मौलाना आज़ाद ज़िन्दाबाद
मिनहाज़ अहमद
मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद की ज़िंदगी क्या थी और इन्होंने हिन्दुस्तानी क़ौम को क्या पैग़ाम दिया था । मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद की ज़ात गिरामी किसी तआरुफ़ की मोहताज नहीं । उनका शुमार बीसवीं सदी के अज़ीम एल्मर तिब्बत शख़्सियात में किया जाता है । मौलाना की शख़्सियत मुख़्तलिफ़ रंगों की आईना-ए-दार थी । उनकी ज़ात में क़ुदरत ने बैयकवक़त बहुत सी ख़सुसीआत जमा कर दी थीं । वो आलम दीन भी थे और मुफ़स्सिर क़ुरआन भी । वो ख़तीब भी थे और मुफ़कर भी वो मुदीर भी थे और दानिश्वर भी वो एक सियासत दां भी थे , सहाफ़ी भी और शोला बयान मुक़र्रर भी । आपकी तक़रीर में ऐसी दिल-कशी थी कि सामईन मस्हूर हो कर रह जाते । दिलचस्प बात ये है कि ये कहना मुश्किल है कि इन की कौनसी ख़ुसूसीयत बाक़ी तमाम ख़सुसीआत पर हावी थीं । आपकी ज़िंदगी मुसलसल जहद-ओ-अमल से इबारत है ।
अपनी बेशुमार ख़ूबीयों और सलाहीयतों की बुनियाद पर उन को अमामु उल-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा गया । वो अपनी ज़ात मैं ख़ुद एक अंजुमन थे, मिल्लत का दर्द उन के सीने में पिनहां था , वो सच्चे मुहब वतन , मुसलम क़ौम परस्त और जद्द-ओ-जहद आज़ादी के अलमबरदार थे । मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद ने सैकूलर हिंदुस्तान की तामीर में अहम किरदार अदा किया है । उन्होंने आज़ादी के हुसूल के लिए क़ौमी यकजहती के उसूल को फ़रोग़ दिया , मौलाना ने हिंदू मुसलम इत्तिहाद , मुशतर्का तहज़ीब और मुत्तहदा क़ौमीयत की हिफ़ाज़त को हमेशा अव्वलीन तर्जीह दी । मुल्क की आज़ादी के लिए उन्होंने अलहिलाल और अलबलाग़ अख़बार के ज़रीया अवाम-ओ-ख़वास तक आज़ादी का पैग़ाम पहुंचाया उन की तहरीर का जादू ये था कि आज़ादी की तहरीक अवामी तहरीक बन गई और लोग दिल-ओ-जान से इसमें शरीक होने लगे ।
सयासी नुक़्ता-ए-नज़र से जब हम मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद की ज़िंदगी का मुताला करते हैं तो हमें मालूम होता है कि आपकी सयासी ज़िंदगी जज़्बा-ए-हुब अलोतनी से पर थी वो क़ौमों के दरमयान मुहब्बत और भाई चारा का जज़बा रखते थे । उन्होंने हिंदुस्तान की सलामती और आज़ादी के लिए जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा लेकर अंग्रेज़ हुकमरानों का जवाँमर्दी और बहादुरी के साथ मुक़ाबला किया ।नज़रियाती तौर पर वो तकसीम-ए-हिंद के मुख़ालिफ़ थे। हिन्दोस्तान की तक़सीम के ख़िलाफ़ मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद ने जो सख़्त रवैय्या अपना या था उस के सबब उन्हें ना सिर्फ हिन्दोस्तान बल्कि आलमी तारीख़ में एक अहम मुक़ाम हासिल है । उनकी ख़्वाहिश थी कि हमारा मुल़्क हिन्दोस्तान गंगा जमुनी तहज़ीब की ऐसी मिसाल हो जो दुनिया में कहीं ना हो । इन्होंने तकसीम-ए-हिंद को रोकने के लिए अपनी तहरीर और तक़रीर के ज़रीया अपने करब और अपनी आवाज़ को हर हिन्दुस्तानी तक पहुंचाने की कोशिश की । खासतौर पर वो मुसलमान जो पाकिस्तान के क़ियाम के हामी थे और हिज्रत के लिए तैयार हो गए थे उन को बहुत आमादा करने की कोशिश की और कहा कि तुमने हिन्दोस्तान को आज़ाद कराने के लिए अज़ीम क़ुर्बानियां दीं । अपने मुल्क हिन्दोस्तान को छोड़कर मत जाओ ये मुल़्क तुम्हारा है , उसकी आज़ादी और तरक़्क़ी मैं तुम्हारी हिस्सादारी है ।
