अल्पसंख्यको की समस्याएँ

गाँधीजी 

अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं, तो उनमें अल्‍पसंख्‍यक जातियों का विश्‍वास करने की हिम्‍मत होनी चाहिए। किसी भी दूसरी बुनियाद पर आधारित मेल सच्‍चा मेल नहीं होगा। करोड़ों सामान्‍य जन न तो विधान-सभा के सदस्‍य होना चाहते हैं और न म्‍युनिसिपल कौसिलर बनना चाहते हैं। और यदि हम सत्‍याग्रह का सही उपयोग करना सी, गए है, तो हमें जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्‍यायी शासक के खिलाफ-वह हिंदू, मुसलमान या अन्‍य किसी भी कौम का हो-किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्‍यायी शासक या प्रतिनिधि हमेशा और समान रूप से अच्‍छा होता है, फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्‍न में बहुसंख्‍यक समाज को पहल करके अल्‍पसंख्‍यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्‍वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जब कि ज्‍यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सहीं दिशा में बढ़ना शुरू कर दे।
जहाँ तक सरकारी महकमों में नौकरियों का सवाल है, मेरी राय है कि यदि हम सांप्रदायिक भावना को यहाँ भी दाखिल करेंगे,तो यह चीज सुशासन के लिए घातक सिद्ध होगी। शासन सुचाररु रूप से चलें, इसके लिए यह जरूरी है कि वह सबसे योग्‍य आदमियों के हाथ में रहे। उसमें किसी तरह का पक्षपात तो होना ही नहीं चाहिए। अगर हमें पाँच इंजीनियरों की जरूरत हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम एक जाति से एक-एक लें; हमें तो पाँच सबसे सुयोग्‍य इंजीनियर चुन लेने चाहिए, भले वे सब मुसलमान हो, या पारसी हों। सबसे निचले दरजे की जगहें, यदि जरूरी मालूम हों तो, परीक्षा के जरिए भरी जाएँ और यह परीक्षा किसी ऐसी समिति की निगरानी में हो जिसमें विविध जातियों के लोग हों। लेकिन नौकरियों का यह बँटवारा विविध जातियों की संख्‍या के अनुपात में नही होना चाहिए। राष्‍ट्रीय सरकार बनेगी तब शिक्षा में पिछड़ी हुई जातियों की शिक्षा के मामले में जरूर दूसरों की अपेक्षा विशेष सुविधाएँ पाने का अधिकार होगा। ऐसी व्‍यवस्‍था करना कठिन नहीं होगा। लेकिन जो लोग देश के शासन-तंत्र में बड़े-बड़े पदों को पाने की आकांक्षा रखते हैं, उन्‍हें उसके लिए जरूरी परीक्षा अवश्‍य पास करनी चाहिए।
स्‍वतंत्र भारत सांप्रदायिक प्रतिलिनित्‍व की प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं दे सकता। लेकिन यदि अल्‍पसंख्‍यकों पर जोर-जबरदस्‍ती नहीं करना है, तो उसे सब जातियों को पूरा संतोष देना पड़ेगा।
हिंदुस्‍तान उन सब लोगों का है, जो यहाँ पैदा हुए है और पले हैं और दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, बेनी इजरायलों, हिंदुस्‍तानी ईसाईयों, मुसलमानों और दीगर गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्‍तान में राज्‍य हिंदुओं का नहीं,बल्कि हिंदुस्‍तानियों का होगा; और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्‍ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा। मैं एक ऐसे मिश्र बहुमत की कल्‍पना कर सकता हूँ, जो हिंदुओं को अल्‍पमत बना दे। स्‍वतंत्र हिंदुस्‍तान में लोग अपनी सेवा और योग्‍य के आधार पर ही चुने जाएँगे। धर्म का निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्‍थान नहीं होना चाहिए। विदेश हुकूमत की वजह से देश में जो अस्‍वाभाविक परिस्थिति पाई जा‍ती है, उसी की बदौलत हमारे यहाँ धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं। जब इस देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद ही हँसेंगे।
