गांधी की हत्या : सत्य का वध
रमेश ओझा
इंडियन एक्सप्रेस, 7 फरवरी 1948 |
बचपन से ही
मेरे मन में नाथूराम गोडसे नाम के आदमी के लिए एक अजीब-सा कौतूहल था। गांधीजी जैसे
महात्मा का इस आदमी ने खून क्यों किया ? यह प्रश्न मन
में उठता था। मुम्बई में कॉलेज में पढते समय मेरे एक हिन्दुत्ववादी मराठी मित्र ने
नाथूराम गोडसे की लिखी 'पन्नास कोटीचे बली' (पचास करोड की बलि) और उसके भाई गोपाल गोडसे की लिखी 'गांधी हत्या आणि मी' (गांधी हत्या और मैं),
ये दो पुस्तकें मुझे पढने के लिए दी थी । 'पन्नास कोटीचे बली' नाथूराम का अदालत में दिया
हुआ बचावनामा है, और 'गांधी आणि
मी' गोपाल गोडसे की, आजीवन कैद
की सजा होने के बाद लिखी गयी पुस्तक है। ये दोनों पुस्तकें पढने के बाद मुझे महसूस
हुआ कि नाथूराम गोडसे धर्मजनूनी जरूर था, मगर पागल नहीं
था। हम जिसको सिरफिरा कहते हैं, ऐसा तो वह हरगिज नहीं था।
नाथूराम और
उसके साथियों ने जान-बूझकर,
षड्यंत्रपूर्वक ठण्डे कलेजे से गांधीजी की हत्या की थी। इन लोगों
ने गांधीजी की हत्या क्यों की, इस प्रश्न के जवाब की तलाश
में धीरे-धीरे गांधीजी की राजनीति और हिन्दुत्ववादियों की राजनीति के बीच का फर्क
मुझे समझ में आने लगा। मुसलमानों ने भारत का विभाजन करवाया, फिर भी मुसलमानों, उनके संगठन मुस्लिम लीग तथा
नवनिर्मित पाकिस्तान के प्रति गांधीजी ने नरम रुख अपनाया था, ऐसी दलीलें उन पुस्तकों में तथा अन्यत्र भी हिन्दुत्ववादी देते रहे
हैं। उनकी नजर में, तब तो हद ही हो गयी, जब गांधीजी ने पाकिस्तान को, उसके हिस्से के 55
करोड रुपये देने की जिद की और उपवास की धमकी तक दे डाली।
पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार तथा कश्मीर पर हमला करनेवालों को 55 करोड रुपये देने की बात से उनेजित होकर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की
हत्या की थी, ऐसा उन पुस्तकों में कहा गया है। आम तौर पर
गांधीजी की हत्या के सम्बन्ध में, आम लोगों की भी धारणा
ऐसी ही है। अनेक इतिहासकार और पत्रकार भी ऐसा ही मानते हैं। इतिहास की
पाठय़पुस्तकों में भी हत्या का यही कारण बताया जाता है।
गोडसे-बन्धुओं
की पुस्तकों को पढने के बाद हत्या का सही कारण जानने के लिए मैंने अन्य अनेक
ग्रन्थों का अध्ययन किया। प्यारेलाल लिखित 'द लास्ट फेज',
गांधी हत्या का केस जिनकी अदालत में चला था उन न्यायमूर्ति खोसला
की लिखी पुस्तक, ग्वालियर के बचाव पक्ष के वकील एडवोकेट
इनामदार के संस्मरण, और गोडसे- बन्धुओं का प्रतिवाद करनेवाली
कई दूसरी पुस्तकें पढने के बाद मुझे यकीन हो गया कि गांधीजी की हत्या 55 करोड रुपये के प्रकरण से उनेजित होकर नहीं की गयी थी। भारत का विभाजन
और 55 करोड रुपये का प्रश्न खडा हुआ, उसके बहुत पहले ही इस टोली ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया
था और कई बार गांधीजी की हत्या करने के प्रयास भी किये गये थे।
गांधी-हत्या
केस के आरोपियों में से गोपाल गोडसे और मदनलाल पाहवा अभी जीवित हैं।
आजादी की
स्वर्ण-जयन्ती तथा गांधीजी की 50 व पुण्य-तिथि के निमिन गत
वर्ष गोपाल गोडसे के साथ मैंने लम्बी बातचीत की थी। आठ घण्टे की लम्बी बातचीत में
उनके साथ बहुत दलीलें हुइऔ। एक बार मदनलाल पाहवा के साथ भी बातचीत हुई। बातचीत के
दौरान मदनलाल पाहवा ने ठण्डे कलेजे से कहा था कि उसने गांधीजी की हत्या करने के
लिए नहीं, बल्कि चेतावनी देने के लिए बम फेंका था।
गोडसे-बन्धु की पुस्तक में भी यही कहा गया है। गोपाल गोडसे के पास अधिकांश
प्रश्नों के उनर नहीं हैं। दूसरे की बात सुनी-अनसुनी करके वे अपनी ही बात कहते
रहते हैं। पीछे पडो, तो प्रश्नों का जवाब देने के बदले
उलटे-पुलटे बहाने बनाकर टालने का प्रयास करते हैं। अविश्वसनीय उलटी-सीधी दलीलें
करते हैं। स्वयं कितने देशभक्त हैं, यही साबित करने की
कोशिश बारगबार करते हैं। नाथूराम कितना बडा विद्वान और चरित्रवान था, इसका बखान करते हैं।
झूठ का
प्रचार
गोपाल
गोडसे और मदनलाल पाहवा से मिलने के बाद मुझे यकीन हो गया कि ये लोग बिलकुल झूठ
बोलते हैं। तथ्यों की तोड-मरोड करते हैं। वे पहले दर्जे के धूर्त लोग हैं। 'हा! आर. स. स. की तुलना में हिन्दू महासभा वाले मुझे कुछ कम धूर्त लगते
हैं1। हिन्दुत्ववादियों में फरेबियों के सभी लक्षण दिखाई
देते हैं। गुजराती में 'गांधी विरुद्ध गोडसे' नाटक आ रहा है, इसकी जानकारी उन्होंने मुझे दी
