31 जनवरी 2016

How The RSS Tried To Rewrite History On Godse And Gandhi - And We Bought It

Karam Komireddy Headshot
Karam Komireddy
www.huffingtonpost.in
15 May 2015

It has been almost 70 years since the assassination of Mahatma Gandhi. The day is observed sombrely every year, but if we are to honour the father of the nation, we must vigorously contest the distortions of history that are going largely unchallenged in today's India. The killing of Gandhi on 30 January 1948 was not the act of a lone madman. At the age of 78, Gandhi was passionately advocating tolerance and tirelessly disputing the demands of those who wished to transform India into what Nehru called a "Hindu Pakistan". Nathuram Godse, the assassin whose bullets ended Gandhi's life, was the agent of an ideology seeking to establish its supremacy by eliminating its most formidable adversary.

"Sixty-eight years on, the ease with which the RSS has gone about sanitising its past must put India to shame."

The fount of that ideology was the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS). And the most tenacious obstacle to the RSS's dream of forging a Hindu state in India was Gandhi. After India's partition, Gandhi's influence over the Muslims who migrated to Pakistan naturally diminished. His moral authority over the people and government of India, however, remained strong; and he used his bully pulpit to prod India to transfer assets to Pakistan and provide security to Muslims. This confirmed his standing, in the eyes of the RSS and its ideological progeny, as an enemy of the Hindus. As Godse admitted at his trial for the murder of Gandhi, "I consider[ed] it a religious and moral duty to resist and, if possible, to overpower such an enemy by use of force".

GANDHI

Sixty-eight years on, the ease with which the RSS has gone about sanitising its past must put India to shame. The Right Wing organisation now denies any complicity in the killing of Gandhi. Its grudging admission that Godse had been a longstanding member of the RSS is accompanied by the dubious claim that he quit the organisation long before he pulled the trigger on Gandhi. As "evidence" of its innocence, it cites the findings of an independent commission of inquiry instituted in 1966 to investigate the circumstances of Gandhi's assassination. But the RSS's self-exculpatory claims fall apart when subjected to closer scrutiny.

First of all, it is important to remember that the RSS has no formal membership application. Anyone who turns up at its meetings and affirms faith in its beliefs is a member. That Godse joined the RSS is beyond dispute because the organisation admits he had been a member. It is equally indisputable that he shared the RSS's belief in Hindu supremacy. It is for the RSS to prove that Godse quit the organisation. To date, it has not produced a shred of evidence to demonstrate that he did.

"It was only in the 1990s that new information about Godse's relationship with the RSS began to surface."

Secondly, the Jeevan Lal Kapur Commission's "exoneration" of the RSS rests primarily on the deposition of one witness -- who in any case believed that the organisation should have been banned long before the assassination of Mahatma Gandhi. As the Commission's report noted, the "RSS and militant Hindu Mahasabha leaders" created "conditions... conducive to strong anti-Gandhi activities including a kind of encouragement to those who thought that Mahatma Gandhi's removal will bring about a millennium of Hindu Raj."

But if the Kapur Commission did not find the RSS culpable beyond a reasonable doubt, it is because it concluded its inquiry long before fresh evidence came to light.

It was only in the 1990s that new information about Godse's relationship with the RSS began to surface. In 1994, Gopal Godse, Nathuram's younger sibling and a co-conspirator in the assassination plot, disclosed that his elder brother was anxious to protect the RSS, which had been "like a family to us". "[Nathuram] said in his statement that he left the RSS", Gopal continued. "He said it because... the RSS were in a lot of trouble after the murder of Gandhi. But he did not leave the RSS". Gopal denounced the "cowardice" of those disputing his brother's unbroken membership of the RSS. Corroborating Gopal's statement is the influential pro-RSS scholar Dr Koenrad Elst who, in his 2001 book Gandhi and Godse, wrote that "Nathuram contrived to create the impression that the RSS had little to do with him, simply to avoid creating more trouble for the RSS in the difficult post-assassination months."

The RSS, politically ascendant and devoted to "Hinduness", is creating an environment in which we are expected to assess it on its own questionable terms. But to succumb to its demands is to lose a little bit of the "Indianness" that is the legacy of Mahatma Gandhi. The RSS cannot forever hide behind a report that, in this specific instance, is rendered obsolete by fresh evidence. If a commission with a remit similar to the one handed to Justice Jeevan Lal Kapur were to be constituted today, we can be almost certain that it will find the RSS culpable beyond a reasonable doubt.

