गणेशशंकर विद्यार्थी और 'प्रताप': स्वाधीनता संघर्ष का स्वर्णिम अध्याय

अटल तिवारी

बीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जिन विभूतियों ने गति दी उसमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रिम पंक्ति के सेनानियों में है। विद्यार्थी जी ने सब कुछ दांव पर लगाकर आजादी के लिए पत्रकारिता को ध्येय बनाया। लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित किया। विद्यार्थी जी ने एक तरफ अपने साप्ताहिक अखबार ‘प्रताप’ के जरिए अंग्रेज सरकार को पग-पग पर चुनौती दी तो दूसरी ओर देश की सामंती ताकतों को कठघरे में खड़ा करने में भी लेश मात्र का संकोच नहीं किया। क्रांतिकारी एवं मुखर राजनीतिक विचारों को लेकर ‘प्रताप’ हिन्दी प्रदेश का ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत का प्रमुख अखबार बना। उसका राजनीतिक स्वर क्रांतिकारी था, लेकिन इसके साथ कांग्रेस की नीतियों का भी पक्षधर था। अपनी इस पत्रकारिता के कारण उस पर छापे, जमानत, जब्ती, चेतावनी, धमकी एवं संचालकों को कारावास तक झेलना पड़ा। इन परिस्थितियों में भी संपादक विद्यार्थी जी देश के उत्थान और आजादी की मशाल लिए पत्रकारिता के युद्ध क्षेत्र में डटे रहे। 

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उस समय अखबारनवीसी पेशा नहीं था। देश और समाज सेवा के लिए अखबार निकाले जाते थे। पत्रकारिता में वही लोग आते थे जो हर तरह के त्याग और बलिदान के लिए तैयार रहते थे। इसी भावना को केन्द्र में रखकर ‘प्रताप’ में समाचार, संपादकीय टिप्पणी, राजनीतिक लेख और कविताएं प्रकाशित होती थीं। विद्यार्थी जी अपने तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा व यशोदा नंदन के साथ मिलकर 9 नवम्बर 1913 को उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में ‘प्रताप’ की नींव डाली थी। जन्म काल से ही ‘प्रताप’ का दफ्तर क्रांतिकारियों की शरण स्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता के प्रशिक्षण केन्द्र की भूमिका निभाने लगा था। विद्यार्थी जी ने महज पाठकों के लिए ही नहीं लिखा बल्कि नए पत्रकार तैयार करने और पत्रकारिता को मिशन बनाने की दिशा में भी काम किया। ‘प्रताप’ के माध्यम से जनजागरण का अभियान चलाया। जन आंदोलन को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप बार-बार कारावास की सजा काटी। 

‘प्रताप’ के पहले अंक में पत्रकारिता की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए ‘प्रताप की नीति’ नामक लेख लिखा, ‘आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूर्ण विश्वास रख कर ‘प्रताप’ कर्मक्षेत्र में आता है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं।’ उन्होंने इस लेख में ‘प्रताप’ के उद्देश्य पाठकों के सामने रखे तो पत्रकारिता के जरिए वह किसका साथ देंगे और किसका साथ नहीं देंगे, इसका भी उल्लेख किया, ‘हम न्याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परन्तु अन्याय में दोनों में से किसी का भी नहीं। हमारी यह हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विविध जातियों, संप्रदायों और वर्णों में परस्पर मेल-मिलाप बढ़े।’ 

साप्ताहिक ‘प्रताप’ ने सामान्य अंक निकालने के साथ साल में एक-दो विशेषांकों का प्रकाशन शुरू किया तो पत्रकारिता में पुस्तिका प्रकाशन की एक अलग तरह की परम्परा शुरू की। विद्यार्थी जी ‘स्वतंत्रता देवी’ को केन्द्र बिन्दु मानकर पत्रकारिता कर रहे थे, जो अंग्रेज सरकार को रास नहीं आ रही थी। लिहाजा ‘प्रताप’ को लक्ष्य कर छापों और जब्ती का दौर शुरू हो गया। ‘प्रताप को शुरू हुए एक वर्ष हुआ था कि 24 अप्रैल 1915 को रात के समय ‘प्रताप’ के प्रेस और कार्यालय तथा विद्यार्थी जी और मिश्र जी के आवासों पर पुलिस ने छापा मारा। तलाशी ली। ग्राहकों का रजिस्टर व सामग्री की प्रतियां उठवा ली। पर ‘प्रताप’ का काम रुका नहीं। इसी बीच ठाकुर लक्ष्मण सिंह चैहान का ‘कुली प्रथा’ नामक नाटक ‘प्रताप’ से छपकर आया, जिसे सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया और प्रेस एक्ट के अन्तर्गत 1916 को प्रताप प्रेस से एक हजार रुपए की जमानत मांगी गई। कागज और कलम से अच्छी-खासी लड़ाई लड़ने के बाद अंततः जमानत दाखिल कर दी गई।’ ‘कुली प्रथा’ नाटक दूसरे देशों में प्रवासी भारतवासियों के शोषण और उनकी मांगें पूरी करने के लिए अभियान के तहत प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तिका के जरिए शासन से अनुरोध किया गया था कि उनके अधिकारों की रक्षा की जाए। अनुरोध ब्रिटिश शासन के लिए आघात बना। उसने नाटक वाली पुस्तिका जब्त कर ली। संचालक बिना किसी विचलन के अपने ध्येय में लगे रहे। 