अपने धर्म पर मेरा अटूट विश्‍वास है। मैं उसके लिए अपने अप्राण दे सकता हूँ। लेकिन वह मेरा निजी मामला है। राज्‍य को उससे कुछ लेना-देना नहीं है। राज्‍य हमारे लौकिक कल्‍याण की-स्‍वास्‍थ्‍य, आवागमन, विदेशों से संबंध, करेंसी (मुद्रा) आदि की देखभाल करेगा, लेकिन हमारे या तुम्‍हारे धर्म की नहीं। धर्म हर एक का निजी मामला है।
एग्‍लों-इंडियन समाज और विदेशी लोग
सब विदेशियों को यहाँ रहने और बसने की पूरी आजादी है, बशर्ते कि वे अपने को इस देश की जनता से अभिन्‍न समझें। जो विदेशी यहाँ अपने अधिकारों के लिए संरक्षण चाहते हो, उन्‍हें भारत आश्रय नहीं दे सकता। अधिकारों के लिए संरक्षण माँगने का अर्थ यह होगा कि वे यहाँ ऊँचे दरजे के आदमियों की तरह रहना चाहते हैं। लेकिन उन्‍हें ऐसा नहीं करने दिया जा सकता, क्‍योंकि उससे संघर्ष पैदा होगा।
अगर एक यूरोपियन ऐसा कर सकता है, तो एंग्‍लो-इंडियन और वे देसरे लोग तो और भी ऐसा कर सकते हैं,जिन्‍होने यूरोपियन आचार-व्‍यवहार और रीति-रिवाज महज इसलिए अपनाए हैं कि विदेशी सरकार से अच्‍छे व्‍यवहार की माँग करने वाले यूरोपियनों में उनकी गिनती हो सके। अगर ऐसा लोग यह उम्‍मीद रखें कि अब तक जो खास सहूलियतें उन्‍हें मिलती रही हैं वैसी आगे भी मिलती रहें, तो उन्‍हें परेशानी ही होगी। उन्‍हें तो इस बात के लिए अपने को धन्‍य समझना चाहिए कि जिन खास सहूलियतों को भोगने का उन्‍हें किसी भी तर्कसम्‍मत कानून से कोई हक नहीं था, और जो उनकी इज्‍जत को बटटा लगाने वाली थी, उनका बोझ उनके सिर से उतर जाएगा।
एंग्‍लो-इंडियन के राजनीतिक अधिकारों को कोई खतरा नहीं है। उसे अपनी सामाजिक स्थिति की चिंता है, जो कि फिलहाल अस्तित्‍व में ही नहीं है। उसे एक ओर तो इस बात पर बहुत गुस्‍सा आता है कि उसकी माँ या उसके पिता भारतीय थे और दूसरी ओर युरोपियन लोग उसे अपने समाज में स्‍वीकार नहीं करते। इस तरह उसकी स्थिति कुएँ और खाई के बीच खड़े रहने जैसी है। मुझे उससे अक्‍सर मिलने का मौका आता है। यूरापियन की तरह रहने ओर यूरोपियन दिखने की कोशिश में उसे अपने साधनों सीमा से ज्‍यादा खर्चीला जीवन बिताना पड़ाता है और उसका नतीजा यह है कि वह नैतिक और आर्थिक दृष्टि से बिलकुल कमजोर हो गया है। मैंने उसे समझाया है कि उसे चुनाव करे लेना चाहिए और अपना भाग्‍य भारत की विशाल जनता के साथ जोड़ देना चाहिए। अगर इन लोगों में इस अत्‍यंत सीधी और स्‍वाभाविक स्थिति को समझने और स्‍वीकार करने का साहस और दूरदर्शिता होगी, तो वे न सिर्फ अपना उद्धार कर सकेंगे। बेजुबान एंग्‍लो-इंडियन के सामने सबसे बड़ा सवाल अपनी सामाजिक स्थिति का निर्णय करने का है। ज्‍यों ही वह अपने को भारतीय समझने और मानने लगेगा और एक भारतीय की ही तरह रहने लगेगा, त्‍यों ही वह महसूस करेगा कि वह सुरक्षित है।



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