मार्टिन लूथर किंग की भारत यात्रा

शुभनीत कौशिक

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1958 में अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत के प्रति अपने लगाव और जुड़ाव की विस्तार से चर्चा करते हुए एक लेख लिखा था: “माई पिलग्रिमेज टू नॉन-वायलेंस”। जाहिर है कि सत्याग्रह और अहिंसा के अनुयायी मार्टिन लूथर किंग लंबे समय से महात्मा गांधी के देश भारत की यात्रा करना चाहते थे। 1956 में जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अमेरिका गए तो उन्होंने किंग से मिलने की इच्छा जाहिर की और साथ ही, किंग को भारत आने का आमंत्रण भी दिया। इस आशय का एक पत्र, भारत में अमेरिका के राजदूत रहे चेस्टर बाउल्स ने भी मार्टिन लूथर किंग को लिखा। पर अपनी तमाम व्यस्तताओं और प्रतिबद्धताओं के चलते अगले तीन वर्षों तक किंग का भारत जाना संभव न हो सका। 


जनवरी 1959 में, गांधी स्मारक निधि के सदस्य जी. रामचंद्रन ने मार्टिन लूथर किंग को भारत आने का निमंत्रण दिया। जी. रामचंद्रन का यह ख़त अमेरिका में भारतीय दूतावास के अधिकारी हरीश्वर दयाल ने 12 जनवरी, 1959 को मार्टिन लूथर किंग को प्रेषित किया। रामचंद्रन ने मोंटगोमरी के आंदोलन से अपनी पूरी सहानुभूति जताई और अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते पर चलने के लिए अश्वेत समुदाय की सराहना की। रामचंद्रन ने गांधी स्मारक निधि के प्रतिनिधि के रूप में मार्टिन लूथर किंग को भारत आकर महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों के बारे में अधिक गहराई से जानने और गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के बारे में भी जानने का न्यौता दिया।    

आखिरकार, फरवरी-मार्च 1959 में गांधी के देश को करीब से देखने-जानने का मार्टिन लूथर किंग का लंबा इंतज़ार खत्म हुआ। यह उनके लिए अपने एक सपने के हकीकत में बदलने जैसा अनुभव था। अपनी इस महीने भर लंबी यात्रा के बारे में किंग ने तुरंत एक लंबा आलेख लिखा, जिसका शीर्षक था: “माई ट्रिप टू द लैंड ऑफ गांधी”। यह आलेख ‘एबनी’ पत्रिका के जुलाई 1959 के अंक में छपा। 

इस यात्रा में मार्टिन लूथर किंग के साथ उनकी पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग और उनके दोस्त डॉ. लारेंस रेडिक भी थे। डॉ. रेडिक ने तब तक किंग की एक जीवनी “क्रूसेडर विदाउट वायलेंस” भी लिख दी थी। किंग अपने साथियों के साथ, 3 फरवरी, 1959 को हवाई जहाज से न्यूयॉर्क से भारत के लिए रवाना हुए। रास्ते में वे पेरिस में रुके जहाँ उन्होंने रिचर्ड राइट से मुलाक़ात की और उनसे “नीग्रो प्रश्न” पर यूरोपीय राजनीतिक दलों और नेताओं की प्रतिक्रियाओं के बारे में जाना। 10 फरवरी, 1959 को किंग मुंबई (तब बंबई) पहुँचे। भारत में किंग का अभूतपूर्व स्वागत किया गया। अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों से मिले। साथ ही, वे सुचेता कृपलानी सरीखी सांसदों और विनोबा भावे आदि से भी मिले। 

किंग ने लिखा है कि हिंदुस्तान में वे जहाँ कहीं भी गए, लोगों ने उन्हें अपने भाई-बंधु के रूप में देखा। किंग के अनुसार, इस बंधुत्व का कारण था एशिया, अफ़्रीका और अमेरिका के उपनिवेशों के लोगों द्वारा नस्लवाद और साम्राज्यवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष की प्रबल भावना। इस एक महीने के दौरान किंग ने अनगिनत सार्वजनिक सभाओं और बैठकों में हिस्सा लिया, जहाँ वे नस्लवाद की समस्या पर और अमेरिका में अश्वेतों की स्थिति पर विस्तार से अपनी बात रखते। किंग ने लिखा है कि इन सभाओं में भारी संख्या में लोग मौजूद रहते और गंभीरता के साथ उनके विचारों को सुनते। इन सभाओं में किंग की पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग अश्वेत समुदाय के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गीत भी सुनाती थीं। किंग ने मोंटगोमरी के आंदोलन की ख़बरों से भारतीयों को परिचित कराने के लिए भारतीय समाचारपत्रों की सराहना की। उन्होंने भारत के चारों प्रमुख महानगरों, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई और मद्रास की यात्राएं की, जहाँ वे आम हिंदुस्तानियों से तो मिलते ही, पत्रकारों, राजनीतिकों, विद्वानों से भी मिलते। इसके अतिरिक्त किंग अपनी यात्रा के दौरान आगरा, पटना, गया, हज़ारीबाग, बोलपुर, बर्दवान, महाबलीपुरम, मदुरै स्थित गांधी ग्राम, त्रिवेन्द्रम, बंगलोर, अहमदाबाद और किशनगढ़ आदि जगहों पर भी गए।    

