कौन आज़ाद हुआ?

सौरभ बाजपेयी 

उर्दू के मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने अपनी एक नज़्म के जरिये कभी पूछा था— कौन आज़ाद हुआ? उनके स्वर में 15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आज़ादी को लेकर एक तंज था जो “यह आज़ादी झूठी है” के नारे से उपजा था. हमारे लिए वो आज़ादी झूठी नहीं थी, सोलह आने सच्ची थी. फिर भी हम उनसे यह सवाल आज अपने देशवासियों से पूछने के लिए उधार लेते हैं. आखिर हमारे पुरखों ने किस चीज़ के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी? क्या अंग्रेज सिर्फ एक नस्ल का नाम था या वो हमारे दुश्मन सिर्फ इसलिए थे कि वो किसी और देश के बासिन्दे थे? आज़ादी के मतवाले किस चीज़ के खिलाफ लड़े और क्या जीते थे? आखिर पंद्रह अगस्त के उस दिन ऐसा क्या बदला था कि हम पिछले 70 बरस से उस दिन का जश्न मनाना अपना फ़र्ज़ समझते हैं. और सबसे बड़ा सवाल— क्या उस दिन कुछ ऐसा हुआ था जिसके बाद इस देश के लिए लड़ने की जरूरत ख़त्म हो गयी थी. 

मेरे देशवासियों, आपकी याददाश्त ख़त्म हो रही है इसलिए बताना जरूरी है. 15 अगस्त के पहले इस देश का राज सात समंदर पार बैठी महारानी विक्टोरिया चलाती थीं. वहाँ से नीतियाँ बनकर आती थीं और इस विशाल देश की विशाल आबादी पर थोप दी जाती थीं. यह हमारे फायदे के लिए नहीं था यह ब्रिटेन को मालामाल करने के लिए था ताकि वो दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी सत्ता बनकर हमारे सीनों पर काबिज रह सके. यह इसलिए था कि एशिया से लेकर अफ्रीका तक चल रही उथल-पुथल को संगीन हथियारों के बूते कुचला जा सके. यह इसलिए भी था कि यूरोप और अमेरिका में उभर रहे नए-नए साम्राज्यवादी देशों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में ब्रिटेन का झंडा ऊंचा रखा जा सके. 


यह इसलिए नहीं था कि पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में जो तकरीबन 3 करोड़ (जी हाँ, तीन करोड़) किसान अकाल और भुखमरी के चलते अपनी जान गँवा बैठे, उनके मुंह में निवाला डालकर उन्हें बचाया जा सके. मत भूलिए, जिंदगी और मौत से दिन-रात जूझते इन अभागे किसानों में बहुतेरे जरूर ही दलित और मजलूम रहे होंगे. यह इसलिए भी नहीं था कि दमन और शोषण झेलते जो बुनकर हथकरघा चलाने के बजाय अपने अंगूठे काट लेना बेहतर समझते थे, उनको अपंग होने से बचाया जा सके. यह इसलिए भी नहीं था कि स्थानीय उद्योग-धंधो और व्यापार-वाणिज्य के चौपट होने से जो लोग रोजगार के लिए दर-दर भटक रहे थे, उन्हें फिर काम पर लगाया जा सके. यह इसलिए भी नहीं था कि भारत के सात लाख गाँवों के करोणों नरकंकालों के ऊपर जो गिद्ध मंडरा रहे थे, उनकी उम्मीदें पस्त की जा सकें.

मेरे हमवतनों, यह इसलिए भी नहीं था कि इस देश में बड़े-बड़े जमींदारों को छोटे-छोटे किसानों और खेत मजदूरों का खून चूसने से रोका जा सके. बल्कि अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्य की सुरक्षा के लिए जमींदारों और रजवाड़ों की एक आंतरिक बाड़ बिछाई थी जिससे टकराकर हर गुस्सा बिखर जाए. कोई कितना भी समझाए लेकिन इसका उद्देश्य यह नहीं था कि इस देश में हजारों सालों से दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह रहे दलितों को उनकी नारकीय स्थिति से हाथ पकड़कर उबारा जा सके. यह उद्देश तो कतई नहीं था कि इस देश में शिक्षा और ज्ञान विज्ञान का विस्तार हो और लोग अपने भाग्य के नियंता खुद बनकर सत्ता में बराबर की भागीदारी निभाएं. 

