ कुछ मिनट चली होगी लेकिन मैं इससे रोमांचित था. उनकी सेहत को देखकर मैं चिंतित  हुआ और हालांकि मुझे उनकी सहायतापूर्ण प्रतिक्रिया की कम ही उम्मीद थी क्योंकि नेहरु को एमआरए को लेकर कुछ आपत्तियां थीं. इसके बावूद मैंने पाया कि वह चाहते थे कि यह आयोजन राजधानी के संभवतः सबसे अच्छे स्थान पर हो.

जब यह आयोजन हुआ, कई लोग इसमें उपस्थित रहे (राजाजी भी इनमें शामिल थे जो कि उस वक्त नेहरु के तीखे आलोचक थे). यही नहीं पंडितजी ने मेरी एक और प्रार्थना स्वीकार कर ली. यह प्रार्थना ब्रिटिश लेखक पीटर होवर्ड को मुलाक़ात का समय देने के बारे में थी.  जब होवर्ड के साथ मैं नेहरु से मिलने उनके साउथ ब्लोक ऑफिस गया, नेहरु दुर्बल दिख रहे थे. हमसे बात करते हुए उन्हें दवा की कुछ गोलियां निगलनी पडीं लेकिन होवर्ड जो भी कह रहे थे उसमें और उन युवा भारतीयों के फोटोग्राफ्स में उन्होनें काफी दिलचस्पी दिखाई जो एक “स्वच्छ, शक्तिशाली और एकजुट भारत” के अभियान में रूचि रखते थे.

छह महीने बाद, 27 मई 1964 को मैं कई युवा भारतीयों के साथ निलगिरी पर एक कैंप में था जब हमें नेहरु की मृत्यु के बारे में खबर मिली.  मेरी तो घिग्घी बांध गयी और हर कोई इस खबर से शोकसंतप्त था.

लगभग 52 साल बाद, मेरे जैसे लोग उस आश्चर्यचकित करने वाले व्यक्तित्व— जो लाखों का चहेता था और लोग जिस पर गर्व करते थे— के बारे में फैलाई जा रही झूठी कहानियों से व्यथित हैं जो भले ही इंसान ही था और उसमें भी कमियाँ थीं. अहम बात है भारतीय मेधा के बारे में नेहरु की निरंतर चिंताओं को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. वो चाहते थे कि दिमाग नए विचारों का संधान करने वाले, तार्किक और स्वतंत्र हों. जब भी कोई हिंसक ताकत देश-दुनिया में कहीं भी उभरती थी, नेहरु उसको गलत ठहराने के लिए खड़े हो जाते थे. जेलों में बिताये उनके 14 वर्ष, उनके अथक परिश्रम के 55 वर्ष, उपलब्धियों से भरे उनके 17 वर्ष से ज्यादा यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए यह उनका प्रेम था जिसे आज के भारत को सबसे ज्यादा याद करना चाहिये. और शब्दों के साथ उनके सुरुचि को भी. बहुत किताबें नहीं होंगी जिन्होंने भारत की कुछ पीढ़ियों को इस तरह प्रोत्साहित किया हो जिस तरह नेहरु की आत्मकथा और भारत एक खोज ने किया है. कुछ ही भाषण होंगे जो “नियति के साथ समझौता”  या “हमारे बीच से रौशनी चली गयी है” की तरह प्रभावित करते हैं. दोनों ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए उनके जूनून से जुडी हुई बातें हैं.

दुनिया जानती है कि एक राज्य आततायी हो सकता है या कि समाज के कुछ तत्व भी. एक सरकार भय पैदा करने वाले गैर-सरकारी लोगों को तब तक आगे बढ़ने दे सकती है हब तक राज्य द्वारा सीधे दमन का समय नहीं आ जाता— या जब तक भय फैलाने वाले सरकार पर कब्जा नहीं कर लेते. आज हम बहादुर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज़ को चुप कराने वाली या पाकिस्तानी अभिनेताओं के साथ फिल्म बनाने वालों को बर्बाद करने की धमकी देने वाली आवाजें सुनते हैं. हतोत्साहित करने वाली बातें की जाती हैं. पुलिसवालों का महिमामंडन किया जाता है जब वो “बुरे” आतंकवादियों के खिलाफ कदम उठाते हैं लेकिन अगर वो “अच्छे” आतंकियों के खिलाफ मोर्चा सँभालते हैं तो उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है. तथाकथित रूप से मुठभेड़ में हुयी हत्याओं की मांगों का मुंह बंद कराया जा सकता है.