‘प्रताप’ में समाचार, अग्रलेख, लेख के साथ-साथ देश प्रेम पर आधारित कविताएं भी प्रकाशित होती थीं। इसी के तहत 19 जून 1916 के अंक में ‘दासता’ नामक कविता छपी। अंग्रेज शासन की नजर पड़ी तो उस कविता को राजद्रोहपूर्ण बताकर ‘प्रताप’ पर जमानत की सजा लगा दी। संचालकों ने ‘न्यू इंडिया’ और ‘कामरेड’ अखबार का उदाहरण देते हुए जमानत न मांगे जाने की दलील दी। लेकिन अधिकारी ने जमानत न मांगे जाने की आज्ञा को निरस्त कर 2 नवम्बर 1916 को जमानत स्वीकार कर ली। घाटे के बावजूद ‘प्रताप’ के तेवर में किसी तरह की कमी नहीं आई। उसमें देश प्रेम पर केन्द्रित जोश भरी कविताएं और लेख छपते रहे। जमानत और जब्ती का जिस तरह से सिलसिला आगे बढ़ा उसी गति से लेखकों की कलम की रफ्तार तेज होती गई। ‘22 अप्रैल 1918 के ‘प्रताप’ में नानक सिंह ‘हमदम’ द्वारा रचित ‘सौदा-ए-वतन’ शीर्षक की कविता प्रकाशित हुई तब शासन बौखला गया। उसने उसे राजद्रोहपूर्ण घोषित किया। 1916 में प्रताप द्वारा एक हजार रुपए की जमा की हुई जमानत जब्त कर ली गई और आदेश दिया गया कि पहली जून 1918 की राजकीय विज्ञप्ति (जो 6 जून को प्रताप कार्यालय में प्राप्त की गई थी) के अनुसार पुनः जमानत दाखिल की जाए।’ 

जमानत जब्त होने से ‘प्रताप’ को गहरा धक्का लगा। दोबारा जमानत जमा करने तक अखबार का प्रकाशन जारी रखना संभव नहीं था और तत्काल एक हजार रुपए का इंतजाम भी नहीं हो सकता था। उसने नई नीति अपनाते हुए पाठकों की ‘अदालत’ में जाने का फैसला किया, जिन्होंने ‘प्रताप’ को लोकप्रियता के शिखर पर बिठा दिया था। ‘प्रताप’ के अगले ही अंक में उसने अपनी विपदा को निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया, ‘लगा घाव है अब कठिन रह-रह के होती चमक। रहा काम अब आपका मरहम रखिए या नमक।’ इसी अंक के साथ ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद हो गया। लेकिन चकित करने वाली बात यह कि पाठकों ने चंदा जमा करके जमानत के लिए धन एकत्र कर दिया। ‘8 जुलाई 1918 को अखबार का अगला अंक आया, जिसमें ‘प्रताप’ की दिलेरी और सरकार की दमन नीति का पूरा ब्योरा छापा गया। पाठकों-ग्राहकों और आम जनता पर इसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि लोग मुक्त हस्त से ‘प्रताप’ को आर्थिक सहयोग भेजने लगे और देखते-देखते आठ हजार रुपए का फंड एकत्र हो गया।’  

