25 मार्च 2015

राष्ट्रीयता

गणेश शंकर विद्यार्थी 

[क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी एक तरफ गांधी के अनुयायी थे तो दूसरी ओर क्रान्तिकारियों के गुरु. उत्तर प्रदेश के कानपुर से उनके संपादन में निकलने वाले 'प्रताप' अख़बार का दफ्तर हमेशा क्रान्तिकारियों के लिए खुला रहता था. भगत सिंह से लेकर अनेक क्रान्तिकारियों ने 'प्रताप' के संवाददाता के रूप में काम किया था. क्रान्तिकारियों से उनके संबंधों की तासीर इससे भी पता चलती है कि अंग्रेज सरकार द्वारा भगत सिंह आदि वीर सपूतों को फांसी पर लटकाने से वह काफी व्यथित थे. साथ ही हिन्दू-मुस्लिम एकता के पैरोकारी करते हुए कानपुर में भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शांत करा रहे थे. इसी बीच 25 मार्च 1931 को वह कुछ उपद्रवियों के निशाने पर आ गए थे, जिन्हें अंग्रेज सरकार के अफसरों ने भड़काया था. यानि भगत सिंह आदि क्रान्तिकारियों की शहादत के तीसरे दिन ही वह शहीद हो गए थे. विद्यार्थी जी की शहादत दिवस पर उनका 21 जून 1915 में 'प्रताप' में प्रकाशित लेख "स्वाधीन" के पाठकों के लिए दे रहे हैं.'राष्ट्रीयता' शीर्षक से लिखा गया यह लेख जितना उस समय महत्वपूर्ण था उससे कहीं अधिक आज है, जब आये दिन हिन्दू राष्ट्र का राग अलापा जा रहा है. फ़िलहाल लेख पढ़िए.... ]

देश में कहीं-कहीं राष्‍ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है। आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं। यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँति समझ लिये गये होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्‍पष्‍ट बातें सुनने में न आतीं। राष्‍ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्‍ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता का जन्‍म देश के स्‍वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं। प्राकृतिक विशेषता और भिन्‍नता देश को संसार से अलग और स्‍पष्‍ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्‍य के बंधन-से बाँधती है। राष्‍ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता। स्‍वाधीन देश ही राष्ट्रों की भूमि है, क्‍योंकि पुच्‍छविहीन पशु हों तो हों, परंतु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्‍ट्र नहीं होते। राष्‍ट्रीयता का भाव मानव-उन्‍नति की एक सीढ़ी है। उसका उदय नितांत स्‍वाभाविक रीति से हुआ। यूरोप के देशों में यह सबसे पहले जन्‍मा। मनुष्‍य उसी समय तक मनुष्‍य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके। समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए। धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया, परंतु संसार के भिन्‍न-भिन्‍न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्‍यापार, कला-कौशल और सभ्‍यता की उन्नति में रुकावट पड़ने से, अंत में, धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और देश-प्रेम का स्‍वाभाविक आदर्श लोगों के सामने आ गया। जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है। पुराने अच्‍छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है। वे भी त्‍याग करना जानते थे और ये भी और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्‍छे और सौभाग्‍यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं। ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं।

