28 नवंबर 2014

वैष्णव जन तो तेने कहिये… द्वारा रियाज़ क़व्वाली



आदरणीय सुमन केसरीजी की फेसबुक वॉल से पता चला कि आज नरसिंह मेहता का जन्मदिन है। याद दिलाने के लिए उनका बहुत- बहुत धन्यवाद। भक्ति साहित्य की ज़रूरत बार- बार सिद्ध होती रही है। याद दिलाते चलें कि साम्प्रदायिकता से लड़ने में गाँधी और कबीर का महत्त्व कैसे पहचाना गया था। वरना वामपंथ को गाँधी से खासा परहेज था। प्रो० पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रो० भगवान जोश और दिलीप सीमियन आदि के नेतृत्व में साम्प्रदायिकता विरोधी मंच बनाया गया था। राममंदिर आंदोलन की चुनौतियों से निपटने की वैकल्पिक योजना के साथ यह ध्यान आकर्षित करने के लिए धरने पर बैठा। जिसे बिपन चन्द्र और नामवर सिंह जैसे कद्दावर बौद्धिकों का समर्थन मिला। इसके बाद ही १९८८ में सीताराम येचुरी ने एक परचा लिखकर लगभग इस लाइन को आजमाने की बात की।  इसी के बाद 'सहमत' ने गाँधी और कबीर आदि को अपने साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान का हिस्सा बनाया। "राम- ख़ुदा की जंग में हुए पखेरू ढेर जैसी" पोस्टर सीरीज़ बनी।  
गाँधी ने वैष्णव जन के अर्थ को विस्तारित किया था। दादा अब्दुल्ला की पोती के सुझाने पर उन्होंने इसमें मामूली बदलाव किये थे। जिसके बाद 'वैष्णव जन' के साथ- साथ 'मुस्लिम जन' और 'ईसाई जन' आदि भी गाये जाने लगे। एक लाइन में 'वैष्णव जन' तो अगली में 'मुस्लिम जन'.... जिन्हें इस भजन से गाँधी के उच्च वर्णीय संस्कारों की झलक- मात्र मिलती हो, उनके लिए एक दूसरे भजन की कुछ पंक्तियाँ है.... "सबको सन्मति दे भगवान।" नरसिंह मेहता को याद करते हुए पेश है रियाज़ कव्वाली की यह शानदार प्रस्तुति। … 
   
                     

25 नवंबर 2014

नेहरू की ज़िन्दग़ी के अनछुए पहलू

रेहान फ़ज़ल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
14 नवंबर 2014

गुस्सैल नेहरू
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जितने हंसमुख थे, उतने ही ग़ुस्सैल भी थे.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के आगमन पर दिल्ली हवाई अड्डे पर पत्रकारों की भीड़ पर वह इतना ग़ुस्सा हुए कि गुलदस्ते से ही मारने दौड़ पड़े थे. नेहरू के बारे में ढेरों ऐसी बातें हैं जो उन्हें एक लोकप्रिय नेता, एक शौक़ीन मिजाज़ व्यक्ति, मितव्ययी और एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले शख्स के रूप में चित्रित करती हैं. अपने ज़माने में नेहरू की गिनती दुनिया के पांच सर्वश्रेष्ठ अंग्रेज़ी लेखकों में होती थी. किसी अन्य शख़्स के लिखे किसी काग़ज़ पर दस्तख़त करना उनकी शान के ख़िलाफ़ होता था. इसका नतीजा ये होता था कि नेहरू का अधिकतर समय चिट्ठियों को डिक्टेट करने या अपना भाषण तैयार करने में जाता था. नेहरू के सर्वश्रेष्ठ भाषण या तो बिना किसी तैयारी के अचानक दिए गए होते थे या उन्होंने उन्हें स्वयं तैयार किया होता था. गाँधी की हत्या पर दिया गया उनका मशहूर भाषण ( लाइट हैज़ गॉन आउट ऑफ़ अवर लाइफ़) लिखित भाषण नहीं था और उसी समय आकाशवाणी के स्टूडियो में बिना किसी तैयारी या नोट्स के उन्होंने संबोधित किया था.