हम अपने पडोसी देश का प्रतिबिम्ब बनते जा रहे हैं और यह भी हो सकता है कि अखबारों, टीवी चैनलों, फिल्मों, स्कूल और विश्वविद्यालयों से उन सामग्री को हटाने की मांग की जाए जो कि उपद्रवी समूहों को नापसंद हों.
स्वतंत्रता के प्रेमियों को तैयार रहना चाहिए.

(लेखक जो कि महात्मा गांधी के पौत्र हैं, सेंटर फॉर साउथ एशियन एंड मिडिल ईस्टर्न स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ इल्लीनोइस में शोध प्रवक्ता हैं होने के अलावा प्रसिद्ध जीवनीकार हैं.)

10 नवंबर 2016

मौलाना आज़ाद: आज़ादी के दीवाने और साम्प्रदायिक सद्भाव के सिपाही

डा. असगर अली इंजीनियर
मौलाना अबुल कलाम आजाद एक अनूठी इस्लामिक शख्सियत थे। वे इस्लाम के अनन्य अध्येता, महान देशभक्त और सांप्रदायिक सद्भाव के अथक सिपाही थे। यह खेदजनक है कि देश  के प्रति उनकी सेवाओं को भुला दिया गया है। आज की पीढ़ी के स्कूली व कालेज विद्यार्थियों में से शायद एक प्रतिशत भी उनके या उनकी उपलब्धियों के बारे में कुछ विशेष नहीं जानते होंगे।  

इस पृष्ठभूमि में, शिमला स्थित “इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडीज“ की साधारण सभा की हालिया बैठक में संस्थान के अध्यक्ष प्रोफेसर मुंगेकर – जो कि राज्यसभा के सदस्य भी हैं – के इस सुझाव का मैंने स्वागत किया कि अंबेडकर की तरह, मौलाना आजाद पर भी कालेज शिक्षकों के लिए ‘समर स्कूल’ आयोजित किए जाने चाहिए, जिससे शिक्षकों को मौलाना के व्यक्तित्व व कृतित्व से परिचित करवाया जा सके। सच तो यह है कि मौलाना आजाद के अलावा खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे कई नेताओं पर “समर स्कूलों“ की दरकार है। मौलाना आजाद के बारे में देशवासियों को बताया जाना आवष्यक है। देश  की आजादी  के लिए उनका बलिदान किसी से कम नहीं था। 

नवंबर माह की 11 तारीख को मौलाना आजाद का जन्मदिन पड़ता है और इस साल, भारत सरकार ने मौलाना को उनके जन्मदिन पर याद किया। स्कूलों से कहा गया कि वे मौलाना का जन्मदिन – जो कि शिक्षा दिवस भी कहलाता है – मनाएं। परंतु अधिकांश  शिक्षणिक संस्थाओं में विद्यार्थियों के दीवाली की छुट्टियों के बाद अपने गृह नगरों से न लौटने के कारण यह दिन उतने अच्छे से न मनाया जा सका, जितना कि मनाया जाना था।   


मौलाना के पिता मौलाना खैरूद्दीन कलकत्ता के जाने-माने आलिम थे और उनके शिष्यों की संख्या हजारों में थी। मौलाना खैरूद्दीन ने मक्का की रहने वाली एक अरब महिला से विवाह किया था और मौलाना का जन्म मक्का में हुआ, जहाँ उनके माता-पिता उन दिनों रूके हुए थे। इस तरह, एक अर्थ में, अरबी, मौलाना की मातृभाषा थी और अरबी पर मौलाना का असाधारण अधिकार था। उनका लालन-पालन पारंपरिक इस्लामिक माहौल में हुआ और उनके पिता की इच्छा थी कि वे उनकी ही तरह आलिम बनें। अगर मौलाना ने अपने पिता की बात मान ली होती तो उनके भी हजारों शिष्य होते और वे भी अपने पिता की तरह प्रभावशाली इस्लामिक धार्मिक नेता होते। 

मौलाना, सर सैय्यद अहमद खान के प्रभाव में आ गए और सर सैय्यद के संपूर्ण लेखन को उन्होंने पूरे ध्यान से पढ़ डाला। परंतु वे स्वतंत्र सोच वाले व्यक्ति थे और जल्दी ही उनके सर सैय्यद से मतभेद हो गए।  यद्यपि वे सर सैय्यद के आधुनिक सोच व आधुनिक शिक्षा अपनाने के विचार से सहमत थे तथापि वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि मुसलमानों को अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहना चाहिए। मौलाना की भारत की आजादी के प्रति संपूर्ण प्रतिबद्धता थी। उन्होंने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने का प्रयास भी किया परंतु भूमिगत क्रांतिकारी दलों ने मुस्लिम होने के नाते उन्हें अपने साथ लेने से इंकार कर दिया। 