पाठकों का इस तरह सहयोग मिलते ही विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ की मिलकियत को सार्वजनिक संपत्ति घोषित कर दिया। इस प्रक्रिया के तहत ट्रस्ट का गठन किया गया। यह देखकर कानपुर के जिला अधिकारी ने चैंका देने वाला आदेश दिया, ‘मैं ‘प्रताप’ से जमानत न लेने का कोई कारण नहीं देखता। नए प्रिंटर (अर्थात श्रीयुत शिव नारायण मिश्र) का इस बदनाम (छवजवतपवने) पत्र से पुराना संबंध है। बीस मास के भीतर पत्र को दो बार चेतावनी दी गई और एक बार उसकी 1000 रुपए की जमानत जब्त की गई। पहले प्रिंटर (अर्थात् गणेशशंकर विद्यार्थी) ने, जो कमेटी (ट्रस्ट) में है, हाल में (कानपुर में) होने वाली हड़तालों में विशेष भाग लिया है और आजकल के उपद्रव के समय में यह आवश्यक है कि समाचार पत्रों पर कड़ा अंकुश रखा जाए। इसलिए मैं 2000 रुपए की जमानत मांगता हूं और प्रकाशक को चेतावनी देता हूं कि उसे पत्र प्रकाशित करने की अनुमति उस समय तक नहीं है, जब तक कि वह मेरी अदालत में जमानत दाखिल न कर दे।’ ‘प्रताप’ ने नियम की धज्जियां उड़ाने वाले इस आदेश का भी पालन किया। दो हजार रुपए की जमानत जमा कर दी। इसी के साथ अब ‘प्रताप’ पाठकों का अखबार हो गया। 

इस घटना के बाद नए तरह की मुसीबत सामने थी। अभी तक महज पुलिस के छापों-तलाशियों और जमानत जब्ती का ही सिलसिला चल रहा था। नए घटनाक्रम में मानहानि के मुकदमों और जेल यात्राओं का दौर शुरू हो गया। इस नई चुनौती के तहत विद्यार्थी जी ने अपने जीवन में पांच जेल यात्राएं कीं। इनमें तीन उन्हें ‘प्रताप’ की पत्रकारिता और दो राजनीतिक भाषणों के कारण करनी पड़ीं। ‘प्रताप’ पर पहला अदालती मामला रायबरेली गोलीकांड का आंखों देखा विवरण छापने के कारण चला। ‘विद्यार्थी जी सामन्ती बर्बरता के विरुद्ध किसानों के संघर्ष के लेखनी से भी समर्थक थे (उनकी पहली जेल-यात्रा का कारण सामन्ती अत्याचार के विरुद्ध उनकी एक रपट बनी थी) और सक्रिय भागीदार भी। लेकिन साथ ही वे कानपुर के औद्योगिक परिवेश में रहते हुए मजदूर वर्ग की नारकीय स्थिति और उसकी संगठित शक्ति की अपरिमित सम्भावनाओं से भी परिचित हो चुके थे। भूलना नहीं होगा कि कानपुर में वाजिब मजदूरी के सवाल को उन्होंने 1919 में उठाया था और पच्चीस हजार मजदूरों की हड़ताल का सफल नेतृत्व किया था।’ 

अपनी इन्हीं भावनाओं के तहत पत्रकारिता करने वाले ‘प्रताप’ को सात साल की यात्रा में पाठकों को अपार प्रेम मिला। अंग्रेज सरकार की छापों, जब्ती, चेतावनी का संचालकों पर लेस मात्र का असर नहीं पड़ा। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1919 में इस साप्ताहिक की प्रसार संख्या नौ हजार (9,000) थी। इस तरह साप्ताहिक ‘प्रताप’ की यात्रा 23 नवम्बर 1920 को दैनिक तक पहुंची। ‘साप्ताहिक की तरह ही दैनिक ‘प्रताप’ भी राष्ट्रवादी था और निरंकुश तथा अत्याचारी शासकों का घोर विरोधी था। उसकी यह नीति ही उसका सबसे बड़ा अपराध (?) था, जिसका कुपरिणाम उसे भुगतना पड़ा। सरकार और नौकरशाही के अतिरिक्त देशी रियासतों की भी उस पर कृपा हुई और सात-आठ रियासतों ने अपने राज्य में ‘प्रताप’ का जाना बन्द कर दिया।’  