29 जनवरी 2016

30 जनवरी के मायने

शुभनीत कौशिक
सम्पादक
स्वाधीन 

आज हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ दक्षिणपंथी समूह और राजनीतिक दल, भारतीय समाज और संस्कृति पर अपनी खास परिभाषा को थोपने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इस परिभाषा के अंतर्गत न सिर्फ़ एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ की परिकल्पना की जा रही है, बल्कि खुद हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति को भी खास सांचे में ढालने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश, महज़ अभिव्यक्ति की आज़ादी और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए ही खतरा नहीं है, बल्कि इससे उपजने वाले हौलनाक मंजर भारतीय समाज पर कभी जाति-व्यवस्था की विभीषिका के रूप में, तो कभी महिलाओं के शोषण और उन पर अत्याचार के रूप में जाहिर होते रहे हैं।
जब मिली-जुली भारतीय संस्कृति या गंगा-जमुनी तहज़ीब पर हमले हो रहे हैं, जो सामाजिक सहिष्णुता और सौहार्द्र की बुनियाद पर खड़ी है, तो हमें सचेत होकर यह समझना चाहिए कि ये हमले महज़ हमारे वर्तमान को नहीं, बल्कि अतीत और भविष्य को भी एक नए सिरे से रचने-गढ़ने की मुहिम का हिस्सा हैं। और अगर हम इस मुहिम के नतीजों को लेकर वाकई चिंतित है तो हमें उन लोगों के साथ, उन समूहों के साथ एकजुट होकर खड़े होना होगा जो हमारी चिंताओं में बराबर के साझीदार हैं, और कहीं-न-कहीं इन हमलों के शिकार भी हैं।
30 जनवरी 1948 को एक धर्मांध हिन्दू द्वारा मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या कर दी गयी, पर यह हत्या सिर्फ़ गांधी के शरीर की हत्या नहीं थी। यह हत्या प्रतिरोध, सच्चाई और अहिंसा के विचार की भी हत्या थी। यह हत्या उस विचार को दर्शाती थी, जिसके अनुसार असहमति का जवाब सिर्फ़ असहमति की आवाज़ को हमेशा के लिए खामोश करके दिया जाना था। इस विचारधारा के कुकृत्य हमने पिछले एक साल में देखे ही, जब नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम एम कल्बुर्गी की हत्या कर दी गई, सिर्फ उनके विचारों के लिए। गांधी की हत्या उस संभावना की हत्या थी, जो दुनिया को युद्ध, गरीबी और शोषण से दूर मुक्ति, शांति, करुणा और मैत्री के पथ पर ले जाना चाहती थी। यह हत्या, गाँव के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की गहराती दोस्ती को तोड़ने की साजिश का नतीजा थी। असल में, यह उस संभावनाशील इतिहास की हत्या थी, जिसकी ओर इशारा करते हुए कवि कुँवर नारायण ने लिखा है:
“बारूद में आग लगाने के इतिहासों से अलग
एक तीसरा इतिहास भी है
रहमतशाह की बीड़ियों और
मत्सराज की माचिस के बीच सुलहों का”।
गोडसे, सावरकर या गोलवलकर जैसे लोगों की महात्मा गांधी से असहमति सिर्फ़ हिंदुस्तान के मुस्लिमों के प्रति गांधी की सहानुभूति के कारण ही नहीं थी, बल्कि इसकी गहराई में हिन्दू धर्म और भारतीय समाज-संस्कृति की दो बिल्कुल अलग वैचारिक संसारों के बीच उपजने वाला टकराव था। जहां गांधी, भारत में भक्ति आंदोलन के संतों और सूफियों की उस महान परंपरा के प्रतीक थे, जिसके लिए मानवता से बढ़कर कोई धर्म न था, वहीं सावरकर, गोलवलकर धर्म-संस्कृति की ऐसी संकीर्ण विचारधारा के परिचायक थे जो बांटने, अलगाव करने और बहिष्कार में ही विश्वास करती थी।
30 जनवरी के संदर्भ में, केएल गाबा की पुस्तक एसेसिनेशन ऑफ महात्मा गांधी और गांधी की हत्या के षड्यंत्र की जांच करने के लिए बने जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट (1969) का भी ज़िक्र किया जाना चाहिए। जस्टिस कपूर की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि गांधी की हत्या का कारण विभाजन या पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिया जाना भर कतई नहीं था। ये कारण कहीं अधिक व्यापक और जटिल थे। इसमें गोडसे के वैचारिक गुरु सावरकर के द्विराष्ट्रवादी विचारों का भी योगदान था। सावरकर के ये विचार, न केवल हिन्दू महासभा के द्विराष्ट्रवादी राजनीतिक अवधारणा का आधार बने बल्कि, खुद मुस्लिम लीग ने भी, औपचारिक तौर पर इसे अपने नीतिगत कार्यक्रमों में जगह दी थी।
हिन्दू-मुस्लिम एका और बाद में, भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को लेकर महात्मा गांधी का रवैया भी, गांधी के प्रति हिन्दू संगठनों के गुस्से का कारण था। अस्पृश्यता के सवाल को लेकर 1934 से ही लगातार सक्रिय गांधी, भला कट्टर और संकीर्ण हिन्दुत्व की राजनीति के पोषकों को स्वीकार्य होते भी तो कैसे? इस सवाल को कहीं स्पष्ट संदर्भ में रखा था, समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव ने, उनके अनुसार ‘गांधीजी किसी भी अर्थ में एक पुरातनपंथी हिन्दू न थे... उन्होंने उन सभी संकीर्ण नियमों और मान्यताओं को तोड़ा जिनमें एक पुरातनपंथी हिन्दू यकीन करता था’।
महात्मा गांधी की हत्या पर टिप्पणी करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा था कि गांधीजी की हत्या ‘हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्व का नतीजा उतना न थी, जितना वो हिन्दू धर्म के उदार और कट्टर धड़े के बीच टकराव का नतीजा थी। जाति, महिला और सहिष्णुता के संदर्भ में, धर्मांध हिन्दू मान्यताओं को किसी ने इतनी खुली चुनौती न दी थी, जितनी कि गांधीजी ने। उनके प्रति धर्मांध तत्वों का पूरा गुस्सा, द्वेष इकट्ठा हो रहा था। गांधीजी की जान लेने के प्रयास पहले भी किए गए। तब इसका खुला उद्देश्य जाति के संदर्भ में हिन्दू धर्म को बचाने से था। 
गांधीजी की हत्या का अंतिम और सफल प्रयास, ‘मुस्लिम प्रभाव’ से हिन्दू धर्म को बचाने के उद्देश्य से किया गया, लेकिन... यह उदार धड़े से पस्त होते कट्टरपंथियों द्वारा लगाया गया सबसे बड़ा और सबसे आपराधिक जुआ था’।
देहरूप में गांधी को खत्म करने के सिलसिलेवार प्रयास किए गए। मसलन, पूना में 25 जून 1934 को गांधी पर उनके अस्पृश्यता के विरोध में किए जा रहे देशव्यापी यात्रा के दौरान बम फेंका गया। 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या से, ठीक दस दिन पहले भी गांधी पर जानलेवा हमले का प्रयास किया गया। गांधी की हत्या में सांप्रदायिक संगठनों के अलावे, सम्पन्न पूंजीपति वर्ग और देसी रियासतों, मसलन भरतपुर और अलवर ने भी आर्थिक संसाधन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
पिछले वर्ष इसी अवसर पर (यानि 30 जनवरी को) प्रो. इरफ़ान हबीब द्वारा महात्मा गांधी के योगदान को रेखांकित करते हुए जेएनयू में एक व्याख्यान दिया गया, जिसका शीर्षक था ‘Gandhiji’s Finest Hour”। इस व्याख्यान में प्रो. हबीब ने समाजवादी और साम्यवादी समूहों-दलों के लिए गांधी से मतभेदों की जगह, गांधी और उनकी राजनीति से समानता पर ज़ोर दिया। उन्होंने गरीबों और आमजन के सरोकारों को लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी की भागीदारी पर प्रकाश डाला। दक्षिण अफ्रीका में बिताए गांधी के दिनों से लेकर, जहाँ गांधी ने पहले-पहल सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के अपने प्रयोग शुरू किए, चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद में मिल मजदूरों द्वारा की गयी हड़ताल में गांधी की भागीदारी की चर्चा प्रो. हबीब ने विस्तार से की। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को इसका व्यापक जनवादी चरित्र देने में महात्मा गांधी की भूमिका अग्रणी थी, उनकी इसी भूमिका से प्रभावित होकर अकबर इलाहाबादी ने उस दौर में ‘गांधीनामा’ की रचना की थी। वे लिखते हैं:
इन्क़िलाब आया, नई दुनिया, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।
महज राष्ट्रीय आंदोलन को ही नहीं, बल्कि समाज सुधार के प्रयासों को नया जीवन देने में भी गांधी की भूमिका उल्लेखनीय थी। समाज-सुधार गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों का अभिन्न अंग था, इसके अंतर्गत अस्पृश्यता उन्मूलन, शराब और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, चरखा भी थे। 1932 में पूना समझौते के बाद गांधी ने अस्पृश्यता उन्मूलन और हरिजनों के उद्धार को अपना मुख्य उद्देश्य घोषित किया। मंदिरों में अछूतों को प्रवेश दिलाने के लिए और हरिजनों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव के लिए गांधी ने देश भर में यात्राएं कीं और इस सिलसिले में कट्टरपंथी हिंदुओं के गुस्से और घृणा का दंश भी लगातार झेला।
महात्मा गांधी ने ही लाहौर कांग्रेस के दौरान 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाने के लिए देश भर के गाँव और शहरों में पढे जाने के लिए प्रस्ताव के मसौदे को तैयार किया था, जिसमें उन्होंने औपनिवेशिक शासन के आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना और प्रभावों को बखूबी समझा और उजागर किया था। 1931 के करांची अधिवेशन में मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम के मसौदे को तैयार करने में भी गांधी ने प्रमुख भूमिका निभाई। इस मसौदे के प्रस्तावों पर गांधी की छाप स्पष्ट थी। मसलन, अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान बनाए रखने, भाषाई अस्मिता को संरक्षण देने और सार्वभौम वयस्क मताधिकार आदि।
गांधी के जीवन, उनके विचारों और कार्यों से सीख लेने की बात करते हुए प्रो. हबीब ने वर्तमान संदर्भ में एक उद्देश्य के लिए, सेकुलर और समाजवादी भारत, (ध्यान दें कि ये वे दो शब्द हैं जिन्हें संविधान की प्रस्तावना से हटाने को लेकर चर्चा चल रही है!), हरसंभव एकता बनाने पर ज़ोर दिया था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बिताए अपने तत्कालीन दिनों को याद करते हुए प्रो. हबीब ने गांधी की हत्या, शरणार्थियों की समस्या, अल्पसंख्यकों की चिंता, सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका का विस्तृत ब्योरा भी दिया था। प्रार्थना सभा में गांधी के प्रवचनों और उन सभाओं में पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थियों और दिल्ली के मुस्लिमों से संवाद करने के गांधी के प्रयासों का भी उन्होंने जिक्र किया। जाहिर है कि अपने इन प्रयासों के चलते गांधी न केवल कट्टरपंथियों के कोपभाजन के पात्र बने बल्कि कई बार कांग्रेस नेतृत्व की नाराज़गी भी उन्हें उठानी पड़ी।
आखिर में, आज के लिहाज़ से एक बहुत मौजूँ बात जिसे अपनी मशहूर नज़्म ‘जश्ने ग़ालिब’ में साहिर लुधियानवी ने लिखा है:
यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं ।

