हत्या के विरुद्ध एक नज़्म
सौरभ बाजपेयी
सबसे सूनी आँखें
हैं
हत्यारों
की।
हैं सबसे ज़िंदा
ख़्वाब
हमारी आँखों में।
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों
से
वो बिखर गए
हैं लाखों में।
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों
से।
वो मरे नहीं
हैं, सोये हैं।
उनकी कब्रों पर जा-जाकर,
बेवजह नहीं हम
रोये हैं।
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों
से।
वो बिखर गए
हैं
बनकर ज़ीस्त[1] हवाओं में।
वो ज़र्रा बनकर
जज़्ब हुए हैं
मिट्टी में।
उनकी खुशबू महक रही
है,
चारों तरफ फ़िज़ाओं
में।
जिनको तुमने क़त्ल किया
हथियारों
से
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं,
वो ज़िन्दा हैं।
वो मिट्टी हैं, वो
क़तरा हैं,
वो ज़र्रा हैं, वो
सोता हैं,
वो बच्चे हैं, वो
माएँ हैं,
वो मैना हैं,
वो तोता हैं।
वो चहक रहे
हैं डालों पर
वो नाप रहे
हैं आसमान,
तुमने जिनको क़त्ल किया
हथियारों
से।
वो ज़िंदा हैं।
जो मिटकर उठे बार-
बार
वो हँसता हुआ परिंदा
हैं।
बेचैन मरे लड़ते-
लड़ते,
वो चैन नहीं
लेने देते।
वो कब्रें शोर मचाती
हैं
वो बोल रहे
हैं कब्रों से।
जो ख्याल तुम्हें दफ़नाने
थे,
अब बरस रहे
हैं अब्रों[2] से।
तुम पहले जितने
थे ख़ौफ़ज़दा
अब उससे ज्यादा
डरे हुए।
हम ज़िंदा हैं, वो
ज़िंदा हैं
बस तुम ही
निकले मरे हुए।
1. ज़ीस्त= ज़िंदगी
2. अब्र= बादल
अदभुत ....दिल को छु गया ..बहुत गहरे उतरा गया ...सच ये जिसने मारा वो तो खुद मर गया
जवाब देंहटाएंJabardast bhaea
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