हिंदू राष्ट्रवाद कितना व्यावहारिक



शीतला सिंह 
जनसत्ता, २६ दिसंबर २०१४ 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कोलकाता की एक सभा में विपक्ष को चुनौती दी कि वह धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून के प्रस्ताव का समर्थन करे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जो व्यक्ति हिंदू धर्म से भटका है, उसे पुन: वापस लाइए। पड़ोसी पाकिस्तान भी भारत भूमि है, जो 1947 के निर्णय के बावजूद अलग देश बना था, जो स्थायी नहीं है। जो हिंदू धर्म में नहीं आना चाहते, वे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन भी कराएं। उन्होंने भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की कल्पना का भी समर्थन किया।
जहां तक धर्म का संबंध है, वह वैयक्तिक आस्थाओं से जुड़ा हुआ प्रश्न है। कोई व्यक्ति अपनी आस्था, विश्वास के साथ ही सोच और विवेक पर आधारित धर्म स्वीकार करना चाहता है तो उस पर संवैधानिक दृष्टि से कोई पाबंदी नहीं है। आस्था और विश्वास को व्यक्ति का मूल अधिकार माना गया है और चूंकि धर्म की स्वीकृति और व्यक्ति को निर्णय करने का अधिकार वयस्क होने के बाद ही प्राप्त होता है इसलिए धर्म की बाबत उसकी स्थिति भी तभी तय की जानी चाहिए। यह तय करने का अधिकार, किसी और को नहीं, खुद उस व्यक्ति को है।
अभी तो स्थिति यही है कि किसी मां-बाप से पैदा होने वाले बच्चे को उसी धर्म का अवलंबी मान लिया जाता है जबकि यह सोच और विवेक पर आधारित नहीं बल्कि जन्म आधारित है। कोई बच्चा कब, कहां किसके यहां जन्म लेगा यह उसकी इच्छा पर आधारित नहीं होता, क्योंकि जन्म जिस प्रक्रिया पर आधारित है उसमें पैदा होने वाले की इच्छा शामिल नहीं है। उसकी मान्यता और विश्वास पर मुहर तभी लग सकती है जब वह बालिग हो।
दुनिया में जितने भी धर्म आए उन्हें स्वीकार करने वाले शिशु नहीं, वयस्क लोग ही थे, जिसमें उनके वंश का कारवां भी शामिल मान लिया गया है। यह प्रक्रिया सभी धर्मों की मान्यताओं में समान रही है इसलिए सोच, विचार, चिंतन और विवेक के आधार पर किसी व्यक्ति को किसी धर्म को स्वीकार करने से रोका नहीं जा सकता। लेकिन यह लोभ, डर, भय, दबाव पर आधारित नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो उसे स्वेच्छाजन्य और विवेकजन्य नहीं माना जाएगा।
धर्म को अधिकृत रूप से स्वीकार करना वयस्कता प्राप्त करने के बाद ही हो सकता है। इसीलिए जो वयस्क नहीं है वह धर्म परिवर्तन का भी पात्र नहीं है। विचारों में कब और कैसे बदलाव आए, इस पर भी कोई पाबंदी नहीं लग सकती, क्योंकि हम जिसे आज सही मान रहे हैं, कल हमारी चेतना के विस्तार और तथ्य तथा ज्ञान के फलस्वरूप उसमें बदलाव सकता है। यह ऐसा प्रसंग है जिसे भय और दबाव से मुक्त होना ही चाहिए।
हिंदू समुदाय जो जाति, धर्म, मान्यता और पूजा पद्धति के आधार पर बंटा हुआ है, जिसमें विभिन्न मान्यताओं के लोग शामिल हैं, जिन्हें हिंदू कहते हैं उनमें एकता के आधार जब न्यायालय द्वारा भी ढूंढे जाने लगे तो कोई ऐसा एक आधार नहीं मिला जिससे यह पहचान की जा सके। इसलिए उसे कहना पड़ा कि जो अपने को हिंदू कहता है वह हिंदू है, क्योंकि खाना-पीना, उठना-बैठना, शादी-विवाह के साथ ही वंश, गोत्र आदि की भिन्नताएं भी तो हैं। हिंदुओं में कुछ लोग एक वर्ग को अस्पृश्य बताते थे, उन्हें छूना भी नहीं चाहते थे, खाना-पीना, शादी-विवाह आदि संबंधों की तो बात ही अलग है।
