पत्रकार-कला
[पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की आज (26 अक्टूबर) जन्मतिथि है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उत्तर भारत में राष्ट्रीय जागरण का वैचारिक आधार तैयार करने व उसे व्यापक बनाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही थी. वह कांग्रेस को राष्ट्रीय आंदोलन के व्यापक जनमंच के रूप में देखते थे और महात्मा गांधी को कांग्रेस का निर्विवाद नेता और बेजोड़ संगठनकर्ता मानते थे. 'प्रताप' के संपादक रहे विद्यार्थी जी ने हिंदी पत्रकारिता को नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की. लेखन के साथ वह राजनीतिक रूप से लगातार सक्रिय रहे.यह सिलसिला मार्च 1931 में कानपुर में सांप्रदायिक दंगा रोकने की कोशिश में उनकी शहादत तक लगातार जारी रहा. उनकी जन्मतिथि के अवसर पर "स्वाधीन"के पाठकों के लिए उनका 'पत्रकार-कला' नामक लेख पेश है, जो उन्होंने प्रताप परिवार से जुड़े पत्रकार विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक पत्रकार-कला की भूमिका के रूप में लिखा था. ]
हिंदी में पत्रकार-कला के संबंध में कुछ अच्छी पुस्तकों के होने की बहुत आवश्यकता है। मेरे मित्र पंडित विष्णुदत्त शुक्ल ने इस पुस्तक को लिखकर एक आवश्यक काम किया है। शुक्ल जी सिद्धहस्त पत्रकार हैं।अपनी पुस्तक में उन्होंने बहुत सी बातें पते की कही हैं। मेरा विश्वास है कि पत्रकार कला से जो लोग संबंध करनाचाहते हैं, उन्हें इस पुस्तक और उसकी बातों से बहुत लाभ होगा। मैं इस पुस्तक की रचना पर शुक्ल जी को हृदयसे बधाई देता हूँ।
अंग्रेजी में इस विषय की बहुत सी पुस्तकें हैं। अंग्रेजी पत्रकार कला का कहना ही क्या है! वह तो बहुत आगे बढ़ी हुईचीज है। हिंदी में हम अभी बहुत पीछे हैं। हमें अभी बहुत आगे बढ़ना है, किंतु हम उन्हीं लकीरों पर आगे बढ़ें, जोहमारे सामने अंकित हैं, इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ। इस समय उन्हीं लकीरों पर हम भलीभाँति चल भी नहींसकते। हमारी छपाई का काम अभी तक बहुत प्रारम्भिक अवस्था में है। अभी हिंदी पत्रों के लाखों की संख्या मेंनिकलने का समय नहीं आया है। जब तक देश में साक्षरता भलीभाँति नहीं फैलती और जब तक देश की दरिद्रताकम नहीं होती, तब तक देश के करोड़ों आदमी समाचार पत्र नहीं पढ़ सकते और तब तक छापेखानेउतने उन्नत नहीं हो सकते, जितने कि विदेशों में हैं या यहाँ अंग्रेजी पत्रों के हैं। एक दिक्कत और भी है, हमारा देशपराधीन है। हम ऐसे शासन की मातहती में साँस लेते हैं, जिसकी अंतरात्मा 'आर्डिनेंसों' और 'काले कानूनों' केसहारों पर विश्वास करती है। यहाँ पर राजविद्रोह होना अनिवार्य है। इस अस्वाभाविक परिस्थिति के कारण हिंदी केसमाचार-पत्रों का विकास और भी रूका हुआ है, किंतु यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाये कि ये रुकावटेंनहीं हैं या दूर हो गई हैं, तो इस दशा में क्यायह ठीक होगा कि इस समय संसार के अन्य बड़े देशों में समाचार-पत्रों के चलने की जो लकीर है, उसका हम अनुकरण करें या यह कि हम अपने आदर्श के संबंध में अधिक सजगताऔर सतर्कता से काम लें।
मैं यह धृष्टता तो नहीं कर सकता कि यह कहूँ कि संसार के अन्य बड़े पत्र गलत रास्ते पर जा रहे हैं और उनकाअनुकरण नहीं होना चाहिए, किंतु मेरी धारणा यह अवश्य है कि संसार के अधिकांश समाचार-पत्र पैसे कमाने औरझूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध करने के काम में उतने ही लगे हुए हैं, जितने कि संसार बहुत से चरित्र शून्य व्यक्ति। अधिकांश बड़े समाचार पत्र धनी मानी लोगों द्वारा संचालित होते हैं। इसी प्रकार के संचालनया किसी दल विशेष की प्रेरणा से ही उनका निकलना संभव है। अपने संचालकों या अपने दल के विरुद्ध सत्य बातकहना तो बहुत दूर की वस्तु है, उनके पक्षसमर्थन के लिए हर तरह के हथकंडों से काम लेनाअपना नित्य का आवश्यक काम समझते हैं। इस काम में तो वे इस बात का विचार तक रखना आवश्यक नहींसमझते कि सत्यक्या है? सत्य उनके लिए ग्रहण करने की वस्तु नहीं, वे तो अपने मतलब की बात चाहते हैं कि संसार-भर में यह हो रहा है। इने-गिने पत्रों को छोड़कर सभी पत्र ऐसा कर रहे हैं।