इस समय तक ‘प्रताप’ हिंदी प्रदेश के किसानों व मजदूरों के अनवरत संघर्ष का वाहक बन गया था। यह वह समय था जब उत्तर भारत में ताल्लुकेदारों द्वारा किसानों का शोषण चरम पर था। किसान आजिज आ चुके थे। अवध क्षेत्र के अनेक जिलों में एकजुट होकर किसानों ने विद्रोह कर दिया। रायबरेली में जमींदार सरदार वीरपाल सिंह ने किसान आंदोलन को कुचलने के लिए गोली चलवा दी। इसमें कई किसान मारे गए और बहुत से जख्मी हो गए। किसानों की गिरफ्तारियां होने लगीं। सरकार और जमींदारों के दमन के इस प्रवाह में विद्यार्थी जी की लेखनी आग उगल रही थी। उन्होंने किसानों पर हुए अत्याचार की तुलना अमृतसर के जलियांवाला बाग हत्याकांड से की। दैनिक ‘प्रताप’ के 13 जनवरी 1921 के अंक में ‘डायरशाही और ओडायरशाही’ नामक अग्रलेख लिखा। ‘प्रताप’ का किसानों का साथ देने से जहां सरकार की कुदृष्टि उस पर पड़ी वहीं स्थानीय ताल्लुकेदार भी उससे खफा हो गए। अखबार में प्रकाशित सामग्री को अपने लिए अपमानजनक मानकर वीरपाल सिंह ने दैनिक ‘प्रताप’ पर मानहानि का मुकदमा कर दिया। इस मुकदमे ने बड़ा राजनैतिक रूप धारण कर लिया। बचाव पक्ष से 50 गवाह प्रस्तुत हुए। इनमें पं. मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, श्रीकृष्ण मेहता एवं डा. अवन्तिका प्रसाद जैसे राष्ट्रीय नेता भी शामिल थे। सेशन अदालत तक मामला गया, लेकिन फैसला ‘प्रताप’ के विरुद्ध रहा। ‘संपादक गणेश शंकर और प्रकाशक शिव नारायण मिश्र को तीन-तीन माह की कैद तथा पांच-पांच सौ रुपया जुर्माने का दण्ड मिला। 

जिन दिनों रायबरेली मानहानि का मुकदमा विद्यार्थी जी और मिश्र जी पर चल रहा था, नौकरशाही ने ‘प्रताप’ पर एक और प्रहार किया। 27 अप्रैल 1921 को गणेश शंकर विद्यार्थी और शिव नारायण मिश्र से क्रमशः पांच-पांच हजार रुपए के मुचलके और दस-दस हजार रुपए की दो जमानतें देने का आदेश दिया गया। इसका कारण बताया गया कि रायबरेली और फैजाबाद के किसानों की अशान्ति के सम्बन्ध में लेख लिख और प्रकाशित कर राजद्रोह का प्रचार किया गया तथा सम्राट की प्रजा में द्वेष फैलाया गया।’  अंग्रेज सरकार ने संपादक विद्यार्थी जी और मुद्रक शिव नारायण मिश्र के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत दफा 108 में सम्मन जारी किया। सम्मन मिलते ही हालात पर विचार करने के लिए ‘प्रताप’ के ट्रस्टियों ने बैठक की, जिसमें विद्यार्थी जी ने संपादक पद से इस्तीफा दे दिया। वह नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से ‘प्रताप’ को 15 हजार रुपए का बड़ा जोखिम उठाना पड़े। प्रकाशक शिव नारायण मिश्र ने सम्मन मिलने के तीन दिन पहले ही संबंधित मजिस्टेªट के यहां सूचना दे दी कि वह ‘प्रताप’ के मुद्रक और प्रकाशक नहीं रहे। उनकी घोषणा स्वीकार कर ली गई। अगले ही दिन कृष्णदत्त पालीवाल ने मुद्रक एवं प्रकाशक के रूप में नया घोषणा पत्र दाखिल कर दिया। ऐसा करने से साप्ताहिक ‘प्रताप’ एक भी दिन बंद नहीं हुआ। विद्यार्थी जी और शिव नारायण मिश्र ने ‘प्रताप’ के हितों की रक्षा के लिए अपने को अलग कर लिया, जिससे उनकी ओर से दफा 108 के तहत मुचलके भरने, जमानत जमा करने या नहीं करने पर भी ‘प्रताप’ की संपत्ति पर आंच न आए। फिर भी उनका मत था कि उन पर लगाए गए आरोप उन्हें दफा 108 के तहत अभियुक्त बनाने के लिए उपयुक्त नहीं थे। इसी कारण रायबरेली की अदालत में (जिसमें उन पर मानहानि का मुकदमा चल रहा था) उन्होंने अपना बचाव करना उचित नहीं समझा। ‘प्रताप’ के ट्रस्टियों ने विद्यार्थी जी का त्याग पत्र स्वीकार नहीं किया। इसके बदले उनका एक साल का अवकाश स्वीकृत कर दिया। 