इस क्रम में मार्टिन लूथर किंग ने गांधी के अनुयायियों, उनके निकट संबंधियों से भी मुलाकातें की। वे राजघाट स्थित गांधी की समाधि पर भी गए और गांधी से जुड़े आश्रमों में भी। किंग की भारत-यात्रा ने, शोषितों के स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए, सबसे कारगार औज़ार के रूप में अहिंसात्मक प्रतिरोध की पद्धति में उनके विश्वास को पहले से कहीं अधिक दृढ़ किया। किंग का यक़ीन था कि जहाँ एक ओर हिंसा के मार्ग की अनिवार्य परिणति घृणा, द्वेष और प्रतिशोध में ही होती है, वहीं अहिंसा प्रेम और करुणा पर आधारित समाज की बुनियाद रखती है। किंग ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि गांधीवादियों ने मोंटगोमरी में अश्वेत समुदाय द्वारा किए गए अहिंसात्मक प्रयोग को खुले दिल से सराहा और इस प्रयोग को अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत के पश्चिमी समाजों में उपयोगी होने की एक संभावना के रूप में देखा। किंग ने यह विश्वास जताया कि अगर नियोजित ढंग से और सकारात्मक गतिविधियों के साथ अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक पर अमल किया जाए, तो वह निश्चित रूप से सर्वसत्तावादी ताकतों के सामने भी सफल सिद्ध होगी। 

अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग भारत में पढ़ाई कर रहे अफ्रीकी छात्रों से भी मिले। इन छात्रों में कुछ ने किंग के सामने यह शंका जाहिर की कि अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक केवल उसी स्थिति में कारगर हो सकेगी, जब जिसके विरुद्ध प्रतिरोध किया जा रहा है, उसमें विवेक बचा हो। राइनहोल्ड नीबूर की तरह इन छात्रों का भी मानना था कि निष्क्रिय प्रतिरोध अंततः अप्रतिरोध ही है। किंग ने उन छात्रों को समझाया कि वे अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक को गलत ढंग से देख रहे हैं। किंग के अनुसार, सच्चा अहिंसात्मक प्रतिरोध कभी भी बुरी ताकत के सामने समर्पण करना नहीं है। असल में, अहिंसात्मक प्रतिरोध तो प्रेम के बल से बुरी ताकतों का एक साहसिक विरोध है। इसमें यह विश्वास निहित है कि हिंसा करने से कहीं बेहतर है हिंसा को झेलना और अहिंसात्मक प्रतिरोध करना। क्योंकि हिंसा के बदले में की गई हिंसा भी अंततः हिंसा को ही बढ़ावा देगी, जबकि अहिंसात्मक प्रतिरोध विपक्षी के हृदय-परिवर्तन की आशा और अपेक्षा के साथ की जाती है। 

अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक में प्रेम का तत्व अंतर्निहित है। पर यह प्रेम महज़ भावनात्मक प्रेम नहीं है, बल्कि यह ऐसा प्रेम है जो दृढ़ता के साथ सामूहिक गतिविधि के रूप में संगठित होता है, एक सकारात्मक बदलाव की इच्छा के साथ। किंग ने लिखा कि “मैं इस बात को समझता हूँ कि आख़िर क्यों शोषित वर्ग के लोग अपने स्वतंत्रता-संघर्ष में अक्सर हिंसा का रास्ता अख़्तियार करते हैं, पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि अगर मानव प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष में, जो अफ्रीका में अब अपने चरमोत्कर्ष पर है, गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते को अपनाया गया तो इस संघर्ष का नतीजा पूरी दुनिया पर एक सकारात्मक प्रभाव डालेगा”। 

भारत से रवाना होने के एक दिन पूर्व, 9 मार्च, 1959 को, मार्टिन लूथर किंग ने आल इंडिया रेडियो पर एक वक्तव्य दिया। इस वक्तव्य में मार्टिन लूथर किंग ने गांधी स्मारक निधि जैसी संस्थाओं और विनोबा भावे सरीखे गांधीवादियों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि “पिछले एक महीने में हमने भारत से बहुत कुछ सीखा है। हम यह तो नहीं कह सकते कि हमने भारत के बारे में सब कुछ जान लिया है क्योंकि यह जटिल उपमहाद्वीप विविधताओं, अंतर्विरोधों, समस्याओं और उपलब्धियों से भरा हुआ है”। किंग ने दो बातें ज़ोर देकर कहीं। पहला, यह कि समय के साथ महात्मा गांधी के तरीकों में लोगों का विश्वास बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता ही जाएगा। दूसरा यह कि भारत को दुनिया भर में निःशस्त्रीकरण का अगुवा बनकर शांति का संदेश फैलाना चाहिए।    