बर्नाड शॉ से मुलाकात
नेहरू के सचिव एमओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनेंसेस ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि जब नेहरू मशहूर लेखक जॉर्ज बर्नाड शॉ से मिलने गए थे तो बर्नाड शॉ ने उन्हें अपनी पुस्तक 'सिक्सटीन सेल्फ़ स्केचेज़' पर अपना हस्ताक्षर कर भेंट की. उन्होंने उस पर नेहरू का नाम जवाहर लाल की जगह जवाहरियल लिखा. मथाई ने तुरंत इस ग़लती की तरफ़ उनका ध्यान दिलाया. शॉ अपनी लाइब्रेरी में गए और नेहरू की आत्मकथा निकाल कर लाए. उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ, लेकिन शरारती अंदाज़ में बोले, ’इसको ऐसे ही रहने दो. इट साउंड्स बेटर.’ नेहरू ने उन्हें कुछ चौसा आम खाने के लिए दिए. शॉ ने पहली बार आम देखा था. वो समझे कि आम की गुठलियाँ खाई जाती हैं. नेहरू ने उन्हें आम काट कर दिखलाया और बताया कि कैसे आम का गूदा खाया जाता है.

कंजूसनेहरू
नेहरू अपने ऊपर बहुत कम पैसे ख़र्च करते थे. मथाई कहते हैं कि कुछ मामलों में तो उन्हें कंजूस कहा जा सकता था. लेकिन एक बार उन्होंने सेस ब्रूनर की गाँधी जी की गहन सोच की मुद्रा में बनाई गई पेंटिंग ख़रीदने के लिए पाँच हज़ार रुपए ख़र्च करने में एक सेकेंड का भी समय नहीं लिया. उनके सुरक्षा अधिकारी के एफ़ रुस्तमजी लिखते हैं कि एक बार डिब्रूगढ़ की यात्रा के दौरान वो उनका सिगरेट केस लेने उनके कमरे में गए तो उन्होंने देखा कि उनका नौकर उनके फटे हुए काले मोज़ों को सिल रहा है. नेहरू को बर्बादी बहुत नापसंद थी.
कई बार वह कार रुकवाकर अपने ड्राइवर को भेजते थे कि वह बगीचे में चल रहा पानी का पाइप बंद करके आए. एक बार सऊदी अरब की यात्रा के दौरान उन्होंने रियाद के जगमगाते राजमहल के एक-एक कमरे में जाकर उसकी बत्ती बंद की.

555 सिगरेट के शौकीन
एक बार किसी ने रुस्तमजी से पूछा क्या नेहरू शराब पीते हैं. उनका जवाब था, कभी नहीं. हाँ उन्हें सिगरेट पीने की ज़रूर आदत थी. वो स्टेट एक्सप्रेस 555 पिया करते थे. पहले वो दिन भर में 20-25 सिगरेट पी जाते थे, लेकिन बाद में वो दिन भर में सिर्फ़ पाँच सिगरेट पिया करते थे.



नेहरू के समय में सभी विदेशी शासनाध्यक्ष या तो राष्ट्रपति भवन में ठहरा करते थे या नेहरू के निवास स्थान तीन मूर्ति भवन में. उस दौरान इन विदेशी अतिथियों के कमरों में विदेश मंत्रालय के तरफ़ से तरह-तरह की चुनिंदा शराब रखवा दी जाती थी और उन्हें सर्व करने के लिए एक अंग्रेज़ी बोलने वाला सेवक तैनात कर दिया जाता था. लेकिन नेहरू द्वारा दिए गए किसी सरकारी भोज में कोई भी शराब कभी सर्व नहीं की जाती थी. एक बार ज़रूर 1955 की रूस यात्रा के दौरान उन्होंने वहाँ तैनात राजदूत केपीएस मेनन के कहने पर ख्रुशचेव को दिए गए भोज में शेरी और वाइन सर्व करने की इजाज़त दी थी और तब भी ये शर्त रखी थी कि भोज में मौजूद कोई भी भारतीय उनका सेवन नहीं करेगा.