थी। गांधी की हत्या के विषय में हिन्दुत्ववादी अपनी बात अलग-अलग तरीके से
घोंट-घोंटकर लोगों को पिलाने की कोशिश करते रहते हैं। 'असत्य'
को अलग-अलग स्थानों में, अलग-अलग तरीकों
से, बारगबार कहते रहने पर एक दिन वह 'असत्य'-'सत्य' हो
जायेगा, ऐसी 'गोबेल्स थियरी'
में इन फासीवादियों की श्रद्धा है। इसीलिए ये लोग तीन 'मिथ' प्रस्थापित करने की लगातार कोशिशें कर
रहे हैं। पहला 'मिथ' यह है कि
गांधीजी मुसलमानों तथा पाकिस्तान के पक्षपाती थे। दूसरा 'मिथ'
यह है कि गांधीजी की हत्या 55 करोड
रुपयों के कारण की गयी थी। तीसरा 'मिथ' यह है गांधी की हत्या करनेवाले बहादुर, देशभक्त
और प्रामाणिक व्यक्ति थे। परन्तु सत्य यह है कि ये तीनों 'मिथ' बिलकुल गलत हैं।
गांधीजी
क्या मुसलमानों के तरफदार और पक्षपाती थे ? क्या देश के
विभाजन के लिए गांधीजी जिम्मेदार थे? गांधे की हत्या के
सम्बन्ध में हिन्दुत्ववादियों की 'थिसिस' में कितना झूठ भरा पडा है, यह समझने के लिए
सर्वप्रथम उक्त तीनों बातों की तह में जाना और समझना जरूरी है।
तिलक
महाराज की मर्यादा
9 जनवरी,
1915 को गांधीजी जब हिन्दुस्तान वापस आये, तब कांग्रेस का नेतृत्व लोकमान्य तिलक कर रहे थे। लोकमान्य तिलक की
रुझान हिन्दुत्ववादी, ब्रांणवादी और रूढिवादी सनातनी-जैसी
थी। गोपालकृष्ण गोखले की अस्वस्थता के कारण प्रगतिशील, सुधारवादी
शक्तिया कमजोर पड गयी थी। उस समय लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में कुछ हिन्दुत्ववादी
कांग्रेसी खुला आन्दोलन चला रहे थे, तो कुछ विनायक दामोदर
सावरकर-जैसे हिन्दुत्ववादी क्रान्तिकारी लोग भूमिगत रहकर हिंसक आन्दोलन की तैयारी
कर रहे थे। इन दोनों प्रकार के आन्दोलनों की कुल ताकत कितनी थी वह समझ लेना जरूरी
है।
लोकमान्य
तिलक ने घोषणा की कि 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।' इसमें
स्वराज्य शब्द आता है। उस समय इसका अर्थ पूर्ण स्वराज्य नहीं था। लोकमान्य के मन
में 'स्वराज्य' का आशय था
ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वायनता 'होमरूल' और, यही उनकी मा!ग थी। यह लोकमान्य तिलक के
प्रति पूरा सम्मान-भाव रखते हुए लेकिन हिन्दुत्ववादी राजनीति की मर्यादाए! बताने
के लिए लिखना पड रहा है। हिन्दुत्ववादी-ब्रांणवादी दृष्टिकोण के कारण तिलक महाराज
कांग्रेस के प्रभाव का विस्तार नहीं कर सके थे। उधर महाराष्टं तथा अन्य प्रान्तों
में ब्रांण-विरोधी आन्दोलन जोर पकडने लगा था, जिसने
कांग्रेस के हिन्दुत्ववादी नेतृत्व को प्रभावहीन बना दिया था।
.....और,
क्रान्तिकारी क्या कर पाये ?
भारत में
गेरिबाल्डी और मेजिनी जैसे क्रान्तिकारी बनने का ख्वाब देखनेवाले गेरिबाल्डी और
मेजिनी द्वारा किये गये कामों का शतांश काम भी यहा! नहीं कर सके थे। भूमिगत रहकर
हिंसक क्रान्ति करने का इरादा रखनेवाले भारत की वास्तविकताओं से बिलकुल अनभिज्ञ
थे। वैसे भी भूमिगत आन्दोलन की एक मर्यादा होती है। सौ वर्ष बाद भी
भूमिगत-आन्दोलनवाले आयरलैण्ड का प्रश्न हल नहीं कर सके थे, अभी हाल में बातचीत के द्वारा समस्या का समाधान हो पाया है। भारत एक
बहु-अस्मितावाला देश है। हर समाज दूसरे को शंका की नजर से देखता है। कांग्रेस के
नेताओं का झुकाव ब्रांणवादी होने के कारण बहुजन-समाज कांग्रेस तथा स्वराज-आन्दोलन
से अलग रहता था। और, जहा! बहुजन-समाज साथ न हो, वहा! तो भूमिगत-आन्दोलन की विफलता अवश्यम्भावी होती है। अधिकतर
क्रान्तिकारी एकादी छोटी-मोटी घटनाए! करने के बाद पकड लिये जाते थे। अलीपुर बम-केस
में, अरविन्द घोष जैसे नेता भी, कोई
योजना बनायें, उससे पहले ही पकड लिये गये थे।
सावरकर को जानें-समझें
ये लोग
जिसको 'क्रान्तिवीर' के विशेषण से नवाजते हैं,
वह विनायक दामोदर सावरकर लन्दन में रहकर 'अभिनव भारत' पत्रिका निकालते थे। भाषण तथा लेख
की प्रभावी शैली होनेके के कारण कुछ युवक उनकी तरफ आकर्षित हुए थे। उनके
अनुयायियों ने भूमिगत रहकर तोडफोड की कुछ कार्रवाइया! की थी, परन्तु अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक वोंह वे नहीं कर सके थे। अन्ततः
परिस्थिति ऐसी बनी कि, 'वी.डी. सावरकर खुद कोई जोखिम नहीं
उठाते!' ऐसा असन्तोष उनके अनुयायियों में पनपने लगा। यदि
अब भी कुछ नहीं किया, तो 'अभिनव
भारत' पत्रिका बन्द हो जायेगी, ऐसी
