गाँधीजी
हिंदू धर्म
मैं जितने धर्मों को जानता हूँ उन सब में हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु है। इसमें कट्टरता का जो अभाव है वह मुझे बहुत पसंद आता है, क्यों कि इससे उसके अनुयायों को आत्माभिव्यक्ति के लिए अधिक-से-अधिक अवसर मिलता है। हिंदू धर्म एकांगी धर्म नहीं होने के कारण उसके अनुयायी न सिर्फ अन्य सब धर्मों पर आदर कर सकते है, परंतु दूसरे धर्मों में जो कुछ अच्छाई हो उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं और उसे हजम भी कर सकते हैं। अहिंसा सब धर्मों में समान है। परंतु हिंदू धर्म में वह सर्वोच्च रूप में प्रगट हुई हैं। और उसका प्रयोग भी हुआ है। (मैं जैन धर्म या बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग नहीं मानता।) हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की बल्कि प्राणीमात्र कि एकता में विश्वास रखता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणीमात्र की एकता में और इसलिए पवित्रता में विश्वास रखने का व्यावहारिक प्रयोग हैं। पुनर्जन्म की महान धारणा इस विश्वास का सीधा परिणाम है। अंत में वर्णाश्रम धर्म का आविष्कार सत्य की निरंतर शोध का भव्य परिणाम है।
बौद्ध धर्म
मेरा दृढ़ मत है कि बौद्ध धर्म या बुद्ध की शिक्षा का पूरा परिणत विकास भारत में ही हुआ; इससे भिन्न कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि गौतम स्वयं एक श्रेष्ठ हिंदू ही तो थे। वे हिंदू धर्म में जो कुछ उत्तम है उससे ओतप्रोत थे और उन्होंने अपना जीवन कतिपय ऐसी शिक्षाओं की शोध और प्रसार के लिए दिया, जो वेदों में छिपी पड़ी थीं और जिन्हें समय की कोई ने ढक दिया था। ...बुद्ध ने हिंदू धर्म का कभी त्याग नहीं किया; उन्होंने तो उसके आधार का विस्तार किया। उन्होंने उसे नया जीवन और नया अर्थ दिया।
बेशक, उन्होंने इस धारणा को अस्वीकार कर दिया था कि ईश्वर नामधारी कोई प्राणी द्वेषवश काम करता है, अपने कर्मों पर पश्चात्ताप कर सकता हैं, पार्थिव राजाओं की तरह वह भी प्रलोभनों और रिवाजों में फँस सकता है और उसका कृपापात्र बना जा सकता है। उनकी सारी आत्मा ने इस विश्वास के विरुद्ध प्रबल विद्रोह किया था कि ईश्वर नामधारी प्राणी को अपने ही पैदा किए हुए जीवित प्राणियों का जाता खून अच्छा लगता है और इससे वह प्रसन्न होता है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर को फिर से उसके उचित स्थान पर बिठा दिया और जिस अनधिकारी ने उस सिंहासन को हस्तगत कर लिया था उसे पदभ्रष्ट कर दिया। उन्होंने जोर देकर पुन: इस बात की घोषणा की कि इस विश्व का नैतिक शासन शाश्वत है और अपरिवर्तनीय है। उन्होंने नि:संकोच यह कहा कि नियम ही ईश्वर हैं।
ईसाई धर्म
मैं यह नहीं मान सकता कि केवल ईसा में ही देवांश था। उनमें उतना ही दिव्यांश था जितना कृष्ण, राम, मुहम्मद या जरथुस्त्र में था। इसी तरह जैसे मैं वेदों या कुरान के प्रत्येक शब्द को ईश्वर-प्रेरित नहीं मानता, वेसे ही बाइबल के प्रत्येक शब्द को भी ईश्वर-प्रेरित नहीं मानता। बेशक, इन पुस्तकों की समस्त वाणी ईश्वर-प्रेरित नहीं मिलती। मेरे लिए बाइबल उतनी ही आदरणीय धर्म-पुस्तक है, जितनी गीता और कुरान है।
यह मेरी पक्की राय है कि आज का यूरोप न तो ईश्वर की भावना का प्रतिनिधि है, न ईसाई धर्म की भावना का, बल्कि शैतान की भावना का प्रतीक है। और शैतान की सफलता तब सब से अधिक होता है, जब वह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है। यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है। वह सचमुच धन की पूजा कर रहा है। 'ऊँट के लिए सुई की नो में होकर निकलना आसान है, मगर किसी धनवान का स्वर्ग में जाना मुश्किल है।' ईसा मसीह ने यह बात ठीक ही कहीं थी। उनसे तथाकथिक अनुयायी अपनी नैतिक प्रगति को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं।