‘रायबरेली अदालत में जब गणेश शंकर विद्यार्थी को राजद्रोहपूर्ण एवं भड़काने वाले लेख लिखने पर प्रथम बार दंडित किया गया था तब भी उन्हें केवल एक घंटे बाद ही रिहा करा लिया गया था। उनके मित्रों एवं शुभचिंतकों ने उनकी तुरंत जमानत जमा करा दी थी। परंतु कानपुर पहुंचने पर गणेश शंकर विद्यार्थी को दफा 108 के अंतर्गत रायबरेली से सम्मन मिला तो वह उसकी अवहेलना करने पर उतारू हो गए। उन्होंने तुरंत संबंधित मजिस्टेªट को लिखा कि 23 मई 1921 को जब उनकी जमानत ली गई थी तब उनसे पूछा नहीं गया था। उन्होंने जिला अधिकारी से निवेदन किया कि वह उस जमानत को निरस्त समझें। वह जेल जाने को भी उद्यत हो गए। शुभचिंतकों के समझाने-बुझाने के बावजूद उन्होंने 16 अक्तूबर 1921 को अपने को स्थानीय अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया।’  

दरअसल जाने अनजाने विद्यार्थी जी ने उस समय वही काम किया जो अंग्रेज शासन चाहता था। रायबरेली मुकदमे में व्यस्त होने के कारण विद्यार्थी जी ने दैनिक ‘प्रताप’ का संपादन छोड़ दिया था। इस दौरान कृष्णदत्त पालीवाल संपादक की जिम्मेदारी निभा रहे थे। मुकदमे के दौरान परिस्थतियां विषम होती चली गईं। मामला इतना खर्चीला साबित हुआ कि दैनिक ‘प्रताप’ को बचाया नहीं जा सका। आखिरकार 6 जुलाई 1921 का अंक निकालने के बाद ‘प्रताप’ के संचालकों को बेमन दैनिक संस्करण बंद करने का फैसला लेना पड़ा। अंग्रेज शासन यही तो चाहता था। भारत में अंग्रेजी शासन की चापलूसी करने वाले एंग्लो इंडियन अखबार और लंदन के सभी समाचार पत्र रायबरेली हत्याकांड को लेकर दहशतजदा थे। उन्हें इसकी आड़ में क्रान्ति की आशंका दिख रही थी। ऐसे में भारतीय अंग्रेज सरकार व कानपुर के अधिकारियों ने मौके का लाभ उठाते हुए विद्यार्थी जी को 25 अक्तूबर को लखनऊ के केंद्रीय कारागार पहुंचा दिया। रायबरेली मुकदमे में उन्हें तीन माह की सजा मिली। इसलिए लखनऊ की उच्च अदालत में उनकी अपील 1 फरवरी 1922 तक सुनवाई के लिए पड़ी रही। विद्यार्थी जी को कारागार में ही सूचना मिली कि उनकी अपील निरस्त हो चुकी है और उनकी सजा बहाल रही, लेकिन उनके वकील ने सूचित किया कि चूंकि वह सजा दफा 108 के तहत प्रदत्त सजा के समानांतर ही चलेगी इसलिए अपील निरस्त होने का किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ेगा। सजा पूरी करने पर विद्यार्थी जी जिला कारागार लखनऊ से 22 मई 1922 को रिहा किए गए। इस अवधि में उन्हें आरंभ में दस दिन कानपुर जिला जेल, फिर केंद्रीय कारागार लखनऊ तो अंत में जिला जेल लखनऊ में अन्य सत्याग्रही साथी पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपलानी आदि के साथ रखा गया। इस पहली जेल यात्रा के दौरान विद्यार्थी जी ने जेल डायरी लिखी। इसी के आधार पर ‘जेल जीवन की झलक’ नाम से संस्मरणपरक लेखमाला ‘प्रताप’ के बारह अंकों में लिखी। ‘दोनों लोगों पर दो-दो अभियोग थे, अतः उन पर अलग-अलग 3-3 महीने की सादी कैद और पांच-पांच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। इसके अलावा मुकदमे के ही दौरान दोनों सज्जनों से सरकार ने नेकचलनी के नाम पर एक साल के लिए पांच-पांच हजार के मुचलके और दस-दस हजार की जमानतें भी मांगी थीं। इसी सिलसिले में पहली बार 30 जुलाई 1921 को कुछ घंटों के लिए और दोबारा 16 अक्तूबर 1921 से 22 मई 1922 तक विद्यार्थी जी को जेल में रहना पड़ा।’ 