देश-प्रेम का भाव इंग्‍लैंड में उस समय उदय हो चुका था, जब स्‍पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्‍लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े 'आरमेडा' द्वारा चढ़ाई की थी, क्‍योंकि इंग्‍लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्‍टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्‍वागत किया था। फ्रांस की राज्‍यक्रांति ने राष्‍ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया। इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर संदेश मिला। 19वीं शताब्‍दी राष्‍ट्रीयता की शताब्‍दी थी। वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्‍दी में हुआ। पराधीन इटली ने स्‍वेच्‍छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई, यूनान को स्‍वाधीनता मिली और बालकन के अन्‍य राष्‍ट्र भी कब्रों से सिर निकाल कर उठ पड़े। गिरे हुए पूर्व ने भी अपने विभूति दिखाई। बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे। उसे चैतन्‍यता प्राप्‍त हुई। उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये। उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी। देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्‍वार्थपरायणता के इस अंधकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है। उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्‍न देख रहे हैं। जापान एक रत्‍न है-ऐसा चमकता हुआ कि राष्‍ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है। लहर रुकी नहीं। बढ़ी और खूब बढ़ी। अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया। फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्‍ट्रीयता की प्रतिध्‍वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई। यह संसार की लहर है। इसे रोका नहीं जा सकता। वे स्‍वेच्‍छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे, जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा, जो इसके संदेश को नहीं सुनेंगे। भारत में हम राष्‍ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं। हमें भारत के उच्‍च और उज्‍ज्‍वल भविष्‍य का विश्‍वास है। हमें विश्‍वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती। रास्‍ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं। बिना चट्टानों के तो कोई रास्ता बड़ा और महत्व का रास्ता नहीं हो सकता। पर ये चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकतीं, परंतु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊटपटाँग रास्‍ते नहीं नापने चाहिए। कुछ लोग 'हिंदू राष्‍ट्र' - 'हिंदू राष्‍ट्र' चिल्‍लाते हैं। हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें-कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्‍होंने अभी तक 'राष्‍ट्र' शब्‍द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्‍यवक्‍ता नहीं, पर अवस्‍था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिंदू राष्‍ट्र' नहीं हो सकता, क्‍योंकि राष्‍ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्‍वाधीन हो जाये, या इंग्‍लैंड उसे औपनिवेशिक स्‍वराज्‍य दे दे, तो भी हिंदू ही भारतीय राष्‍ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं-हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्‍न करने के लिए-वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं। वे लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्‍का या जेद्दा का स्‍वप्‍न देखते हैं, क्‍योंकि वे उनकी जन्‍मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए। यदि हम ये कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये- यदि वे इस योग्‍य होंगे तो-इसी देश में गाये जाएँगे, परंतु हमारा प्रतिपक्षी-नहीं, राष्‍ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्‍ट्रीयता स्‍वार्थों की खान है। देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो कि संसार के राष्‍ट्र पक्‍के स्‍वार्थी नहीं हैं? हम इस विपक्षी का स्‍वागत करते हैं, परंतु संसार की किस वस्‍तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं? लोहे से डॉक्‍टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्‍यारे का छुरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं। सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है, पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्‍या करे, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है। हम राष्‍ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्‍नति का उपाय-भर है।

22 मार्च 2015

भगत सिंह: एक पुनर्स्मरण



आज भगत सिंह का शहादत दिवस है। उनके जीवन से जुड़ी हर तारीख इनको याद करने का बहाना बन गई है। 17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और उनके साथियों ने लाहौर के असिस्टेण्ट सुपरिटेण्डेण्ट आॅफ पुलिस साण्डर्स की हत्या कर दी थी। यह और असेम्बली में बम फेंकने की कार्यवाही भगत सिंह के जीवन की सर्वाधिक साहसिक और चर्चित घटनाएं हैं। आम लोगों की स्मृति में भगत सिंह इन्हीं घटनाओं को अंजाम देने वाले ओर बाद में हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लेने वाले दिलेर नौजवान की तरह जि़ंदा हैं। हिन्दी सिनेमा ने लम्बे ओवरकोट और तिरछी हैट वाले गुस्सैल नौजवान की तस्वीर को खूब लोकप्रिय बनाया है। परन्तु भगत सिंह वास्तव में क्या थे, नायक पूजा की हमारी अंध-प्रवृत्ति ने कभी जानने की जरूरत नहीं समझी।

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भगत सिंह ने बचपन में बन्दूकें बो कर अँग्रेजों को मार भगाने का सपना देखा था। बन्दूक से ही उन्होंने साण्डर्स की हत्या की थी। असेम्बली में उन्होंने बहरे कानों को सुनाने के लिए बम का धमाका किया था। लेकिन हम भगत सिंह का सच्चा मूल्यांकन उनके इन कामों के आधार पर नहीं कर सकते। भगत सिंह ने स्वयं इन कामों की निस्सारता को समझ लिया था। जुलाई, 1931 में छपे अपने लेख ’’क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’’ में उन्होंने घोषित किया था- "मैं पूरी ताकत से यह कहना चाहता हूँ कि क्रांतिकारी जीवन के शुरूआती चंद दिनों को छोड़ न तो मैं आतंकवादी हूँ, न ही था। मुझे पूरा यकीन है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।" दरअसल, भगत सिंह यह समझ गए थे कि वास्तविक काम इक्का-दुक्का अंग्रेजों की हत्याएं नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध व्यापक लामबंदी करना है। जिसमें किसान-मजदूर, छात्र-नौजवान सभी का एकजुट होना जरूरी है। उनकी सोंच का दायरा बहुत व्यापक था। वे न सिर्फ भारत की आज़ादी बल्कि भारत के तमाम लोगों के कल्याण की बात भी सोंच रहे थे। भगत सिंह हिंसा के अंध-समर्थक नहीं थे। एक परिपक्व संगठनकर्ता की तरह उन्होंने अहिंसा का महत्व स्वीकार किया था। इस प्रश्न पर उनका मानना था कि- किसी विशेष हालत में तो हिंसा जायज़ हो सकती है, लेकिन जनान्दोलन का मुख्य हथियार अहिंसा हेागी। इसलिए, भगत सिंह को हिंसक कार्यवाहियों का प्रतीक बनाना राजनीति से प्रेरित काम है।