मौलाना के लिए, देशभक्ति एक इस्लामिक कर्तव्य था। कहा जाता है कि पैगंबर साहब ने फरमाया था कि अपने देश  से प्यार, हमारे ईमान का भाग है और देश  के प्रति प्यार का यह तकाजा था कि देश  को विदेशियों की गुलामी से मुक्त कराया जावे। अतः वे स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। मौलाना आजाद बहुत कम उम्र में काँग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। वे शायद काँग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष थे। 

गाँधीजी की तरह, मौलाना आजाद की भी यह मान्यता थी कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बगैर, भारत का स्वाधीन होना कठिन है। काँग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में पार्टी का अध्यक्ष चुने जाने के बाद, अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा, “अगर स्वर्ग से कोई देवदूत भी उतर कर मुझसे यह कहे कि अल्लाह ने मेरे लिए भारत की स्वतंत्रता का उपहार भेजा है तब भी मैं उसे तब तक स्वीकार नहीं करूंगा जब तक हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित नहीं हो जाती क्योकि भारत को स्वतंत्रता नहीं मिलने से केवल भारत का नुकसान होगा परंतु यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित नहीं होती तो इससे संपूर्ण मानवता को क्षति पहॅुचेगी“।

ये बहुत गंभीर निहितार्थ वाले शब्द हैं। मौलाना के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता केवल एक नारा नहीं था। वे उसके प्रति गंभीर रूप से प्रतिबद्ध थे और यह प्रतिबद्धता, कुरआन की उनकी गहरी समझ पर आधारित थी। उन्होंने राँची में जेल में रहने के दौरान कुरआन की “तफसीर“ (टीका) लिखी थी। सन् 1920 के दशक  में लिखी गई इस तफसीर ने भारतीय उपमहाद्वीप के तफसीर साहित्य को समृद्ध किया। 

उन्होंने अपनी तफसीर के पहले खंड को “वहदत-ए-दीन“ (धर्मों की एकता) को समर्पित किया है। इस पुस्तक के पहले ख्ंड को उन्हें दो बार लिखना पड़ा क्योंकि उसकी मूल पांडुलिपि को ब्रिटिश पुलिस ने नष्ट कर दिया था। अंततः अपनी राजनैतिक व्यस्तताओं के चलते, वे इस पुस्तक को पूरा न कर सके। उनकी तफसीर से जाहिर होता है कि सभी धर्मों की मूल एकता में उनका दृढ विश्वास था और उन्होंने अपनी असाधारण मेधा का इस्तेमाल, इस विचार को पुष्ट करने के लिए किया। उनके लिए विभिन्न धर्मों की एकता, धार्मिक  विश्वास था न कि राजनैतिक नारा या अवसरवाद।

मौलाना महान जननायक थे। वे खिलाफत आंदोलन के पक्के समर्थक थे परंतु कमाल पाशा  के तुर्की में क्रांति के रास्ते खलीफा को अपदस्थ करने और खिलाफत की संस्था को  अनावश्यक करार दे दिए जाने के बाद, मौलाना ने खिलाफत के प्रति अपनी वफादारी को त्यागने में जरा देरी नहीं की। उन्होंने अतातुर्क के आधुनिक सुधारों का स्वागत किया और मुसलमानों को सलाह दी कि वे खिलाफत की संस्था को बचाने का प्रयास छोड़ दें क्योंकि तुर्की नेताओं ने ही उससे किनारा कर लिया था। 

काँग्रेस के सन् 1928 के अधिवेशन में, नेहरू समिति की रपट पर चर्चा के दौरान, मौलाना ने जिन्ना की इस माँग का विरोध किया कि संसद में मुसलमानों को एक-तिहाई प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। उनका तर्क था कि प्रजातंत्र में किसी समुदाय को गैर-अनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता। जहां तक, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का प्रश्न  है उसके लिए संविधान में  विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं, जैसे कि अंततः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-30 में किए गए। मौलाना एक दूरदृष्टा थे और सस्ती लोकप्रियता की खातिर उन्होंने कुछ नहीं किया।

उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के सन् 1937 में उत्तर प्रदेश  में चुनाव के बाद मुस्लिम लीग को, वायदे के अनुसार, केबिनेट में दो स्थान नहीं देने के निर्णय का भी विरोध किया। नेहरू का कहना था कि चूंकि चुनाव  में लीग की बुरी तरह हार हुई है इसलिए वह मंत्रिमंडल में स्थान पाने के योग्य नहीं है। मौलाना ने नेहरू को पत्र लिखकर यह सलाह दी कि वे लीग द्वारा नामांकित दोनों व्यक्तियों को मंत्री बनाएं क्योंकि ऐसा न करने के दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव होंगे। मौलाना की चेतावनी सही साबित हुई। जिन्ना आगबबूला हो गए और यह कहने लगे कि काँगे्रस सरकार, “हिन्दू सरकार“ है जो मुसलमानों के साथ न्याय नहीं करेगी। अगर नेहरू ने मौलाना की सलाह मान ली होती तो शायद देश  का विभाजन रोका जा सकता था। वैसे नेहरू की इस निर्णय के पीछे अलग सोच थी। वे चाहते थे कि मुस्लिम लीग के नेताओं की जगह कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को सरकार में अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए। परंतु मौलाना के विचार अलग थे। किसी भी निर्णय या घटना के दूरगामी प्रभावों को आंकने की मौलाना में अद्भुत क्षमता थी।

नेहरू और मौलाना केवल अच्छे दोस्त ही नहीं थे बल्कि वे एक-दूसरे का बहुत सम्मान भी करते थे। नेहरू ने मौलाना की विद्वता और कई भाषाओं पर उनके अधिकार की जमकर प्रशंसा की है। मौलाना आजाद सिर्फ इस्लाम ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों का भी गहरा ज्ञान रखते थे। महिला अधिकारों के बारे में उनके विचारों को पढ़कर तो ऐसा लगता है मानो हम 21वीं सदी के किसी व्यक्ति के विचार पढ़ रहे हों। यह सर्वज्ञात है कि मुस्लिम धर्मशास्त्री लैंगिक समानता का समर्थन नहीं करते और चाहते हैं कि महिलाएं घर की चहारदीवारी तक सीमित रहें। मौलाना इसके अपवाद थे। उन्होंने मिस्त्र में अरबी भाषा में प्रकाशित  एक पुस्तक “अल मीरात् अल मुस्लिमां“ अर्थात “वे मुस्लिम महिलाएं जो लैंगिक समानता की हामी हैं“ का अनुवाद किया था।  इस पुस्तक में तत्कालीन मिस्त्र में महिला अधिकारों पर चल रही राष्ट्रव्यापी बहस के प्रमुख मुद्दों को संकलित किया गया था। उन्होंने इस पुस्तक को अनुवाद के लिए इसलिए चुना क्योंकि वे लैंगिक समानता के पक्षधर थे। कुरान की आयत 2.228 के बारे में वे लिखते हैं “यह लैंगिक समानता का, 1300 साल पुराना घोषणापत्र है।

भारतीय उपमहाद्वीप के केवल दो अन्य धर्मशास्त्री लैंगिक समानता के हामी थे। वे थे मौलाना मुमताज अली खान जो सर सैय्यद अहमद खान के साथी थे और मौलाना उमर अहमद उस्मानी जिनकी हाल में करांची में मौत हुई। दोनों जाने-माने विद्वान थे और लैंगिक समानता के मुद्दे पर वे कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। मौलाना मुमताज अली खान ने एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक  था “हकूक अल् निस्वान“ (महिलाओं के अधिकार) और मौलाना उमर अहमद उस्मानी ने आठ खंडों में “फिक्-अल्-कुरान“ (कुरान का विधिशास्त्र) लिखा है जिसमें उन्होंने अनेक तर्क देकर यह साबित किया है कि कुरान, लैंगिक समानता की पक्षधर है। 

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने पाकिस्तान के जन्म के बहुत पहले उस घटनाक्रम की भविष्यवाणी की थी जिससे आज का पाकिस्तान गुजर रहा है। मौलाना आजाद का जितना जोर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर था उतना ही इस बात पर भी था कि भारत को धार्मिक आधार पर विभाजित नहीं किया जाना चाहिए। जो अपने देश से प्यार करता है वह भला उसे बंटते हुए कैसे देख सकता है? उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि किसी भी प्रजातंत्र को अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करनी ही पड़ती है और फिर, मुसलमान कोई छोटे-मोटे अल्पसंख्यक नहीं थे। विभाजन के पूर्व वे आबादी का 25 प्रतिशत थे और यदि विभाजन नहीं हुआ होता तो आज वे कुल जनसंख्या का लगभग 33 प्रतिशत होते। 