इन्होंने उस मौके पर दिल्ली की शाही मस्जिद में अपने ख़िताब के दौरान अपने जज़बात का इज़हार करते हुए कहा कि : आज अगर एक फ़रिश्ता आसमान की बदलियों से उतर आए और क़ुतब मीनार पर खड़े हो कर ये ऐलान कर दे कि सवो राज (आज़ादी) 24 घंटे के अंदर मिल सकता है , बशर्ति के हिंदुस्तान हिंदू मुसलम इत्तिहाद से दस्तबरदार हो जाये , तो मैं सवो राज से दस्तबरदार हो जाऊँगा मगर आपसी इत्तिहाद से दस्तबरदार ना होऊंगा । क्योंकि अगर सौ-ओ-राज के मिलने में ताख़ीर हुई तो ये हिन्दोस्तान का नुक़्सान होगा , लेकिन अगर हमारा इत्तिहाद जाता रहा तो ये आलमएइन्सानियत का नुक़्सान है । मौलाना की तक़रीर के इस इक़तिबास से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वो बकाए बाहम और क़ौमी यकजहती को कितना अहम समझते थे । मगर अफ़सोस मौलाना का ये ख़ाब शर्मिंदा-ए-ताबीर ना हो सका और ना सिर्फ ये कि हिन्दोस्तान तक़सीम हुआ बल्कि मुस्लमान तक़सीम हो गया । जिस पर उन के जज़बात ये थे :तुम्हें याद है मैंने तुम्हें पुकारा । तुमने मेरी ज़बान काट ली , मैंने क़लम उठाया और तुमने मेरे हाथ क़लम करदिए, मैंने चलना चाहा तुमने मेरे पांव काट दिए । मैंने करवट लेनी चाही तुमने मेरी कमर तोड़ दी। ये फ़रार की ज़िंदगी जो तुमने हिज्रत के मुक़द्दस नाम पर इख़तियार की है इस पर ग़ौर करो , अपने दिलों को मज़बूत बनाओ और अपने दिमाग़ों को सोचने की आदत डालो । अज़ीज़ो तबदीलीयों के साथ चलो ये ना कहो कि हम इस तबदीली के लिए तैयार ना थे बल्कि अब तैयार होजाओ । सितारे टूट गए लेकिन सूरज तो चमक रहा है । इस से किरणे मांग लू और उन को अँधेरी राहों में बिछा दो-जहाँ उजाले की सख़्त ज़रूरत है । यहां ये बात काबिल-ए-ज़िक्र है कि मौलाना हिंदू मुसलम इत्तिहाद के ज़बरदस्त हामी थे । उन्होंने अपने इस नज़र ये का इज़हार तहरीरों के ज़रीया भी किया और तक़रीरों के ज़रीया भी । मौलाना की मशहूर तक़रीर जिससे उन के दिल में इस्लाम और हिन्दोस्तान दोनों से मुहब्बत का इज़हार होता था गांधी जी को बहुत पसंद थी जिसमें मौलाना ने कहा था कि मैं मुस्लमान हूँ और फक्रके साथ महसूस करता हूँ कि मुस्लमान हूँ , इस्लाम की तेराह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरे विरसे में आई हैं । मैं तैयार नहीं कि इस का छोटे से छोटा हिस्सा भी ज़ाए होने दूं । इस्लाम की तालीम इस्लाम की तारीख़ , इस्लाम के उलूम-ओ-फ़नून , इस्लाम की तहज़ीब मेरी दौलत का सरमाया है और मेरा फ़र्ज़ है कि में इस की हिफ़ाज़त करूँ । लेकिन इन तमाम एहसासात के साथ एक और एहसास भी रखता हूँ जिसे मेरी ज़िंदगी की हक़ीक़तों ने पैदा किया है । मैं फक्रके साथ महसूस करता हूँ कि मैं हिन्दुस्तानी हूँ , मैं हिन्दोस्तान की एक