मौलानानेहरू
सरदार पटेल नेहरू से तेरह साल बड़े थे और गाँधी से सात साल छोटे थे. इंदर मल्होत्रा बताते हैं कि नेहरू और पटेल के घर आस-पास थे. नेहरू ने उन्हें कह रखा था कि जब भी कोई मंत्रणा करनी हो वो स्वयं उनके घर आएंगे. उन्हें उनके यहाँ आने की ज़हमत करने की ज़रूरत नहीं है. वो हमेशा उनके यहाँ पैदल जाते थे. मौलाना आज़ाद ज़रा दूर रहते थे. इसलिए नेहरू उनके घर मोटर में बैठकर जाते थे और गपशप करते थे. टेलिफ़ोन पर नेहरू की कर्ट्सी होती थी कि वह ख़ुद अपने हाथ से मौलाना को फ़ोन मिलाते थे. एक दिन उन्होंने अपने निजी सचिव एमओ मथाई से कहा कि मौलाना साहब से फ़ोन पर बात कराइए. जब मौलाना ने फ़ोन लिया और नेहरू आए तो उनका पहला जुमला था, "जवाहर लाल तुम्हारी उंगलियों में दर्द हो गया है कि तुम दूसरे से फ़ोन मिलवा रहे हो." नेहरू मौलाना का आशय समझ गए और बोले आइंदा से ये ग़लती कभी नहीं होगी. एक बार पटेल से किसी ने पूछा कि इस समय भारत में सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मुस्लिम कौन है. सब सोच रहे थे कि पटेल मौलाना आज़ाद या रफ़ी अहमद किदवई का नाम लेंगे, लेकिन पटेल का जवाब था, ‘मौलाना नेहरू.’

अविश्वासी नेहरू
नेहरू को अपने आप को अविश्वासी कहने में मज़ा आता था. उन्होंने कभी भी किसी मूर्ति के सामने सिर नहीं झुकाया, कभी कोई व्रत नहीं रखा और ही किसी ज्योतिषी से सलाह ली. एक बार 1954 में कुंभ के दौरान लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें मनाने की कोशिश की कि मौनी अमावस्या पर वो गंगा में डुबकी लगाएं. उन्होंने कहा कि भारत के करोड़ों लोग ऐसा करते हैं. नेहरू को उनकी भावना और गंगा का सम्मान करते हुए ऐसा करना चाहिए. नेहरू का जवाब था, "गंगा मेरे अस्तित्व का हिस्सा है. मेरे लिए ये इतिहास की नदी है, लेकिन फिर भी मैं इसमें कुंभ के दौरान नहीं नहाऊंगा. वैसे इसमें नहाना मुझे पसंद है, लेकिन कुंभ के दौरान हरगिज़ नहीं."

गर्म ओवरकोट में मफ़लर
घाना के नेता क्वामे न्क्रूमा ने अपनी आत्मकथा में नेहरू के बारे में एक दिलचस्प किस्सा लिखा है. एक बार न्क्रूमा जाड़े के मौसम में भारत की यात्रा पर आए. वह ट्रेन से उत्तर भारत की यात्रा पर निकल रहे थे कि अचानक प्रधानमंत्री नेहरू स्टेशन पर पहुंच गए. वह अपने साइज़ से बड़ा एक ओवर कोट पहने हुए थे. उन्होंने न्क्रूमा से कहा, "ये कोट मेरे लिए बहुत बड़ा है, लेकिन आपके लिए बिल्कुल ठीक साइज़ का है. इसको पहन कर देखिए." न्क्रूमा ने उस कोट को पहना और वो बिल्कुल उनके साइज़ का निकला. जब ट्रेन चल पड़ी तो उन्होंने कोट की जेब में हाथ डाला. एक जेब में एक गर्म मफ़लर और दूसरी जेब में एक जोड़ी गर्म दस्ताने थे. अपने मेहमान के आराम के बारे में सिर्फ़ नेहरू ही इस तरह सोच सकते थे.