जिन लोगों ने पत्रकार कला को अपना काम बना रखा है, उनमें बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी चिंताओं को इसबात पर विचार करने का कष्ट उठाने का अवसर देते हों कि हमें सच्चाई की भी लाज रखनी चाहिये। केवलअपनी मक्खन-रोटी के लिए दिन-भर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है। इस देश में भी दुर्भाग्य से समाचार-पत्रों औरपत्रकारों के लिए यही मार्ग बनता जाता है। हिंदी पत्रों के सामने भी यही लकीर खिंचती जा रही है। यहाँ भीअब बहुत से समाचार पत्र सर्वसाधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे। सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहेहैं।
एक समय था, इस देश में साधारण आदमी सर्वसाधारण के हितार्थ एक ऊँचा भाव लेकर पत्र निकालता था औरउसपत्र को जीवन क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था। आज वैसा नहीं हो सकता। आपके पास जबर्दस्त विचार होंऔर पैसा न हो और पैसे वालों का बल न हो तो आपके विचार आगे फैल नहीं सकेंगे। आपका पत्र न चल सकेगा।इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं, धन ही के आधार पर वे चलते हैंऔर बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करतेहैं। अभी यहाँ पूरा अंधकार नहीं हुआ है, किंतु लक्षण वैसे ही हैं। कुछ ही समय पश्चात् यहाँ के समाचार-पत्र भीमशीन के सहारे हो जायेंगे और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे। व्यक्तित्व नरहेगा। सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा। अन्याय के विरुद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने कीचाह न रहेगी, रह जायेगा केवल ऊँची लकीर पर चलना। मैं तो उस अवस्था को अच्छा नहीं कह सकता। ऐसे बड़ेहोने की अपेक्षा छोटे और छोटे से भी छोटे, किंतु कुछ सिद्धांत वाले होना कहीं अच्छा।
पत्रकार कैसा हो, इस संबंध में दो राय हैं। एक तो यह कि उसे सत्य या असत्य, न्याय या अन्याय के आंकड़ों में नहीं पड़ना चाहिये। एक पत्र में वह नरम बात कहे तो दूसरे में बिना हिचक वह गरम कह सकता है। जैसावातावरणदेखे, वैसा करे, अपने लिखने की शक्ति से डटकर पैसा कमाये, धर्म अधर्म के झगड़े में न अपना समयखर्च करे न अपना दिमाग ही। दूसरी राय यह कि पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है, वह अपने विवेकके अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है। वह जो कुछ लिखे, प्रमाण और परिणाम का लिखे औरअपनी मति-गति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे। पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं है। लोक सेवा उसका ध्येय हैऔर अपने काम से जो पैसा वह कमाता है, वह ध्येय तक पहुँचने के लिए एक साधन मात्र है। संसार के पत्रकारों मेंदोनों तरह के आदमी हैं। पहले दूसरी तरह के पत्रकार अधिक थे, अब इस उन्नति के युग में पहली तरहके। उन्नति समाचार-पत्रों के आकार-प्रकार में हुई है। खेद की बात है कि उन्नति आचरणों की नहीं हुई। हिंदी केसमाचार-पत्र भी उन्नति के राजमार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। मैं हृदय से चाहता हूँ कि उनकी उन्नति उधर हो या नहीं,किंतु कम से कम आचरण के क्षेत्र में पीछे न हटें और जो सज्जन इस पुस्तक को पढ़ें, वे अपने आचरण सेसंबंधित आदर्शको सदा ऊँचा समझें, पैसे का मोह और बल की तृष्णा भारतवर्ष में किसी भी नये पत्रकार को उसकेआचरण और पवित्र आदर्श से बहकने न दें (इस पुस्तक को हिंदी संसार के सामने रखते हुए) यही मेरे हृदय कीएकमात्र अभिलाषा है।
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