और ना-काबिल तक़सीम मुत्तहिद क़ौमीयत का एक अंसर हूँ । मौलाना के इन अलफ़ाज़ से ये बख़ूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वो हिंदू मुसलम इत्तिहाद के कितने बड़े हामी थे । मौलाना ने आज़ादी की जद्द-ओ-जहद में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया , आज़ादी की जंग में वो महात्मा गांधी के साथ शरीक रहे । जनवरी1920 को मौलाना आज़ाद का महात्मा गांधी से राब्ता हुआ । आप गांधी जी के ख़्यालात से काफ़ी मुतास्सिर हुए और गांधी जी की क्या दत्त में जद्द-ओ-जहद आज़ादी में मसरूफ़ हो गए ।
मौलाना आज़ाद 1940 - 1946 तक इंडियन नैशनल कांग्रेस के सदर रहे । इस अरसा में इन्होंने आईनी तात्तुल दूर करने और फ़िर्कावाराना यकजहती के क़ियाम के लिए अनथक कोशिशें कीं । मौलाना का एक कारनामा ये भी है कि पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के आर्किटेक्चर जदीद हिन्दोस्तान की तामीर में आपकी ख़िदमात ना-काबिल फ़रामोश हैं । कांग्रेस पार्टी में शमूलीयत के बाद मौलाना कई मर्तबा जेल गए , मुल्क की आज़ादी के लिए उन्हों नेकईबरस तक जेल की सऊबतें बर्दाश्त कीं । लेकिन इस से ना तो आपके अज़म-ओ-इस्तिक़लाल में कोई कमी आई और ना ही आपके दिल से वतन की मुहब्बत का जज़बा कम हो सका । आपकी कोशिशों का नतीजा ये हुआ कि पूरा मुलक बुला तख़सीस मज़हब-ओ-मिल्लत जद्द-ओ-जहद आज़ादी में शामिल हुआ । अंजाम-कार आज़ादी के मत्वालों की तहरीक रंग लाई और हमारा मुल़्क हिन्दोस्तान आज़ादी की नेअमत से सरफ़राज़ हो गया । उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी नाकामी ये थी कि वो तक़सीम को ना रोक सके । हिंद-ओ-स्तान के रहनुमाओं में बहादुर शाह ज़फ़र के बाद मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद वाहिद ऐसे लीडर थे जिन्हों ने आज़ाद ई हिंद के लिए हिंदूओं और मुस्लमानों को एक प्लेटफार्म पर जमा क्या हो। आज़ादी के बाद तक़सीम-ए-वतन का हादिसा पेश आया । मुस्लमान दो हिस्सों में तक़सीम हो गए । मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद तक़सीम-ए-वतन के ख़िलाफ़ थे इन्होंने हमेशा दो क़ौमी नज़रिया की मुख़ालिफ़त की इन्होंने अपनी तहरीर और तक़रीर के ज़रीया मुस्लमानों को ये पैग़ाम देने की कोशिश की कि ये मुल़्क तुम्हारा है तुम उसे छोड़कर मत जाओ । क्योंकि ऐसा करने से तुम्हारा इत्तिहाद तक़सीम होगा और तुम्हारी ताक़त टूट जाएगी । एक मौक़ा पर मौलाना ने अपनी क़ौम से बहुत ही दर्द मंदाना अंदाज़ में ख़िताब करते हुए कहा कि : आप मादर-ए-वतन को छोड़कर जा रहे हैं । आपने सोचा उस का अंजाम क्या हो आपके इस तरह फ़रार होने से हिन्दोस्तान में बसने वाले मुस्लमान कमज़ोर हो जाऐंगे और एक वक़्त ऐसा भी आ सकता है जब पाकिस्तान के इलाक़ाई बाशिंदे अपनी अपनी जुदागाना हैसियतों का दावा लेकर उठ खड़े हूँ । क्या उस वक़्त आपकी पोज़ीशन उन में बन बुलाए मेहमान की तरह नाज़ुक और बेबस नहीं रह जाएगी। मौलाना के बाक़ौल हिंदू आपका मज़हबी मुख़ालिफ़ तो हो सकता है क़ौमी और वतनी मुख़ालिफ़ नहीं । आप