आगबबूला नेहरू
वैसे तो नेहरू बहुत हंसमुख थे, लेकिन जब कभी उन्हें गुस्सा आता था तो वो सभी हदें पार कर जाते थे. उनके सुरक्षा अधिकारी रह चुके के एफ़ रुस्तम जी अपनी किताब 'आई वाज़ नेहरूज़ शैडो' में लिखते हैं कि 1953 में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली अपनी पत्नी के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे तो उन्हें नेहरू के मशहूर गुस्से का नज़ारा अपनी आँखों से देखने का मौका मिला. हुआ ये कि जैसे ही जहाज़ की सीढ़ियाँ लगाई गईं, वहाँ मौजूद करीब पचास कैमरामैन मक्खियों की तरह जहाज़ के चारों तरफ़ खड़े हो गए. जैसे ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री उतरे, पीछे खड़ी भीड़ भी आगे गई और धक्का मुक्की होने लगी. नेहरू का पारा चढ़ा तो चढ़ता ही चला गया. उन्होंने गुस्से में चिल्लाते हुए कैमरामैन के पीछे दौड़ना शुरू कर दिया. किसी एक शख़्स ने नेहरू के लिए कार का दरवाज़ा खोला. नेहरू ने गुस्से में वो दरवाज़ा बंद कर दिया और फूल के एक बड़े बूके से लोगों की पिटाई करने दौड़े. रुस्तम जी ने बहुत मुश्किल से उन्हें जीप पर सवार होने के लिए मनाया. नाराज़ नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जीप पर राष्ट्रपति भवन गए और उनकी लंबी कार जीप के पीछे-पीछे बिना किसी सवारी के आई.


17 नवंबर 2014

लंबी छाया नेहरू की

पुरुषोत्तम अग्रवाल 


वह ऐसी उमस भरी दोपहर थी,  जिसमें मांएं बच्चों को डाँट-डपट कर सुला दिया करती थीं कि गली में खेलने ना निकल जाएं….वह नींद ऐसी ही डाँट से लाई गयी नींद थी…. सोते-जागते कानों में दूर से अजीब सी आवाजें आ रही थीं—‘जलाओ घी के…मर गया….’। यह दूसरी आवाज तो दूर से नहीं आ रही, यह तो जीजी (मां)  की आवाज है, ये तो जीजी  के हाथ हैं जो झकझोर रहे हैं, ‘उठ परसोतम, जल्दी उठ, सुन तो….नेहरूजी नहीं रहे….’ यह जो गाल पर आँसू टपका है, यह मुश्किल से ही रोने वाली जीजी की आँख में सँजोए हुए आँसुओं में से एक है….
कुछ ही देर बाद बाबूजी दुकान बढ़ा कर वापस आ गये थे….चाभी का झोला खूंटी पर लटका कर, पस्त पड़ गये खाट पर…
घी के (दिए)  जलाने का आव्हान करती आवाज का तर्क तो तभी समझ आ गया था, वह मोहल्ला हिन्दू महासभा का गढ़ ठहरा…लेकिन जीजी-बाबूजी के दुख को समझने की कोशिश आज तक जारी है। वे कांग्रेस के वोटर नहीं, विरोधी ही कहे जाएंगे… नेहरूजी की कई बातों से उन्हें चिढ़ होती थी, चीन से हारने की वजह भी तो नेहरू की नादानी ही थी…फिर भी उस रात घर में चूल्हा नहीं जला….जैसे घर का कोई बुजुर्ग ही चल बसा था…तीन दिन तक पूजा नहीं हुई…सूतक माना गया….
बहुत से लोग भारतीय जन-मानस में गांधीजी की उपस्थिति को तो स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वे घोषित रूप से धार्मिक, पारंपरिक व्यक्ति थे, लेकिन नेहरू? उनके बारे में बताया जाता है कि उनका सोच-विचार, मन-संस्कार तो विलायती था—क्या लेना-देना उनका भारतीय जन-मानस से…
तो, क्या सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को क्या वह घर अनोखा था, जहाँ उस रात चूल्हा नहीं जला, तीन दिन तक सूतक माना गया; या वह देश के करोड़ों घरों जैसा साधारण घर ही था…क्या खो दिया था उस दोपहर, इन तमाम घरों ने?