आशंका उन्हें होने लगी थी। तब उन्होंने जिन्दगी में पहली बार, और अन्तिम बार, एक छोटा-सा साहस कर दिखाया।
उन्हें जब ब्रिटेन से भारत लाया जा रहा था तब फ्रान्स की सीमा में उन्होंने समुं
में कूद कर भागने की कोशिश की थी। लेकिन मात्र 10 मिनट
में ही सावरकर पकड लिये गये थे। हकीकत तो यह है कि सावरकर फ्रान्स की सीमा में
भागने का गुनाह करके फ्रांसिसे सरकार के गुनहगार बनना चाहते थे, ताकि अंग्रेज सरकार की सजा से बच जाय। बाद में सावरकर माफीनामा लिखकर
अण्डमान की जेल से रिहा हुए थे। अंग्रेज सरकार द्वारा निर्धारित मुद्दत तक वे
रत्नागिरी जिले की सीमा से बाहर नहीं जायेंगे, ऐसा लिखित
शर्तनामा उन्होंने अंग्रेजों को दिया था। वी. डी. सावरकर की इस 'महान क्रान्ति' के बाद तीन दशक तक भारत की
आजादी के किसी भी आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया हो या आजादी के लिए स्वयं कोई एक
भी आन्दोलन उन्होंने चलाया हो, इसका कोई प्रमाण
नहीं मिलता।
गांधीजी को
आम जनता का सहयोग
यह थी देश
की राजनीतिक स्थिति,
जब 9 जनवरी, 1915 के दिन गांधीजी बम्बई के बन्दरगाह पर उतरे। उस समय के अधिकांश नेता
भारत की सामाजिक वास्तविकताओं से अनभिज्ञ थे, यह एक हकीकत
है। भारत में पैर रखने के साथ ही, कांग्रेस के
हिन्दुत्ववादी-ब्रांणवादी झुकाव तथा भूमिगत-आन्दोलन की मर्यादाए! गांधीजी की समझ
में आ गयी थी। गांधीजी ने कांग्रेस को व्यापक जन-संगठन में परिवर्तित करने का काम
आरम्भ कर दिया। पहली बार, दलित, आदिवासी,
पिछडे वर्ग के लोग,महिलाए! कांग्रेस को
अपना समझने लगम्। राष्टं की राजनीति में हमारा भी कोई स्थान है, ऐसा विश्वास शोषित जनता के मन में सबसे पहले गांधीजी ने पैदा किया।
कांग्रेस
की कायापलट
गांधीजी ने
कांग्रेस नाम की संस्था को लोक-आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया। जब समग्र जनता
आन्दोलित होती है तब भूमिगत क्रान्ति की कोई प्रासंगिकता ही नहीं रह जाती। चम्पारण
से पहले,
देश के किसी भी जिले में, किसी मुद्दे
को लेकर जिला-व्यापीगजन-आन्दोलन नहीं हुआ था। सम्पूर्ण देश में आम हडताल हो सकती
है इसकी कल्पना तक, गांधीजी से पहले के कांग्रेसी नेता
नहीं कर पाये थे।
खिलाफत-आन्दोलन
को समर्थन देकर मुसलमानों को साथ लेने का प्रयास गांधीजी ने किया। पृथक्-पृथक्
संकुचित अस्मिताओं की जगह राष्टींय अस्मिता गांधीजी ने ही पैदा की। यदि गांधीजी ने
यह राष्टींय अस्मिता नहीं पैदा की होती, तो देश अभी तक
आजाद नहीं हुआ होता। गांधीजी के सर्वसमावेशक उदार राष्टंवाद ने यह जादू कर दिखाया।
गांधीजी को हिन्दू होने का गर्व था, मगर वे हिन्द के बापू
थे। इसीलिए हिन्दुत्ववादियों के अनेक अनुयायी तथा भूमिगत-आन्दोलनवाले गांधीजी के
उदार राष्टंवाद से प्रेरित होकर उनके साथ जुड गये थे, गांधीवादी
बन गये थे।
कितनी
देशहित में हैं हिन्दू सम्प्रदायवाद की प्रवृत्तिया!
जो अन्दर
से पक्के सम्प्रदायवादी थे उनको गांधी कभी खुले रूप में स्वीकार्य नहीं थे। लेकिन
गांधीजी के उदार राष्टंवाद के सामने संकुचित हिन्दू-राष्टंवाद टिक सके, ऐसा भी सम्भव नहीं था। इन्हम् परिस्थितियों में गांधी-विरोधी
प्रवृनियों का आरम्भ हुआ था। कुछ लोग हिन्दू महासभा से जुड गये थे, तो कुछ ने 1925 में राष्टींय स्वयं सेवक संघ
की स्थापना की। क्या किया इन महानुभावों ने ? जिन्दगी भर
सिर्फ गांधीजी को तथा मुसलमानों को गालिया! देने का काम किया है इन्होंने। इन महान
राष्टंवादियों ने आजादी के एक भी आन्दोलन में कभी भाग नहीं लिया। उनको गांधीजी का
नेतृत्व मान्य नहीं था। लेकिन गांधीजी तथा कांग्रेस से अलग, स्वतंत्र रूप से कोई एक भी आजादी का आन्दोलन इन लोगों ने नहीं चलाया।
विराटगआन्दोलन की तो बात ही क्या कहें, कोई छोटागसेगछोटा
आन्दोलन भी चलाने की इन देशाभिमानियों ने कभी हिम्मत नहीं की। सावरकर के अलावा
मातृभूमि के इन लाडलों में से किसी ने समाज-सुधार का काम भी नहीं किया। अरे,
काम तो क्या, इसके लिए विचार-प्रचार तक
नहीं किया। गुरु गोलवलकर की लिखीगश्अवर नेशनहुड डिफाइन्ड' शीर्षक पुस्तक तो हिटलर की भी तारीफ करने वाली एक गन्दी पुस्तक है।
यद्यपि आर.एस.एस. ने इस पुस्तक का प्रकाशन अब बन्द कर दिया है, लेकिन इस पुस्तक में व्यक्त विचारों में संघ की आस्था अब नहीं रही,
ऐसी घोषणा आर. एस. एस. ने
आज तक नहीं की है।
पाकिस्तान
का निर्माण किसने किया ?