इस सूरत-ए-हाल से निपट सकते हैं मगर पाकिस्तान में आपको किसी वक़्त भी क़ौमी और वतनी मुख़ालफ़तों का सामना करना पड़ जायेगा । जिसके आगे आप बेबस हो जाऐंगे । मगर अफ़सोस लाख कोशिशों के बावजूद मौलाना आज़ाद अपने मक़सद में कामयाब ना हो सके और मुल्क तक़सीम हो गया । तकसीम-ए-हिंद का ज़ख़म सहने के बाद जब हिन्दोस्तान एक आज़ाद मुल्क की हैसियत से दुनिया के नक़्शा पर वजूद में आगया और हुकूमत तशकील दी गई तो तालयय ख़िदमात की रोशनी में मुल्क के पहले वज़ीर-ए-आज़म आँजहानी जवाहर लाल नहरू ने मौलाना आज़ाद को हिन्दोस्तान के पहले वज़ीर-ए-तालीम की हैसियत से वज़ारात-ए-तलीम का क़लमदान सौंपा । मौलाना आज़ाद क्योंकि तालीम को इन्सानी तरक़्क़ी की बुनियाद समझते थे इसलिए उनकी ख़्वाहिश थी कि मुल्क का हर फ़र्द सदफ़ीसद तालीम-ए-याफ़ता हो । आपने पूरे हिन्दोस्तान में यकसाँ निज़ाम-ए-तालीम पर-ज़ोर दिया ताकि मुल्क के दानिश्वर तबक़े की सोच और फ़िक्र भी यकसाँ हो ।
वज़ीर-ए-तालीम की हैसियत से मौलाना आज़ाद ने तालीम-ओ-सक़ाफ़्त के लिए बड़ा काम किया और बहुत से इदारे खोले जैसे साहित्य अकैडमी , नृत्य नाटय कला अकैडमी , आई ,सी , सी ,आर वग़ैरा । मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद की सोच का दायरा भी बहुत वसीअ था । एक तरफ़ अगर वो तकसीम-ए-हिंद से क़बल पाकिस्तान के क़ियाम के बारे में सोच भी नहीं सकते थे मगर दूसरी तरफ़ तक़सीम के बाद पा कसता नून के बारे में उन्होंने मुनकसरालमज़ाजी के साथ काम लिया और सहाफ़ीयों से यही कहा करते थे कि अब क्योंकि पाकिस्तान का क़ियाम अमल में आगया है । उन की ख़्वाहिश यही है कि वो फले फूले और तरक़्क़ी की राह पर गामज़न हो । उनके ज़माने में वज़ारात-ए-तलीम ने कई मैदानों में रहनुमाई की और ये बताया कि तालीम महिज़ किताबी इलम का नाम नहीं है। इस ज़माना में साइनटीफ़ीक और टेक्निकल एजूकेशन , टीचर ट्रेनिंग और ज़बान को पढ़ाने की ट्रेनिंग और शेड्यूल्ड कासट और शेड्यूल्ड ट्राइब के लिए स्कालर शिप का सिलसिला शुरू हुआ । मुल्क के पसमांदा तबक़ों की तरक़्क़ी की मुख़्तलिफ़ स्कीमों मौलाना आज़ाद ही के सामने बनी और शुरू हुईं । इन्सानी वज़ारत के फ़रोग़ के नाम की इस्तिलाह का इस्तिमाल अगरचे मौलाना ने ख़ुद नहीं किया था । मगर इन्होंने वज़ारात-ए-तलीम की इस तरह से तंज़ीम की थी कि हकूमत-ए-हिन्द के ज़हन में ये ख़्याल आया कि तालीम को इन्सानी वसाइल के फ़रोग़ का ज़रीया होना चाहीए । मौलाना की दानशोराना फ़िक्र का असर ये हुआ कि इन के ज़माने में काउंसल आफ़ टेक्नीकल एजूकेशन की तशकील हुई । यूनीवर्सिटी ग्रान्ट्स कमीशन ( यू , जी , सी ) का क़ियाम भी मौलाना की वज़ारत के दौरान अमल में आया । अदब , आर्ट और म्यूज़िक की अकैडमियों का मन्सूबा बिना या और उन्हें क़ायम किया । साहित्य अकैडमी , संगीत नाटय अकैडमी और ललित कला अकैडमी जैसे मंसूबे उनकी कामयाबी की दलील हैं । सयासी बसीरत का ये आलम था कि उन्हें इंडियन नैशनल कांग्रेस का सबसे जवाँ-साल सदर मुक़र्रर किया गया ।