मार्टिन लूथर किंग की दृष्टि में भारत की समस्याएँ   
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और जाति-प्रथा को मार्टिन लूथर किंग ने भारत की प्रमुख समस्याओं के रूप में देखा। उन्होंने लिखा कि बंबई सरीखे शहर में पाँच लाख से अधिक लोग फुटपाथ पर सोने को अभिशप्त हैं, उनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं, उनके पास न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए अन्न। किंग के अनुसार अमेरिका में 1930 की आर्थिक महामंदी के दौरान कहा जाता था कि एक-तिहाई जनता के पास न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए अन्न, वहीं भारत के लिए यह अनुपात कुल जनसंख्या का दो-तिहाई होगा। बेरोजगारी तब भी भारत के सामने एक बड़ी समस्या थी और आज 21वीं सदी में तो तब से कहीं और ज्यादे है। 

किंग के अनुसार हिंदुस्तान में काम करने योग्य आबादी का सत्तर फीसदी खेतिहर मजदूर था, जो वर्ष के अधिकांश महीनों में बेरोजगार रहता था। देश में फैली हुई जाति-प्रथा की कुरीति मार्टिन लूथर किंग के अनुसार एक और बड़ी समस्या थी, जिससे भारत जूझ रहा था। किंग ने जातिप्रथा की तुलना अमेरिका में व्याप्त नस्लवाद से की। किंग ने अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए भारतीय नेताओं और संविधान की सराहना की। जातिप्रथा के विरुद्ध गांधी के संघर्षों और अछूतोद्धार के लिए गांधी के प्रयासों को भी किंग ने सराहा और इन प्रयासों को अमेरिकी सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए एक उदाहरण के रूप में देखा। हरिजनों को समाज में बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों को भी किंग ने सराहा। 

आज़ाद भारत के सामने उपस्थित परंपरा या आधुनिकीकरण में से किसी एक को चुनने के द्वंद्व पर भी किंग ने अपनी राय जाहिर की। किंग के अनुसार भारत में इस प्रश्न पर दो पक्ष थे, एक पक्ष का मानना था कि भारत को आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण की राह पर, बगैर कोई देरी किए चलना चाहिए ताकि लोगों की जीवनदशा में उल्लेखनीय सुधार हो सके। दूसरे पक्ष का विचार था कि आधुनिकीकरण से भारत में भौतिकवाद की बुराईयाँ प्रवेश कर जाएँगी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और लोग धीरे-धीरे व्यक्तिवादी होते चले जाएँगे। पर किंग के मतानुसार, नेहरू ने मध्यम मार्ग को अपनाया। मार्टिन लूथर किंग से हुई बातचीत में नेहरू ने कहा कि एक हद तक औद्योगीकरण पूर्णतः अनिवार्य है, पर वह राज्य के नियंत्रण में होगा। इसके साथ नेहरू ने दस्तकारी और ग्रामोद्योग को भी बढ़ावा देते रहने की बात कही।

मार्टिन लूथर किंग ने उस समय भारत में विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के उद्देश्यों को न सिर्फ सराहा, बल्कि उसे एक संभावना के रूप में देखा। जिसमें आम सहमति और सम्मति के आधार पर एक बड़े आर्थिक-सामाजिक बदलाव की कोशिश की जा रही थी। भूदान आंदोलन के कार्यक्रम में बड़े भूस्वामियों द्वारा स्वेच्छा से अपनी जमीन का हिस्सा भूमिहीन किसानों को देने का आग्रह किया जा रहा था; छोटी जोतों के मालिक किसानों से अपनी जमीन सहकारी खेती के लिए साझे स्वामित्व में सौंपने की अपील की जा रही थी; और किसानों और ग्रामीणों से अपने वस्त्र खुद कातने-बुनने का आग्रह भी किया जा रहा था। इस तरह बेरोजगारी, वस्त्र-अभाव और खाद्यान्न संकट से जूझने का एक सकारात्मक प्रयास मार्टिन लूथर किंग के अनुसार भूदान आंदोलन द्वारा किया जा रहा था। 

किंग ने भारत सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं की सीमाओं का भी उल्लेख किया। जो उनके अनुसार भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या और बेरोजगारी, भुखमरी और खाद्यान्न संकट सरीखी समस्याओं से सफलतापूर्वक नहीं निबट पा रही थी। भारत से अमेरिका लौटने पर, 18 मार्च, 1959 को, न्यूयॉर्क में दिये गए अपने एक प्रेस वक्तव्य में मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका से भारत को बगैर किसी शर्त के आर्थिक मदद और प्रौद्योगिकी सहायता देने का आग्रह किया। किंग के अनुसार ऐसी कोई भी मदद, राष्ट्रीय स्वार्थ से ऊपर उठाकर, अंतरराष्ट्रीय बंधुत्व की भावना को ध्यान में रखते हुए दी जानी चाहिए। भारत, किंग की नजरों में, दुनिया भर के लिए शांति और अहिंसा का संदेशवाहक था। उनके अनुसार, “अगर यह देश किसी गुट का हिस्सा बने बगैर अपनी चालीस करोड़ की आबादी की जीवन-दशा में सुधार लाने में सक्षम हो सका तो यह दुनिया भर में लोकतंत्र के लिए एक वरदान साबित होगा”।                           

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