वो चाहते थे कि एक संपन्न देश की अर्थव्यवस्था को ब्रिटेन के फायदों के लिए खोखला बनाने का उनका एकक्षत्र अधिकार हो. वो चाहते थे कि इस देश में बिखरे तमाम संसाधनों को लूटकर भारत को कच्चे माल का निर्यातक बना दिया जाए. वो चाहते थे कि ये “जाहिल” देश उनके काम भर का पढ़ ले और उनके लिए बाबूगीरी करे. वो चाहते थे कि इस देश के लोग आत्मविश्वासहीन और डरे-सहमे रहे ताकि उनकी सत्ता के खिलाफ कोई आँख उठाकर देख न सके. वो चाहते थे कि भारत को अपना सही इतिहास मालूम न हो ताकि वो इस भुलावे में बना रहे कि भारत के लोग खुद पर राज करने योग्य नहीं हैं. वो यह भी चाहते थे कि अंग्रेजी राज के विरूद्ध किसी भी विद्रोह की संभावना ख़त्म करने के लिए इस देश के समाज को भीतर से जितना हो सके बांट दिया जाए. इस देश के लोगों को यह अहसास कराया जाए कि भारतीय अपने आप में कोई शब्द है ही नहीं बल्कि यहाँ तो हिन्दू-मुसलमान, अगड़ा-पिछड़ा, मद्रासी-बिहारी और ब्राह्मण-दलित हैं. जो हैं और रहेंगे ही चाहे इस देश के लोग अपने-अपने कुओं से उछलकर बाहर निकलने की कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें.   

तो इस तरह, यह राज इस देश के फायदे के लिए नहीं था न ही इस देश को अंधकार से निकालकर उजाले की ओर ले जाने के लिए था. यह अश्वेत आबादी को सभ्य बनाने के लिए “श्वेत लोगों पर बोझ” नहीं था और न ही हम अश्वेत या भूरे लोगों ने उन्हें ऐसा करने के लिए आमंत्रित किया था. ऐ भारत के लोगों, अगर यह राज इतना जालिम था और हमारा खून चूसने वाला था तो जिन्होंने इसे उखाड़ फेंकने का जिम्मा उठाया वो हमारे क्या हुए? जाहिर है, वो हमारे तारक हुए, उद्धारक हुए. जिन्होंने भरे अँधेरे में उम्मीद की मशाल जलाई और अपने हाथ में थामकर उस मंजिल की ओर चल दिए जो कहीं दूर-दूर तक दिखाई भी नहीं देती थी. उन्होंने अपनी सारे व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाएं ताक पर रख दीं, अपने भीतर का अहम् शून्य किया, अपने परिवारों को अपने संघर्ष का हिस्सा बनाया और आज़ादी की बलिवेदी पर कूद पड़े. 

उन्होंने हमारे मन में गहरे तक पैठी हीनता को निकाल बाहर किया. जरा सोचिये जब 18 साल के खुदीराम बोस ने एक हाथ में पिस्तौल और दूसरे हाथ में बम लेकर किंग्स्फोर्ड की बग्घी पर हमला बोल दिया तो क्या हुआ होगा? उस बग्घी में वाइसराय नहीं था बावजूद इसके आम भारतीयों को अपने मनुष्य होने पर गर्व हुआ होगा. प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चन्द्र सही कहते हैं कि क्रांतिकारियों ने हमें अपनी मनुजता पर गर्व करना सिखाया. इसी तरह, वीना दास जैसी लड़की ने एक अवार्ड लेते वक़्त गवर्नर पर गोली चलायी होगी, तो लोग चौंक गए होंगे कि क्या आखिर लडकियाँ भी अपने देश के लिए लड़ सकती हैं या क्या कोई लड़की भी गोली चला सकती है या क्या कोई लड़की भी इतनी हिम्मती हो सकती है. 

