इतिहास को तोड़-मरोड़कर अतीत को बेहतर नहीं बनाया जा सकता
हरबंस मुखिया
द वायर, 31/08/2015
अनुवाद
शुभनीत कौशिक
समयांतर, अक्टूबर 2015
1
अगस्त 2015
को दिल्ली से पहली बार सांसद बने महेश गिरी ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक खत में दिल्ली के औरंगज़ेब रोड का नाम बदलकर
डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम पर रखने की मांग उठाई। हफ़्तों के भीतर ही, यह काम पूरा कर लिया
गया, बावजूद उन आधिकारिक नियमों के जो नामों में ऐसे बदलावों से जुड़े हैं
और इसमें आड़े आते हैं। यक़ीनन निर्णायक नेतृत्त्व का इससे बेहतर नमूना और क्या
होगा!
आखिरकार ‘औरंगज़ेब रोड’ में क्या बुराई थी? महेश गिरी के ‘ऐतिहासिक’ दृष्टिकोण के अनुसार, औरंगज़ेब क्रूर और निर्दयी था और उसने इतने अत्याचार किए थे कि उसके
यादगार में कुछ बनाना आने वाली पीढ़ियों के लिए एक गलत संदेश होगा। इस तरह उस सड़क
का नाम बदलकर डॉ कलाम के नाम पर रख देने भर से ही इतिहास की एक ‘गलती’ दुरुस्त हो जाएगी।
ठीक वैसे ही जैसा कि शायद 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में किया गया।
मध्यकालीन भारत के एक पेशेवर इतिहासकार के रूप में हमारे जटिल इतिहास
को समझते और खंगालते हुए छह दशक से अधिक समय गुजरने के बाद भी मैं, इस विषय (इतिहास) पर
निर्णय देने के महेश गिरी के प्राधिकार (अथॉरिटी) से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ।
पर तब यह भी सच है कि इतिहास तो हर किसी का विषय है। हर कोई पैदाइशी
इतिहासकार है और इस विषय पर पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलने का जन्मसिद्ध अधिकार
उसके पास है। खासकर तब जब एक शख़्स का इस विषय से परिचय आरएसएस की शाखाओं में हुआ
हो। इस तरह यह बात आप समझ ही गए होंगे कि इस विषय में अपनी राय जाहिर करने के लिए
यह बिलकुल ज़रूरी नहीं कि आप अपनी ज़िंदगी बिता दें, इस विषय को पढ़ने और समझने में, जैसा अन्य विषयों के
लिए मसलन भौतिक विज्ञान या रसायन शास्त्र, यहाँ तक कि अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के लिए भी, जरूरी समझा जाएगा।
औपनिवशिक चश्मे से भारतीय इतिहास
जेम्स मिल वह पहले बड़े औपनिवेशिक इतिहासकार थे, जिन्होंने हमें यह
सिखाया कि ब्रिटिश शासन से पहले भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड का अध्ययन करते
हुए किसी भी शासक या साम्राज्य को उसकी धार्मिक अस्मिता के संदर्भ में ही समझने की
कोशिश करें। यही फार्मूला अपनाते हुए जेम्स मिल ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ
ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में, जो 1817-18 में छपी, हिंदुस्तान के इतिहास को ‘हिन्दू’, ‘मुस्लिम’ और ब्रिटिश काल में बांटा।
मिल को, हिन्दू और इस्लाम, दोनों ही धर्मों से घृणा थी – हिन्दू धर्म से तो कुछ ज्यादे ही। क्योंकि इसी की वजह से भारत ‘अंधकार युग’ में जीता रहा, जब तक कि औपनिवेशिक