25 जनवरी 2016

ताकि महज औपचारिकता न रहे गणतंत्र दिवस (गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर एक टिप्पणी)

शुभनीत कौशिक 

26 जनवरी, 2016 को भारतीय राष्ट्र अपना 66वां गणतंत्र दिवस मनाएगा। विगत कई वर्षों से गणतंत्र दिवस को भारतीय राज्य, महज़ औपचारिकता की तरह निबाह रहा है और लोग इसे बस ‘नेशनल हॉलिडे’ के रूप में देखते रहे हैं। यानि छुट्टियों की लंबी-चौड़ी भारतीय सूची में एक और छुट्टी, बस इतना ही! बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में पले-बढ़े हिंदुस्तान के मानस में, क्या सचमुच गणतंत्र दिवस की कोई प्रासंगिकता रह गई है? अगर हाँ, तो वह प्रासंगिकता क्या है! और नहीं तो, आखिर क्यों हिंदुस्तान की युवा पीढ़ी के लिए महज़ ‘नेशनल हॉलिडे’, और ज्यादे-से-ज्यादे प्लास्टिक के तिरंगों तक सीमित होता जा रहा है गणतंत्र दिवस।

गणतंत्र दिवस के प्रासंगिकता के संदर्भ में ही, मैं आपको उस दस्तावेज़ की याद दिलाना चाहूँगा, जो 86 वर्ष पहले तैयार किया गया था। दस्तावेज़ का उद्देश्य था, 26 जनवरी 1930 को ‘पूर्ण स्वाधीनता दिवस’ के रूप में मनाते हुए, देश भर के गाँवों-शहरों में लोगों के सामने इसे पढ़ना। यह दस्तावेज़ एक शपथ-पत्र की तरह था, जिसका मसौदा तैयार किया था, महात्मा गांधी ने।

मैं इसी दस्तावेज़ के आईने में, आज के हिंदुस्तान की हालत का जायजा लेना चाहूँगा। इस मसौदे का पहला ही वाक्य है: “हमारा विश्वास है कि अपनी प्रगति के लिए पूरा-पूरा अवसर पाने की दृष्टि से दूसरे देशवासियों की तरह हिंदुस्तान के लोगोंको स्वाधीनता पाने, अपनी मेहनत का सुख भोगने तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है”। क्या यह वाक्य आज 2016 के हिंदुस्तान की हालत पर लागू नहीं होता। क्या हमें भी यह विश्वास नहीं जताना चाहिए कि आज़ाद हिंदुस्तान में हम अपनी मेहनत का सुख भोगना चाहते हैं, जिंदगी के लिए जरूरी चीजों को हासिल करने का अधिकार रखते हैं, जिसमें अपनी राय रखने, और अभियक्ति की आज़ादी जैसे बुनियादी अधिकार भी शामिल हैं।

यह मसौदा भले ही, एक औपनिवेशिक राज्य के संदर्भ में लिखा गया था, पर इसमें कही गई कुछ बातें सार्वभौम महत्त्व रखती हैं और आज के संदर्भ में भी लागू होती हैं। मसलन, गांधी इस मसौदे में लिखते हैं, “अगर कोई सरकार लोगों को उनके अधिकार से वंचित करती है, उनपर जुल्म करती है तो लोगों को यह भी अधिकार है कि वे उसे बदल दें या उसे समाप्त कर दें”। क्या आज हिंदुस्तानियों को इस पर विचार नहीं करना चाहिए। कभी डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। क्या हम हैं ज़िंदा क़ौम?


1930 के औपनिवेशिक भारत का हाल बयान करते हुए गांधी कहते हैं, “भारत की अंग्रेज़ सरकार ने हिंदुस्तानियों को न केवल उनकी स्वाधीनता से वंचित कर दिया है, बल्कि उसने..हिंदुस्तान को आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से तबाह कर दिया है”। वे कहते हैं कि औपनिवेशिक नीतियों की शोषक प्रवृत्ति के चलते आर्थिक दृष्टि से हिंदुस्तान तबाह हो चुका है। गाँव के उद्योग धंधे नष्टप्राय हैं और किसान बेकारी से जूझ रहे हैं। कोई नया धंधा भी नहीं है, बेकार युवकों को काम पर लगाने के लिए। यद्यपि यह मसौदा उस दौर में लिखा गया, जब दुनिया आर्थिक महामंदी से जूझ रही थी। पर आज क्या हम कमोबेश, ऐसी ही स्थिति से दो-चार नहीं हैं। किसान सूखे और अकाल का मारा हुआ और कर्ज और ब्याज से बुरी तरह दबा हुआ है; खेती में किसी को भविष्य नहीं दिखता; और पढ़े-लिखे युवक रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं।
इस गणतंत्र दिवस पर हमें एक पल के लिए ठहरकर सोचना चाहिए, कि आर्थिक पुनर्निर्माण के नाम पर “आर्थिक सुधारों” की जो नीति नब्बे के दशक में भारत सरकार ने अपनायी, क्या वह कारगर साबित हो रही है; क्या सचमुच इसने रोजगार के अवसर सृजित किए हैं, और क्या इन नीतियों ने भारत में समावेशी विकास को सुनिश्चित किया।

1930 में लिखे गए इस मसौदे में, अँग्रेजी राज़ की आयात-निर्यात कर और मुद्रा-व्यवस्था की कड़ी आलोचना की गई थी। क्या आज के हिंदुस्तान में आर्थिक नीतियों का वही जन-विरोधी चरित्र परिलक्षित नहीं होता, जहाँ हम ‘प्रोग्रेसिव टैक्स नीति” से “रिग्रेसिव टैक्स नीति” के दौर में जा रहे हैं; जहाँ एक ओर फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने में भारत सरकार इतना आगे-पीछे करती है और एक झटके में कारपोरेट टैक्स न के बराबर कर दिया जाता है; जहाँ एक ओर उत्तराधिकार की संपत्ति पर तो कोई कर नहीं लगाया जाता, पर आम हिंदुस्तानी पर तमाम अप्रत्यक्ष कर थोप दिये जाते हैं।