मौलाना ने स्वतंत्रता के पूर्व कहा था कि आज के मुसलमान यह सोचते हैं कि हिन्दू उनके  दुश्मन  हैं परंतु कल, जब पाकिस्तान बन जाएगा और हिन्दू न होंगे तब मुसलमान ही आपस में क्षेत्रीय, भाषाई और जातीय आधारों पर लड़ाई-झगड़े करेंगे। उन्होंने यह बात साफ-साफ शब्दों में मुस्लिम लीग के एक प्रतिनिधिमंडल से कही थी। आज पाकिस्तान में यही हो रहा है। पाकिस्तान में न केवल इस्लाम के अलग-अलग पंथों में विश्वास  करने वालों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है बल्कि वहां धार्मिक कट्टरता में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। निर्दोषों का खून बहना रोजाना की बात हो गई है। सभी धर्मों का इतिहास यह बताता है कि जब भी धर्म और राजनीति का घालमेल होता है तब सत्ता पाना और उसे बचाए रखना, धर्म और धार्मिक मूल्यों से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। सत्ता साध्य बन जाती है और धर्म, साधन। मौलाना इस बात को अच्छी तरह समझते थे इसलिए वे धर्म आधारित राज्य की बजाए धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राष्ट्र की स्थापना के पक्षधर थे। 

दुर्भाग्यवश , मौलाना की किसी ने नहीं सुनी और वे देश  को बंटने से नहीं रोक सके। शक्तिशाली निहित स्वार्थ, जिनमें शामिल थे उत्तरप्रदेश  और बिहार के बडे़ मुस्लिम जमींदार और मुस्लिम मध्यमवर्ग (जिसे यह डर था कि उसे नौकरियां नहीं मिलेंगी)। और इन लोगों की भरपूर सहायता की अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने जो भारत को एशिया  की महाशक्ति बनते देखना नहीं चाहते थे।

(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फार स्टडी आफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक थे. वे एक जाने-माने इस्लामिक विद्वान होने के साथ ही कई दशकों तक साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करने वाले योद्धा रहे हैं।)

3 नवंबर 2016

मार्टिन लूथर किंग की भारत यात्रा

शुभनीत कौशिक

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1958 में अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत के प्रति अपने लगाव और जुड़ाव की विस्तार से चर्चा करते हुए एक लेख लिखा था: “माई पिलग्रिमेज टू नॉन-वायलेंस”। जाहिर है कि सत्याग्रह और अहिंसा के अनुयायी मार्टिन लूथर किंग लंबे समय से महात्मा गांधी के देश भारत की यात्रा करना चाहते थे। 1956 में जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अमेरिका गए तो उन्होंने किंग से मिलने की इच्छा जाहिर की और साथ ही, किंग को भारत आने का आमंत्रण भी दिया। इस आशय का एक पत्र, भारत में अमेरिका के राजदूत रहे चेस्टर बाउल्स ने भी मार्टिन लूथर किंग को लिखा। पर अपनी तमाम व्यस्तताओं और प्रतिबद्धताओं के चलते अगले तीन वर्षों तक किंग का भारत जाना संभव न हो सका। 


जनवरी 1959 में, गांधी स्मारक निधि के सदस्य जी. रामचंद्रन ने मार्टिन लूथर किंग को भारत आने का निमंत्रण दिया। जी. रामचंद्रन का यह ख़त अमेरिका में भारतीय दूतावास के अधिकारी हरीश्वर दयाल ने 12 जनवरी, 1959 को मार्टिन लूथर किंग को प्रेषित किया। रामचंद्रन ने मोंटगोमरी के आंदोलन से अपनी पूरी सहानुभूति जताई और अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते पर चलने के लिए अश्वेत समुदाय की सराहना की। रामचंद्रन ने गांधी स्मारक निधि के प्रतिनिधि के रूप में मार्टिन लूथर किंग को भारत आकर महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों के बारे में अधिक गहराई से जानने और गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के बारे में भी जानने का न्यौता दिया।    