आज कोई यकीन करेगा कि रामप्रसाद बिस्मिल का छोटा भाई बीमारी और अभाव में मर गया लेकिन बिस्मिल के लिए देश अपने परिवार से बड़ा था. नहीं करेगा, क्योंकि देशभक्ति के असली मूल्य छोड़कर हाथ में तिरंगा थामकर भारत माता की जय बोलना ही हमने देशभक्ति मान लिया है. कोई मानेगा कि आज़ाद ने अपनी माँ-बाप की परवाह नहीं की और उनके लिए मिले पैसे क्रांतिकारी कामों में लगा दिए. कोई नहीं करेगा, क्योंकि आज बाज़ार में जो भी माल पटा पड़ा है हम उस सबके खरीददार बनना चाहते हैं. कोई मानेगा, लोगों ने अपनी घर-गृहस्थी बेचकर प्रेस लगा लिए ताकि अंगरेजी राज के खिलाफ माहौल पैदा किया जा सके. नहीं मानेगा, क्योंकि मुनाफे से मुनाफ़ा कमाने के हमारे दौर में कौन ऐसा सिरफिरा होगा. उन लोगों ने लड़ना स्वीकार किया क्योंकि उनके मुताबिक़ लड़ने की जरूरत थी. असफल होकर भी देश की सेवा करना चाहते थे, सफल ही होना है यह उनकी प्राथमिकता नहीं थी.          

उन लोगों ने लड़ने के सब तरीके अपनाए. कोई किसी तरह से अपना प्रतिरोध दर्ज कराता था कोई किसी तरह. लेकिन एक बात जो सबमें एक जैसी थी सब मिलकर अंगरेजी सत्ता के खिलाफ लड़ रहे थे. इसलिए वो सब एक-दूसरे की बहुत क़द्र करते थे. गांधी पृथ्वीसिंह आज़ाद जैसे क्रांतिकारी को अपनी मोटर में छुपाकर ले जाते हैं तो एक अन्य क्रांतिकारी पंडित सुन्दरलाल को अपने कलेजे का टुकडा मानते हैं. गांधी अपने लाख मतभेदों के बावजूद सुभाष को अपना बेटा मानते हैं और बेटा सिंगापुर से आज़ाद हिन्द फौज को कूच कराने से पहले अपने पिता को राष्ट्रपिता पुकारता है. जयप्रकाश नारायण गांधी से खासे मतभेद रखते हैं परन्तु उनकी पत्नी गांधी के आश्रम में ही रहकर सेवा करती हैं तो वो बेहद खुश हैं. चंद्रशेखर आज़ाद को क्रन्तिकारी गतिविधियों के लिए पैसा कानपूर कांग्रेस समिति देती है तो मोतीलाल नेहरु और जवाहरलाल नेहरु उनके लिए खुद चंदा करते हैं. गांधी शाकाहारी होते हुए भी मौलाना आज़ाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के लिए मांसाहारी भोजन का इंतज़ाम करते हैं. आज़ाद हिन्द फौज और सुभाष से लाख मतभेद के बावजूद ढिल्लों-सहगल और शाहनवाज़ की तिकड़ी पर लालकिले में चल रहे मुक़दमे में नेहरु दशकों बाद अपना काला कोट पहनकर उतर जाते हैं. 

लेकिन चलिए, आपको इन्टरनेट पर भरी गयी ऊल-जुलूल कहानियों पर यकीन हो तो हमारी मत सुनिए. हम तो ठहरे उसी महान परंपरा के वारिस जो एकदम अकेले होकर भी अपनी टेक पर चलते रहेंगे. “एकला चलो रे”... “जब तोर डाक सुने न केऊ आसे, तबे एकला चलो रे”. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ यह सिखा गए हैं कि एकदम अकेले होकर भी और घोर अलोकप्रिय होकर जब चलना पड़े, तो सिर गर्व से ऊंचा रखना. जिस दौर में आज़ादी की लड़ाई की बात करने वालों को, गांधी का नाम लेने वालों को और गांधी के हत्यारों का नाम उजागर करने वालों को भी, नेहरु को चाचा बुलाने वालों को बिना तौले गालियाँ परोसी जा रही हों, उस दौर में हम अपना सिर गर्व से ऊंचा रखकर अपने देश को प्यार करेंगे.     