1937 में हिन्दू
महासभा के अहमदाबाद-अधिवेशन में खुद सावरकर ने द्विराष्टंवाद के सिद्धान्त का
समर्थन किया था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव किया, उससे तीन वर्ष पूर्व ही सावरकर ने हिन्दू और मुसलमान, ये दो अलग-अलग राष्टींयताए! हैं, यह
प्रतिपादित किया था। जब दो साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे के खिलाफ काम करने लगती
हैं, तब दोनों एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होती हैं,
और वह होता है आत्मविनाश का। हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने ऐसा
करके अंग्रेजों और भारत-विभाजन चाहने वाले मुसलमानों को फायदा ही पहु!चाया था। इन
महान देशप्रेमियों ने 1942 की आजादी के आन्दोलन में तो
भाग नहीं ही लिया था, उल्टे ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर
यह जानकारी भी दी थी कि हम आन्दोलन का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी आये, उसके पहले राष्टींय राजनीति का नेतृत्व उनके पास ही था। लेकिन तब भी
उन्होंने उन दिनों कोई बडा पराव्म नहीं किया था, यह हम
सबकी जानकारी में है ही। गांधी के आने के बाद भी इन लोगों ने राष्टंहित में कोई
मामूली काम करने की भी जहमत नहीं उठाई। गुरु गोलवलकर ने ऐडाल्फ हिटलर का अभिनन्दन
किया, फिर भी अंग्रेजों ने उनको गिरफ्तार नहीं किया। कारण
यह कि अंग्रेज मानते थे कि ये दो कौडी के निकम्मे लोग हैं। ये लोग तो तला पापड भी
नहीं तोड सकते ! अंग्रेजों का यह आकलन था उनकी ताकत के बारे में।
भारत-विभाजन
के लिए जितने जिम्मेदार मुस्लिम लीग तथा अंग्रेज हैं, उतने ही ये मूर्ख हिन्दुत्ववादी भी जिम्मेदार हैं। आजाद भारत में
हिन्दू ही हुकूमत करेंगे, ऐसा शोर मचाकर हिन्दुत्ववादियों
ने विभाजनवादी मुसलमानों के लिए एक ठोस आधार दे दिया था। ये विभाजनवादी लोग कहम्
मुहम्मद अली जिन्ना, कहम् सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी
आदि का भय दिखाकर उनका चालाकीपूर्वक उपयोग करते थे। हिन्दुत्ववादी अभी भी अपनी
बेवकूफियों पर गर्व का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों को जिन्हें कभी जेल में रखने की
जरूरत ही नहीं पडी, उन गोलवलकर की अदृश्य ताकत का उपयोग
अंग्रेज गांधीजी के खिलाफ करते थे। शहाबुद्दीन राठौड की भाषा में कहें तो उस समय
की राष्टींय राजनीति में यो लोग जयचन्द थे। भारत का विभाजन गांधी के कारण नहीं हुआ
है, इन लोगों के कारण हुआ है। गांधीजी ने तो अन्त तक भारत
विभाजन का विरोध किया था। गांधीजी ने अन्तिम समय तक इसके लिए जिन्ना के साथ
क्रमबद्ध मंत्रणाए! कीं। गांधीजी ने पाकिस्तान को स्टेट माना था। (देखें प्यारेलाल
लिखित 'लास्ट फेज') गांधीजी
सर्वसमावेशक उदार राष्टंवादी थे। इसीलिए उन्होंने सब कौमों को अपनाया था, मात्र मुसलमानों को ही नहीं। प्रत्येक छोटी अस्मिता व्यापक राष्टींयता
में मिल जाय, यह चाहते थे गांधीजी। एक राष्टींय नेता की
यह दूरदृष्टि थी। महात्मा का यह वात्सल्य-भाव था सबके प्रति। बदनसीबी से
हिन्दू राष्टंवादी यह समझना ही नहीं चाहते थे।
सुभाषबाबू
को भी सताया इन्होंने
सुभाष बाबू
बंगाल-विभाजन के विरोधी थे। विभाजन न हो, इसके लिए सुभाष
बाबू शहीद सुहरावर्दी के साथ समझौते की हिमायत करते थे। 'हमारे
कलकना' में बैठक कर कोई मुसलमान 'भं बंगालियों' पर राज करे, यह हिन्दुत्ववादियों को स्वीकार्य नहीं था। प्रान्तीय कांग्रेस में
एकतावादी सुभाषचन्द्र बोस को इन लोगों ने पराजित कर दिया। बंगाल में हिन्दू ऐसी
संकीर्णता प्रदर्शित करें, और उसके पडोसी संयुक्त प्रान्त
के मुसलमान विशाल और उदार मन रखें, क्या यह सम्भव था ?
विभाजन
रोकने के लिए इन लोगों ने क्या किया ?