इस मसौदे में, गांधी आगे जोड़ते हैं कि राजनैतिक दृष्टि से “अँग्रेजी राज में हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा घटी”। हिंदुस्तानियों की सारी शासन क्षमता खत्म कर दी गई। अँग्रेजी राज में, जो राजनीतिक सुधार किए गए वे भी महज ‘दिखावे के सुधार’ ही साबित हुए, क्योंकि उन सुधारों ने जनता के हाथ में सच्ची राजनैतिक शक्ति नहीं सौंपी। क्या आज के हिंदुस्तान में जनता के हाथ में है वह ‘सच्ची राजनैतिक शक्ति’, जिसकी ओर गांधी इशारा कर रहे थे। अगर हाँ, तो क्या जनता उस राजनीतिक शक्ति का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करती है।

सांस्कृतिक दृष्टि से गांधी देखते हैं कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली के चलते शिक्षित भारतीय अपनी संस्कृति से दूर होते गए। नतीजतन, वे सभी दिखाई न पड़ने वाली जंजीरों में लिपटे हुए हैं। सब के सब बंधे हुए हैं दासता की अदृश्य बेड़ियों में । क्या आज की चौपट हो चुकी भारतीय शिक्षा व्यवस्था यह दावा कर सकती है, कि उसने शिक्षित भारतीयों को उन अदृश्य जंजीरों से मुक्त कराया है, जिससे औपनिवेशिक शासन ने हमारी मानसिकता को जकड़ दिया था।

गांधी इस मसौदे में आध्यात्मिक पक्ष की भी बात करते हैं। ध्यान रहे, आध्यात्मिक (स्प्रिचुअल) पक्ष, न कि धार्मिक पक्ष। इस आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा जरूरी समझते हैं गांधी, क्योंकि आध्यात्मिकता का यह जरूरी पक्ष, उनके स्वराज-संबंधी विचारों से भी गहरे जुड़ा हुआ है। गांधी लक्षित करते हैं कि लंबे औपनिवेशिक शासन ने हिंदुस्तानियों की ‘प्रतिरोध की भावना’ ही कुचल डाली है। बक़ौल गांधी, “हम ऐसा कुछ सोचने लगे हैं कि न तो हम अपनी रक्षा कर सकते हैं, न विदेशियों के आक्रमण का सामना कर सकते हैं”। क्या हम हिंदुस्तानी भी आज अपने को कुछ ऐसा ही असहाय, सरकार पर बुरी तरह निर्भर नहीं समझने लगे हैं। और क्या हम ये नहीं महसूस करते कि हमारी ‘प्रतिरोध की भावना कुचल डाली गई है’।

अंत में, गांधी कहते हैं कि ऐसे “राज्य के अधीन रहना हम अब ईश्वर और मानव जाति के प्रति अपराध करना समझते हैं”। वे इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि ‘स्वाधीनता हासिल करने के लिए हिंसा का तरीका सर्वाधिक कारगर तरीका नहीं है’। साथ ही, गांधी सविनय अवज्ञा की जरूरत को भी इस मसौदे में रेखांकित करते हैं।

इस 26 जनवरी को हम सब सोचें, अपने-अपने स्तर से विचार करें कि क्या कुछ सकारात्मक कदम उठा सकते हैं हम, अपने गणतंत्र की कमियों के निराकरण के लिए। कैसे हासिल करें, हम वह ‘सच्ची राजनीतिक शक्ति’। और हासिल कर भी ली तो कैसे न्यायसंगत और विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें, उस शक्ति का। क्या हम ऐसी भारतीय शिक्षा की संकल्पना कर सकते हैं, जो हरेक भारतीय को उपलब्ध हो सके, और जो यह भी सुनिश्चित करे कि शिक्षित भारतीय ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से, और जाति, धर्म, नस्ल, लिंग से जुड़े पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। हम यह भी सोचे कि कौन से कदम हमें तत्काल उठाने चाहिए, अपने भारतीय गणतंत्र के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्निर्माण के लिए। साथ ही, इस बारे में भी हम मनन करें कि वे दीर्घकालिक उपाय कौन से होंगे, जो इस दिशा में भारतीय लोकतंत्र को आगे ले जाएँगे। 

22 जनवरी 2016

नेताजी सुभाष चंद्र बोस : राजनेता और विचारक

शुभनीत कौशिक 

(नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर शुभनीत कौशिक का विशेष लेख. बहुत ही सटीक और सारगर्भित विश्लेषण.....)

आज़ादी के बाद के दशकों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक बड़ी रूढ़ छवि गढ़ दी गई। एक सेनानायक की छवि। सैनिक भेष-भूषा में, बूट पहने, सावधान की मुद्रा में खड़े, सुभाष चंद्र बोस की छवि। यह छवि किसने गढ़ी, क्यों गढ़ी, यह उतना महत्त्वपूर्ण सवाल नहीं है, जितना यह कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद की पीढ़ियों ने नेताजी की इस रूढ़ और भ्रामक छवि को जस-का-तस स्वीकार कर लिया। इस रूढ़ छवि का फायदा, आज वे राजनीतिक दल और संगठन उठाना चाहते हैं, जिन्होंने न तो राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया और न उनके पास कोई राष्ट्रीय नायक ही है। जाहिर है कि सुभाष बाबू की सेनानायक वाली यह छवि रोमांचित करने वाली और साहसिक होने के साथ ही, विचार, चिंतन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती। कहने की जरूरत नहीं कि विचाररहित-चिंतनहीन इस रूढ़ छवि के प्रचार से, नेताजी के वैचारिक पक्ष को, उनके समाजवादी विचारधारा के प्रति रुझान को और उनके सांप्रदायिकता विरोध को बड़ी आसानी से भुलाया जा सकता है या उसकी उपेक्षा की जा सकती है।
इस रूढ़ छवि का प्रभाव इतना अधिक है कि जब श्याम बेनेगल सरीखे समर्थ निर्देशक ने सुभाष बाबू पर, “बोस द फारगाटेन हीरो” सरीखी फ़िल्म बनाई, तो उसमें भी बेनेगल ने बोस के उन्हीं आखिरी वर्षों को चुना, जो उन्होंने हिंदुस्तान से बाहर बिताए थे, आज़ाद हिन्द फ़ौज के संगठन और मुक्ति-संग्राम के प्रयास में। सुभाष बाबू का नजरबंदी से फरार होना, अफगानिस्तान से होते हुए जर्मनी जाना, और फिर वहाँ से जापान जाकर रासबिहारी बोस और मोहन सिंह के साथ, भारतीय युद्धबंदियों को संगठित करके आज़ाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व करना, सब कुछ रोमांचित करने वाली साहसिक दास्तान है। पर इस दास्तान में; “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” की गूँज में, उस सुभाष चंद्र बोस को भुला दिया जाता है, जो राजनेता था, चिंतक था, विचारक था।
नेताजी के विचारक पक्ष को जानना हो, तो और कुछ नहीं, तो कम-से-कम 1938 में, हरिपुरा कांग्रेस में दिया गया उनका अध्यक्षीय भाषण ही पढ़ लेना चाहिए। देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मसलों पर ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और वैश्विक मुद्दों की बारीक समझ और सुभाष बाबू की सुलझी हुई भावी दृष्टि का परिचायक है ये भाषण। अपने इस भाषण में, नेताजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विश्वव्यापी ढांचे की कमियों और शक्तियों का विस्तृत विश्लेषण किया। इसमें आज़ाद हिंदुस्तान के सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए समतावादी दृष्टि भी है। जहाँ वे साम्राज्यवाद को खुली चुनौती देते हैं, वहीं इस बात पर ज़ोर देते हैं कि साम्राज्यवाद से संघर्ष का मतलब साम्राज्यवादी देशों और उनकी जनता के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना या विद्वेष की भावना रखने की मनोवृत्ति से उबरना भी है।
अपने अध्यक्षीय भाषण में, बोस ने भारत सरकार अधिनियम (1935) के संघीय भाग की जमकर आलोचना की। उन्होंने अपने भाषण में अल्पसंख्यकों और दलितों के भी मुद्दे उठाए, और धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मुद्दों पर आपसी समझ और “जियो और जीने दो” की नीति को अपनाने की सलाह दी। पूरे हिंदुस्तान के लिए एक साझी संपर्क भाषा के सवाल पर, सुभाष बाबू ने रोमन लिपि में लिखी ‘हिन्दुस्तानी’ की वकालत की। उस समय, नेहरू और बोस दोनों ही, भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की हिमायत कर रहे थे, और इसकी प्रेरणा उन्हें मिली थी, तुर्की में मुस्तफ़ा कमाल पाशा के उस सफल प्रयोग से, जिसमें तुर्की भाषा के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया जा रहा था।