आज,पचास बरस बाद एक बात तो लगती है कि हम में से बहुतेरे मानवीय संवाद की विधि ही नहीं समझते, इसीलिए उस जादू को नहीं समझ पाते जो गांधी और नेहरू जैसे विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखने वाले व्यक्तित्वों के बीच संवाद और विवाद का रिश्ता संभव करता है। औद्योगीकरण से लेकर संगठित धर्म तक के  सवालों पर अपने और जवाहरलाल के बीच मतभेदों से गांधीजी खुद भी नावाकिफ तो नहीं थे, फिर भी क्या कारण था, उनकी इस आश्वस्ति का कि, “स्फटिक की भाँति निर्मल हृदयवाले जवाहरलाल के हाथों देश का भविष्य सुरक्षित है”।
केवल आश्वस्ति नहीं, आग्रह, इस हद तक कि कांग्रेस संगठन में नेहरू की तुलना में पटेल के पक्ष में व्यापकतर समर्थन को जानते हुए भी स्वयं पटेल पर प्रभाव डाला कि नेहरू के नेतृत्व में काम करना स्वीकार करें। याद करें कि ग्राम-स्वराज्य के  सवाल पर  ‘असाध्य मतभेदों’  की बात का सार्वजनिक रेखांकन गांधी ने ही किया था। आज लगता है कि वह बहस चलनी चाहिए थी, उससे कतरा जाने की बजाय, दोनों पक्षों को, खासकर नेहरू को उलझना चाहिए था। ऐसा  होता तो दोनों पक्षों-गांधीजी और जवाहरलालजी- को ही नहीं, सारे समाज को बुनियादी सवालों पर अपनी सोच बेहतर करने में मदद मिलती।
खैर, जनमानस के साथ संवाद की कसौटी पर,एक लिहाज से नेहरू गांधीजी से भी अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं। उनके मुहाविरे में ‘धार्मिकता’ नहीं थी, रहन-सहन में ‘पारंपरिकता’ नहीं थी, हिन्दी-उर्दू बोलते बखूबी थे, लेकिन गांधीजी की तरह कभी अपनी मातृभाषा में लिखा नहीं। ‘लेखक’ अंग्रेजी के ही थे; और ‘धर्मप्राण’ भारतीय जन-मानस से संवाद इतना गहरा था कि बेखटके बांधों और कारखानों को ‘नये भारत के नये तीर्थस्थल’ कह सकें।
गांधीजी को अपने ‘सत्य के प्रयोगों’ का सार जीवन-तप से मिला, नेहरू ने अपने जीवन-तप में ‘भारत की खोज’ की। यह केवल एक पुस्तक का शीर्षक नहीं, ईमानदार, विनम्र आत्म-स्वीकार था, अपनी न्यूनता का। मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मे जोशीले नौजवान को अहसास कैंब्रिज से लौटते ही हो गया था कि उसकी विशेषाधिकार-संपन्न सामाजिक स्थिति ने उसे अपने समाज से कितना काट दिया है, उसे भारत मिल नहीं गया है, उसे खोजना है। ‘भारत की खोज’ नेहरू के लिए अपनी जगह की तलाश भी थी।
‘आत्मकथा’ में कितने चाव और गर्व से लिखा है नेहरू ने, ‘ कांग्रेस के जन-संपर्क कार्यक्रम के तहत, मानव-जाति को ज्ञात हर यातायात-साधन का उपयोग किया’। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई, नाव पर बैठे, घुड़सवारी तो बचपन से करते आए थे, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी की भी सवारी की….और देखा, ‘उन हताश, पीड़ित किसानों को जिन्होंने सारी तकलीफों और ज्यादतियों के बीच अपनी इंसानियत को बचाए रखने का कमाल कर दिखाया है’;  समझा और आत्मसात किया इस सत्य को कि ‘गांधीजी इन किसानों को उपदेश नहीं देते, वे इनकी तरह सोच पाते हैं, और इसलिए इनसे बातचीत ही नहीं, ऐसा गहरा संवाद कर पाते हैं, जिसके जादू को हम जैसे पार्लर सोशलिस्ट समझ ही नहीं सकते’।