इस्लाम
अवश्य ही मैं इस्लाम को उसी अर्थ में शांति का धर्म मानता हूँ, जिस अर्थ में ईसाई, बौद्ध और हिंदू धर्म शांति के धर्म हैं। बेशक, मात्र का फर्क है, परंतु इन सब धर्मों का उद्देश्य शांति ही है।
भारत की राष्ट्रीय संस्कृति के लिए इस्लाम की विशेष देन तो यह है कि वह एक ईश्वर में शुद्ध विश्वास रखता है और जो लोग उसके दायरे के भीतर हैं उनके लिए व्यवहार में वह मानव-भ्रातृत्व के सत्य को लागू करता है। इन्हें मैं इस्लाम की दो विशेष देनें मानता हूँ, क्योंकि हिंदू धर्म में भ्रातृभाव बहुत अधिक दर्शनिक बन गया हैं। इसी तरह दर्शनिक हिंदू धर्म में ईश्वर कि व्यावहारिक हिंदू धर्म इस मामले में इतना कट्टर और दृढ़ आग्रह नहीं रखता जितना इस्लाम रखता है।
मैं ऐसी आशा नहीं करता हूँ कि मेरे सपनों के आदर्श भारत में केवल एक ही धर्म रहेगा, यानी वह संपूर्णत: हिंदू या ईसाई या मुसलमान बन जाएगा। मैं तो यह चाहता हूँ कि वह पूर्णत: उदार और सहिष्णु बने और उसके सब धर्म साथ-साथ चलते रहें है।
मूर्तिपूजा
हम सब मूर्तिपूजक हैं। अपने आध्यात्मिक विकास के लिए और ईश्वर में अपने विश्वास को दृढ़ करने के लिए हमें मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि की जरूरत महसूस होती है। अपने मन में ईश्वर के प्रति भक्तिभाव प्रेरित करने के लिए लोगों को पत्थर या धातु की मूर्तियाँ चाहिए, कुछ को वेदी चाहिए, तो कुद को किताब या तस्वीर चाहिए।
मंदिर, मसजिद या गिरजाघर... ईश्वर के इन विभिन्न निवास-स्थानों में मैं कोई फर्क नहीं करता। मनुष्य की श्रद्धा ने उनका निर्माण किया है और उसने उन्हें जो माना है वही वे हैं। वे मनुष्य की किसी तरह 'अदृश्य शक्ति' तक पहुँचने की आकांक्षा के परिणाम हैं।
मेरे खयाल से मूर्ति-पूजक और मूर्ति-भंजक शब्दों का जो सच्चा अर्थ है उस अर्थ में मैं दोनों ही हूँ। मैं मूर्तिपूजा की भावना की कद्र करता हूँ। इसका मानव-जाति के उत्थान में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाग रहता है। और मैं चाहूँगा कि मुझ में हमारे देश को पवित्र करने वाले हजारों पावन देवालयों की रखा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का सामर्थ्य हो। ... मैं मूर्ति-भंजक इस अर्थ में हूँ कि कट्टरता के रूप में मूर्ति-पूजा मूर्ति-पूजा का जो सूक्ष्म रूप प्रचलित है उसे मैं तोड़ता हूँ। ऐसी कट्टरता रखने वाले को अपने ही ढँग के सिवा और किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा करने में कोई अच्छाई नजर नहीं आती। मूर्तिपूजा का यह रूप अधिक सूक्ष्म होने के कारण पूजा के उस ठोस और स्थल रूप से अधिक घातक है, जिसमें ईश्वर को पत्थर के एक छोटे-से टुकड़े के साथ या साने की मूर्ति के साथ एक समझ लिया जाता है।
जब हम किसी पुस्तक को पवित्र समझकर उसका आदर करते है, तो हम मूर्ति की पूजा ही करते हैं। पवित्रता या पूजा के भाव से मंदिरों या मसजिदों में जाने का भी वही अर्थ है। लेकिन इस सब बातों में मुझे कोई हानि नहीं दिखाई देती। उलटे, मनुष्य की बुद्धि सीमित है, इसलिए वह और कुद कर ही नहीं सकता। ऐसी हालत में वृक्षपूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत के लिए सच्चे पूजाभाव का प्रतीक है। वनस्पति-जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का अनंत भंडार है; उनक द्वारा वह मानों असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसलिए ऐसे देश में, जहाँ खास तौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्षपूजा का एक गहरा आर्थिक महत्त्व जो जाता है।
हिंदू धर्म