आज़ाद हिन्दोस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें अमीर का रवां का ख़िताब दिया था पण्डित नहरू मौलाना आज़ाद को हिन्दोस्तान की अज़ीम विरासत और मुशतर्का तहज़ीब का नुमाइंदा समझते थे । मौलाना के इंतिक़ाल पर इन्होंने कहा कि मौलाना जदीद और क़दीम के दरमयान पुल का काम करते थे और जब कभी भी किसी मसला पर इन से मश्वरा किया जाता था तो वो बहुत बामक़सद मश्वरा दिया करते थे । मौलाना एक जय्यद आलम-ए-दीन थे । उर्दू , फ़ारसी और अरबी में तो उन्हें महारत थी लेकिन उन्हें इंग्लिश नहीं आती थी । एक जगह वो ख़ुद फ़रमाते हैं कि उन्हें एहसास हुआ कि माडर्न तालीम , फ़लसफ़ा , साईंस और टैक्नोलोजी को समझने के लिए इंग्लिश बहुत ज़रूरी है । चुनांचे इन्होंने ना सिर्फ ये कि इंग्लिश ज़बान सीखी बल्कि बाइबल का भी तफ़सीली मुताला किया । जिसका बेहद फ़ायदा उन्हें वज़ीर-ए-तालीम बनने के बाद हुआ ।
मौलाना आज़ाद बजा तौर पर इस्लाम को इन्सानियत की तामीर-ओ-तरक़्क़ी और हिदायत-ओ-रहनुमाई के लिए एक बेहतरीन मज़हब और निज़ाम ज़िंदगी समझते थे । जिसमें हर शोबा-ए-ज़िंदगी के लिए अमली हिदायात और दस्तूर-ए-हयात मौजूद है , उन की नज़र में इस्लाम एक इन्सानी , अख़लाक़ी और जमहूरी निज़ाम-ए-हयात है जो ख़ुदाए वाहिद की बंदगी के सिवा हर तरह की गु़लामी का ख़ातमा कर देता है और दुनिया को अमन-ओ-आफ़ियत का गहोराह बना देता है । इन्होंने इस्लाम की तर्जुमानी के लिए किताब-ओ-संत की रूह प्रवर और इन्सानियत नवाज़ तालीमात की दावत दी औरअलहलाल अलबलाग़ में उसकी तरफ़ बार-बार मुतवज्जा किया । अमामु उल-हिंद मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद को याद करने का यही मक़सद है कि मुल्क को मुसबत राहों पर कैसे ला या जाये , ना मुसाइद हालात में हिक्मत-ओ-दानाई के साथ तरक़्क़ी की मंज़िलें कैसे ढडी जाएं , एक महाज़ पर नाकाम होने के बा वजूद नए महाज़ पर कामयाबी हासिल करने की कोशिश कैसे की जाये , जोश जज़बात की जगह ग़ौर-ओ-फ़िक्र की रोष कैसे आम की जाये ।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद की तालीमात को हासिल कर के उनके नक़श-ए-क़दम पर चलने की कोशिश करें । अमामु उल-हिंद मौलाना अबोलकलाम आज़ाद आज हमारे दरमयान नहीं हैं , उन की तालीमात , उनका पैग़ाम जो हमारी नौजवान नसलों के लिए मिशअल-ए-राह होना चाहीए था अफ़सोस कि हमारी नसल इस से भी बख़ूबी वाक़िफ़ नहीं । इसकी एक वजह तो ये है कि बदक़िस्मती से हमारे इस्लाफ़ का ज़िक्र तालीमी निसाब से निकाल दिया गया है , इस से बढ़कर महरूमी ये कि ख़ुद हमने अपने बुज़ुर्गों के बारे में जानना छोड़ दिया । यहां इस मौक़ा पर मुनासिब होगा कि अपने क़ाइद हज़रत मौलाना आज़ाद की हयात-ओ-ख़िदमात के बारे में अपने क़ारईन को मुतआरिफ़ कराने के लिए ऐसी कोशिश की जाये जिससे हमारी नौजवान नसल इस्तिफ़ादा हासिल कर सके.
(लेखक राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं. वे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से अरबी में पीएचडी कर रहे हैं .)
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