शासन ने आखिरकार ‘प्रगति’ के रास्ते नहीं खोल दिये। 18वीं और 19वीं सदी के अधिकांश अग्रगण्य यूरोपीय विचारकों के हिंदुस्तान संबंधी
खयालात, कुछ महत्त्वपूर्ण फेरोबदल के साथ,
इसी तरह के थे। इन विचारकों में मांटेस्क्यू और
हीगल से लेकर कार्ल मार्क्स तक शामिल थे।
हिंदुस्तान की इस ऐतिहासिक तस्वीर में बड़ा बदलाव तब आया, जब आज़ादी के बाद भारतीय
इतिहासकारों ने इतिहास को ऐसे विषय के रूप में समझने की शुरुआत की, जिसे एक से अधिक
कारकों ने प्रभावित किया। धार्मिक अस्मिता,
इन अनेक कारकों में से सिर्फ एक कारक भर थी।
भारतीय इतिहासलेखन की परंपरा में यह बदलाव औपनिवेशिक इतिहासलेखन से एक उल्लेखनीय
अलगाव था। अलगाव की इस प्रक्रिया में, वर्ग (क्लास) की अवधारणा ने – और समाज में वर्ग आधारित संघर्षों के इससे जुड़े होने की समझ ने- महती
भूमिका निभाई। 1980 के दशक तक आते-आते, अतीत के कुछ और पहलुओं से हम वाबस्ता हुए, और इनमें से कुछ
पहलू तो ऐसे थे जिनकी उपेक्षा वर्ग की श्रेणी ने भी की थी। ये पहलू थे: संस्कृति, परिवार, समुदाय, जेंडर, पर्यावरण, देश-काल और पर्यावास
(हैबिटेट) के प्रति दृष्टिकोण, राज्यव्यवस्थाओं की जेंडर से जुड़ी अस्मिताएं, अतीत को गढ़ने और
रचने का इतिहास, अलग-अलग कालों में इतिहास को किस तरह देखा और समझा गया आदि-आदि। पिछले
पाँच-छह दशकों में, भारत और अन्य जगहों पर भी, इतिहासलेखन की दुनिया में आमूलचुल बदलाव आए हैं।
इतिहासलेखन में हुए इन बड़े बदलावों के दरम्यान इतिहास की लोकप्रिय छवि
में कोई बदलाव नहीं आया। और इसमें बदलाव न आने का कारण था, इसे धर्म के एकमात्र
खंभे से बांधे रहने के लिए किया गया बड़ा और संगठित प्रयास। इस लोकप्रिय स्तर पर
आकर इतिहास का बेहद सरलीकरण कर दिया जाता है और यह तब्दील हो जाता है ऐसे विषय में, जिस पर महेश गिरी
जैसे लोग या टीवी स्टुडियो में बैठे तथाकथित विशेषज्ञ जो वैसे पेशे से तो दाँत के
डाक्टर या शल्य-चिकित्सक होते हैं, बेझिझक अपनी राय देते हैं। या कि जब अपने आदरणीय प्रधानमंत्री यह
बताते हैं कि सिकंदर को बिहार में पराजित किया गया और यह भी कि तक्षशिला का महान
विश्वविद्यालय भी बिहार में स्थित था। इस प्रसंग में यह भी हो सकता है कि वे शायद
तक्षशिला और नालंदा में फर्क न कर पाएँ हों।
आपद्धर्म और निरंतर बदलती ज़रूरतें
सरलीकरण के इस स्तर पर आकर इतिहास को ऐसे विषय के रूप में देखा जाता
है, जिसे अक्सर शासक या महापुरुष ही (स्त्रियाँ
यदा-कदा ही) दिशा और आकार देते हैं, पर अब इस दृष्टिकोण के बारे में पेशेवर इतिहासकार तो सोचते तक नहीं
हैं। साथ ही, सरलीकरण की इस प्रक्रिया में यह भी मान लिया जाता है कि राजा के सभी
राजनीतिक कार्यवाहियों को निर्धारित करने वाला एकमात्र कारक है धर्म, इस दृष्टिकोण को भी
इतिहासकारों ने दशकों पहले छोड़ दिया था। इतिहास के इस सरलीकृत समझ के अतर्गत यह