भगत सिंह जबर्दस्त पढ़ाकू व्यक्ति थे। फाँसी के समय उनकी उम्र महज़ साढ़े तेईस साल थी। इसी छोटी-सी उम्र में उन्होंने दुनिया का तमाम क्रांतिकारी साहित्य पढ़ डाला था। एक सामान्य भारतीय नवयुवक इस उम्र में बमुश्किल व्यस्क हो पाता है। उनके कोट की जेबें किताबों से भरी रहती थीं। अपने जेल के दिन उन्होंने अनवरत अध्ययन में बिताए। फाँसी के चंद समय पहले तक वे रूसी क्रांति के महानायक लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जब उन्हें फाँसी घर की ओर चलने का बुलावा आया तो उन्होंने कहा- रूक जाओ। एक क्रांतिकारी का दूसरे क्रांतिकारी से साक्षात्कार तो हो जाने दो वास्तव में इसी मायने में भगत सिंह दूसरे सभी क्रान्तिकारियों से भिन्न थे। वे आवेश में कदम उठाने वाले गुस्सैल नौजवान नहीं थे। वे तो पूरी शांति और मनोयोग से घोर अध्ययन के रास्ते अपने समय की चुनौतियों का समाधान तलाश रहे थे। चन्द्रशेखर आज़ाद भगत सिंह  के इस विचारधारात्मक महत्व को पहचानते थे। इसीलिए उन्होंने असेम्बली बम काण्ड में भगत सिंह के भी शामिल होने का पुरज़ोर विरोध किया था। परन्तु नियति को यही बदा था। भगत सिंह की फाँसी गुलाम भारत की बड़ी त्रासदी थी। जिसने एक अद्भुत मेधा का अन्त कर दिया। भगत सिंह जीवित रहते तो भारतीय राजनीति बहुत समृद्ध होती।

गांधीजी द्वारा भगत सिंह की फाँसी की सजा रूकवाने के लिए किए गए प्रयासों को लेकर लोगों के बीच तमाम गलत धारणाएं व्याप्त हैं। कहा जाता है कि गांधी भगत सिंह की लोकप्रियता से घबरा गए थे। इसलिए उन्होंने भगत सिंह की सजा माफ करने की शर्त को गांधी-इरविन पैक्ट का हिस्सा नहीं बनाया। दरअसल, यह एक गलत प्रवृत्ति का नतीजा है। जिसमें एक महानायक को ऊँचा दिखाने के लिए किसी दूसरे महान् व्यक्तित्व केा प्रतिनायक बना दिया जाता है। यह सही है कि स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने ट्रायल के दौरान भगत सिंह की लोकप्रियता चरम पर पहुुँच गई थी। किवदंतियाँ प्रचलित हो गई थीं कि भगत सिंह की हड्डियों के जोड़ों को भारी हथौड़ों से कुचल दिए जाने के बावजूद उन्होंने उफ् तक नहीं की। या, भगत सिंह इतने ताकतवर हैं कि भारत-विरोधी बातें करते हुए दो अंग्रेजों को उन्होंने कान पकड़कर पानी के जहाज से बाहर फेंक दिया। जबकि असलियत में भगत सिंह ने कभी समुद्र-यात्रा नहीं की थी। भगत सिंह के भाषण लोगों की संघर्ष-क्षमता को उभारने वाले होते थे। इन कम उम्र नौजवानों के अडिग साहस ने लोगों को अपने पौरूष पर गर्व करना सिखाया था। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि गाँधीजी ने अपनी ओर से भगत सिंह को बचाने के लिए लार्ड इरविन से हरसंभव आग्रह किया था, सिवाय गाँधी इरविन पैक्ट तोड़ने की धमकी देने के। ऐतिहासिक रूप से इतना ही सत्य है। दोनों नेताओं की अपनी सोंच थी। दोनों ही अपनी राह चल रहे थे। परन्तु इस मामले में गाँधी को खलनायक बना दिया जाता है। 