इस जादू को समझने के तप ने ही ‘भारत की खोज’  का रूप लिया, यह खोज केवल वर्तमान की नहीं थी, फिर भी, यह किताब कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं, बल्कि लेखक की आत्म-कथा का एक रूप है। यह किताब बेधड़क रूप से आधुनिक एक व्यक्ति द्वारा अपने समाज की परंपरा से संवाद की कोशिश, अपने समाज की आत्मा की खोज है। अपने आत्म में समाज की आत्मा, और उस समाज की परंपरा में अपनी जगह की तलाश है।
इस खोज में ही उन्होंने खुद को यह जानते पाया कि ‘भारत माता की जय’ के नारे में, ‘वंदे मातरम’ के अभिनंदन में जो मां शब्द  है वह संकेतक है वह देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, विरासत सब कुछ का, लेकिन सर्वोपरि देश के साधारण इंसान का…।  ‘ एक तरह से आप स्वंय हैं भारत-माता’— यही कहते थे नेहरू बारंबार अपने श्रोताओं से। गांधीजी के अद्भुत शब्द-चित्र का ‘आखिरी आदमी’ है भारत-माता, उसकी आँख का आखिरी आँसू पोंछना ही होगा भारत-माता की सच्ची जय…।
‘भारत की खोज’ के ही प्रसंग में नेहरू ने अपनी धर्म-दृष्टि स्पष्ट की थी, “गैर-आलोचनात्मक आस्था और तर्कहीनता पर निर्भर” विश्वासों से वे असुविधा महसूस करते थे, ऐसे विश्वास चाहे ‘हिन्दू’ धर्म के नाम से पेश किये जाएं, चाहे ‘इस्लाम’ या ‘ईसाइयत’ के नाम से। लेकिन वे जानते थे कि, “धर्म मानवीय चेतना की किसी गहरी जरूरत को संतुष्ट करता है…मानवीय अनुभव के उन अज्ञात क्षेत्रों की ओर ले जाता है, जो समयविशेष के विज्ञान और अनुभवपरक ज्ञान के परे हैं”। इसीलिए संगठित धर्म के निजी अरुचि के बावजूद आक्रामक किस्म के धर्म-विरोध में नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी।
प्रचलित धार्मिकता का विकल्प वे प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान की प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी (उनके अपने शब्दों में ‘पैगन’) संवेदना और उसके साथ ही ‘जीवन के प्रति नैतिक दृष्टिकोण’ में पाते थे। उन्होंने गांधीजी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान ‘साधन-शुचिता’ पर बल को ही माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘ सत्य पर एकाधिकार के किसी भी दावे से पैगन अवधारणा का मूलभूत विरोध है”। एक अमेरिकी पत्रकार ने जब उनसे कहा कि ‘ धीरे धीरे मुझे लगने लगा है कि किसी भी न्यूज-स्टोरी के स्याह-सफेद ही नहीं, और भी रंग होते हैं,’  तो नेहरू ने छूटते ही कहा था, ‘ वेलकम टू हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’।
इन सब प्रभावों और संवादों के साथ भारत की, और खुद अपनी खोज करते नेहरू ने और उनके मार्गदर्शक गांधीजी और साथी पटेल तथा दीगर नेताओं ने सेकुलरिज्म के शब्द-कोशीय अर्थ पर नहीं, भारतीय अनुभव से कमाए गये अर्थ पर बल दिया। सार्वजनिक जीवन तथा राजतंत्र में पंथ-निरपेक्षता की वकालत की, सेकुलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा-बोध भरना माना। संविधान-सभा में अल्पसंख्यक-संरक्षण के बारे में विचार करने के लिए बनी समिति के अध्यक्ष नेहरू नहीं पटेल थे।