बहरहाल, आज़ादी मिलने के पहले हमारे नेता दरअसल दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे थे. एक थी अंगरेजी राज के खिलाफ जिसका ज़िक्र अभी ऊपर किया गया है. दूसरी थी, सामाजिक और आर्थिक रूप से भारत को आज़ाद कराना और साथ ही भारत को उपनिवेशवाद के दुष्प्रभावों से मुक्त कराना. सभी ने माना कि 15 अगस्त 1947 को हमने पहली लड़ाई जीत ली थी. देश राजनीतिक रूप से दो सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हो गया था. लेकिन सबको यह भी पता था कि अब दूसरा मोर्चा जीतना जरूरी है. एक नए-नए आज़ाद हुए देश को एकसूत्र में जोड़ना था, उसे अपने पैरों पर खड़ा करना था. सरदार पटेल ने देश को एक करने का बीड़ा उठाया, वी० पी० मेनन उनके सहयोगी बने और नेहरु का उनको बराबर का साथ मिला. आज़ादी की लड़ाई के दौरान भविष्य के भारत की जो रूपरेखा बनी, उसे एक किताब के रूप में दस्तावेज़ बनाने का काम डॉ० आंबेडकर ने सम्भाला और एक विद्वत संविधान समिति के तमाम विचार-विमर्श के बाद भारत का संविधान अस्तित्व में आया. देश बुरी तरह खोखला हो चुका था और अर्थव्यवस्था एकदम पस्त थी. देश की आर्थिक-सामाजिक नींव रखने का जिम्मा नेहरु के सिर आया जो पटेल के अकस्मात् निधन से एकदम अकेले पड़ चुके थे. याद रखिये, नेहरु और पटेल मिलकर एक-दूसरे के साथ और देश के लिए काम कर रहे थे. उनके बीच भी किन्हीं दो नेताओं की तरह मतभेद थे लेकिन वो मतभेद व्यक्तिगत नहीं थे और अंततः देशहित में वो महान जियाले अपने मतभेदों को किनारे करना जानते थे. 

नेहरु— “अय्याश, कामुक और मदांध नेहरु”— जिन्होंने इस देश को बर्बादी की तरफ धकेल दिया उन्होंने इस देश को कुछ नहीं दिया सिवाय एक मजबूत आधारशिला के जिस पर आज का आधुनिक भारत सीना तानकर खड़ा है. आईआईटी, आईआईएम, इसरो, बार्क, साहित्य अकादमी, यूटीआई, एलआईसी, सिंचाई व्यव्यस्था नेटवर्क, भाखड़ा नांगल जैसे बाँध, ललित कला अकादमी, इसरो, अमूल जैसे कोआपरेटिव और एक मजबूत लोकतंत्र उसी नेहरु की देन है जिसे कुछ लोग सिर्फ कश्मीर से जोड़ना चाहते हैं. नेहरु वो अभागे हैं जिन्होंने नाहक ही एक अहसानफरामोश पीढी के लिए लखनऊ के चारबाग में पुलिस की लाठियां खाईं, घोड़ों की टापों तले कुचले गए और अपनी जिंदगी के तकरीबन एक दशक ब्रिटिश राज की जेलों में बिता दिया.      

मत भूलिए, आज जो लोग आज़ादी की लड़ाई का इतिहास बदलकर उसे आपसी संघर्षों और व्यक्तिगत महत्वाकान्क्षाओं का अखाड़ा सिद्ध करना चाहते हैं, वो लोग वो ही तो हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई के दौरान एक भी लाठी नहीं खाई, एक भी दिन जेल में नहीं रहे, एक भी फांसी की सजा नहीं पायी. सावरकर की बात मत करिए क्योंकि उनके माफीनामे अब जगजाहिर हैं. 1910 के बाद जबकि इस देश में संघर्ष अपनी सबसे विकसित अवस्था में पहुँच रहा था, उन्होंने ब्रिटिश राज की चाकरी करने के अलावा सिर्फ एक ही और बड़ा काम किया था— गांधीजी की हत्या की साजिश में हाथ बंटाने का. इन्टरनेट पर फैलाए झूठ से गांधी, नेहरु और आज़ादी की सारी कहानी फना नहीं हो जाएगी. हमें उम्मीद है जब यह जाहिली और उन्माद का दौर गुजरेगा तब उन लोगों को खुद पर शर्म आयेगी जिन्होंने देश से गद्दारी करने वाले गिरोह के दुष्प्रचार पर आँख मूँद कर यकीन कर लिया था.    

मेरे भाइयों और बहनों, यह कहना कितना आसान है कि पिछले 70 सालों में कुछ नहीं हुआ. कम से कम कुछ करने से तो बहुत ही आसान है. जिन्हें कुछ न करना हो उन्हें हवाई किले खड़े करने में महारत हासिल होती है. यह भी वही लोग हैं जिन्हें न आज़ादी की लड़ाई भाती है और न ही आज़ाद भारत में उसके सबसे बड़े प्रतीक नेहरु. क्योंकि नेहरु ने पाकिस्तान के बरक्स भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के सपने को बड़ी हिम्मत के साथ पराजित कर दिया था, नेहरु उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं. फिर नेहरु के बहाने उन्हें आज की कांग्रेस पर हमला करना भी आसान लगता है क्योंकि इंदिरा गांधी के बाद उनके परिवार के लोग हैं जो कि कांग्रेस चला रहे हैं. यह बात आप नहीं जानते न ही जानना चाहते हैं कि नेहरु ने इंदिरा को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया था. इंदिरा की राजनीति में रूचि भी नेहरु के समय ही बहुत कम हो गयी थी. वो तो लालबहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु के बाद वो फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं. 