वास्तव में, भगत सिंह यह हरगिज़ नहीं चाहते थे कि गाँधी ही क्या, कोई भी उनकी सजा कम करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के सामने हाथ पसारे। अपने पिता के ऐसे प्रयासों के विरूद्ध तो उन्होंने समाचार-पत्रों में स्पष्ट और तीखे बयान दिए थे। दरअसल, भगत सिंह सच्चे क्रांतिकारी थे। वे मानते थे कि अपनी राह पर चलने की कीमत उन्हें स्वयं ही चुकानी चाहिए। बटुकेश्वर दत्त को लिखे एक भावुक पत्र में उन्होंने लिखा था - मैं खुशी से फाँसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूंगा कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से कुर्बानी दे सकते हैं। दूसरी ओर गाँधीजी ने सुखदेव को लिखे एक लम्बे पत्र में अपना पक्ष दृढ़ता के साथ रखा था। ऐसे में गलत व्याख्याओं को जन्म देना दोनों नेताओं की व्यक्तिगत ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है।

भगत सिंह सम्भवतः पहले भारतीय थे जिन्होंने साम्प्रदायिकता को एक विचारधारा के रूप में पहचानने का प्रयत्न किया था। अन्य लोग इसे असन्तुष्ट नेताओं की तुच्छ राजनीति से अधिक नहीं समझते थे। भगत सिंह ने धर्म को इसलिए कटघरे  में खड़ा किया था। वे जान रहे थे कि राजनीति बड़ी आसानी के साथ धर्म को अपने मतलब के लिए साम्प्रदायिकता में बदल सकती है। अपने विचारोत्तेजक लेख ’’मैं नास्तिक क्यों हूँ’’ में उन्होंने अप्टन सिंकलेयन के हवाले से कहा कि - लोगों को एक बार उनकी आत्मा की अमरता में विश्वास दिला दो, फिर चाहे उनका सब-कुछ लूट लो। इस मायने में भगत सिंह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के कुछ सबसे तेज़ दिमाग लोगों में शामिल थे। वे हिंसक क्रांतिकारी नहीं प्रबुद्ध क्रांतिकारी थे।

इस तरह भगत सिंह एक समूची विरासत का नाम है। रंग दे बसन्ती  जैसी फिल्मों ने उनकी प्रासंगिकता को गलत ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। भगत सिंह से प्रेरित होने का अर्थ पिस्तौल और बम से हर गलत व्यक्ति को मार देना नहीं है। इसका अर्थ हर अन्याय के सामने खड़े होने का साहस जुटाना है। उनकी तरह पढ़ने और सोंचने की ललक जगाना है। और यह महसूस करना है कि हमारा जन्म लेना बेमतलब नहीं है। हम कुछ सार्थक करने के लिए इस धरती पर आए हैं। और यह भी कि लम्बे जीवन से बेहतर सार्थक जीवन है

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17 मार्च 2015

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और विभाजन

सीताराम शर्मा
कांग्रेस सदस्यों में सरदार वल्लभभाई पटेल विभाजन के सबसे बड़े समर्थक थे लेकिन उन्हें भी विश्वास नहीं था कि भारत की समस्याओं का सबसे बेहतर समाधान विभाजन हो सकता है। उन्होंने अपने आप को बंटवारे के पक्ष से बाहर रखा। उनका कहना था कि इससे रंजिश और दंभ बढ़ेगा। उन्होंने अपने आप को हर कदम पर तब दुविधा में पाया जब तत्कालीन वित्‍तमंत्री लियाकत अली खॉ ने उनके प्रस्ताव ठुकरा दिये। बेहद गुस्से में उन्होने फैसला किया कि अगर कोई विकल्प न बचे, तो बंटवारे का प्रस्ताव मान लिया जाये। उनका विचार था कि अगर ये प्रस्ताव मान लिया गया तो यह मुस्लिम लीग के लिए एक कड़वा सबक होगा। पाकिस्तान थोड़े ही समय में लड़खड़ा जायेगा और जो सूबे भारत छोड़ कर पाकिस्तान में शामिल हुये हैं उन्हें बहुत मुश्‍किलों का सामना करना होगा’’ - मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी आत्मकथा ‘‘इंडिया विन्स फ्रीडम’’ में यह बात आजादी मिलने के दस साल बाद 1957 में लिखी है।