नेहरू ने गलतियां भी कीं; बड़े लोगों की गलतियाँ बड़ी भी होती हैं, महंगी भी। लेकिन, उन सारी गलतियों (जिनकी चर्चा होती ही रहती है, होनी ही चाहिए) के बावजूद, सच यही है कि नेहरू द्वारा अपनाई गयी मूल दिशा सही थी। गांधीजी  सच्चे अर्थों में मौलिक चिन्तक थे। नेहरू ने ऐसा कोई दावा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया कि वे मानवीय स्थिति के प्रसंग में कोई नितांत मौलिक अस्तित्वमीमांसामूलक या ज्ञानमीमांसामूलक प्रस्थान प्रस्तुत कर रहे हैं। गांधीजी सत्य के प्रयोग कर रहे थे, राजनैतिक आंदोलन उनकी आध्यात्मिक खोज का अंग था। नेहरू भारत की और अपनी जगह की खोज कर रहे थे।
स्वाधीनता के बाद, नेहरू, पटेल और उनके साथियों के सामने चुनौती स्वाधीन देश में लोकतांत्रिक न्याय के साथ आर्थिक विकास संभव करने की थी; एक सनातन सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र-राज्य का रूप देने की थी। इसके लिए संवैधानिक परंपराओं और संस्थाओं की महत्ता का व्यावहारिक रेखांकन सबसे बुनियादी था, और नेहरू ने यह करने की कोशिश की;  बेशक सफलता और असफलता के साथ। इसी से संबद्ध खोज थी विश्व-रंगमंच पर भारत की प्राचीनता, विविधता, और अंतर्निहित संभावना के अनुकूल भूमिका तलाशने की। यहाँ भी कुछ कामयाबी, कुछ नाकामयाबी— यह स्वाभाविक नहीं क्या?
उनकी नीतियों का मूल प्रस्थान मध्यम-मार्ग था। भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमा प्रतिपदा। इसीलिए उन्हें समाजवादियों की भी आलोचना का सामना करना पड़ा, और मुक्त-व्यापार वालों की भी। उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था को उस चुटकुले का मूर्त रूप बताया गया कि, ‘ मैडम, अपने मिलन से होने वाली संतान को कहीं रूप मेरा और बुद्धि आपकी मिल गयी तो’?
लेकिन रास्ता तो यही था । सोवियत संघ के विघटन से लेकर पिछले दिनों जब बराक ओबामा को कहना पड़ा कि पूरी छूट तो मार्केट फोर्सेज को नहीं दी जा सकती।
रास्ता तो यही है, एक बार फिर दिख रहा है। चुनाव में शानदार हार के बाद, कांग्रेस के हार्वर्ड-पलट नीतिकार कह रहे हैं कि नेहरू की ओर लौटना होगा— जाहिर है कि जीत हुई होती तो नेहरू की ओर लौटने की बात तक नहीं होती।  खैर, कांगेस की बात तो ठीक है लेकिन…।
मेरे मित्र नीलांजन मुखोपध्याय ने बढ़िया किताब लिखी है नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर। उन्होंने ठीक ही नरेन्द्र मोदी को भारत का पहला ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पदाकांक्षी कहा है। लेकिन, इन ‘नॉन नेहरूवियन’ पदाकांक्षी के प्रधानमंत्री मनोनीत हो जाने के बाद तो उनकी भाषा भी नेहरूवियन होने की कोशिश कर रही है, और विदेश-नीति भी, सैनिकों के सर के बदले सर काटने की बातें करने वालों के मन-मयूर शपथ-ग्रहण में ही पाकिस्तान के प्रधान-मंत्री के आने की बात से नृत्य कर रहे हैं।
गांधी-नेहरू की विरासत केवल कांग्रेस तक वाकई सीमित नहीं है, चाहें तो कह लें, वह मजबूती है, चाहें तो कह लें कि मजबूरी है भारत नामके राष्ट्र-राज्य के लिए ।
जवाहरलाल नेहरू की पार्थिव देह तो सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ को शांत हो गयी लेकिन उस देह की छाया बहुत लंबी है, वह भारत के पहले ‘नॉन नेहरूवियन’ प्रधानमंत्री पर भी पड़ ही रही है।

साभार: http://www.purushottamagrawal.com/

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...