सोच भी शामिल है कि राजा की ‘नीतियाँ’ उसके शासनकाल के आरंभ से अंत तक एक जैसी ही बनी रहती हैं, यह दृष्टिकोण भी
सर्वथा असंगत है।
बादशाह औरंगजेब |
आइए, अकबर और औरंगज़ेब के उदाहरण के जरिये हम इसे समझने की कोशिश करें। अपने
‘धार्मिक नीतियों’ के आधार पर (यद्यपि ‘धार्मिक नीति’ खुद में संशय से भरा शब्द है),
अकबर और औरंगज़ेब की लोक छवि क्रमशः उदार और कट्टर
होने की है। उन दोनों के बारे में ऐसा ही समझा जाता रहा, जब तक कि 1960 के दशक में दो ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों ने (अब
चूंकि हर वह इतिहासकार जो गैर-भाजपाई है, मार्क्सवादी घोषित कर दिया जाता है) इस मान्यता को चुनौती नहीं दी।
इक्तिदार आलम खान और एम अतहर अली ने यह दिखाया कि अकबर और औरंगज़ेब दोनों ही की
धार्मिक नीतियाँ उनके पचास साल वाले लंबे शासनकाल के दौरान राजनीतिक घटनाओं की
मांगों से निर्धारित और विचलित होती रहीं। ऐसे भी ‘चरण’ आए जब संकट को भाँपते हुए दोनों ही ने कभी ‘उदार’ तो कभी ‘अनुदार/कट्टर’ होने की भूमिकाएं
निभाई। इसके मायने ये हैं कि राजा का धार्मिक दृष्टिकोण और उसकी धर्मसंबंधी
नीतियाँ स्वतंत्र और अपरिवर्तनीय नहीं थीं। बल्कि वे तो उस राजनीतिक औज़ार या
संसाधन की तरह थीं जिनका इस्तेमाल ज़रूरत पड़ने पर किया जाता था। राजा के निजी
धार्मिक दृष्टिकोण की भूमिका ज़रूर होती थी,
पर उसकी सीमाएं तय होती थीं इस बात से कि
स्थितिविशेष की क्या मांग है।
इसीलिए, बतौर राजगद्दी के दावेदार और बाद में बादशाह के रूप में, औरंगज़ेब ने उन सभी
ख़्वाबों को छोड़ दिया जो उसने कभी परिशुद्ध इस्लाम को अपने शासन का आधार बनाने के
विषय में देखे थे। 1966 में लिखी अपनी किताब ‘मुग़ल नोबिलिटी अंडर औरंगज़ेब’ में अतहर अली ने मुग़ल दरबारियों के विभिन्न समूहों की सूची तैयार की, जो 1658-59 में हुए उत्तराधिकार
के युद्ध के दौरान ‘उदार’ दारा शुकोह और ‘कट्टर’ औरंगज़ेब के साथ थे। अतहर अली ने यह पाया कि उनमें से 24 हिन्दू दरबारी दारा
की ओर थे और 21 हिन्दू औरंगज़ेब की तरफ़। इनमें दो बड़े ओहदे वाले हिन्दू राजा भी थे, मसलन अंबर के मिर्ज़ा
राजा जय सिंह कच्छवाहा और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह राठौर, जो आख़िर तक औरंगज़ेब
के साथ बने रहे। ये वही राजा जय सिंह थे जिन्होंने शिवाजी को हराया और उन्हें
औरंगज़ेब के दरबार में ले आए। 1679 में, औरंगज़ेब ने अपने राज्यारोहण के 21
वर्षों बाद फिर से जज़िया लगाया, जिसे अकबर ने 1564 में समाप्त कर दिया
था। और ऐसा औरंगज़ेब ने जसवंत सिंह के मरने के बाद किया जब राठौरों से उसके संबंध
तनावपूर्ण हो गए।
औरंगज़ेब ने करीब 15 मंदिरों को तुड़वाया – जिनमें काशी और मथुरा के मंदिर भी शामिल थे, जहां उसने मस्जिदें
बनवाईं। यह विरोधाभास की बात है कि उसी समय औरंगज़ेब ने हिन्दू मंदिरों और मठों को
भूमिदान और नकद राशि भी दी, जिनके दस्तावेज़ आज भी मौजूद हैं।
तो इस विरोधाभास को कैसे समझें?
