महात्मा की ऐतिहासिक लाठी

ललन कुमार राय

भारतवर्ष के इतिहास के पन्नों को उलटने पर आपको एक चित्र के दर्शन अवश्य मिलेंगे । बूढापे को प्रकट करते हुए उनका वह दुबला-पतला शरीर, माथे पर सुंदर घने केशों का अभाव है, परंतु मूँछे हैं । चश्मा भी उन्होंने पहन रखा है । मात्र एक धोती से उनका तन ढका हुआ है । उनकी कमर में एक गोलाकार घडी भी लटकी हुई है परन्तु उनका मुस्कराता हुआ चेहरा जिसे देखकर ही लगता है कि यह किसी तपस्वी की ही तस्वीर है । उनके हाथ मे एक लाठी भी है, जो न ही अधिक लंबी और न ही अधिक मोटी है, जिसे एक हाथ से ही सुविधापूर्वक अच्छी तरह पकड़ा न जा सके । परंतु आप उस लाठी की तुलना किसी चरवाहे की लाठी या लठैत की लाठी के साथ कभी मत कीजियेगा और न ही यह किसी अंधे की ही लाठी है, बल्कि यह लाठी है एक महात्मा की, जिन्होंने हमें आजादी दिलाई है ।

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नंदलाल बोस द्वारा चित्रित गाँधी
महात्मा गांधी ने जब अपनी अहिंसात्मक विजययात्रा प्रारंभ की थी तब यह लाठी उनके साथ गांडीव की भांति ही जयघोष करते हुए नये इतिहास के नींव पर कदम बढा रही थी । उस लाठी ने अपना समय कभी दक्षिण अफ्रीका में बिताया है तो कभी इंग्लैंड की सैर की है, जहाँ-जहाँ भी वह लाठी गई वहाँ-वहाँ अपनी भारतीय पहचान भी ले गयी ।

अपने उद्देश्य की पूर्ति के पालन के लिये ही अपने मार्ग मे उस लाठी ने कभी गोलियों-बमों की भी आवाज सुनी तो कभी बच्चों एवं बूढों की उल्लास-जयकार एवं चीखें भी ! जवानों एवं वीरांगनाओं के लिए तो वह लाठी सदैंव ही पथ-प्रदर्शक ही रही । उस लाठी ने लगातार कई घंटों तक मीलों की भी लंबी यात्रा की थी, तभी उस महात्मा ने हमें नमक कर से मुक्त किया । अतः वह लाठी तो वास्तव में ऐतिहासिक घटनाओं की याद ताजा करा देने वाली महान वस्तु है ।

उस लाठी को पुनः अपनी हृदय व्यथा को प्रकट करने के लिये "रक्त रंजित" नोआखाली की खूनी गलियों मे भी भटकना पडा । पुनः 30 जनवरी 1948 ई. को जब वह महात्मा के हाथ से छुटकर गिर पडी होगी, तब वह बेहद आहत हुई होगी ।

गांधी-टोपी के मर्यादा का भी वह लाठी स्मरण कराती है । जिसने आंदोलन के समय अपने शीश को अहिंसा के पालन हेतु समर्पित किया था । ब्रिटिश सिपाहियों की लाठियों के आघात से लथपथ हुए सत्याग्रहियों का शरीर जब भूमि पर गिरता था, तब भारतमाता, गांधी-टोपी को अपने संतान की राजमुकुट समझकर गोद में धारण करती थी । अतः गांधी-टोपी की मर्यादा का पालन भी वे ही कर पायेंगे, जिनमें "शीश चढाऊ" या "नमन करुं" की भावना है ।

1942 ई. मे "भारत छोड़ो आन्दोलन" के समय जिन शहीदों ने "करेंगे या मरेंगे" का नारा लगाते हुए अपनी आहुति दी थी, उनकी पहचान अब भी उस ऐतिहासिक लाठी के हृदय मे है । परंतु आजादी के वर्षों बाद अधिकांश लोग उनके आदर्श को भूलते जा रहे हैं ।

15 अगस्त के अवसर पर प्रतिवर्ष ही लाल किले पर तिरंगा झण्डा फहराया जाता है, परंतु आजादी के वर्षों बाद भी रामराज्य का स्वप्न अब भी अधूरा है। अतः उस महान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अपना प्रारंभिक कदम उठाना ही पडेगा । क्योंकि रामराज्य-अभियान में देश के प्रत्येक नागरिक के लिये समान रूप से कल्याण की भावना होगी और महात्मा की वह ऐतिहासिक लाठी हमारा पथ-प्रदर्शक बन मार्गदर्शन भी करेगी ।