बढ़ती आबादी के नियंत्रण हेतु, नेताजी ने जनसंख्या नियंत्रण की नीति अपनाने पर ज़ोर दिया। राष्ट्र के पुनर्निर्माण और देश की निर्धनता दूर करने के लिए नेताजी ने अपने भाषण में ये सुझाव दिये थे: भूमि-व्यवस्था में सुधार; जमींदारी प्रथा का खात्मा; किसानों को ऋण-माफी और उन्हें कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना; और राज्य द्वारा निर्देशित औद्योगिक विकास। राष्ट्र-निर्माण की इस प्रक्रिया में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महती भूमिका से भी बोस वाकिफ थे, और इसलिए उन्होंने ‘विज्ञान और राजनीति के बीच परस्पर व्यापक सहयोग’ की जरूरत बताई थी।
अक्तूबर 1938 में, नेताजी ने “राष्ट्रीय योजना समिति” (National Planning Committee) के गठन की घोषणा की। 19 अक्तूबर 1938 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक खत में, बोस ने लिखा “मुझे आशा है कि आप योजना समिति का अध्यक्ष बनना स्वीकार करेंगे। यदि इसे सफल बनाना है, तो आपको इसका अध्यक्ष बनना चाहिए”। “राष्ट्रीय योजना समिति” के अंतर्गत 29 उप-समितियां थीं, जिनकी रिपोर्टों ने आज़ाद हिंदुस्तान के विकास और पुनर्निर्माण की योजना का खाका तैयार किया। ये उप-समितियां आठ समूहों में रखी गई थीं: कृषि एवं प्राथमिक उत्पादन; उद्योग एवं द्वितीयक उत्पादन; मानव श्रम और जनसंख्या; विनिमय, व्यापार और वित्त; यातायात और संचार; सामाजिक सेवाएँ (स्वास्थ्य और आवास); शिक्षा (सामान्य और तकनीकी); नियोजित विकास में महिलाओं की भूमिका।
आज स्वतंत्र भारत में, वे लोग और संगठन जो नेताजी को अपना आदर्श बताते हुए भी, सांप्रदायिकता की ओछी राजनीति करने से कभी बाज नहीं आते, वे शायद भूल जाते हैं या सुविधानुसार यह बात भुला देते हैं कि सांप्रदायिक सौहार्द्र और हिन्दू-मुस्लिम एकता नेताजी के लिए सर्वोपरि थी। उनके लिए यह हिन्दू-मुस्लिम एका, सिर्फ साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के लिए ही नहीं बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान में धार्मिक और भाषाई स्वतंत्रता और बराबरी के लिए भी जरूरी थी।
इसके लिए सुभाष चंद्र बोस ने, कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से, मई-दिसंबर 1938 के दौरान मुहम्मद अली जिन्ना को कई खत लिखे और हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर समझौते का प्रयास भी किया। पर जिन्ना इस बात पर अड़े रहे कि कोई भी वार्ता इसी शर्त पर होगी जब कांग्रेस स्वीकार करेगी कि मुस्लिम लीग हिंदुस्तान में मुस्लिमों का आधिकारिक और प्रतिनिधि संगठन है और कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि संगठन है। 14 मई 1938 को जिन्ना को लिखे अपने जवाबी खत में सुभाष बाबू ने लिखा कि “कांग्रेस खुद को किसी खास समुदाय का प्रतिनिधि नहीं मान सकती और न ही उसके अनुरूप काम ही कर सकती है...कांग्रेस के दरवाजे सभी समुदायों के लिए खुले रहने चाहिए और इसे अपनी आम नीति और तरीकों से सहमत होने वाले सभी भारतीयों का स्वागत करना चाहिए। यह किसी एक समुदाय के प्रतिनिधित्व और इस तरह खुद के लिए एक सांप्रदायिक संगठन बन जाने की स्थिति स्वीकार नहीं कर सकती”।
पर त्रिपुरी कांग्रेस में जिस तरह सुभाष बाबू को अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्हें अलग-थलग कर दिया गया, और कार्यकारिणी समिति के सदस्यों ने सहयोग के आश्वासन के बावजूद जिस तरह सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया, वह राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में काले धब्बे की तरह है। पर इसके बावजूद अगर आप सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी और नेहरू के खत पढ़ें, जो नेताजी वांग्मय के अंतिम खंड में संकलित हैं तो आप पाएंगे कि असहमतियाँ होने के बावजूद, कांग्रेस नेतृत्व और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर विचारों में गहरी दरार उभर आने के बावजूद, इन तीनों राष्ट्रीय नेताओं में कोई मनमुटाव नहीं था। याद रहे कि यह सब कुछ घटित होने के बावजूद ये सुभाष बाबू ही थे, जिन्होंने 6 जुलाई, 1944 को आज़ाद हिंद रेडियो पर दिये गए वक्तव्य में, महात्मा गांधी को पहली बार “राष्ट्रपिता” कहा था और उनसे हिंदुस्तान की आज़ादी की आखिरी लड़ाई के लिए और इस मुक्ति-संग्राम में विजय पाने के लिए आशीर्वाद मांगा था।
“नेताजी संपूर्ण वांग्मय”, शिशिर बोस और सुगता बोस द्वारा संपादित, 9 खंडों में, हिन्दी में, प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें सुभाष बाबू के भाषण, पत्र और उनकी दो पुस्तकों “द इंडियन स्ट्रगल” और उनकी आत्मकथा “एन इंडियन पिलग्रिम” के अनुवाद भी संकलित हैं। हिंदी में, सुभाष बाबू की जीवन-यात्रा और उनके चिंतन के बारे में पढ़ना चाहें तो शिशिर बोस द्वारा लिखी सुभाष बाबू की जीवनी पढ़िये। आने वाली पीढ़ियाँ, शिशिर बोस और कोलकाता स्थित ‘नेताजी रिसर्च ब्यूरो’ की कृतज्ञ रहेंगी, कि उनके प्रयासों से नेताजी के भाषण, लेख, किताबें हमारे सामने हैं और आने वाले समय में भी हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
जो लोग अंग्रेज़ी में पढ़ सकते हों, उन्हें बोस बंधुओं (शरत चंद्र बोस एवं सुभाष चंद्र बोस) के बारे में लियोनार्ड गॉर्डन की किताब “ब्रदर्स अगेन्स्ट द राज़ : ए बायोग्राफी ऑफ इंडियन नेशनलिस्ट्स शरत एंड सुभाष चंद्र बोस” और सुगता बोस की किताब “हिज मेजेस्टीज़’ अपोनेंट्स सुभाष चंद्र बोस एंड इंडियाज़’ स्ट्रगल अगेन्स्ट एंपायर” पढ़नी चाहिए।
कृतघ्न हिंदुस्तानियों ने नेताजी की पत्नी, एमिली शेंकल (Emilie Schenkl) और उनकी बेटी अनीता की भी कभी कोई खोज-खबर नहीं ली। बहुत-से लोग तो जानते भी नहीं हैं कि दिसंबर 1937 में ही नेताजी एमिली शेंकल से शादी कर ली थी। नेताजी वांग्मय के सातवें खंड में सुभाष बाबू के वे खत शामिल हैं, जो उन्होंने 1934-1942 के दौरान, एमिली शेंकल को लिखे थे।
अंत में, सुभाष बाबू के लिए सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ये पंक्तियाँ, जो उन्होंने डॉ लोहिया के प्रति लिखी थीं:
“बर्फ़ में गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर 
वह गरमाता रहा
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
खत्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियो
एक चिंगारी और”। 
-शुभनीत कौशिक