अब अन्तिम
बात। गांधीजी को भारत-विभाजन रोकना चाहिए था, यह मांग ये लोग
किस मुंह से करते हैं ? गांधीजी को विभाजन रोकने के लिए
उपवास करना चाहिए था, ऐसी अपेक्षा करने का इनको क्या
नैतिक-अधिकार है ? जिसको आप देश के लिए कलंक समझते हैं,
जिसका वध करना जरूरी मानते हैं, उसी से
आप ऐसी अपेक्षाए! भी रखते हैं? आपने क्यों नहीं विभाजन को
रोकने के लिए कुछ किया ? सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर ने विभाजन के विरुद्ध क्यों
नहीं आमरण उपवास किया ? क्यों नहीं इसके लिए उन्होंने
हिन्दुओं का व्यापक आन्दोलन चलाया ? जिसको गालिया! देते
हों, उसी से देश बचाने की गुहार भी लगाते हो ? और जब गांधीजी अकेले पड जाने के कारण देश का विभाजन रोक नहीं पाये,
तब आप उनको राक्षस मानकर उनका वध करने की साजिश रचते हो ?
इसको मर्दानगी कहेंगे या नपुंसकता ?
मैंने
गोपाल गोडसे तथा अन्य दूसरे अनेक हिन्दुत्ववादी विद्वानों के समक्ष ऐसे सवाल उठाये
हैं,
लेकिन किसी के पास इसका कोई उनर नहीं है। इन सबके बावजूद भी ये
अपनी डम्ग हा!कने से बाज नहीं आते हैं। सत्य को जानते हुए भी जो असत्य का प्रचार
करे, उसको धूर्त ही कहेंगे। हिन्दुत्ववादी पहले दर्जे के
धूर्त हैं।
ये
हिन्दुत्ववादी लगातार जो तीन झूठ बोल रहे हैं, उसमें से इस
पहली झूठ की हकीकतों को हमने देखा।
भारत-विभाजन
के लिए गांधीजी जिम्मेदार नहीं थे। भारत-विभाजन के लिए कई ऐतिहासिक तथा सामयिक
तन्व एवं ताकतें जिम्मेदार थी। ब!टवारा चाहने वाले मुसलमान जिम्मेदार थे, अंग्रेज जिम्मेदार थे तथा उनके कारनामों के लिए अनुकूल राह
बनाने-दिखाने वाले मूर्ख हिन्दुत्ववादी जिम्मेदार थे।
हिन्दू
राष्ट्रवादियों को पहचानें
गांधी-द्वेष
और मुस्लिम-द्वेष से ये हिन्दू राष्टंवादी इतने पीडित थे कि राष्टंहित किसमें है
यह उनकी समझ में ही नहीं आता था। उनके पेट में दर्द तो इस बात का था कि गांधीजी के
आने के बाद नेतृत्व उनके हाथ से चला गया था। इतना ही नहीं, उनकी 'हिन्दूगब्राण्ड राजनीति' भी कालबाह्य हो चुकी थी। ब्रांणवादी राष्टंवाद की जगह ले ली थी उदार
गांधीवादी राष्टंवाद ने। जाति-पा!ति, पंथ, लिंग आदि भेदभावों को भूलकर जनता गांधीजी के पीछे चलने लगी थी। राजनीति
की बुनियाद से साम्प्रदायिकता को हटाकर, गांधीजी ने उसकी
जगह अध्यात्म को प्रस्थापित कर दिया था। अध्यात्म की बुनियाद पर मानवतावादी
राजनीति की इस नयी धारा ने गांधीजी को महात्मा बना दिया और हिन्दुत्ववादी क्षीण
होतेगहोते हासिये पर चले गये थे। जो बहुत महन्वाकांक्षी नहीं थे ऐसे कई
साम्प्रदायिक लोग राजनीति से अलग हो गये। जनूनी और महन्वाकांक्षी सम्प्रदायवादियों
की हालत पतली हो गयी। वे गांधीजी के साथ जा नहीं सकते थे और जनता उनके साथ आने के
लिए तैयार नहीं थी।
गांधी-हत्या
की प्रेरक शक्तिया!
जिस
व्यक्ति के कारण अपने अस्तित्व पर संकट आता है, वह व्यक्ति
का!टे की तरह चुभने लगता है और तब उस का!टे को निकलाने का प्रयत्न होता है।
हिन्दुत्ववादी समाचार-पत्रों में गांधीजी की कटु आलोचनाए! छपती थी। गांधीजी को अभं
गालिया! देने वाली छोटीगछोटी पत्र-पत्रिकाए!, प्रचारगपुस्तिकाए!
तो इतनी छपवाते थे कि यदि उनका संग्रह किया जाता तो एक कमरा ही भर जाता। कुछ महान
देशभक्त तो इतने शूरवीर थे कि अपना नाम भी छापने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।
गांधीजी सबकी पीठ पर हाथ फेरकर अपना स्नेह व्यक्त करते हैं, मात्र हमारी पीठ पर ही हाथ क्यों नहीं फेरते, इसका
उन्हें दुख था। गांधीजी एक बार रत्नागिरी में सावरकर से मिले थे और वर्धा में आर.एस.एस.
के स्वयंसेवकों को एक बार सम्बोधित किया था, इन दो घटनाओं
का लाभ उठाने में हिन्दुत्ववादी कभी कोई कसर नहीं छोडते। जिन्हें दिन-रात गालिया!
देते हो, सपने में भी जिसका चेहरा देखकर जल-भुन जाते हो,
उसकी एक मधुर स्मृति इतनी मूल्यवान !
हिन्दुत्ववादियों
की आ!ख में गांधीजी किरकिरी की तरह खटकते थे। 55 करोड रुपयों की
तो बात ही क्या, पाकिस्तान किसी के सपने में नहीं था,
तब से ये गांधीजी की हत्या करने के प्रयास में जुट गये थे। दुखद
तथ्य यह है कि भारत में गांधीजी की हत्या के जो प्रयास हुए हैं, उनमें सबमें अधिक पूना के लोग ही शामिल थे। इस प्रकार के तीन प्रयासों
में, और अन्त में हत्या में, खुद
नाथूराम गोडसे शामिल था। 55 करोड रुपये का प्रश्न तो 12
जनवरी, 1948 को यानी गांधीजी की हत्या
के 18 दिन पहले प्रस्तुत हुआ था। इससे पहले, चार बार गांधीजी की- हत्या के प्रयास हिन्दुत्ववादियों ने क्यों
किये थे, इसका उनर उनको देना चाहिए।
गांधी-हत्या
के प्रयास 1934
से ही !
