गाँधी की अहिंसा एक रणनीति थी
जयपाल नेहरा
एक बात बिल्कुल दो टूक कि मैं जो भी लिख रहा हूँ वह मेरे विचार में बिल्कुल निरपेक्ष मूल्यांकन है उसका मतलब ना तो गाँधी या नेहरू को स्थापित करना है और ना ही उनको खारिज करना है । सैद्धांतिक तौर पर जवाहरलाल नेहरू और गाँधी सशस्त्र आंदोलन के रत्तिभर भी समर्थक नहीं रहे । अंग्रेजों को आधी शताब्दी पहले हुए1857 की यादें ताजा थीं । 1857 में पूरे इंग्लैंड में कोई भी परिवार नहीं बचा था जिसने अपने अजीज को भारत के अंदर हुए आजादी के इस असंगठित और बिना योजना के चले युद्ध में न खोया हो । किसी का फूफा मरा था तो किसी का मामा, किसी का चाचा मरा था किसी का नाना, किसी का पिताजी शहीद हुए थे तो किसी के ताऊजी या चाचाजी । अंग्रेज इस बात को बखूबी जानते थे कि अब भारत को आक्रामक रवैये से वे अपने नियंत्रण में नहीं रख पाएँगे ।
अब दूसरा पक्ष भी जान लीजिएगा । गाँधी जी और नेहरू भी 1857 की लोकगीतों और लोक कथाओं को सुनने-सुनाने के दौर में पले-बढ़े और पढ़े-सीखे थे जिसमें रौंगटें खङे कर देने वाली वे दास्तानें होती थीं कि अमुक पेङ पर लोगों को फांसीं दी गयी और उनकी लाशें कई महीनों तक उन पेङों पर लटकती रहीं और चील कौओं ने उनके मांस को नोच-नोच कर खाया । उनके कंकालों को भी लोगों ने उतारने की हिम्मत नहीं की । अतः इस प्रकार की किस्सागोई से धीरे धीरे उनके बालमन पर जो असर पङा जो छवि बनी जाहिर सी बात है गाँधी जी भी भली प्रकार से जान गए थे कि जब तक अधिसंख्य लोग तैयार नहीं हो जाते हैं तब तक अंग्रेजों को भारत से नहीं भगाया जा सकता है । (गाँधीजी से पुरानी पीढ़ी के राष्ट्रवादियों जैसे गोखले, फ़िरोजशाह मेहता, लोकमान्य तिलक, बिपनचंद्र पाल और लाला लाजपतराय आदि की भी इस मामले में यही समझ थी ।)
अतः उन्होंने चतुराई से जनजागरण ना होने तक अहिंसा के मार्ग को चुना और जब-जब भी आंदोलन हिंसक होता दिखलाई दिया तो आंदोलन को वापस लेने में नहीं हिचकिचाये । ऐसा वे कायर होने के कारण नहीं कर रहे थे । ऐसा वे इसलिए कर रहे थे कि वे जानते थे कि हिंसा की लाइन पर चलते ही अंग्रेजी हुकूमत आवाज उठाने वालों की आवाज को हमेशा के लिए कुचलने में समर्थ है । अतः जनजागरण का कार्य पिछङ जाएगा । गांधी जी प्रैक्टीकल थे युटोपिया नहीं थे वे भारत के जन मानस की असली हैसियत समझते थे और शासक वर्ग की शातिर सोच से पूर्णतया वकिफ थे । लोग ही जब लङने से पीछे हट जाते थे तब आंदोलन वापिस लेना ही पङता है । अभी ताजा उदाहरण लोकपाल आंदोलन के लिए किए धरने ही हैं जिसे लोगों की कम भागीदारी के कारण वापिस लेना पङा था । जब माहौल बनाने में वे कामयाब होते उस समय आंदोलन की अपील कर देते थे और जनता का जोश घटने लगता था, वे समझौता कर लेते या आंदोलन वापिस ले लेते थे। दूर जाने की आवश्यकता नहीं हाल ही में लोकपाल के लिए होने वाले आंदोलन या धरने के दौर में यही तो चल रहा था ।
दोनों को इस बात में पूरा भरोसा था कि लोकतंत्र की शांतिपूर्ण मांग पर न केवल भारत के लोगों को उठाया जा सकता है अपितु विश्व के समर्थन के साथ-साथ अंग्रेज नागरिकों का भी वैचारिक समर्थन मिलेगा । जो बाद में सच साबित हुआ । गांधी जी का चर्खा मानचेस्टर पर बम बन कर फूटता था मानचेस्टर की मीलों का तैयार माल जब नहीं बिकता था । तो वहां के मील मालिक छंटनी करते थे, छंटनी हुए कारीगर वहां के मंत्रियों और सरकार के नाक में दम कर दिया करते थे । ये सब बातें वहां के अखबारों की सुर्खियां बनती थी फलतः वहां के नागरिक भारत की आजादी के हक में माहौल बनता जा रहा था ये सब काम अन्य कार्यों से संभव नहीं था। दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त होते ही ब्रिटेन में आम चुनाव हुए । ब्रिटेन में उस वक्त दो प्रमुख राजनीतिक दल थे-- एक पार्टी जो सत्ता में थी उसका नाम है कंजरवेटिव । उस समय के प्रधानमंत्री और पार्टी के नेता विंस्टन चर्चिल थे जो भारत को किसी भी कीमत पर आजाद नहीं करना चाहते थे। दूसरी पार्टी के नेता थे एटली । एटली ने अपने चुनाव घोषणापत्र में भारत को आजाद करने का वायदा किया आपको हैरानी होगी जानकर ब्रिटेनवासियों ने भारी बहुमत से एटली की पार्टी को जिता दिया था ।