11 जनवरी 2016

हमारे विवेकानंद


शुभनीत कौशिक 

उत्तर भारत के विवि में, आपको छात्रों के कमरों में अनिवार्यतः विवेकानंद की तस्वीर मिलेगी। वह तस्वीर, जिसमें भगवा वस्त्र में लिपटा यह संन्यासी दिखता है, अपने आदर्श वाक्य के साथ यानि “उतिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत” (कभी यह वाक्य हिन्दी में लिखा होता है: “उठो, जागो और लक्ष्य को प्राप्त करने से पहले मत रुको” और अँग्रेजी में “Arise Awake and Stop not till the goal is reached”)!

यह स्वामी विवेकानंद का प्रिय उपनिषद-वाक्य था। जिसमें बोध/ज्ञान प्राप्त करने के लिए आलस्य को छोड़, जाग्रत होने का आह्वान किया गया था। वैसे इस सूक्ति की पहली पंक्तियाँ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें कहा गया है कि बोध अथवा ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग सहज कतई नहीं है बल्कि वह तो छुरी की धार पर चलने सरीखा कठिन और दुर्गम है। “क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत कवयः वदंती”। 

यद्यपि इस संन्यासी ने अपने को राजनीति से दूर रखा, पर समाज से यह बिलकुल अन्योन्यान्य रूप से जुड़ा हुआ था। समाज के प्रति अपने दायित्व को लेकर सजग था, दलितों-शोषितों की पीड़ा से सिर्फ व्याकुल नहीं हो उठता था, बल्कि उस पीड़ा के समाधान की कोशिश भी करता था। और उस सच्चाई से आँखें फेरने वालों को धिक्कारता भी था।

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जो अतीतजीवी हो चले थे, और भारत के “स्वर्णिम अतीत” का गुणगान गाते नहीं थकते थे, और वर्तमान की उपेक्षा करते थे, उन्हें फटकारते हुए, इस संन्यासी ने कहा था: “शुद्ध आर्य रक्त का दावा करने वालो, दिन-रात प्राचीन भारत की महानता के गीत गाने वालो, जन्म से ही स्वयं को पूज्य बताने वालो, भारत के उच्च वर्गो, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो! अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो...तुम चलती-फिरती लाश हो...मायारूपी इस जगत की असली माया तो तुम हो, तुम्हीं हो इस मरुस्थल की मृगतृष्णा...तुम हो गुजरे भारत के शव, अस्थि-पिंजर...क्यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्यों नहीं तुम नए भारत का जन्म होने देते?”

“देशभक्ति” के बारे में टिप्पणी करते हुए कभी विवेकानंद ने लिखा था: ““लोग देशभक्ति की बातें करते हैं। मैं देशभक्त हूँ, देशभक्ति का मेरा अपना आदर्श है...सबसे पहली बात है, हृदय की भावना। क्या भावना आती है आपके मन में, यह देखकर कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं सा जीवन बिता रहे हैं? देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है? यह बेचैनी देशभक्ति का पहला कदम है।” इस संन्यासी की देशभक्ति, आज के “देशभक्तों” सरीखी संकीर्ण न होकर, उदात्त थी और मानवता से संवलित होती थी।

मानवता के बगैर, इस संन्यासी के लिए देशभक्ति या ऐसी कोई भी बात बेकार थी। संन्यास जरूर लिया था विवेकानंद ने, पर हिमालय की कंदराओं में जा बसने के लिए नहीं, बल्कि नर-नारायण की सेवा करने के लिए। कहते हैं विवेकानंद संन्यास लेकर, सचमुच हिमालय जाना चाहते थे, पर रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें धिक्कारा और कहा कि “मैं तो सोचता था कि तू दीन-दुखियों की पीड़ा में, उनके कष्टों में सहभागी बनेगा, उनके दुख-दर्द को दूर करने को ही अपना कर्तव्य समझेगा, उनकी मुक्ति का माध्यम बनेगा! पर तू तो बस अपनी ही मुक्ति की सोचता है, धिक्कार है तुझे!”

विवेकानंद ने अपने गुरू के उलाहना से भरे वचनों को सुन, अपना हिमालय जाने का इरादा त्याग दिया, और अपना पूरा ध्यान उस तरफ लगाया, जिधर मानव-महासमुद्र व्याधि से, रोग-शोक से पीड़ित था, भय से, शोषण से, दमन से दबा-कुचला महसूस करता था। विवेकानंद के लिए युग की नैतिकता का सही मतलब था धनी-मानी वर्गों के हर तरह के विशेषाधिकारों का खात्मा: “ताकत के बूते निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनी-मानी वर्गों का विशेषाधिकार रहा है, और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता है”। नर-नारायण की सेवा को ही ध्येय बनाते हुए विवेकानंद ने “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की थी। समाजवाद पर टिप्पणी करते हुए स्वामीजी ने कहा था: “भले ही समाजवाद आदर्श व्यवस्था न हो, लेकिन न कुछ से तो बेहतर ही है”। 