इसी मान्यता के आधार पर कि जो लोग किसी अन्य धर्म के नहीं हैं वे सारे ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी, विभिन्न मान्यताओं के अनुयायी और क्षेत्रीय आधार वाले हिंदू बन गए। अगर इन सभी को वास्तव में एक किया जा सके तो यह बहुत बड़ा लक्ष्य है जिसकी पूर्ति आसान नहीं है।
भागवत अगर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो उन्हें राष्ट्र की परिकल्पना के साथ ही उसका विश्लेषण भी करना होगा। जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति आदि एकता के वे कौन-से आधार हो सकते हैं, उनकी खोज भी करनी पड़ेगी। भागवत बौद्ध, जैन, सिख आदि को भी हिंदू ही मानते हैं लेकिन उन्हें यह भी बताना होगा कि इसी देश में बौद्धों और जैनों के खिलाफ अभियान चला था, जबकि ये दोनों धर्म इसी भूमि पर जनमे और विकसित हुए। वे दुनिया भर में तो फैले लेकिन उनसे मुक्ति का अभियान भी इसी देश में चला जिसमें हिंसा से परहेज नहीं था। आज उनके बहुत-से पूजास्थलों पर उनका कब्जा नहीं है।
अयोध्या में पुष्यमित्र शुंग ने जो अंतिम यज्ञ किया था, उसकी घोषणा यही थी कि अगर कोई एक बौद्ध का सिर लाकर देगा तो उसे सोने का दीनार पुरस्कार दिया जाएगा, यानी बौद्ध-विहीनता का अभियान पूरा हो गया। यह कहा जा सकता है कि स्थितियां बदली हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता के कारण भी पैदा हुए हैं। दलित नेता डॉ भीमराव आंबेडकर ने नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार करने की दीक्षा ली थी, लेकिन वे सभी दलितों और आदिवासियों को इसे स्वीकार नहीं करवा पाए।
बहुदेवतावाद इतने व्यापक रूप से फैला हुआ था कि आज भी इसके अनंत रूप विद्यमान हैं। इसलिए जब संघ की आनुषंगिक संस्था विश्व हिंदू परिषद बनी तो उसकी स्वीकार्यता सारे भारत में समान रूप से नहीं हो पाई। वह हिंदीभाषी क्षेत्रों में तो अपना प्रभाव जमा सकी लेकिन अन्य क्षेत्रों में विफल रही। इसलिए अब हिंदू राष्ट्र के पहले हिंदुत्व को परिभाषित करने का काम भी संघ परिवार और उसके नेता को करना पड़ेगा, और सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे अन्य ने कितना स्वीकार कर लिया।
आज नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री हैं क्योंकि उन्हें पांच सौ तैंतालीस सदस्यों वाली लोकसभा में दो सौ बयासी सीटें प्राप्त हुई हैं। लेकिन देश के जिन आधे लोगों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया, उन्हें क्या माना जाएगा? मोदी को चुनाव प्रणाली का लाभ तो मिला ही, जिसमें मतों के विभाजन का लाभ बड़े समूह को मिल जाता है, लेकिन इसी चुनाव में साठ प्रतिशत से अधिक लोगों ने उन्हें अस्वीकार भी किया है। हालांकि वे हिंदू राष्ट्र और हिंदुत्व के मुद््दे पर चुनाव नहीं लड़ रहे थे। इसलिए भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की इच्छा तो हो सकती है लेकिन उस पर जनता की मुहर भी तो लगवानी पड़ेगी।