अपनी स्थापना के साल से 1947 तक आरएसएस ने कभी आजादी की लङाई लङने के लिए कभी कोई छोटा मोटा आंदोलन किया ? किया तो कहाँ पर किया ? उस आंदोलन का उस समय क्या प्रभाव पङा ? क्या आरएसएस ने किसी आजादी की लङाई के समर्थन में कोई साहित्यिक भूमिका निभाई ? उन रचनाओं और रचनाकारों के नाम क्या है ? गाँधी और नेहरू की सैद्धांतिक राजनीति अहिंसा की थी अतः उन्होंने भगतसिंह और किसी अन्य क्रांतिकारी के लिए न तो दलील और न ही अपील की लेकिन क्या आरएसएस ने उनके लिए पैरवी करने या करवाने का कोई प्रयास किया ? अगर नहीं किया तो क्यों नहीं किया गया ? चंद दो टूक बातें केवल गाँधी जी के लिए ही। गांधी जी ने अंग्रेजों की दलाली नहीं की । आजादी की लङाई लङने का गांधी जी ने कोई टेण्डर थोङे ही छुङवा लिया था । गोडसे के बाप या दादा को किसने रोका था कि आजादी की लङाई का नेतृत्व ना करें।
अक्सर गाँधी जी को कम्युनिस्ट लोग भी गाहे बगाहे पानी पी पीकर कोसते नजर आते रहते हैं उनसे बस इतना सा ही पूछ रहा हूँ साथियो गाँधी जी को गए सत्तर साल हो गए हैं काफी हाऊसों से निकल कर बियर बारों या पबों अथवा क्लबों में बैठकर क्रांति नहीं आएगी गाँधी जी को पढ़कर जमीनी स्तर पर जुङने की सोचिए । अभी आप लोग भी नेतृत्व की चालक सीटपर नहीं सवार हो पाए हो इसके लिए आपको गाँधीजी नहीं रोक रहे हो। मेरे या आपके बाप दादा या परदादा ने क्यों नहीं नेतृत्व किया उनको किसने रोका था। जाहिर सी बात है वे खुद ही इस लायक नहीं थे कि वे नेतृत्व कर सकें जिस दिन वे ये समझने की सामर्थ्य पा लेंगे गांधी जी को गाली देना बंद हो जायेगा।
गाँधी जी जिस वर्ग से थे उन्होने उस वर्ग से थोङा बहुत ही सही आगे बढ कर ईमानदारी से कार्य किया मेरा यह कहने कतई अर्थ नहीं है कि अन्य शहीदों का कम योगदान है । मैं यह कहना चाहता हूं कि आजादी की लङाई में गाँधी जी अफ्रीका से लौटने के पश्चात ही शामिल हुए वे उस वक्त 41 साल के थे और बाल बच्चेदार थे और कामयाब वकील थे फिर भी वे अपना व्यक्तिगत पेशा छोङकर पूरे देश में घूम रहे थे कभी कलकत्ता कभी लाहौर, कभी बिहार । बिहार का चंपारण आंदोलन तो प्रसिद्ध भी है उस समय आंदोलन का नेता बनने का मतलब क्या होता होगा जरा कल्पना कीजिए उस समय की जब किसी अफसर ने उनको चम्पारण छोङकर बाहर जाने का आदेश दिया हो और वहॉं के साथी वकील ( डाक्टर राजेंद्र प्रसाद) चले जाने के लिए राय दे रहे हों तब वहाँ उस शख्सियत ने अङियल रूख अपना कर उन लोगों को राहत दिलवाने में जो योगदान दिया वैसे योगदान की मिसाल कहाँ मिलेगी?
सीधी सी बात बिल्कुल साफ साफ गांधी जी ने जो भी किया दिल से किया ईमानदारी से किया । गांधी जी के किसी भी काम में दोगलापन नहीं है उसने स्कूल और कालेजों का बहिष्कार किया तो अपने बेटों का भी सरकारी स्कूल छुङवा दिया । कस्तूरबा गांधी जी का इन सब बातों के कारण गांधी जी का विरोध करती थी । यही सब सामाजिक काम करने वालों के भी अनुभव में शामिल रहता है । हमें, कम से कम मुझे तो अपने गांधी पर नाज है।
अति सुन्दर ब्याख्या , मैं इस बात का समर्थन करता हूँ , उस समय कि परिस्थितियाँ ऐसी थी कि जैसे आजकल गुण्डे का विरोध करना बहुत मुश्किल होता है वैसे ही अंग्रेजों का विरोध करना कठिन था लेकिन ये गांधी की ढृढ इच्छा शक्ति का नतीजा है कि देश आज आजाद है , लेकिन स्वतंत्र अभी भी नहीं है , उस स्वतंत्रता की लड़ाई आजकल हम लोग लड़ने जा रहे हैं ।
जवाब देंहटाएं100% correct interpretation. Sharing this post
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