आखिरकार, फरवरी-मार्च 1959 में गांधी के देश को करीब से देखने-जानने का मार्टिन लूथर किंग का लंबा इंतज़ार खत्म हुआ। यह उनके लिए अपने एक सपने के हकीकत में बदलने जैसा अनुभव था। अपनी इस महीने भर लंबी यात्रा के बारे में किंग ने तुरंत एक लंबा आलेख लिखा, जिसका शीर्षक था: “माई ट्रिप टू द लैंड ऑफ गांधी”। यह आलेख ‘एबनी’ पत्रिका के जुलाई 1959 के अंक में छपा। 

इस यात्रा में मार्टिन लूथर किंग के साथ उनकी पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग और उनके दोस्त डॉ. लारेंस रेडिक भी थे। डॉ. रेडिक ने तब तक किंग की एक जीवनी “क्रूसेडर विदाउट वायलेंस” भी लिख दी थी। किंग अपने साथियों के साथ, 3 फरवरी, 1959 को हवाई जहाज से न्यूयॉर्क से भारत के लिए रवाना हुए। रास्ते में वे पेरिस में रुके जहाँ उन्होंने रिचर्ड राइट से मुलाक़ात की और उनसे “नीग्रो प्रश्न” पर यूरोपीय राजनीतिक दलों और नेताओं की प्रतिक्रियाओं के बारे में जाना। 10 फरवरी, 1959 को किंग मुंबई (तब बंबई) पहुँचे। भारत में किंग का अभूतपूर्व स्वागत किया गया। अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों से मिले। साथ ही, वे सुचेता कृपलानी सरीखी सांसदों और विनोबा भावे आदि से भी मिले। 

किंग ने लिखा है कि हिंदुस्तान में वे जहाँ कहीं भी गए, लोगों ने उन्हें अपने भाई-बंधु के रूप में देखा। किंग के अनुसार, इस बंधुत्व का कारण था एशिया, अफ़्रीका और अमेरिका के उपनिवेशों के लोगों द्वारा नस्लवाद और साम्राज्यवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष की प्रबल भावना। इस एक महीने के दौरान किंग ने अनगिनत सार्वजनिक सभाओं और बैठकों में हिस्सा लिया, जहाँ वे नस्लवाद की समस्या पर और अमेरिका में अश्वेतों की स्थिति पर विस्तार से अपनी बात रखते। किंग ने लिखा है कि इन सभाओं में भारी संख्या में लोग मौजूद रहते और गंभीरता के साथ उनके विचारों को सुनते। इन सभाओं में किंग की पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग अश्वेत समुदाय के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गीत भी सुनाती थीं। किंग ने मोंटगोमरी के आंदोलन की ख़बरों से भारतीयों को परिचित कराने के लिए भारतीय समाचारपत्रों की सराहना की। उन्होंने भारत के चारों प्रमुख महानगरों, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई और मद्रास की यात्राएं की, जहाँ वे आम हिंदुस्तानियों से तो मिलते ही, पत्रकारों, राजनीतिकों, विद्वानों से भी मिलते। इसके अतिरिक्त किंग अपनी यात्रा के दौरान आगरा, पटना, गया, हज़ारीबाग, बोलपुर, बर्दवान, महाबलीपुरम, मदुरै स्थित गांधी ग्राम, त्रिवेन्द्रम, बंगलोर, अहमदाबाद और किशनगढ़ आदि जगहों पर भी गए।    

इस क्रम में मार्टिन लूथर किंग ने गांधी के अनुयायियों, उनके निकट संबंधियों से भी मुलाकातें की। वे राजघाट स्थित गांधी की समाधि पर भी गए और गांधी से जुड़े आश्रमों में भी। किंग की भारत-यात्रा ने, शोषितों के स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए, सबसे कारगार औज़ार के रूप में अहिंसात्मक प्रतिरोध की पद्धति में उनके विश्वास को पहले से कहीं अधिक दृढ़ किया। किंग का यक़ीन था कि जहाँ एक ओर हिंसा के मार्ग की अनिवार्य परिणति घृणा, द्वेष और प्रतिशोध में ही होती है, वहीं अहिंसा प्रेम और करुणा पर आधारित समाज की बुनियाद रखती है। किंग ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि गांधीवादियों ने मोंटगोमरी में अश्वेत समुदाय द्वारा किए गए अहिंसात्मक प्रयोग को खुले दिल से सराहा और इस प्रयोग को अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत के पश्चिमी समाजों में उपयोगी होने की एक संभावना के रूप में देखा। किंग ने यह विश्वास जताया कि अगर नियोजित ढंग से और सकारात्मक गतिविधियों के साथ अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक पर अमल किया जाए, तो वह निश्चित रूप से सर्वसत्तावादी ताकतों के सामने भी सफल सिद्ध होगी। 

अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग भारत में पढ़ाई कर रहे अफ्रीकी छात्रों से भी मिले। इन छात्रों में कुछ ने किंग के सामने यह शंका जाहिर की कि अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक केवल उसी स्थिति में कारगर हो सकेगी, जब जिसके विरुद्ध प्रतिरोध किया जा रहा है, उसमें विवेक बचा हो। राइनहोल्ड नीबूर की तरह इन छात्रों का भी मानना था कि निष्क्रिय प्रतिरोध अंततः अप्रतिरोध ही है। किंग ने उन छात्रों को समझाया कि वे अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक को गलत ढंग से देख रहे हैं। किंग के अनुसार, सच्चा अहिंसात्मक प्रतिरोध कभी भी बुरी ताकत के सामने समर्पण करना नहीं है। असल में, अहिंसात्मक प्रतिरोध तो प्रेम के बल से बुरी ताकतों का एक साहसिक विरोध है। इसमें यह विश्वास निहित है कि हिंसा करने से कहीं बेहतर है हिंसा को झेलना और अहिंसात्मक प्रतिरोध करना। क्योंकि हिंसा के बदले में की गई हिंसा भी अंततः हिंसा को ही बढ़ावा देगी, जबकि अहिंसात्मक प्रतिरोध विपक्षी के हृदय-परिवर्तन की आशा और अपेक्षा के साथ की जाती है। 

अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक में प्रेम का तत्व अंतर्निहित है। पर यह प्रेम महज़ भावनात्मक प्रेम नहीं है, बल्कि यह ऐसा प्रेम है जो दृढ़ता के साथ सामूहिक गतिविधि के रूप में संगठित होता है, एक सकारात्मक बदलाव की इच्छा के साथ। किंग ने लिखा कि “मैं इस बात को समझता हूँ कि आख़िर क्यों शोषित वर्ग के लोग अपने स्वतंत्रता-संघर्ष में अक्सर हिंसा का रास्ता अख़्तियार करते हैं, पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि अगर मानव प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष में, जो अफ्रीका में अब अपने चरमोत्कर्ष पर है, गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते को अपनाया गया तो इस संघर्ष का नतीजा पूरी दुनिया पर एक सकारात्मक प्रभाव डालेगा”। 

भारत से रवाना होने के एक दिन पूर्व, 9 मार्च, 1959 को, मार्टिन लूथर किंग ने आल इंडिया रेडियो पर एक वक्तव्य दिया। इस वक्तव्य में मार्टिन लूथर किंग ने गांधी स्मारक निधि जैसी संस्थाओं और विनोबा भावे सरीखे गांधीवादियों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि “पिछले एक महीने में हमने भारत से बहुत कुछ सीखा है। हम यह तो नहीं कह सकते कि हमने भारत के बारे में सब कुछ जान लिया है क्योंकि यह जटिल उपमहाद्वीप विविधताओं, अंतर्विरोधों, समस्याओं और उपलब्धियों से भरा हुआ है”। किंग ने दो बातें ज़ोर देकर कहीं। पहला, यह कि समय के साथ महात्मा गांधी के तरीकों में लोगों का विश्वास बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता ही जाएगा। दूसरा यह कि भारत को दुनिया भर में निःशस्त्रीकरण का अगुवा बनकर शांति का संदेश फैलाना चाहिए।    

मार्टिन लूथर किंग की दृष्टि में भारत की समस्याएँ   
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और जाति-प्रथा को मार्टिन लूथर किंग ने भारत की प्रमुख समस्याओं के रूप में देखा। उन्होंने लिखा कि बंबई सरीखे शहर में पाँच लाख से अधिक लोग फुटपाथ पर सोने को अभिशप्त हैं, उनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं, उनके पास न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए अन्न। किंग के अनुसार अमेरिका में 1930 की आर्थिक महामंदी के दौरान कहा जाता था कि एक-तिहाई जनता के पास न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए अन्न, वहीं भारत के लिए यह अनुपात कुल जनसंख्या का दो-तिहाई होगा। बेरोजगारी तब भी भारत के सामने एक बड़ी समस्या थी और आज 21वीं सदी में तो तब से कहीं और ज्यादे है। 