मैं जितने धर्मों को जानता हूँ उन सब में हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्णु है। इसमें कट्टरता का जो अभाव है वह मुझे बहुत पसंद आता है, क्यों कि इससे उसके अनुयायों को आत्माभिव्यक्ति के लिए अधिक-से-अधिक अवसर मिलता है। हिंदू धर्म एकांगी धर्म नहीं होने के कारण उसके अनुयायी न सिर्फ अन्य सब धर्मों पर आदर कर सकते है, परंतु दूसरे धर्मों में जो कुछ अच्छाई हो उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं और उसे हजम भी कर सकते हैं। अहिंसा सब धर्मों में समान है। परंतु हिंदू धर्म में वह सर्वोच्च रूप में प्रगट हुई हैं। और उसका प्रयोग भी हुआ है। (मैं जैन धर्म या बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग नहीं मानता।) हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की बल्कि प्राणीमात्र कि एकता में विश्वास रखता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणीमात्र की एकता में और इसलिए पवित्रता में विश्वास रखने का व्यावहारिक प्रयोग हैं। पुनर्जन्म की महान धारणा इस विश्वास का सीधा परिणाम है। अंत में वर्णाश्रम धर्म का आविष्कार सत्य की निरंतर शोध का भव्य परिणाम है।
बौद्ध धर्म
मेरा दृढ़ मत है कि बौद्ध धर्म या बुद्ध की शिक्षा का पूरा परिणत विकास भारत में ही हुआ; इससे भिन्न कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि गौतम स्वयं एक श्रेष्ठ हिंदू ही तो थे। वे हिंदू धर्म में जो कुछ उत्तम है उससे ओतप्रोत थे और उन्होंने अपना जीवन कतिपय ऐसी शिक्षाओं की शोध और प्रसार के लिए दिया, जो वेदों में छिपी पड़ी थीं और जिन्हें समय की कोई ने ढक दिया था। ...बुद्ध ने हिंदू धर्म का कभी त्याग नहीं किया; उन्होंने तो उसके आधार का विस्तार किया। उन्होंने उसे नया जीवन और नया अर्थ दिया।
बेशक, उन्होंने इस धारणा को अस्वीकार कर दिया था कि ईश्वर नामधारी कोई प्राणी द्वेषवश काम करता है, अपने कर्मों पर पश्चात्ताप कर सकता हैं, पार्थिव राजाओं की तरह वह भी प्रलोभनों और रिवाजों में फँस सकता है और उसका कृपापात्र बना जा सकता है। उनकी सारी आत्मा ने इस विश्वास के विरुद्ध प्रबल विद्रोह किया था कि ईश्वर नामधारी प्राणी को अपने ही पैदा किए हुए जीवित प्राणियों का जाता खून अच्छा लगता है और इससे वह प्रसन्न होता है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर को फिर से उसके उचित स्थान पर बिठा दिया और जिस अनधिकारी ने उस सिंहासन को हस्तगत कर लिया था उसे पदभ्रष्ट कर दिया। उन्होंने जोर देकर पुन: इस बात की घोषणा की कि इस विश्व का नैतिक शासन शाश्वत है और अपरिवर्तनीय है। उन्होंने नि:संकोच यह कहा कि नियम ही ईश्वर हैं।
ईसाई धर्म
मैं यह नहीं मान सकता कि केवल ईसा में ही देवांश था। उनमें उतना ही दिव्यांश था जितना कृष्ण, राम, मुहम्मद या जरथुस्त्र में था। इसी तरह जैसे मैं वेदों या कुरान के प्रत्येक शब्द को ईश्वर-प्रेरित नहीं मानता, वेसे ही बाइबल के प्रत्येक शब्द को भी ईश्वर-प्रेरित नहीं मानता। बेशक, इन पुस्तकों की समस्त वाणी ईश्वर-प्रेरित नहीं मिलती। मेरे लिए बाइबल उतनी ही आदरणीय धर्म-पुस्तक है, जितनी गीता और कुरान है।
यह मेरी पक्की राय है कि आज का यूरोप न तो ईश्वर की भावना का प्रतिनिधि है, न ईसाई धर्म की भावना का, बल्कि शैतान की भावना का प्रतीक है। और शैतान की सफलता तब सब से अधिक होता है, जब वह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है। यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है। वह सचमुच धन की पूजा कर रहा है। 'ऊँट के लिए सुई की नो में होकर निकलना आसान है, मगर किसी धनवान का स्वर्ग में जाना मुश्किल है।' ईसा मसीह ने यह बात ठीक ही कहीं थी। उनसे तथाकथिक अनुयायी अपनी नैतिक प्रगति को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं।
