भगत सिंह: एक पुनर्स्मरण



आज भगत सिंह का शहादत दिवस है। उनके जीवन से जुड़ी हर तारीख इनको याद करने का बहाना बन गई है। 17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और उनके साथियों ने लाहौर के असिस्टेण्ट सुपरिटेण्डेण्ट आॅफ पुलिस साण्डर्स की हत्या कर दी थी। यह और असेम्बली में बम फेंकने की कार्यवाही भगत सिंह के जीवन की सर्वाधिक साहसिक और चर्चित घटनाएं हैं। आम लोगों की स्मृति में भगत सिंह इन्हीं घटनाओं को अंजाम देने वाले ओर बाद में हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लेने वाले दिलेर नौजवान की तरह जि़ंदा हैं। हिन्दी सिनेमा ने लम्बे ओवरकोट और तिरछी हैट वाले गुस्सैल नौजवान की तस्वीर को खूब लोकप्रिय बनाया है। परन्तु भगत सिंह वास्तव में क्या थे, नायक पूजा की हमारी अंध-प्रवृत्ति ने कभी जानने की जरूरत नहीं समझी।

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भगत सिंह ने बचपन में बन्दूकें बो कर अँग्रेजों को मार भगाने का सपना देखा था। बन्दूक से ही उन्होंने साण्डर्स की हत्या की थी। असेम्बली में उन्होंने बहरे कानों को सुनाने के लिए बम का धमाका किया था। लेकिन हम भगत सिंह का सच्चा मूल्यांकन उनके इन कामों के आधार पर नहीं कर सकते। भगत सिंह ने स्वयं इन कामों की निस्सारता को समझ लिया था। जुलाई, 1931 में छपे अपने लेख ’’क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’’ में उन्होंने घोषित किया था- "मैं पूरी ताकत से यह कहना चाहता हूँ कि क्रांतिकारी जीवन के शुरूआती चंद दिनों को छोड़ न तो मैं आतंकवादी हूँ, न ही था। मुझे पूरा यकीन है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।" दरअसल, भगत सिंह यह समझ गए थे कि वास्तविक काम इक्का-दुक्का अंग्रेजों की हत्याएं नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध व्यापक लामबंदी करना है। जिसमें किसान-मजदूर, छात्र-नौजवान सभी का एकजुट होना जरूरी है। उनकी सोंच का दायरा बहुत व्यापक था। वे न सिर्फ भारत की आज़ादी बल्कि भारत के तमाम लोगों के कल्याण की बात भी सोंच रहे थे। भगत सिंह हिंसा के अंध-समर्थक नहीं थे। एक परिपक्व संगठनकर्ता की तरह उन्होंने अहिंसा का महत्व स्वीकार किया था। इस प्रश्न पर उनका मानना था कि- किसी विशेष हालत में तो हिंसा जायज़ हो सकती है, लेकिन जनान्दोलन का मुख्य हथियार अहिंसा हेागी। इसलिए, भगत सिंह को हिंसक कार्यवाहियों का प्रतीक बनाना राजनीति से प्रेरित काम है।

भगत सिंह जबर्दस्त पढ़ाकू व्यक्ति थे। फाँसी के समय उनकी उम्र महज़ साढ़े तेईस साल थी। इसी छोटी-सी उम्र में उन्होंने दुनिया का तमाम क्रांतिकारी साहित्य पढ़ डाला था। एक सामान्य भारतीय नवयुवक इस उम्र में बमुश्किल व्यस्क हो पाता है। उनके कोट की जेबें किताबों से भरी रहती थीं। अपने जेल के दिन उन्होंने अनवरत अध्ययन में बिताए। फाँसी के चंद समय पहले तक वे रूसी क्रांति के महानायक लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जब उन्हें फाँसी घर की ओर चलने का बुलावा आया तो उन्होंने कहा- रूक जाओ। एक क्रांतिकारी का दूसरे क्रांतिकारी से साक्षात्कार तो हो जाने दो वास्तव में इसी मायने में भगत सिंह दूसरे सभी क्रान्तिकारियों से भिन्न थे। वे आवेश में कदम उठाने वाले गुस्सैल नौजवान नहीं थे। वे तो पूरी शांति और मनोयोग से घोर अध्ययन के रास्ते अपने समय की चुनौतियों का समाधान तलाश रहे थे। चन्द्रशेखर आज़ाद भगत सिंह  के इस विचारधारात्मक महत्व को पहचानते थे। इसीलिए उन्होंने असेम्बली बम काण्ड में भगत सिंह के भी शामिल होने का पुरज़ोर विरोध किया था। परन्तु नियति को यही बदा था। भगत सिंह की फाँसी गुलाम भारत की बड़ी त्रासदी थी। जिसने एक अद्भुत मेधा का अन्त कर दिया। भगत सिंह जीवित रहते तो भारतीय राजनीति बहुत समृद्ध होती।