रायबरेली मानहानि केस में प्रताप को हार का सामना अवश्य करना पड़ा। काफी धन और समय भी लगा। लेकिन वह अपने इस उद्देश्य में सफल रहा कि रायबरेली हत्याकांड के जरिए उसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और देश के भीतर की जनविरोधी सामंती ताकतों की साठ-गांठ का सच पूरी दुनिया के सामने उजागर कर दिया। लोग बाग किसानों की बदहाली से परिचित हुए। एक तरह से ‘रायबरेली केस की जमानत और मुचलका रद्द करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी जेल गए। वह हारकर भी जीत गए। ‘प्रताप’ के आइने में विदेशी हुकूमत की निर्लज्जता खुलकर सामने आ गई। उसके बाद हुकूमत हर तरह की ‘थेथरई’ पर उतरी। गणेश शंकर के लिए जेल घर-आंगन बन गया। लेकिन 1931 तक साप्ताहिक ‘प्रताप’ कभी बंद नहीं हुआ। 1923-1931 तक ‘प्रताप’ ने हिन्दी पत्रकारिता का फिर एक नया इतिहास रचा-पहले से सर्वथा नया तथा रोमांचक! तूफान उठाने से लेकर बलिदान देने तक का ऐसा इतिहास, जो आज तक अपने में अकेली मिसाल है।’ 

‘प्रताप’ को दूसरा मामला मैनपुरी मानहानि केस (12 अगस्त 1926 से 17 नवम्बर 1926) लड़ना पड़ा। ‘यह मामला शिकोहाबाद के थानेदार की रिश्वतखोरी की खबरें छापने के कारण बना था और इसमें भी अभियुक्त संपादक और मुद्रक-प्रकाशक ही थे। संपादक अभी भी विद्यार्थी जी थे, लेकिन मुद्रक-प्रकाशक इस बार मिश्र जी नहीं बल्कि सुरेन्द्र शर्मा थे। 41 गवाहों के बयान दिए गए, उस थानेदार की रिश्वतखोरी के 13 मामले पेश किए गए, लेकिन दोषी इस बार भी अदालत को ‘प्रताप’ के संपादक-प्रकाशक ही नजर आए। दोनों अभियुक्तों को चार-चार सौ रुपए जुर्माना और छह-छह महीने जेल की सजा सुनाई गई। फैसला सुनकर विद्यार्थी जी ने मजिस्टेªट से कहा-हमारे साथ घोर अन्याय हुआ है। हम जुर्माना न देकर जेल जाने को तैयार हैं ताकि दुनिया आपके इंसाफ का नमूना देख ले।’  इस मानहानि के मामले में विद्यार्थी जी और सुरेन्द्र जी जेल चले गए। लेकिन पाठकों को उनका जेल जाना मंजूर नहीं था। ऐसी हालत में उन्होंने जुर्माने की रकम अदा कर संपादक-प्रकाशक को 24 घंटे में ही जेल से छुड़ा लिया। साथ ही मामले की अपील सेशन अदालत में करने का फैसला लिया गया। उक्त अदालत से भी वही फैसला बहाल रहा तब उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया, जिसने दोनों को निर्दोष करार देते हुए बाइज्जत बरी कर दिया। 

‘प्रताप’ पर तीसरा मानहानि का मामला 1928 में साईंखेड़ा मानहानि केस के नाम से चला, जो एक महंत व उसके चेले के ढोंग एवं कुकृत्यों का भंडाफोड़ करने वाला लेख प्रकाशित करने पर बना था। यह मामला आगे बढ़ता उसके पहले ही ‘प्रताप’ के कुछ शुभेच्छुओं की मध्यस्थता से यह बीच में ही समाप्त हो गया। विद्यार्थी जी सही तथ्य प्रकाशित होने पर अपने पक्ष को लेकर जितना अधिक अडिग रहते थे उसी तरह गलत तथ्य प्रकाशित होने पर खेद प्रकाश छापने में भी लेश मात्र का संकोच नहीं करते थे। एक तरह से अखबारों में भूल सुधार की प्रक्रिया भारतीय पत्रकारिता में उसी दौरान शुरू हुई। साईंखेड़ा मामले के दौरान इलाहाबाद की नैनी जेल में कैदियों के साथ हो रहे दुव्र्यवहार को लेकर प्रताप में एक नोट छपा, जिसे लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मानहानि का नोटिस भेजा। इस मामले में चूक प्रताप के ही संपादन विभाग की थी। ऐसे में बिना किसी देरी के ‘प्रताप’ ने अपनी भूल स्वीकार कर ली और मात्र खेद प्रकाश से ही मामला समाप्त हो गया। इन मामलों से साफ हो जाता है कि विद्यार्थी जी व ‘प्रताप’ महज हवा में ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे बल्कि ऐसे सभी तत्वों को निशाना बना रहे थे, जो सामंती, नौकरशाही व पाखंडवाद के सरगना के रूप में देश की जनता का शोषण और उत्पीड़न कर रहे थे। 