यह वही विरोधाभास था जिसने बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में लोकतान्त्रिक
तरीके से चुने गए एक नेता यानि राजीव गांधी को राजनीतिक संसाधन के रूप में
इस्तेमाल करने के लिए धार्मिक समर्थन हासिल करने के लिए प्रेरित किया। जब उन्होंने
अयोध्या के विवादित ढांचे का ताला खुलवाया या फिर जब उन्होंने मुस्लिम उलेमाओं की
मांग के आगे झुकते हुए शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया
था। राजीव गांधी ने सोचा कि वे दोनों ही तबक़ों को खुश कर लेंगे पर हुआ इसके उलट, और दोनों ही मोर्चों
पर उनकी हार हुई। बिलकुल औरंगज़ेब की तरह ही,
जिसने अपने शासनकाल का बाकी का आधा हिस्सा
अलग-अलग मोर्चों पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों से ही लड़ते हुए बिताया।
जेम्स मिल ने हमें यह सिखाया कि हम ‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ काल के शासकों की कार्यवाहियों को सीधे-सीधे उनके धार्मिक जुड़ाव से
जोड़कर देखें नाकि ऐसे शासकों के रूप में जिनकी कार्यवाहियों को जटिल प्रक्रियाओं
ने प्रभावित किया। जब हम अकबर और औरंगज़ेब को (या हर किसी को) महज़ एक ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ मुसलमान के रूप में देखते
हैं, तो असल में हम जेम्स मिल के औपनिवेशिक पाठ को आज के समय में दुहरा भर
रहे होते हैं। इस तरह हम यह भी बड़ी आसानी से और बगैर सवाल पूछे मान लेने को तैयार
हो जाते हैं कि सभी हिन्दू शासक अनिवार्य तौर पर ‘अच्छे’ थे। इस बात पर विचार किया जा सकता है कि क्या डॉ कलाम, जो एक महान
वैज्ञानिक थे और उससे भी बढ़कर एक महान इंसान और देशभक्त थे, इस औपनिवेशिक चश्मे
से अपना मूल्यांकन किया जाना और एक ‘अच्छे’ मुस्लिम के रूप में खुद को एक श्रेणी में बांटा जाना पसंद करते। इस
बारे में उनका क्या रवैया होता कि एक सड़क को उनका नाम दिया जाना है, उनकी महान
उपलब्धियों के चलते नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि वे ‘बुरे’ औरंगज़ेब के बिलकुल उलट ‘अच्छे’ डॉ कलाम थे।
(शुभनीत कौशिक, पीएचडी शोध छात्र, सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली)
मुगल शासकों में औरंगज़ेब के बारे में कई प्रोपेगंडा रचे गए ।मंदिर तोड़ने वाला ..हिन्दू धर्म विरोधी ,एक क्रूर शासक की छवि बनाई गई ।औरेंगज़ेब की ये छवि किसी प्रमाणित इतिहास की किताब ने नहीं रची बल्कि संघ की प्रोपेगंडा मशीन ने किया मुगल शासक औरेंगज़ेब के शासन व्यवस्था और उनके अच्छे कामों को दुनिया के सामने आने नहीं दिया और औरंगज़ेब को एक कट्टर मुस्लिम बादशाह की तरह पेश किया गया।अगर हम संघ के इतिहास खँगालेंगे तो ये निकले गा संघ का गठन ही ब्राह्मणवाद ने किया था संघ सिर्फ ब्राह्मणवाद को पोषित कर छुपे हुए एजेंडा मनुवाद को स्थापित करना चाहता है ।औरेंगजेब उसका दुश्मन इसलिए बना क्योंकि उसने शासन में छुआछुत के खिलाफ कड़े कानून बनाये थे । औरंज़ेब हिन्दू विरोधी नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद विरोधी था था? उसने इंसाफ पसंदी के नाम पर मंदिर के पुरोहितों पर भी जाजिया कर लगा दिया था। उसकी दलील यह थी कि ये पुरोहित मंदिर के धन पर ऐश करते थे और आज भी करते है। सारी दुनिया की ऐश-ओ-असाइश ये धर्म के नाम पर ही उठाते हैं, तो भगवान की नज़र में ये स्पेशल कैसे हो गए। इन्हें भी कर देना होगा। ऐसा उसने सिर्फ मंदिरों और पुरोहितों के साथ नहीं किया बल्कि उसने मस्ज़िदों और उसके इमामों के साथ भी किया। इमामो पर भी जादिया कर लगा था। बस तब से ये ब्राह्मण लोग औरंगजेब के बारे में दुष्प्रचार करते आ रहे हैं। अगर औरेंगज़ेब एक कट्टर शासक था और उसने धर्म के नाम पर लोगों पर ज़ुल्म किया तो इसका रोमिला थापर और जवाहर लाल नेहरू ने भारत के इतिहास में इसका ज़िक्र करते लेकिन ऐसा नहीं है जवाहरलालन नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में उन्हें एक कुशल प्रशासक और सादगी से रहने वाला इंसान बताया है न की क्रूर शासक ! दिल्ली मे दो दर्जन सड़क अंग्रेज़ो के नाम पर है पर राॅयल सिक्रेट सर्विस ( RSS) अंग्रेज़ो के दलालो ने उन सड़को का नाम बदलने को कभी नही कहा
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