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एक राय यह भी है कि आज़ाद ने जवाहरलाल नेहरू को इस बात का दोष दिया था कि उन्‍होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दो अवसरों पर सुलह सफाई की सम्भावनाओं पर पानी फेर दिया। पहला मौका आया 1937 में, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने मांग की उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के दो प्रतिनिधियों को लेकर सरकार बनाई जाये। ऐसा दूसरा मौका तब आया जब नेहरु ने एक बयान जारी करके कहा कि आजाद भारत को संविधान निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाया जाएगा और कैबिनेट मिशन के साथ जिस योजना पर सहमति हुई थी वह बाध्‍य नहीं होगी।

यह सर्व विदित है कि मौलाना आज़ाद, मोहम्मद अली जिन्ना और बंटवारे के प्रबल विरोधी थे और धर्म निरपेक्ष भारत में मुसलमानों के सह-अस्तित्व की सामूहिक भावना के प्रतीक थे। अखबारों के लिए जारी एक बयान में 15 अप्रैल, 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने कहा था ‘‘मैंने हर तरह से पाकिस्तान की उस स्कीम को समझ लिया है जिसे मुस्लिम लीग ने तैयार किया है। एक भारतीय होने के नाते मैंने इसके भारत के भविष्‍य पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अंदाजा लगाया है। एक मुसलमान होने के नाते मैंने इस पहलू पर भी गौर किया है कि इसका भारत के मुसलमानों पर क्‍या असर होगा। इस योजना के सभी पक्षों पर विचार करने के बाद मैंने निष्‍कर्ष निकाला है कि यह सिर्फ भारत के लिए ही नुकसानदेह नहीं है, बल्‍कि पूरे मुस्‍लिम समुदाय के लिए नुकसानदेह है। यह योजना जिन समस्‍याओं के समाधान के लिए बनाई गई है वह और समस्‍याएं पैदा करेगी।’’

कांग्रेस अध्‍यक्ष होने के नाते मौलाना आजाद ने जिन्‍ना को यह समझाने की कोशिश की कि वह अपना कठोर रवैया बदलें। उन्‍होंने एक गोपनीय तार भी भेजा। इस तार में उन्‍होंने कहा ‘‘मैंने आपका 9 जुलाई का बयान पढ़ा है। दिल्‍ली प्रस्‍ताव एक अच्‍छा प्रस्‍ताव है और राष्‍ट्रीय सरकार सिर्फ एक ही पार्टी की सरकार नहीं होगी। लेकिन लीग इसे मानने को तैयार नहीं थी क्‍योंकि यह योजना दो राष्‍ट्र के सिद्धांत पर आधारित नहीं थी।’’

जिन्‍ना का जवाब सिर्फ नकारात्‍मक नहीं था बल्‍कि यह निश्‍चय ही अपमानित करने वाला था। उन्‍होंने कहा ‘‘मैं आपका विश्‍वास नहीं लेना चाहता। मुस्‍लिम भारत का आपका विश्‍वास पूरी तरह खत्‍म हो चुका है। क्‍या आप ऐसा नहीं सोचते कि कांग्रेस ने आपको ऐसा दिखावटी अध्‍यक्ष बना दिया है जिसे सामने लाकर वह गैर-कांग्रेसी दलों और दुनिया के अन्‍य देशों को डराती है। आप न तो मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं और न ही हिन्‍दुओं के। कांग्रेस हिन्‍दुओं की संस्‍था है और अगर आपमें ज़रा भी आत्‍मसम्‍मान बाकी है तो आप इससे तुरंत इस्‍तीफा दे दें।’’