आज जब कुछ लोग विवेकानंद को समझे बगैर, उन्हें “सेलिब्रेट” करते हैं, वह भी एक ऐसे “सेलिब्रेटि” के रूप में, जिसने सितंबर 1893 में शिकागो में अपनी वक्तृता से, “सनातन हिंदू धर्म की पताका” फहराई थी। तो वे बड़ी सुविधा के साथ, उस विवेकानंद को भूल जाते हैं जिसने हिंदू धर्म की कुरीतियों पर करारी चोट की थी। जो उन सारे “धर्मप्राण” व्यक्तियों को ढोंगी कहता था, जो अकाल-सूखे से पीड़ित लोगों के सहायतार्थ कुछ करने की बजाय “ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या” की माला जपते थे। कहते हैं कि “जगत को मिथ्या” बताने वाले एक ऐसे ही पंडित को पीटने के लिए स्वामीजी डंडा लेकर उसके पीछे दौड़े थे। इस संन्यासी ने जगत को ही सत्य माना और नर-नारायण को ही अपना आराध्य। जगत के सत्य से, ब्रह्म के सत्य का साक्षात्कार करने का गुण तो इस संन्यासी ने अपने गुरू रामकृष्ण से सीखा था।

पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने विचारोत्तेजक लेख “इस माहौल में विवेकानंद” में, आज के इस थोथे “सेलिब्रेशन” और विवेकानंद के “एप्रोप्रिएशन” की पॉलिटिक्स की बहुत सही तस्वीर हमारे सामने रखते हैं, “विवेकानंद की समग्र चिंता और गतिविधि को एक अधूरी तस्वीर तक सीमित भी वे ही लोग करना चाहते हैं, जो तीखे सवालों की चिलकती धूप के अस्तित्व तक से इंकार करने के इच्छुक हैं। ऐसे विवेकानंद उनके काम के हैं, जो हिंदुत्व पर गर्व करना सिखाएँ। लेकिन शूद्रराज और समाजवाद की बातें करने वाले विवेकानंद? कर्मयोगी की नैतिकता का आधार आस्तिकता को नहीं, सामाजिक न्याय के संघर्ष को मानने वाले विवेकानंद? वे तो झंझट पैदा करेंगे। सो, उनकी अधूरी तस्वीर को ही सब कुछ मानो। संन्यासी की तेजस्विता पर गर्व करो, लेकिन उस आत्म-संघर्ष और आलोचनात्मक विवेक से कोई वास्ता न रखो, जिससे तेजस्विता संभव हुई”।

3 जनवरी 2016

बर्धन होना एक बहुत मुश्किल काम है

का० बादल सरोज

वे जीवन भर पार्टी के होलटाइमर रहे । उनकी पत्नी कालेज पढ़ाकर घर चलाती रहीं। इस उम्मीद के साथ कि फंड और ग्रेच्युटी के पैसों से रिटायरमेंट के बाद का वक़्त गुजर जाएगा। रिटायरमेंट के बाद मिली पूरी रकम को यूटीआई की एक योजना में जमा कर दिया गया - और विडम्बना यह रही कि वह डूब गयी। इस हादसे की जानकारी बर्धन साब ने एक पत्रकारवार्ता में ठहाका लगाते हुए दी थी। स्थितप्रज्ञता इसी स्थिति को कहते हैंऐसी विरली शख्सियत - फिर भले वह कितनी भी पकी उम्र में क्यों न जाए- एक बड़ी रिक्ति , महाकाय शून्य पैदा करके जाती है। फ़िराक गोरखपुरी से रियायत लेते हुए यह कहने का मन है कि; "आने वाली नस्लें तुम से रश्क़ करेंगी हमअसरो जब उनको मालूम पडेगा तुमने बर्धन को देखा था"

भारतीय राजनीति की उस पीढ़ी की ऐसी धारा के - संभवतः आख़िरी - बुजुर्ग थे बर्धन जिसने शब्दशः खुद को मोमबत्ती की तरह जलाकर अँधेरे के गरूर को तोड़ा है, उजाले की आमद के प्रति उम्मीद बनाये रखी है। ऐसी विरली शख्सियत - फिर भले वह कितनी भी पकी उम्र में क्यों न जाए- एक बड़ी रिक्ति , महाकाय शून्य पैदा करके जाती है। 25 सितम्बर 1925 को जन्मे अर्धेन्दु भूषण बर्धन जब 15 साल के थे तब ही देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे । 1940 में वे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्य बने, 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए । विद्यार्थियों के बड़े जत्थे के साथ उन्होंने 1942 के भारत छोडो आंदोलन में भाग लेते हुए जेल काटी । 17 वर्ष की नाबालिग उम्र से आंदोलनों और जेल के साथ उनका जो रिश्ता कायम हुआ वह तकरीबन आख़िरी सांस तक बना रहा । 1957 में वे महाराष्ट्र विधानसभा के लिए चुने गए । स्थानीय श्रमिक आन्दोलनों से ऊपर उठते उठते वे आल इंडिया ट्रेड यूनियन के महासचिव और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारियों तक पहुंचे ।

यह तथ्यात्मक विवरण जीवनीकार के लिए उपयोगी हो सकता है । मगर यह बर्धन जैसे व्यक्तित्व को जानने के लिए बहुत नाकाफी है । वे बहुत बड़े कद के व्यक्तित्व थे और यह कद उन्होंने किसी सोने या चांदी की आरामदेह सीढ़ी पर चढ़कर नहीं गाँव शहर में छोटे बड़े संघर्षों में लड़ते भिड़ते हासिल किया था । बिना किसी तरह का समझौता किये, बिना कोई पतली गली या शार्ट कट ढूंढें। बर्धन जिस दिशा के प्रति ताउम्र समर्पित रहे, उस दिशा में कुछ और मजबूत कदम आगे बढ़के ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। 

बर्धन साब के व्यक्तित्व में चमत्कारिक सरलता और चुम्बकीय आकर्षण दोनों थे । वे अथक प्रेरक थे । अमोघ वक्ता होना एक गुण है, मगर बोलते समय परिस्थितियों की कठिनता का हवाला देते हुए उनसे बाहर निकल आने का यकीन पैदा करना एक असाधारण योग्यता है । यह एकदम साफ़ समझ और अटूट समर्पण से पैदा होती है । बर्धन साब के तमाम भाषण आन्दोलनकर्ता (agitator) और प्रचारकर्ता (propagandist) का मेल हुआ करते थे । वे बाँध लेने वाली शैली में बोलते थे किन्तु रिझाने या सहलाने वाली अदा से काम नहीं लेते थे । उनकी स्टाइल कुरेदने और झकझोरने वाली हुआ करती थी । मगर उसमे भी एक निराली निर्मलता होती थी ।

बर्धन वाम आंदोलन में उस वक़्त शामिल हुए थे जब दुनिया में समाजवाद की विजय यात्रा चल रही थी। वे जिस दौर में जवान हुए वह दौर फासिज्म की ऐतिहासिक शिकस्त का दौर था। इंक़लाब की आहटों से विश्व - खासतौर से तीसरी दुनिया - गूँज रही थी। बर्धन जिस दौर में प्रौढ़ और बुजुर्ग हुए वह एक तरह से दुःस्वप्न की वापसी का दौर था। दुनिया को एक गाँव में बदल देने वाला फलसफा सिर्फ आर्थिक वर्चस्व तक ही महदूद नहीं रहा था। वह जीवन शैली, (कु) विचार, मानवता विरोधी मूल्यों के विस्तार में भी हावी हो रहा था। बर्धन साब की महानता इस बात में निहित थी कि वे पूर्णिमा के अमावस में तब्दील होजाने की स्थिति से घबराये नहीं। सामाजिक विकास की वैज्ञानिक समझ ने उन्हें कभी लड़खड़ाने नहीं दिया। समाज इस तरह की वैचारिक प्रतिबद्दताओं से - जब भी बदलता है - ही बदलता है। इस तरह की परीक्षा से गैलीलियो, कोपरनिकस, सुकरात, बृहस्पति, चार्वाक, कबीर यहां तक कि बुद्द तक को गुजरना पड़ा। अग्निपरीक्षा बर्धन साब पर भी गुज़री - मगर उसके ताप से डरकर उन्होंने छाँव नहीं ढूंढी। इतिहास घनी छाया में बैठने वाले नहीं, तपती धूप में नंगे पाँव विचरने वाले लिखते हैं। बर्धन उन्ही में से एक थे। 