रायबरेली और मैनपुरी वाले मामलों में तथा दफा 108 के जमानत-मुचलकों के सिलसिले में विद्यार्थी जी को तीन जेल यात्राओं के अलावा दो बार 10-10 महीने की जेल यात्राएं (नैनी व हरदोई जेल) उन्हें कांग्रेस नेता की हैसियत से फतेहपुर और कानपुर में व्याख्यान देने के कारण काटनी पड़ीं। लखनऊ जेल यात्रा के दौरान 1922 में उन्होंने फ्रांस की राज्य क्रान्ति वाली पृष्ठभूमि की विक्टर ह्यूगो की कृति ‘नाइंटी थ्री’ का ‘बलिदान’ नाम से अनुवाद किया तो अंतिम जेल यात्रा में अपनी एक कहानी ‘हाथी की फांसी’ लिखी। विद्यार्थी जी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की राह के अनुगामी थे। तिलक के बाद राष्ट्रीय आंदोलन व कांग्रेस के मंच पर गांधी के नेतृत्व को स्वीकार अवश्य किया, लेकिन उनकी सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। इसी कारण अहिंसा के सवाल पर उन्होंने कहा कि ‘मैं नाॅन-वायलेंस (अहिंसा) को शुरू से अपनी पाॅलिसी मानता रहा हूं, धर्म नहीं मानता रहा। मैंने अपने व्याख्यान में यह दिखाया कि मनसा और कर्मणा, अहिंसा साधारण मनुष्यों का सहज स्वभाव नहीं है और इसीलिए राजनीतिक संग्राम में उसे अपना साधारण हथियार नहीं बनाया जा सकता।’  यह बात उन्होंने 1922-23 के दौरान फतेहपुर में सभापति पद से दिए गए अपने भाषण के सिलसिले में अदालत के सामने कही थी। इसी मामले में दफा 124 ए के अभियोग में उन्हें एक साल की सजा और 100 रुपए जुर्माना हुआ था। एक तरह से वह गांधी के अहिंसक नेतृत्व और भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के बीच खड़े थे। ‘गणेश शंकर विद्यार्थी ने देश की आजादी का जो सपना अपने मन में संजो रखा था, उसका वितान कांग्रेस के मध्यमार्गी नेतृत्व से बहुत आगे तक तना था। कांग्रेस के पूंजीवादी मानसिकता के नेतागण जहां देशी सामंतों के अत्याचारों की अनदेखी करने में ही अपना हित समझते थे, गणेश शंकर विद्यार्थी उनसे टकराते थे और लहूलुहान होते थे, लेकिन हार नहीं मानते थे। रायबरेली के सामंत द्वारा स्थानीय किसानों पर किया गया गोलीकांड हो, चंपारन के निलहे गोरों के अत्याचार हों या बिजोलिया के गरीब किसानों का शोषण-सर्वत्र गणेश जी अपना सीना खोलकर आगे खड़े दिखाई दिए।’  इसी कारण ‘प्रताप’ अपने सफर में किसानों एवं मजदूरों की आवाज बना। उनके आंदोलनों में हमराही की भूमिका में खड़ा हुआ। अपने निर्भीक लेखन, राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में भागीदारी के चलते विद्यार्थी जी को सत्ता के कोप और प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। 