गांधीजी
भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून,
1934 को किया गया। पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के
लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था। गांधीजी
पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये। हत्या का यह प्रयास
हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा
नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिसगरिपोर्ट में दर्ज
है। 1934 में तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज पर थी
नहीं, 55 करोड रुपयों का सवाल ही कहा! से पैदा होता ?
गांधीजी की
हत्या का दूसरा प्रयास 1944
में पंचगनी में किया गया। जुलाई 1944 में
गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिनभर वे गांधी-विरोधी नारे
लगाते रहे। इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया।
मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में
नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के सूरती-लॉज के मालिक
मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया।
पुलिस-रिकार्ड में नाथूराम का नाम नहीं है, परन्तु
मशिशंकर पुरोहित तथा भीलारे गुरुजी ने गांधी-हत्या की जा!च करने वाले कपूर-कमीशन
के समक्ष स्पष्ट शब्दों में नाथूराम का नाम इस घटना पर अपना बयान देते समय लिया
था। भीलारे गुरुजी अभी जिन्दा हैं। 1944 में तो पाकिस्तान
बन जाएगा, इसका खुद मुहम्मद अली जिन्ना को भी भरोसा नहीं
था। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि 1946 तक मुहम्मद अली
जिन्ना प्रस्तावित पाकिस्तान का उपयोग सना में अधिक भागीदारी हासिल करने के लिए ही
करते रहे थे। जब पाकिस्तान का नामोनिशान भी नहीं था, तब
क्यों नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या का प्रयास किया था ?
गांधीजी की
हत्या का तीसरा प्रयास भी इसी वर्ष सितम्बर में, वर्धा
में, किया गया था। गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत
करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सके, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहु!चा। उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा
था। उस गुट के ग.ल. थने के नाम के व्यक्ति के पास से छुरा बरामद हुआ था। यह बात
पुलिस-रिपोर्ट में दर्ज है। यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के
लिए लाया गया था, ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था।
इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल (म.गांधी के सचिव) ने लिखा है : 'आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि
स्वयंसेवक गम्भीर शरारत करना चाहते हैं, इसलिए पुलिस को
मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई करनी पडेगी। बापू ने कहा कि मैं उसके बीच अकेला जा।!गा
और वर्धा 1रेलवे स्टेशन1 तक पैदल
चलू!गा, स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर
में आने को कहें तो दूसरी बात है। कृबापू के रवाना होने से ठीक पहले
पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से
समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला, तो पूरी चेतावनी
देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है।
धरना
देनेवालों का नेता बहुत ही उनेजित स्वभाववाला, अविवेकी और
अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती
थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला। (महात्मा गांधी :
पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
इस प्रकार
प्रदर्शनकारी स्वयंसेवकों की यह योजना विफल हुई। 1944 के
सितम्बर में भी पाकिस्तान की बात उतनी दूर थी, जितनी
जुलाई में थी।
गांधीजी की
हत्या का चौथा प्रयास 29
जून, 1946 को किया गया था। गांधीजी
विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे थे, उस समय नेरल और
कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था। उस रात को डांइवर की
सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये। दूसरे दिन, 30 जून की
प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा : ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मु!ह से सकुशल वापस
आया हू!। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहु!चाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है,
फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया,
यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का
प्रयास निष्फल गया।'
नाथूराम
गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणील् नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी'
के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर
जीने कौन देगा ?' यानी कि 125 वर्ष
आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले
नाथूराम का लिखा यह वाक्य है। यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए
बहुत पहले से प्रयासरत थे। 'अग्रणी' का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है। 1946 के
जून में पाकिस्तान बन जाने की शक्यता तो दिखायी देने लगी थी, परन्तु 55 करोड रुपयों का तो उस समय कोई
प्रश्न ही नहीं था। इसके बाद 20 जनवरी, 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी पर, प्रार्थनागसभा
में, बम फेंका और 30 जनवरी,
1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी।
55 करोड रुपयों के
बारे में एक और हकीकत भी समझ लेना जरूरी है। देशगविभाजन के बाद भारत सरकार की कुल
सम्पनि और नकद रकमों का, जनसंख्या के आधार पर, बटवारा किया गया था। उसके अनुसार पाकिस्तान को कुल 75 करोड रुपये देना तय था। उसमें से 20 करोड
रुपये दे दिये गये थे। और, 55 करोड रुपये देना अभी बाकी
था। कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को यदि 55 करोड
रुपये दिये गये, तो उसे वह सेना के लिए खर्च करेगा,
यह कहकर 55 करोड रुपये भारत सरकार ने
रोक लिए थे। लार्ड माउण्ट बेटन का कहना था कि यह रकम पाकिस्तान की है, अतः उन्हें दे दी जानी चाहिए। इस बात की जानकारी गांधीजी को हुई तो
उन्होंने 55 करोड रुपये पाकिस्तान को दे देने की माउण्ट
बेटन की बात का समर्थन किया। 12 जनवरी को गांधीजी ने
प्रार्थना-सभा में अपने उपवास की घोषणा की थी, और उसी दिन
55 करोड रुपये की बात भी उठी थी। लेकिन गांधीजी का उपवास 55
करोड रुपये के लिए नहीं, दिल्ली में
शान्ति-स्थापना के लिए था।
जनवरी माह
के प्रथम सप्ताह में एक मौलाना ने आकर गांधीजी से कहा था कि पाकिस्तान का विरोध
करने वाले हमारे जैसे राष्टंवादी मुसलमान पाकिस्तान जा नहीं सकते, और हिन्दू सम्प्रदायवादी हमें यहा! जीने नहीं देते। हमारे लिए तो यहा!