मुसलमान और ईसाई इसके लिए कैसे राजी होंगे? फिर, हिंदुओं में भी सबके सब लोग राष्ट्र के संबंध में संघ की परिकल्पना को कैसे स्वीकार कर पाएंगे? पंजाब में अकाली दल उनका सहयोगी है लेकिन सिख अपने को हिंदू नहीं बल्कि इतर धर्मी बताते हैं। सिख आतंकवाद के जन्म का आधार भी अलग राष्ट्र की परिकल्पना वाला ही था जो सफल नहीं हो पाया। इसलिए भागवत और उनके सहयोगी का बहुत पुराना सपना जो केंद्र में अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने का था वह एक सीमा तक ही सफल हो पाया है क्योंकि आज भी उनका दूसरे सदन यानी राज्यसभा में बहुमत नहीं है। साथ ही संविधान की उन धाराओं में परिवर्तन की राह भी आसान नहीं दिख रही है, जिसके लिए राज्य विधानसभाओं के समर्थन की आवश्यकता होती है। वे अपने सहयोगी जो धर्म के प्रश्न पर उनके साथ हैं, यानी शिवसेना को महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के लिए भी साथ नहीं जोड़ पाए।
जहां तक धर्म परिवर्तन का संबंध है, इस मूल अधिकार पर पाबंदी लगाना संभव नहीं है। लेकिन जिस प्रकार सांप्रदायिकता का प्रचार इसके लिए किया जा रहा है, वह भी तो संवैधानिक दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। जब वे यह चुनौती देते हैं कि धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध का कानून बनना चाहिए तो उनके मन का डर ही सामने आता है कि अब जिसे वे हिंदू कहते हैं और अपने गले नहीं लगा पाए हैं उस विलगाव को कैसे रोका जा सकेगा? इन प्रश्नों पर प्रधानमंत्री को भी अपने विचार व्यक्त करने चाहिए क्योंकि भागवत के विचारों को चुनाव में उन्होंने किसी स्तर पर स्वीकार करने का दिखावा भी नहीं किया था। उन्होंने यह भी नहीं कहा था कि दलितों या अस्पृश्यों के खिलाफ उनके धर्मग्रंथों में विद्यमान टिप्पणियों को वे स्वीकार या अस्वीकार करते हैं या उन्हें वे किस दृष्टि से देखते हैं।
अगर धर्म ही संयोजक तत्त्व होता तो मुसलिमों में बिखराव की प्रवृत्ति क्यों दिखती? अपने को अलग पहचान के नाते अलग राष्ट्र बताने वाले पाकिस्तान का निर्माण 1947 में हुआ, लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश के नाम से परिवर्तित हो गया। फिर एकता की संभावनाएं नहीं दिखीं।
सत्तावन देशों में इस्लाम फैला हुआ है, कई देशों में वैचारिक, भाषाई और सांस्कृतिक एकरूपता भी है लेकिन वे एक राष्ट्र के रूप में परिवर्तित नहीं हो पाए। आतंकवाद भी पनपा और अपनों के ही संहार में सहायक हुआ।
अभी हाल में पेशावर में सैनिक स्कूल के बच्चों की हत्या पर सारी दुनिया ने शोक जाहिर किया। इन हत्याओं को तहरीक--तालिबान पाकिस्तान ने अंजाम दिया। दुनिया के किसी भी कोने से उसकी इस करतूत को समर्थन नहीं मिला। कई सारे मुसलिम देशों में आपसी द्वंद्व भी विद्यमान है। इन देशों में लड़ाई-झगड़े खुद को इस्लाम के असली धर्मावलंबी बताने वाले ही कर रहे हैं।
कट्टरवादी धार्मिक और अपने को शुद्ध इस्लामिक सैनिक बताने वाले ही सबसे अधिक इस्लामी देशों और उनके नागरिकों का संहार कर रहे हैं। यही हाल ईसाई, बौद्ध और अन्य धर्मों का भी है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदू राष्ट्रवाद वास्तव में एकता और सद््भाव का प्रतीक हो जाएगा और विभिन्न स्वार्थों पर आधारित झगड़े समाप्त हो जाएंगे। धार्मिक आधार पर वैचारिक भिन्नता को रोका नहीं जा सकता। हिंदुओं में यह कभी संभव नहीं हो पाया। चौदह सौ वर्ष पहले जिस इस्लाम का जन्म हुआ वह बहत्तर खेमों में बंट चुका है। यह संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। इसलिए भागवत का हिंदू राष्ट्रवाद का नारा व्यावहारिक है उच्चतर आदर्शों से प्रेरित। 

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