यह मौलाना आज़ाद की उदार भावना और एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी कि इसके बावजूद जिन्‍ना को मनाने की महात्‍मा गांधी की कोशिशों का उन्‍होंने विरोध नहीं किया। गांधी, जिन्‍ना का दिल नहीं बदल पाए। गांधी को भी उनका जवाब कोई अलग नहीं था। गांधी ने हजार कहा हो लेकिन उन्‍होंने ज़ोर देकर दो राष्‍ट्रों के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्‍होंने कहा कि ‘‘हम इस बात को पक्‍का कह सकते हैं कि मुसलमानों और हिन्‍दुओं में सभी मानकों के अनुसार दो राष्‍ट्रों की भावना है। सभी अंतर्राष्‍ट्रीय मानकों और सिद्धांतों के आधार पर हम मुसलमान एक राष्‍ट्र हैं।’’

मौलाना आज़ाद ने कांग्रेस नेताओं को भरसक समझाने की कोशिश की कि वह तब तक इंतजार करें जब तक समस्‍या का सही समाधान न निकल आए। लेकिन उन्‍हें कामयाबी नहीं मिली। वस्‍तुत: मौलाना ने गुस्‍सा और हताशा में इसे कांग्रेस नेताओं की नेत्रहीनता (दूरदृष्‍टि का अभाव) कहा।

ऐसा जान पड़ता है कि जिन्‍ना का विश्‍वास था कि राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को मानना जरूरी नहीं है। बंटवारे के बाद मुस्‍लिम लीग की बुरी हालत हुई और उसके नेता जो भारत में रह गए उन्‍होंने भी इसे महसूस किया। जिन्‍ना अपने अनुयायियों को यह संदेश देकर कराची चले गए कि अब देश बंट चुका है और उन्‍हें भारत के वफादार नागरिकों की तरह व्‍यवहार करना चाहिए। जब इन गुस्‍साए नेताओं ने मौलाना आज़ाद से भेंट की तो उन्‍होंने शिकायत की कि ‘‘जिन्‍ना ने उन्‍हें धोखा दिया है और उनके हाल पर छोड़ दिया है।’’ इस पर मौलाना ने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि वह क्‍या कह रहे हैं और जिन्‍ना ने उन्‍हें कैसे धोखा दिया। ‘‘उन्‍होंने तो खुले आम देश को बांटने की मांग की थी और मुस्‍लिम बहुमत वाले प्रांतों को इसका आधार बताया था।’’

जिन्‍ना की हालत से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वह अपने प्रस्‍ताव को लेकर गंभीर नहीं थे और सिर्फ एक खेल खेल रहे थे। जहां तक उनके सिद्धांत का सवाल है, यह उनके संविधान सभा में दिए गए पहले भाषण से ही स्‍पष्‍ट है। नए राष्‍ट्र का नाम पाकिस्‍तान रखा गया। आज़ाद और गांधी को हराने के बाद साम्राज्‍यवादी शासकों की मक्‍कारी खुल गई और उन्‍होंने नए देश के लिए राष्‍ट्रीयता की मांग की। उन्‍होंने नए देश और इसके निवासियों को सलाह दी कि वे हिन्‍दुओं और मुसलमानों को पाकिस्‍तानी समझें। इसी आधार पर कुछ इतिहासकारों ने जिन्‍ना को धर्म-निरपेक्ष नेता बताया है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्‍ठ नेता एल. के. आडवाणी ने इसी आधार पर जिन्‍ना को धर्म निरपेक्ष कहा था।

लेकिन मौलाना आज़ाद ने जिन्‍ना की मक्‍कारी का खुलासा कर दिया। उन्‍होंने द्वि- राष्‍ट्रवाद सहित इसके कई आधार बताए। मौलाना ने कहा कि ‘‘यह लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा होगा और इसी के आधार पर हम भौगोलिक, आर्थिक और भाषाई रूप से अलग होते हुए भी धार्मिक रूप से एकता का दावा कर सकते हैं। यह सही है कि इस्‍लाम ने एक ऐसे समाज की स्‍थापना की बात कही, जो जातीय, भाषाई, आर्थिक और राजनीतिक सीमाओं में नहीं बंधता। लेकिन इतिहास ने साबित कर दिया है कि पहली सदी के बाद इस्‍लाम सभी मुसलमान देशों को एक नहीं रख पाया।’’