अब भी सेवाग्राम मे उडते हुए धूल के कण-कण उस ऐतिहासिक लाठी के प्रभाव को जानता हैं । क्योंकि स्वाधीनतापूर्व अपने को अजेय समझकर जब ब्रिटिश पताका लालकिले पर शान से फहराते हुए व अपनी हुकूमत का रोब जमाते हुए भारतीयों के समक्ष अपनी राजवंशी ठाट-बाट का प्रदर्शन कर अट्टहास लगाता रहता था, तब भारतवर्ष की गली-गली में आजादी का नारा लगाते हुए महात्मा की उस ऐतिहासिक लाठी ने ही उसे ललकार कर कहा था '.... तुम मत ठहरो अब, झुक जाओगे एक दिन....।" उसकी आहट सुनकर ही ब्रिटिश पताका भांप गया था कि अब उसके विजयश्री के उत्सवलीला का अंत होने वाला है ।

देश-प्रेम की भावना में लीन मधुर धुन में 'जन-गण-मन" की गान को गुनगुनाते हुए बालक-बालिकाओं को यह लाठी हृदय से अंगीकार करना चाहती है । क्योंकि वे ही अब इस नवीन राष्ट्र के निर्माण के आशादीपक हैं । यदि आज फिर भारतवासी आपसी वैमनस्यता को त्यागकर सहृदयता से बापूजी का प्रिय भजन "रघुपति राघव राजाराम" गाना प्रारंभ करें तो महात्मा की वह ऐतिहासिक लाठी पुनः अपनी ऐतिहासिक विजय यात्रा प्रारंभ कर दे ?

जिसने महात्मा पर गोलियां चलाई थी, उसनें केवलमात्र भारतमाता के हृदय पर ही गोलियां चलाई थी, उसने केवलमात्र भारतमाता के हृदय पर ही आघात पहुंचाया था । इस कारण ही उनके हत्या के वर्षों बाद भी मातृभूमि की वेदना आज हमारे देश के असंख्य भूखे, पीडित व अर्द्धनग्न लोगों की अश्रु व सिसकियों से प्रकट होती रहती हैं । पुनः गोलियां चलने से जो ध्वनियाँ उत्पन्न हुई थी, वास्तव में वह भी भ्रष्टाचार, अन्याय एवं दरिद्रता का अट्टहास था जो उनकी हत्या के पश्चात अब भी बंद नहीं हुई हैं एवं उन अट्टहासों से संपूर्ण देश का भविष्य ही डांवाडोल हो रहा है जिसे रोकना तभी संभव होगा जब गांधीजी के मार्ग पर हम चलें ।

जिस समय बापू का शव स्वाधीन भारतवर्ष की मिट्टी पर पडा हुआ था उस समय स्वाधीनता विलाप कर रही थी, रामराज्य का वह सुंदर स्वप्न जिसे भारतमाता ने अपनी संतानों के लिये संजोया था वह उनके अश्रुओं से धूमिल हो रहा था,  तिरंगा झंडा फहरा रहा था. परंतु उसमें कंपन थीं जो यह बतला रही थी कि बापू के शोक में उसे झुका दिये जाने के पश्चात् उसे फिर संभालेगा कौन ? महात्मा के उस पवित्र शव को देखकर स्वर्ग के देवदूत यह सोच रहे थे कि इस अस्थिपंजर ने जीवन मे अपने लिए क्या किया ? 30 जनवरी 1948 ई. की वह शाम यह बतला रही थी कि भारतीय इतिहास के लिये आने वाली अमावस्या रूपी वह तिथि अब इतनी अधिक लंबी होगी जिसमें भारतीय विश्व के समक्ष अपनी मर्यादित पहचान खो भी सकते हैं और देशवासियों ने उन्हें खोकर जो रूद्रण करना प्रारंभ किया था उनकी यादों को अब भी मातृभूमि स्मरण किये हूई है ।

जब तक भारत के समस्त लोग सुखी-संपन्न नहीं हो जाते हैं, तब तक स्वाधीनता प्राप्ति का लक्ष्य लाखों-करोड़ों लोगों के बलिदान के पश्चात् भी अधूरा ही रहेगा । अतः स्वाधीनता प्राप्ति का वह महान लक्ष्य तब ही पूरा होगा जब भारत में रामराज्य की स्थापना होगी और इसके लिए आवश्यक है, पुनः त्याग व बलिदान करने की ।
चौराहे पर खडी बापूजी की प्रतिमा तथा उनके हाथ में विराजित वह ऐतिहासिक लाठी हमें कल की नवप्रभात की ओर इशारा करना चाहती है । कोई भले ही राष्ट्र मे व्याप्त विषमता व अशांति को देखते हुए, बापू के पदचिन्हों को धूल-धूसरित होते समझकर यह कह दे कि अब हमारा भारत क्या राह दिखलायेगा ? परंतु महात्मा के पदचिन्ह तो भारतभूमि के हृदयस्थल पर अब भी शुक्लपक्ष पंचमी के चंद्रमा के समान ही अमिट है ।