इस्लाम
अवश्य ही मैं इस्लाम को उसी अर्थ में शांति का धर्म मानता हूँ, जिस अर्थ में ईसाई, बौद्ध और हिंदू धर्म शांति के धर्म हैं। बेशक, मात्र का फर्क है, परंतु इन सब धर्मों का उद्देश्य शांति ही है।
भारत की राष्ट्रीय संस्कृति के लिए इस्लाम की विशेष देन तो यह है कि वह एक ईश्वर में शुद्ध विश्वास रखता है और जो लोग उसके दायरे के भीतर हैं उनके लिए व्यवहार में वह मानव-भ्रातृत्व के सत्य को लागू करता है। इन्हें मैं इस्लाम की दो विशेष देनें मानता हूँ, क्योंकि हिंदू धर्म में भ्रातृभाव बहुत अधिक दर्शनिक बन गया हैं। इसी तरह दर्शनिक हिंदू धर्म में ईश्वर कि व्यावहारिक हिंदू धर्म इस मामले में इतना कट्टर और दृढ़ आग्रह नहीं रखता जितना इस्लाम रखता है।
मैं ऐसी आशा नहीं करता हूँ कि मेरे सपनों के आदर्श भारत में केवल एक ही धर्म रहेगा, यानी वह संपूर्णत: हिंदू या ईसाई या मुसलमान बन जाएगा। मैं तो यह चाहता हूँ कि वह पूर्णत: उदार और सहिष्णु बने और उसके सब धर्म साथ-साथ चलते रहें है।
मूर्तिपूजा
हम सब मूर्तिपूजक हैं। अपने आध्यात्मिक विकास के लिए और ईश्वर में अपने विश्वास को दृढ़ करने के लिए हमें मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि की जरूरत महसूस होती है। अपने मन में ईश्वर के प्रति भक्तिभाव प्रेरित करने के लिए लोगों को पत्थर या धातु की मूर्तियाँ चाहिए, कुछ को वेदी चाहिए, तो कुद को किताब या तस्वीर चाहिए।
मंदिर, मसजिद या गिरजाघर... ईश्वर के इन विभिन्न निवास-स्थानों में मैं कोई फर्क नहीं करता। मनुष्य की श्रद्धा ने उनका निर्माण किया है और उसने उन्हें जो माना है वही वे हैं। वे मनुष्य की किसी तरह 'अदृश्य शक्ति' तक पहुँचने की आकांक्षा के परिणाम हैं।
मेरे खयाल से मूर्ति-पूजक और मूर्ति-भंजक शब्दों का जो सच्चा अर्थ है उस अर्थ में मैं दोनों ही हूँ। मैं मूर्तिपूजा की भावना की कद्र करता हूँ। इसका मानव-जाति के उत्थान में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भाग रहता है। और मैं चाहूँगा कि मुझ में हमारे देश को पवित्र करने वाले हजारों पावन देवालयों की रखा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का सामर्थ्य हो। ... मैं मूर्ति-भंजक इस अर्थ में हूँ कि कट्टरता के रूप में मूर्ति-पूजा मूर्ति-पूजा का जो सूक्ष्म रूप प्रचलित है उसे मैं तोड़ता हूँ। ऐसी कट्टरता रखने वाले को अपने ही ढँग के सिवा और किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा करने में कोई अच्छाई नजर नहीं आती। मूर्तिपूजा का यह रूप अधिक सूक्ष्म होने के कारण पूजा के उस ठोस और स्थल रूप से अधिक घातक है, जिसमें ईश्वर को पत्थर के एक छोटे-से टुकड़े के साथ या साने की मूर्ति के साथ एक समझ लिया जाता है।
जब हम किसी पुस्तक को पवित्र समझकर उसका आदर करते है, तो हम मूर्ति की पूजा ही करते हैं। पवित्रता या पूजा के भाव से मंदिरों या मसजिदों में जाने का भी वही अर्थ है। लेकिन इस सब बातों में मुझे कोई हानि नहीं दिखाई देती। उलटे, मनुष्य की बुद्धि सीमित है, इसलिए वह और कुद कर ही नहीं सकता। ऐसी हालत में वृक्षपूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत के लिए सच्चे पूजाभाव का प्रतीक है। वनस्पति-जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का अनंत भंडार है; उनक द्वारा वह मानों असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसलिए ऐसे देश में, जहाँ खास तौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्षपूजा का एक गहरा आर्थिक महत्त्व जो जाता है।
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