नरक से भी बदतर स्थिति है। आप कलकना में उपवास कर सकते हैं, पर दिल्ली में नहीं करते ? ऐसी शिकायत भी उस
मौलाना ने गांधीजी से की थी। गांधीजी मौलाना की बात सुनकर दुखी हो गये थे। दिल्ली
में शान्ति-स्थापना के लिए अनेक प्रयास होने के बावजूद शान्ति स्थापित नहीं हुई।
अन्त में 13 जनवरी से गांधीजी ने उपवास आरम्भ कर दिया। यह
उपवास साम्प्रदायिक शान्ति के लिए था, न कि 55 करोड रुपयों के लिए। 55 करोड रुपयों का सवाल
तो संयोगवश उसी समय प्रस्तुत हो गया था। गांधीजी ने अपनी प्रार्थना-सभा में उपवास
का हेतु स्पष्ट रूप से घोषित किया था और उसके बाद उनका उपवास समाप्त कराने के लिए
हिन्दुत्ववादियों सहित तमाम सम्बन्धित पक्षों ने शान्ति की अपील पर हस्ताक्षर किये
थे। इसके बावजूद भी हिन्दुत्ववादी झूठे प्रचार करते जा रहे हैं।
गांधीजी की
हत्या करने वाले यह दावा करते हैं कि 55 करोड रुपये की
घटना से उनेजित होकर गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र रचा गया था। इसका अर्थ तो यह
होता है कि यह षड्यंत्र 13 जनवरी के बाद रचा गया था। तो
क्या मात्र सात दिनों में, गांधीजी पर बम फेंकने की घटना
उस जमाने में सम्भव हो सकती थी ? मात्र 17 दिनों में ही हत्या करनेवाले इकट्ठे हो गये, षड्यंत्र
रच लिया, ग्वालियर से पिस्तौल हासिल करके दिल्ली आये और
गांधीजी की हत्या कर दी। इतने कम समय में षड्यंत्र रच लिया गया उस पर अमल भी हो
गया, यह बात गले से नीचे उतरने लायक नहीं। 13 जनवरी को नाथूराम ने अपनी बीमे की पालिसी नाना आप्टे की पत्नी के नाम
करा दी थी। अदालत ने भी अपने फैसले में 1 जनवरी,
1948 को षड्यंत्र-रचने का दिन माना है। कुछ क्षणों के लिए उनकी
बात मान भी लें तो 55 करोड रुपयों का सवाल सामने आया उसके
पहले से ही, गांधीजी की हत्या करने के प्रयास क्यों किये
जाते रहे, यह प्रश्न अनुनरित ही रह जाता है। एक घटना को
छोडकर, बाकी सभी प्रयास महाराष्टं में, और पूना के ही हिन्दुत्ववादियों द्वारा क्यों किये गये ? तीन प्रयास तो खुद नाथूराम गोडसे ने किये। इस तरह जाहिर है कि 55
करोड रुपये की बात तो बिलकुल झूठ है।
ऐसे होते
हैं देशभक्त
गांधी की
हत्या के साथ 55
करोड रुपयों का कोई सम्बन्ध नहीं हैं, इस
बात की स्पष्टता के बाद अब हिन्दुत्ववादियों द्वारा प्रस्थापित तीसरे, 'मिथ' की भी चर्चा कर लें। यह तीसरा, 'मिथ' है कि गांधीजी के हत्यारे प्रामाणिक
देशभक्त और बहादूर थे। जैसा कि इनके द्वारा प्रचारित किया जाता है। 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' नाटक में नाथूराम की
ऐसी ही छवि उभारने की कोशिश की गयी है। जो लोग असत्य तथा अर्धसत्य का सहारा लेते
हैं क्या उनको प्रामाणिक और बहादुर कहा जा सकता है ? जो
लोग सन्दर्भ को तोड-मरोड कर झूठ फैलाते हैं उनको बदमाश कहते हैं या बहादूर ?
इन लोगों ने गांधीजी की हत्या का असली कारण बताने का साहस किया
होता तो जरूर उनको प्रामाणिक कहा जा सकता था। गांधीजी की हत्या के लिए किये गये
पिछले निष्फल प्रयासों की जिम्मेदारी भी कबूल की होती, तो
भी कुछ भिन्न बात होती। एक अहिंसानिष्ठ निःशस्त्र व्यक्ति की हत्या करना कोई
मर्दानगी नहीं, कोरी नपुंसकता है। जो लोग तार्किक रीति से
अपनी बात दूसरों को समझा नहीं सकते, वे ही लोग हिंसा का
सहारा लेते हैं। हिंसा बुजदिलों का मार्ग है, शूरवीरों का
नहीं। अपनी निष्फलता और हताशा में ही हिन्दुत्ववादियों ने गांधीजी की हत्या की थी।
नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने के प्रयास अधिकतर प्रार्थना-सभाओं में ही किये।
जब सब लोग प्रार्थना में लीन हों, उस वक्त ये 'नरबा!कुरे' गांधीजी की हत्या करना चाहते थे।
पूजा-प्रार्थना कर रहे आदमी पर हमला नहीं करना चाहिए, ऐसा
हिन्दुत्ववादियों के प्रिय हिन्दू-युद्ध शास्त्र में कहा गया है। ये नामर्द तो अपनी
संस्कृति का भी अनुसरण नहीं कर सकते। हजारों लोगों की उपस्थिति वाली, गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फेंकने में भी इन लोगों को शर्म नहीं
आयी। जिन लोगों के लिए निर्दोष व्यक्तियों की जान की कोई कीमत नहीं, उनको क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त कहा
जा सकता है ?