खैर, आज़ाद भारत को अपने दूसरे मोर्चे— सामाजिक-आर्थिक आज़ादी—के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है. भूख, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी और सामजिक न्याय सहित तमाम मुद्दे हैं जिन पर बहुत कुछ करने के बावजूद उसके कहीं बहुत ज्यादा कुछ करना बाकी है. लेकिन आज पिछले तीन-चार साल से इन सवालों पर बात करना बेमानी हो गया है क्योंकि जब आम जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाकर सांप्रदायिक कुतर्कों की तरफ मोड़ा जा रहा हो, उस वक़्त में इन मुद्दों की बात कौन सुनेगा. आज़ादी के पहले हमारे नेताओं को अंगरेजी राज के अलावा जिस दूसरी सबसे बड़ी ताकत से टकराना पड़ा था, वह थी साम्प्रदायिकता. मुस्लिम लीग उस समय की सबसे बड़ी सांप्रदायिक ताकत थी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसे संगठन उसका साथ देते थे. दोनों तरह की साम्प्रदायिकताओं— हिन्दू और मुस्लिम— का एक साझा हमला गांधी और कांग्रेस हुआ करते थे. अंगरेजी शासन दोनों तरह के सांप्रदायिक दलों को कांग्रेस को कमजोर करने के लिए खूब बढ़ावा देता था. मुस्लिम लीग ने लोगों में उन्माद और घृणा फैलाकर अपना पाकिस्तान हासिल कर लिया लेकिन हिन्दू सांप्रदायिक दल अपना पाकिस्तान यानी हिन्दू राष्ट्र हासिल नहीं कर सके. इसी खीझ में आरएसएस और हिन्दू महासभा ने गांधीजी की हत्या का न सिर्फ माहौल तैयार किया बल्कि उनके खिलाफ साजिश भी की और 30 जनवरी 1948 को उनकी हत्या कर दी गयी. 

गांधीजी की हत्या का प्रभाव उनके अनुमान के एकदम उलट निकला. चारों ओर जो लोग विभाजन के समय के उन्माद में एक-दूसरे का खून पीने के लिये उतारू थे, अचानक शर्मिंदगी और क्षोभ से भर गए. गांधीजी ने मरते हुए अपने राम को याद किया और चारों तरफ गांधीजी के हत्यारों के खिलाफ माहौल तैयार हो गया. यह अनुमान होते ही उन सभी ने जिन्होंने यह कुकृत्य रचा था, गांधीजी की हत्या से अपना पल्ला झाड़ लिया. गांधीजी ने जिंदगी भर साम्प्रदायिकता से लड़ते हुए जो हासिल न किया वो उन्होंने अपने सीने में तीन गोलियां खाकर हासिल कर लिया. भारत में हिन्दू साम्प्रदायिकता जमींदोज हो गयी और लम्बे समय तक सांप्रदायिक दल खुद को सांप्रदायिक कहने की हिम्मत तक नहीं जुटा सके. लेकिन मेरे देशवासियों, पिछले कुछ सालों से आज़ादी की लड़ाई का यह सांप्रदायिक दैत्य हमारे सामने पहले से कहीं ज्यादा विकराल होकर आ खड़ा हुआ है. ऐसे कठिन वक़्त में आज़ादी की लड़ाई की अपूर्णता का हमें अहसास होना चाहिए. आज़ादी की लड़ाई अभी कई अर्थों में अधूरी है और सांप्रदायिक दक्षिणपंथ के खिलाफ लड़ाई इसका सबसे बड़ा अधूरापन है. एक बार अगर हम सांप्रदायिक ताकतों के हौसले पस्त कर सके तभी अन्य मुद्दों पर अनवरत काम करके हम अन्य मोर्चों पर सफल हो सकते हैं. याद रखिये जब तक आज़ादी नहीं मिली थी गांधी 120 बरस जीकर इस देश की सेवा करना चाहते थे. आज़ादी मिलने के बाद उनकी जीने की तमन्ना ख़त्म हो गयी थी क्योंकि साम्प्रदायिकता ने लोगों से सही-गलत का विवेक छीन लिया था. 