इस बात पर ज़ोर देते हुए कि यह स्थिति ‘‘बंटवारे से पहले थी, और अब हालत यह है।’’ मौलाना ने 1958 में कहा था ‘‘कोई उम्‍मीद नहीं कर सकता कि पूर्वी और पश्‍चिमी पाकिस्‍तान अपने सभी मतभेद सुलझा लेंगे और एक राष्‍ट्र बने रहेंगे।’’ इतिहास ने हालांकि सिद्ध कर दिया कि किस तरह से पूर्वी पाकिस्‍तान पश्‍चिमी पाकिस्‍तान से अलग हो गया और 1971 में वह एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र – बांग्लादेश बना।

मौलाना आज़ाद अपनी बातों को लेकर कितना गंभीर थे यह इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्‍होंने कहा था ‘‘पश्‍चिम पाकिस्‍तान के तीन प्रांत – सिंध, पंजाब और सीमा प्रांत, आंतरिक रूप से असंबद्ध हैं और अलग-अलग उद्देश्‍यों तथा हितों के लिए काम कर रहे हैं।’’ पाकिस्‍तान के बनने के एक साल बाद मौलाना आज़ाद ने लाहौर की एक उर्दू पत्रिका ‘चट्टान’ को इंटरव्‍यू देते हुए पाकिस्‍तान के लिए एक अंधकारमय समय की भविष्‍यवाणी की थी और आज यह सच साबित हुआ।

‘‘सिर्फ इतिहास यह फैसला करेगा कि क्‍या हमने बुद्धिमानी और सही तरीके से बंटवारे का प्रस्‍ताव मंजूर किया था।’’ मौलाना को यह तथ्‍य अच्‍छी तरह पता था कि अनेक लोग उनकी बातों को नहीं मानते। उन्‍होंने कहा था ‘‘मज़हब में, साहित्‍य में, राजनीति में और दर्शन के रास्‍ते में जहां भी मैं गया, मैं अकेला गया। समय के कारवां ने, मेरी किसी भी यात्रा में मेरा साथ नहीं दिया।’’

(श्री सीताराम शर्मा कोलकाता के मौलाना अबुल कालाम आज़ाद एशियाई अध्‍ययन संस्‍थान के अध्‍यक्ष हैं। यह संस्‍थान भारत सरकार के संस्‍कृति मंत्रालय के तत्‍वाधान में चल रहा है।)

10 मार्च 2015

हत्या के विरुद्ध एक नज़्म


सौरभ बाजपेयी

[ये नज़्म गोडसे के महिमामंडन के दौर में शुरू हुयी थी। पूरी होते- होते अभिजीत रॉय तक आ पहुंची। हत्या और हत्यारों के विरुद्ध यह हमारा गांधीवादी उद्घोष है.]

सबसे सूनी आँखें हैं
हत्यारों की।
हैं सबसे ज़िंदा ख़्वाब
हमारी आँखों में।
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों से
वो बिखर गए हैं लाखों में।

जिनको तुमने क़त्ल किया 
हथियारों से।
वो मरे नहीं हैं, सोये हैं।
उनकी कब्रों पर जा-जाकर,
बेवजह नहीं हम रोये हैं। 
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों से।
वो बिखर गए हैं
बनकर ज़ीस्त[1] हवाओं में।
वो ज़र्रा बनकर
जज़्ब हुए हैं मिट्टी में।
उनकी खुशबू महक रही है,
चारों तरफ फ़िज़ाओं में।

जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों से
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं।
वो मिट्टी हैं, वो क़तरा हैं,
वो ज़र्रा हैं, वो सोता हैं,
वो बच्चे हैं, वो माएँ हैं,
वो मैना हैं, वो तोता हैं।
वो चहक रहे हैं डालों पर
वो नाप रहे हैं आसमान,
तुमने जिनको क़त्ल किया
हथियारों से।
वो ज़िंदा हैं।
जो मिटकर उठे बार- बार
वो हँसता हुआ परिंदा हैं।

बेचैन मरे लड़ते- लड़ते,
वो चैन नहीं लेने देते।
वो कब्रें शोर मचाती हैं
वो बोल रहे हैं कब्रों से।
जो ख्याल तुम्हें दफ़नाने थे,
अब बरस रहे हैं अब्रों[2] से। 
तुम पहले जितने थे ख़ौफ़ज़दा
अब उससे ज्यादा डरे हुए।
हम ज़िंदा हैं, वो ज़िंदा हैं
बस तुम ही निकले मरे हुए।

1. ज़ीस्त= ज़िंदगी 
2. अब्र= बादल 

 

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