बापूजी जिस पथ पर चले थे वह मार्ग केवलमात्र मानवप्रेम, देशप्रेम, सत्य व अहिंसा का था । यदि महात्मा ने अपनी उस विजय यात्रा में कोई कमी नहीं छोड़ी थी तो फिर उनकी हत्या क्यों कर दी गई ? परन्तु महात्मा की हत्या के पश्चात् जिन लोगों ने उनके समाधिस्थल को अपना विजयतोरण मान लिया था, उनके रंगमहल की नींव को यह ऐतिहासिक लाठी अवश्य खटखटायेगी ।

भारत विभाजन के पश्चात् उनके हृदय मे जो वेदना उत्पन्न हुई थी उस दुख को तो इतिहास की वे घडियां ही समझ सकती हैं जिन्हें बापू के जीवन के पल-पल की निगरानी रखनी पडती थी । फिर भी बापू की हत्या कर दी गयीं । इस कारण ही जिस रामराज्य को बापूजी इस भारतभूमि के हृदय स्थल पर उतारना चाहते थे वह अब केवलमात्र कल्पित मरीचिका बन कर रह गई है । परंतु जिस महात्मा ने सारा जीवन देकर भारतवर्ष को स्वाधीनता दिलाई, उस गांधी का अर्थ आज प्रतीत होता है कि इस स्वाधीन भारत मे केवलमात्र धोती पहने हुए, अर्द्धनग्न अवस्था मे लाठी के सहारे चलनेवाला मनुष्य मात्र ही बनकर रह जायेगा ?

30 जनवरी 1948 ई. के उस रक्तरंजित मार्ग का परिक्रमण करने के पश्चात वह लाठी कहाँ गई थी ? यह कोई नहीं जानता है । शायद राजघाट जाकर वहाँ झरते हुए आंसुओं की मालाओ को संभालने में लग गई हो ? परंतु हमें महाभारत के उस "विशाल वृक्ष" के नीचे जाकर ही प्रतीक्षा करनी चाहिए, जहाँ पाण्डवों ने अज्ञातवास के समय अपने अस्त्र-शस्त्र को छिपाये रखा था क्योंकि वह ऐतिहासिक लाठी ही पुनः न्याय के लिये भविष्य के कुरूक्षेत्र को अब अवश्य ही रचायेगी ।

पुनः मातृभूमि के उद्धार हेतु हमें महात्मा के पदचिन्हों का ही अनुसरण करना है क्योंकि रामराज्य ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । उनके अहिंसा का मार्ग हमें सदैव ही प्रिय लगेगा । परंतु जिस अहिंसा के मार्ग का ही चुनाव करने को वे कहकर गये है, उनकी हत्या के पश्चात् अब उस मार्ग पर चलकर क्या रामराज्य प्राप्त किया जा सकता है?

शायद उनकी हत्या के पश्चात् वह मार्ग अब अस्पृश्य है, जहाँ पर नियुक्त रहकर हम नवआलोक का दर्शन शायद नहीं भी कर सकेंगे । परंतु महात्मा के अहिंसा का प्रयोजन भी हमें पुनः भारत के नवनिर्माण मे "रामराज्य" के स्वप्न को साकार करने मे अवश्य ही पडेगी, क्योंकि "अहिंसा परमोधर्म" है । हमें बापूजी के अहिंसा के साम्राज्य का ही विस्तार करना है । तब ही सारे विश्व को हमारी भारतभूमि का रामराज्य "बापू का महान स्वप्न" अधिक प्रिय लगेगा ।

यदि स्वाधीन भारतवर्ष मे रामराज्य के निर्माण मे महात्मा की उस ऐतिहासिक लाठी को किसी ने अब अपना सहयोग न दिया, तब भी यह लाठी अब गुनगुनाती ही रहेगी, "....... एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे । तोर डाक सुने यदि केउ ना आसे,...... तबे एकला चलो रे.....।"
ललन कुमार राय

( यह लेख ललन कुमार राय की पुस्तिका महात्मा की ऐतिहासिक लाठी का सारांश है. 

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