जिस समय में अल्पसंख्यकों के घरों में घुसकर उनको गोली मारी जा रही हो, सड़कों पर दलितों की खाल खींची जा रही हो, धर्मनिरपेक्षता को गाली बना दिया गया हो, गोडसे के मंदिर बनाये जाने की घोषणाएं की जा रही हों, आज़ादी की लड़ाई के नायकों को अपशब्द बोले जा रहे हों, समाज को भीतर से बांटने की साजिशें रची जा रही हों— हम कौन सी आज़ादी का जश्न मनाएं? यह तो उपनिवेशवाद का सबसे बुरा दुष्प्रभाव है जो हमारे सर चढ़कर नाच रहा और हम हैं कि आज़ाद होने का जश्न मनाएं. अगर मनाना ही है तो कहिये कि हमने आज के दिन अपने देश को गुलामी के चंगुल से मुक्त कराया था. कहिये कि यह हमारी अपूर्ण यात्रा का पहला पड़ाव था. कहिये कि हमें अपने दिलो-दिमाग से औपनिवेशिक दुष्प्रभावों को निकाल फेंकना अभी बाकी है. कहिये कि हम आज़ाद हैं पर हमारा दिमाग अभी सांप्रदायिक जकड़न का गुलाम है. कहिये कि हमारी आज़ादी की लड़ाई अभी बाकी है और उसमें हमारी भूमिका भी अभी बाकी है. कहिये कि आज़ादी के जश्न का मतलब सिर्फ झंडा फहराना नहीं है. कहिये कि हमारा देश हमारे लोग हैं और जब तक इस देश का एक-एक इंसान खुद को आज़ाद नहीं मानता, आज़ादी की लड़ाई जारी है. 

(लेखक राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के संयोजक हैं. इनसे आप इस ईमेल आईडी saurabhvajpeyi@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.)   


टिप्पणियाँ

  1. Must say....👌👌👌 got to learn alot of things...
    Keep writing sir 😊

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  2. Must say....👌👌👌 got to learn alot of things...
    Keep writing sir 😊

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  3. शुक्रिया सौरभ.
    शुक्रिया अरुण चावाई सर.

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  4. बहुत बहुत आभार ..
    दर्द होता था फेसबुकिया दुष्प्रचार देख कर ..
    किसीने तो शुरूआत की.
    धन्यवाद

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  6. मैं भी जुड़ना चाहुँगा फ्रंट से

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  7. सौरभ बाजपाई आपका विश्लेषण अतुलनीय है। आज का युवा इन्टरनेट को सम्पूर्ण ज्ञानकोष मानता है। आसानी से उपलब्ध भी है। किताब पढ़ने से कहीं अधिक आसान व रोचक भी है। प्रतिस्पर्धात्मकता की दौड़ मे आगे निकलने मे सहायक है। इसलिए युवा पीढ़ी इसके अधीन हो गई है। इसी का लाभ उठा कर वर्तमान सत्तादल सफल हो पाया है। इतिहास को उपहास बनाने की भरपूर कोशिश की गई और सफलता प्राप्त की। झूठ की आयु बहुत कम होती है। परन्तु यदि झूठ को प्रभावी ढंग से बोला जाए तो वह सत्य और विश्वास मे परिवर्तित हो जाता है।

    इसका कोई इलाज?

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  8. राघव सिंहजी आपका फ्रंट में स्वागत है. आप मेरी ईमेल आइडी saurabhvajpeyi@gmail.com पर या मेरे फेसबुक पेज Saurabh Bajpai पर आकर अपना मोबाइल नंबर दे दीजिये. मैं आपसे संपर्क करूँगा.

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  9. UV Singhji, aapka dhanyawad. Ek hi tarika dikhai deta hai ki jitni mehnat galat logon ne jhoot ke prachar mein lagaai hai, usse jyada humein sach ke liye ladne mein lagaani hogi.

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  10. बहुत ही उत्तम लेख सर अब तक मैंने अपनी जिंदगी में सबसे से बेहतरीन तारीख पड़ी... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर... आशा करते हैं.. ईश्वर सबको सद्बुद्धि दें और सत्यता को स्वीकार करने की हिम्मत

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