सरदार पटेल
और आर.एस.एस.
ये लोग
योजनाबद्ध तरीके से सरदार पटेल को हिन्दुत्ववादी साबित करने की नीच हरकतें कर रहे
हैं। नाथूराम गोडसे का आर.एस.एस. से सम्बन्ध नहीं रहा है, ऐसा घोषित करने की भीख आर.एस.एस. के नेताओं ने नाथूराम से ही मा!गी थी।
हकीकत यह है कि गांधी-हत्या के पाच वर्ष पहले तक नाथूराम आर.एस.एस. का प्रचारक था।
आर.एस.एस. पर से प्रतिबन्ध उठाया जा सके, इसके लिए सरदार
पटेल ने नाथूराम को ऐसा घोषित करने के लिए कहा था, यह
दावा गोपाल गोडसे करते हैं। इस प्रकार सरदार पटेल हिन्दुत्ववादी थे, और आर.एस.एस. से मिले हुए थे, ऐसा गन्दा संकेत
ये दो लोग बेशर्मी से करते हैं। आरम्भ में गुरु गोलवलकर की लिखी 'अवर नेशनहुड डिफाइन्डल् पुस्तक का उल्लेख किया गया है। इस पुस्तक का
प्रकाशन 1939 में हुआ था। इस पुस्तक के कारण जब आर.एस.एस.
के लिए कठिनाइया! बढने लगी, तब तुरन्त उससे छुटकारा पाने
के लिए गुरु गोलवलकर ने इस पुस्तक के लेखक का नाम बदलकर बाबाराव सावरकर कर दिया।
दूसरे के नाम की पुस्तक अपने नाम पर प्रकाशित कराने की बात हमने सुनी है। परन्तु
इस आदमी ने तो अपनी चमडी बचाने के लिए अपनी ही पुस्तक दूसरे के नाम कर दी। ऐसे
कायर और कपटी आदमी को क्या प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त
कहा जा सकता है ? गोपाल गोडसे ने जेल से छूटने के लिए
भारत सरकार को एकगदो बार नहीं, 22 बार अर्जी दी थी और ऐसे
लोग अपने को शूरवीर कहते हैं। 1नेलसन मण्डेला तो 32
वर्ष जेल में रहे थे, और एक बार भी
उन्होंने जेल से छूटने के लिए अर्जी नहीं दी थी।1 भारत
सरकार ने गोपाल गोडसे को सजा की मुद्दत पूरी होने से पहले रिहा नहीं किया, इसलिए गोपाल गोडसे कहते हैं कि सरकार ने उनके साथ अन्याय किया। यह
धूर्त आदमी, उसके तुरन्त बाद कहता हैं कि सरदार पटेल होते,
तो हमारे ।पर यह अन्याय नहीं हुआ होता। एक निःशस्त्र इन्सान की
प्रार्थना के वक्त हत्या करने वाले, सरासर झूठ बोलने वाले,
निर्दोष व्यक्ति को अपने साथ कीचड में सानने की कोशिश करने वाले
लोगों को क्या कभी भी प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त माना
जा सकता है ?
भारतीय
राजनीति में हिन्दुत्ववादी तो मूर्ख-शिरोमणि थे। गांधीजी की हत्या करके उन्होंने
अपने ही पा!व पर कुल्हाडी मारी थी। गांधीजी की हत्या के साथ ही साम्प्रदायिक दंगे
बन्द नहीं हुए होते,
और उस स्थिति में हिन्दुत्ववादियों को शक्ति बढाने का मौका मिला
होता। देश का साम्प्रदायिक विभाजन और साम्प्रदायिक ताकतों का ध्रुवीकरण हुआ होता
तो शायद भारत में सेक्यूलर संविधान और सेक्यूलर राज्य अस्तित्व में नहीं आया होता।
गांधीजी ने तो अपने प्राणों की आहुति देकर भी देश की सेवा की, जबकि मूर्ख हिन्दुत्ववादियों ने महात्मा के प्राण लेकर अपने ही ध्येय
को नुकसान पहचाया।
यह है
गांधीगहत्या की वस्तुस्थिति। जैसे कि प्रारम्भ में ही कहा है कि नाथूराम गोडसे
धर्म-जनूनी था,
पागल नहीं। ठण्डे कलेजे से, षड्यंत्र
रचकर उसने गांधीजी की हत्या की थी। दूसरी बात कि, गांधीजी
की हत्या 55 करोड रुपये और मुसलमानों के प्रति उनके
पक्षपाती रवैये के कारण नहीं, हताशा और ईर्ष्या के कारण
की गयी थी। गांधीजी जब तक जीवित हैं तब तक अपना कुछ चलने वाला नहीं है, यह हकीकत उन्हें परेशान करती थी। इसी कारण कुछ लोग उन्हें गालिया! देते
थे, कुछ लोग मौका देखकर तोडफोड करते थे, तो कुछ लोग उनकी हत्या करने का प्रयास करते थे। तीसरी बात कि, ये लोग प्रामाणिक, बहादुर और देशभक्त नहीं थे।
काले-कारनामे करने वालों, झूठ फैलाने वालों, गन्दी शरारतें करने वालों तथा प्रार्थना करते हुए निःशस्त्र व्यक्ति की
हत्या करने वालों को प्रामाणिक, बहादुर, देशप्रेमी तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। झूठगफरेब और षड्यंत्र
साम्प्रदायिकता की राजनीति के अनिवार्य अंग हैं। साजिश करके ही इन्होंने सन् 1948
में अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद में रामलीला की तसवीर रखवायी थी,
षड्यंत्र करके ही मस्जिद तोडी गयी और अब मन्दिर बनाने की भी
साजिश कर रहे हैं। देशप्रेम की चादर ओढे, हमारे आसपास
घूमनेवाले, इन विकृत-कुण्ठित-मानस के षड्यंत्रकारियों को
हमें अच्छी तरह पहचान लेना चाहिए। |
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