गांधीजी द्वारा भगत सिंह की फाँसी की सजा रूकवाने के लिए किए गए प्रयासों को लेकर लोगों के बीच तमाम गलत धारणाएं व्याप्त हैं। कहा जाता है कि गांधी भगत सिंह की लोकप्रियता से घबरा गए थे। इसलिए उन्होंने भगत सिंह की सजा माफ करने की शर्त को गांधी-इरविन पैक्ट का हिस्सा नहीं बनाया। दरअसल, यह एक गलत प्रवृत्ति का नतीजा है। जिसमें एक महानायक को ऊँचा दिखाने के लिए किसी दूसरे महान् व्यक्तित्व केा प्रतिनायक बना दिया जाता है। यह सही है कि स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने ट्रायल के दौरान भगत सिंह की लोकप्रियता चरम पर पहुुँच गई थी। किवदंतियाँ प्रचलित हो गई थीं कि भगत सिंह की हड्डियों के जोड़ों को भारी हथौड़ों से कुचल दिए जाने के बावजूद उन्होंने उफ् तक नहीं की। या, भगत सिंह इतने ताकतवर हैं कि भारत-विरोधी बातें करते हुए दो अंग्रेजों को उन्होंने कान पकड़कर पानी के जहाज से बाहर फेंक दिया। जबकि असलियत में भगत सिंह ने कभी समुद्र-यात्रा नहीं की थी। भगत सिंह के भाषण लोगों की संघर्ष-क्षमता को उभारने वाले होते थे। इन कम उम्र नौजवानों के अडिग साहस ने लोगों को अपने पौरूष पर गर्व करना सिखाया था। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि गाँधीजी ने अपनी ओर से भगत सिंह को बचाने के लिए लार्ड इरविन से हरसंभव आग्रह किया था, सिवाय गाँधी इरविन पैक्ट तोड़ने की धमकी देने के। ऐतिहासिक रूप से इतना ही सत्य है। दोनों नेताओं की अपनी सोंच थी। दोनों ही अपनी राह चल रहे थे। परन्तु इस मामले में गाँधी को खलनायक बना दिया जाता है। 

वास्तव में, भगत सिंह यह हरगिज़ नहीं चाहते थे कि गाँधी ही क्या, कोई भी उनकी सजा कम करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के सामने हाथ पसारे। अपने पिता के ऐसे प्रयासों के विरूद्ध तो उन्होंने समाचार-पत्रों में स्पष्ट और तीखे बयान दिए थे। दरअसल, भगत सिंह सच्चे क्रांतिकारी थे। वे मानते थे कि अपनी राह पर चलने की कीमत उन्हें स्वयं ही चुकानी चाहिए। बटुकेश्वर दत्त को लिखे एक भावुक पत्र में उन्होंने लिखा था - मैं खुशी से फाँसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूंगा कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से कुर्बानी दे सकते हैं। दूसरी ओर गाँधीजी ने सुखदेव को लिखे एक लम्बे पत्र में अपना पक्ष दृढ़ता के साथ रखा था। ऐसे में गलत व्याख्याओं को जन्म देना दोनों नेताओं की व्यक्तिगत ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है।

भगत सिंह सम्भवतः पहले भारतीय थे जिन्होंने साम्प्रदायिकता को एक विचारधारा के रूप में पहचानने का प्रयत्न किया था। अन्य लोग इसे असन्तुष्ट नेताओं की तुच्छ राजनीति से अधिक नहीं समझते थे। भगत सिंह ने धर्म को इसलिए कटघरे  में खड़ा किया था। वे जान रहे थे कि राजनीति बड़ी आसानी के साथ धर्म को अपने मतलब के लिए साम्प्रदायिकता में बदल सकती है। अपने विचारोत्तेजक लेख ’’मैं नास्तिक क्यों हूँ’’ में उन्होंने अप्टन सिंकलेयन के हवाले से कहा कि - लोगों को एक बार उनकी आत्मा की अमरता में विश्वास दिला दो, फिर चाहे उनका सब-कुछ लूट लो। इस मायने में भगत सिंह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के कुछ सबसे तेज़ दिमाग लोगों में शामिल थे। वे हिंसक क्रांतिकारी नहीं प्रबुद्ध क्रांतिकारी थे।

इस तरह भगत सिंह एक समूची विरासत का नाम है। रंग दे बसन्ती  जैसी फिल्मों ने उनकी प्रासंगिकता को गलत ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। भगत सिंह से प्रेरित होने का अर्थ पिस्तौल और बम से हर गलत व्यक्ति को मार देना नहीं है। इसका अर्थ हर अन्याय के सामने खड़े होने का साहस जुटाना है। उनकी तरह पढ़ने और सोंचने की ललक जगाना है। और यह महसूस करना है कि हमारा जन्म लेना बेमतलब नहीं है। हम कुछ सार्थक करने के लिए इस धरती पर आए हैं। और यह भी कि लम्बे जीवन से बेहतर सार्थक जीवन है

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