विद्यार्थी जी प्रेस की आजादी के कट्टर पक्षधर थे। इसके लिए तीन बार उन्हें जेल जाना पड़ा। अनेक बार ‘प्रताप’ पर छापे पड़े। जमानतें मांगी गईं और अखबार का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। ‘शुरू के 18 सालों के दौरान लगभग 45,000 रुपए विद्यार्थी जी और ‘प्रताप’ को जमानत के बतौर भरने पड़े। प्रेस की आजादी और अखबारांे के सरकारी दमन का जब-जब सवाल उठा, विद्यार्थी जी ने उसका प्रखर विरोध किया, चाहे वह उनके अपने अखबार का मामला हो या अन्य अखबारों का। प्रेस की आजादी के सवाल पर उनका ‘दूसरा कृपाण’ शीर्षक लेख 29 मार्च 1914 को प्रकाशित हुआ था। प्रेस एक्ट की तलवार तो देसी अखबारों पर लटक ही रही थी कि अचानक अखबारों की आवाज को और अधिक दबाने के इरादे से ‘कन्टेम्प्ट आॅफ कोर्ट’ का कानून लाद दिया गया। उसी नए कानून को विद्यार्थी जी ने इस लेख में दूसरा कृपाण कहा है।’  विद्यार्थी जी कहते थे कि पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है। वह जो लिखे, प्रमाण और परिणाम का विचार रखकर लिखे और अपनी गति-मति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे। पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं, लोकसेवा उसका ध्येय है। अपनी शहादत के महज दो सप्ताह पहले विद्यार्थी जी हरदोई जेल (25 मई 1930 से 9 मार्च 1931 तक) से दफा 117 के तहत एक साल की सख्त कैद की सजा काटकर बाहर आए थे। यह सजा कानपुर में आयोजित कांग्रेस के प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में प्रदेश के प्रथम डिक्टेटर के नाते दिए गए भाषण के कारण काटनी पड़ी थी। यह उनकी पांचवीं जेल यात्रा थी। जेल से आने के बाद वह ‘प्रताप’ के महज एक अंक का संपादन कर पाए थे कि इसी बीच अंग्रेज सरकार ने क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया। यह समाचार सुनकर गणेश जी काफी बेचैन हो गए। देश के अनेक नगरों में दंगा फसाद हो रहा था। कानुपर में भी दंगा भड़क गया। पुलिस इन दंगों को रोकने के बजाय मूक बनी रही। यह देखते हुए विद्यार्थी जी दंगे की आग शांत कराने के लिए मैदान में कूद पड़े। अपने कुछ साथियों के साथ हिन्दू इलाके में फंसे मुस्लिमों को निकालते तो मुस्लिम इलाकों के बीच फंसे हिन्दुओं को निकालते। यही प्रयास करते हुए वह 25 मार्च को कुछ फसादी तत्वों का शिकार बन गए और देश के नाम पर शहीद हो गए। देश और समाज के प्रति यह उनकी निर्भीक प्रतिबद्धता ही थी, जिसके चलते वह दिन-रात घूमकर कानपुर में भड़के साम्प्रदायिक दंगे की आग को बुझाने की कोशिश करते साम्प्रदायिक उन्मादी भीड़ के हाथों मारे गए। उनकी शहादत का समाचार कराची में चल रहे कांग्रेस के अधिवेशन में पहुंचा तो सभी दंग रह गए। अखबारों ने विद्यार्थी जी को श्रद्धांजलि देते हुए लेख प्रकाशित किए तो कुछ ने क्षोभ व्यक्त किया। गांधी जी ने ‘प्रताप’ के संयुक्त संपादक को तार भेजा-‘कलेजा फट रहा है तो भी गणेश शंकर की इतनी शानदार मृत्यु के लिए शोक-संदेश नहीं दूंगा। उनका परिवार शोक-संदेश का नहीं, बधाई का पात्र है। इसकी मिसाल अनुकरणीय सिद्ध हो।’ अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में लिखा, ‘उनके अनोखे दृष्टांत से हमें सब्र की प्रेरणा मिले। कानपुर की इस शर्मनाक घटना से हमें सबक सीखना चाहिए, ताकि हम यह अनुभव कर सकें कि स्थानीय शांति-स्थापना के लिए यदि तीन सौ स्त्री-पुरुषों का भी बलिदान हो जाता तो ज्यादा महंगा नहीं था।’  विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ का संपादन करते हुए साहित्य, संस्कृति और राजनीति को राष्ट्रीय आंदोलन का घटक माना। एक उत्कृष्ट पत्रकार, ओजस्वी वक्ता और निर्भीक सेनानी के रूप में वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में ऐसे स्तम्भ हैं, जिनसे आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहेंगी। ‘प्रताप’ के माध्यम से उनका योगदान सदैव स्मरणीय और प्रेरणाप्रद रहेगा। 

(लेखक राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के संयोजक हैं.)

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