किंग के अनुसार हिंदुस्तान में काम करने योग्य आबादी का सत्तर फीसदी खेतिहर मजदूर था, जो वर्ष के अधिकांश महीनों में बेरोजगार रहता था। देश में फैली हुई जाति-प्रथा की कुरीति मार्टिन लूथर किंग के अनुसार एक और बड़ी समस्या थी, जिससे भारत जूझ रहा था। किंग ने जातिप्रथा की तुलना अमेरिका में व्याप्त नस्लवाद से की। किंग ने अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए भारतीय नेताओं और संविधान की सराहना की। जातिप्रथा के विरुद्ध गांधी के संघर्षों और अछूतोद्धार के लिए गांधी के प्रयासों को भी किंग ने सराहा और इन प्रयासों को अमेरिकी सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए एक उदाहरण के रूप में देखा। हरिजनों को समाज में बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों को भी किंग ने सराहा। 

आज़ाद भारत के सामने उपस्थित परंपरा या आधुनिकीकरण में से किसी एक को चुनने के द्वंद्व पर भी किंग ने अपनी राय जाहिर की। किंग के अनुसार भारत में इस प्रश्न पर दो पक्ष थे, एक पक्ष का मानना था कि भारत को आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण की राह पर, बगैर कोई देरी किए चलना चाहिए ताकि लोगों की जीवनदशा में उल्लेखनीय सुधार हो सके। दूसरे पक्ष का विचार था कि आधुनिकीकरण से भारत में भौतिकवाद की बुराईयाँ प्रवेश कर जाएँगी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और लोग धीरे-धीरे व्यक्तिवादी होते चले जाएँगे। पर किंग के मतानुसार, नेहरू ने मध्यम मार्ग को अपनाया। मार्टिन लूथर किंग से हुई बातचीत में नेहरू ने कहा कि एक हद तक औद्योगीकरण पूर्णतः अनिवार्य है, पर वह राज्य के नियंत्रण में होगा। इसके साथ नेहरू ने दस्तकारी और ग्रामोद्योग को भी बढ़ावा देते रहने की बात कही।

मार्टिन लूथर किंग ने उस समय भारत में विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के उद्देश्यों को न सिर्फ सराहा, बल्कि उसे एक संभावना के रूप में देखा। जिसमें आम सहमति और सम्मति के आधार पर एक बड़े आर्थिक-सामाजिक बदलाव की कोशिश की जा रही थी। भूदान आंदोलन के कार्यक्रम में बड़े भूस्वामियों द्वारा स्वेच्छा से अपनी जमीन का हिस्सा भूमिहीन किसानों को देने का आग्रह किया जा रहा था; छोटी जोतों के मालिक किसानों से अपनी जमीन सहकारी खेती के लिए साझे स्वामित्व में सौंपने की अपील की जा रही थी; और किसानों और ग्रामीणों से अपने वस्त्र खुद कातने-बुनने का आग्रह भी किया जा रहा था। इस तरह बेरोजगारी, वस्त्र-अभाव और खाद्यान्न संकट से जूझने का एक सकारात्मक प्रयास मार्टिन लूथर किंग के अनुसार भूदान आंदोलन द्वारा किया जा रहा था। 

किंग ने भारत सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं की सीमाओं का भी उल्लेख किया। जो उनके अनुसार भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या और बेरोजगारी, भुखमरी और खाद्यान्न संकट सरीखी समस्याओं से सफलतापूर्वक नहीं निबट पा रही थी। भारत से अमेरिका लौटने पर, 18 मार्च, 1959 को, न्यूयॉर्क में दिये गए अपने एक प्रेस वक्तव्य में मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका से भारत को बगैर किसी शर्त के आर्थिक मदद और प्रौद्योगिकी सहायता देने का आग्रह किया। किंग के अनुसार ऐसी कोई भी मदद, राष्ट्रीय स्वार्थ से ऊपर उठाकर, अंतरराष्ट्रीय बंधुत्व की भावना को ध्यान में रखते हुए दी जानी चाहिए। भारत, किंग की नजरों में, दुनिया भर के लिए शांति और अहिंसा का संदेशवाहक था। उनके अनुसार, “अगर यह देश किसी गुट का हिस्सा बने बगैर अपनी चालीस करोड़ की आबादी की जीवन-दशा में सुधार लाने में सक्षम हो सका तो यह दुनिया भर में लोकतंत्र के लिए एक वरदान साबित होगा”।                           

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...