वे उन कुछ नेताओं में से एक थे जो कम्युनिस्ट पार्टियों के विभाजन के बाद के दौर के तीखे क्लेशपूर्ण वातावरण के बावजूद दोनों ही पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच मकबूल थे । (राजेन्द्र शर्मा प्रलेस वालों से मिली कुछ आत्मकथाओं में से एक चिटनीस साब की आत्मकथा में बर्धन साब के बारे में लिखी बातों को पढ़कर महसूस हुआ कि उनकी इस स्वीकार्यता ने उन्हें डांगे साब के कुछ अति करीबियों की गुस्सा और आक्रोश तक का शिकार बना दिया था । सही रुख पर कायम रहने की जहमत जोखिम तो होती ही हैं ।)

का० एबी बर्धन 

इस अवसर पर कामरेड बर्धन के साथ के तीन अनुभव साझे करने के साथ उनके कुछ यादगार शिक्षाप्रद पहलू रखना उचित होगा। 

एक :

2 अप्रैल 1995 । चंडीगढ़ में हुयी पार्टी की 15 वीं कांग्रेस (महाधिवेशन) की शुरुआत की सुबह । झंडारोहण की जगह पर विशिष्ट अतिथियों और वेटरन्स (वरिष्ठो) के लिए कोई एक डेढ़ दर्जन कुर्सियां रखी गयी थी । हम लोग, अनधिकृत ही, इनकी सबसे पहली कतार में अपने दोनों बड़े वरिष्ठों -यमुना प्रसाद शास्त्री और सुधीर मुखर्जी को बिठा आये । सुधीर दादा सीपीआई के देश के प्रमुख और मप्र के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे, कुछ ही समय पहले वे सीपीआई (एम) में शामिल हुए थे । (यूं इन दोनों स्थापित नेताओं का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना, वह भी मध्यप्रदेश में, एक बड़ी और विरल राजनीतिक घटना थी । सुधीर दा के निर्णय के दोनों वाम पार्टियों के बीच अन्योन्यान्य असर भी हुए थे । बहरहाल यहां प्रसंग चंडीगढ़ है ।) जहां हम सुधीर दा को बिठा कर आये थे, थोड़ी ही देर में एकदम उनकी बगल की सीट पर सीपीआई के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव आकर बैठ गये । कुछ ही समय पहले अपनी पार्टी छोड़कर जाने वाले कामरेड के एकदम पास बैठना, दोनों ही के लिए, एक असुविधाजनक स्थिति हो सकती थी । मगर, बजाय चिड़चिड़ाने या मुंह मोड़कर बैठने के उन्होंने सुधीर दा का हाथ थामा । बोले, तबियत कैसी है ? सुधीर दा ने कहा ठीक है । वे बोले, "बहुत अच्छे और फ्रेश लग रहे हैं ।" इसी के साथ जोड़ा कि " जहां मन अच्छा रहे, वहीँ रहना चाहिए ।" इस वाक्य के बाद दोनों ने इतनी जोर का ठहाका लगाया कि ज्योति बसु, सुरजीत सहित नजदीक बैठे सभी नेता उन दोनों की ओर देखने लगे । ऐसे थे कामरेड ए बी बर्धन । बर्फ पिघली तो सुधीर दा ने कामरेड शैली को बुलाया और बर्धन साब से परिचय कराते हुए बताया कि ये हैं हमारे यंग सेक्रेटरी । बर्धन साब शैली से बोले : टेक केअर ऑफ़ दिस ओल्ड यंग मैन !!

दो :

10-15 साल पहले कभी गांधी भवन भोपाल । ट्रेड यूनियनो का संयुक्त सम्मेलन । हर संयुक्त सम्मेलनों की तरह साझा भी, विभाजित भी । अपने अपने वक्ता का नाम आने पर सभागार के अलग अलग कोनो से उठती ज़िंदाबाद की पुकारें । बर्धन साब का नाम आते ही जिस हिस्से में एटक का समूह बैठा था वहां से नारे शुरू हुए । जाहिर तौर पर झुंझलाए दिख रहे बर्धन साब ने अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को फटकारने के बहाने सभी की जोरदार खिंचाई करते हुए कहा कि इस हॉल में गला फाड़ प्रतियोगिता में जीतने में ताकत खर्च करने की बजाय उसे बाहर मध्यप्रदेश के शहरों गाँवों मे जो करोड़ों मजदूर हैं, उन्हें संगठित करने में खर्च करो । जीत हार का फैसला उसी रणक्षेत्र में होना है । उनके कहे पर फिर नारे उठे, तालियां बजी । मगर इस बार किसी एक समूह से नहीं, समूचे हॉल से, जिसकी गूँज बाहर तक सुनाई दी।

तीन :

वे जीवन भर पार्टी के होलटाइमर रहे । उनकी पत्नी कालेज पढ़ाकर घर चलाती रहीं। इस उम्मीद के साथ कि फंड और ग्रेच्युटी के पैसों से रिटायरमेंट के बाद का वक़्त गुजर जाएगा। रिटायरमेंट के बाद मिली पूरी रकम को यूटीआई की एक योजना में जमा कर दिया गया - और विडम्बना यह रही कि वह डूब गयी। इस हादसे की जानकारी बर्धन साब ने एक पत्रकारवार्ता में ठहाका लगाते हुए दी थी। स्थितप्रज्ञता इसी स्थिति को कहते हैं। 

बर्धन होना एक बहुत मुश्किल काम है। सलाम कामरेड बर्धन। आपके बाद की पीढ़ी आपके श्रम और कुर्बानी को व्यर्थ नहीं जाने देगी।

[यह आलेख विजय राज बली माथुरजी के ब्लॉग "क्रान्तिस्वर" से साभार लिया गया है. इसके लेखक मध्य प्रदेश सीपीएम के प्रदेश सचिव हैं.] 

2 जनवरी 2016

ए० बी० बर्धन का राममंदिर मुद्दे पर संक्षिप्त और सारगर्भित भाषण: आनंद पटवर्धन की डाक्यूमेंट्री "राम के नाम" से

कामरेड ए० बी० बर्धन आज हमारे बीच नहीं रहे. आनंद पटवर्धन की डाक्यूमेंट्री "राम के नाम" में उनका यह भाषण राममंदिर मुद्दे पर हम सबकी समझ का आईना है. आज जब फिर से राममंदिर मुद्दे को सुलगाकर खून की होली खेलने का इरादा है, यह वीडिओ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए....  

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...