29 सितंबर 2016

भगत सिंह और सांप्रदायिकता का सवाल

शुभनीत कौशिक 

सांप्रदायिकता के सवाल पर विचार करते हुए क्रांतिकारी विचारक भगत सिंह ने ‘किरती’ पत्रिका में मई-जून 1928 में दो विचारोत्तेजक लेख लिखे थे। ये लेख न सिर्फ़ अपने ऐतिहासिक संदर्भ और सांप्रदायिकता के प्रश्न पर अंतर्दृष्टि देने के लिए पढ़े जाने चाहिए, बल्कि भारत की वर्तमान स्थिति में ये लेख तो पहले से ज़्यादा प्रासंगिक हो जाने के कारण और पठनीय हो चले हैं। 


आइए, सबसे पहले पढ़ते हैं और सिलसिलेवार ढंग से विचार करते हैं, जून 1928 में ‘किरती’ पत्रिका में छपे उनके लेख पर, जिसका शीर्षक था: ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’। इस लेख की पहली पंक्तियों में यह आशावादी क्रांतिकारी विचारक कुछ निराश-सा जान पड़ता है तत्कालीन हिंदुस्तान की दशा से। वे लिखते हैं, ‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म के होना ही दूसरे धर्म के कट्टर शत्रु होना है’। वे देखते हैं कि किसी व्यक्ति का हिन्दू, मुस्लिम या सिख होना भर ही काफी है उसके मारे जाने के लिए। ऐसी स्थिति में, भगत सिंह को भारत का भविष्य अंधकारमय नजर आता है। क्या आज 2015 के भारत में हम ठीक ऐसी ही परिस्थितियों से दो-चार नहीं हो रहे हैं।

इन ‘धर्मों’ ने, भगत सिंह के अनुसार, ‘हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है’। वे चिंता जताते हैं कि आखिर धार्मिक दंगे भारत का पीछा कब छोड़ेंगे। वे इस बात पर दुखी हैं कि ‘अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं’। ऐसे विरले ही लोग होते हैं, जो अंधविश्वास की धारा के प्रतिकूल अपने दिमाग और तर्क में विश्वास को बरकरार रख पाते हैं। सांप्रदायिक दंगों के लिए, भगत सिंह सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि “इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बेड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं’। 

धर्मांधता के बहाव में बह जाने वालों नेताओं में से एक, भगत सिंह के आदरणीय नेता लाला लाजपत राय खुद थे। लाला लाजपत राय के हिंदू महासभा में शामिल होने और सांप्रदायिक राजनीति के प्रति उनके झुकाव का विरोध करने के लिए भगत सिंह ने एक नायाब तरीका अपनाया। भगत सिंह ने एक पैम्फलेट छापा, जिसमें उन्होंने राबर्ट ब्राउनिंग की प्रसिद्ध कविता ‘द लॉस्ट लीडर’ को उद्धृत किया। ब्राउनिंग ने अपनी यह कविता स्वतन्त्रता के विरुद्ध हो जाने पर विलियम वर्ड्सवर्थ की आलोचना करते हुए लिखी थी। इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं: ‘Just for a handful of silver he left us’, ‘Blot out his name, then, record one lost soul more’। इस पूरे पैम्फलेट में, लाला लाजपत राय के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहा गया था, बस आवरण-पृष्ठ पर उनकी तस्वीर ही छाप दी गयी थी! [बिपन चंद्र, इंडियाज़ स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस, पृ. 257] भगत सिंह मानते हैं कि ऐसे नेता जरूर हैं जो अपने हृदय से सबका भला चाहते हैं, पर उनकी संख्या इतनी कम है कि वे ‘सांप्रदायिकता की प्रबल बाढ़ को’ रोक पाने में समर्थ नहीं है। ऐसी दशा में उद्विग्न होकर भगत सिंह कह उठते हैं कि लगता है ‘भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है’। 

सांप्रदायिक दंगों को भड़काने के लिए, भगत सिंह, अख़बारों को भी समान रूप से दोषी ठहराते हैं। उन्हें दुख है कि पत्रकारिता का व्यवसाय ‘गंदा’ हो चला है। दंगों में अखबारों की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए भगत सिंह कहते हैं कि ये अखबार ‘एक-दूसरे के विरुद्ध मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं’। ध्यान रहे कि भगत सिंह स्वयं भी एक पत्रकार थे। गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र ‘प्रताप’, पंजाब से छपने वाली पत्रिका ‘किरती’ और हिंदी की पत्रिकाओं जैसे ‘चाँद’, ‘अभ्युदय’, ‘भविष्य’, ‘मतवाला’ में उन्होंने लगातार लेख लिखे थे। इस संदर्भ में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आख़िर यह युवा विचारक पत्रकारिता के बारे में, अखबारों और उनके संपादकों के कर्तव्य और जिम्मेदारियों की चर्चा करते हुए किन बातों पर खास तौर पर ज़ोर देता है। 

बकौल भगत सिंह, अखबारों का असली कर्तव्य है: शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना। पर उन्हें दुख है कि अपने इस असल कर्तव्य का पालन करने की बजाय, अखबार ठीक इसके उलट, अज्ञान फैलाने, संकीर्णता का प्रचार करने, लोगों को सांप्रदायिक बनाने और इस तरह भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने जैसा काम कर रहे हैं। इस सबसे भगत सिंह के मन में एक सवाल कौंधता है, और वह सवाल यह है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’ वे पाते हैं कि असहयोग आंदोलन के दौरान जहाँ ऐसा लगता था कि स्वतन्त्रता मिलने में बस थोड़ी ही देर है, वहीं अब ऐसी दिन आ गए हैं कि ‘स्वराज्य एक सपना मात्र’ बनकर रह गया है। 

आज से लगभग नौ दशक पहले कही गई भगत सिंह की ये बातें, 21वीं सदी के भारत में भी अखबारों की मौजूदा दशा पर कितनी सही साबित होती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अज्ञान, सांप्रदायिकता, संकीर्णता फैलाने और साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने के इस (कु)कर्तव्य में अब अखबारों-पत्रिकाओं के साथ, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है।

एक परिपक्व विचारक की भांति भगत सिंह, सांप्रदायिकता के समस्या की जड़ में जाने की कोशिश करते हैं और पाते हैं कि इसके मूल में आर्थिक कारण ही हैं। वे कहते हैं कि ‘विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है’। उनके अनुसार, तबलीग़, तंज़ीम, शुद्धि आदि जो संगठन शुरू हुए उनमें कहीं-न-कहीं आर्थिक कारण निहित थे। भगत सिंह इस समस्या का निदान सुझाते हुए, भारत की आर्थिक दशा में सुधार लाने पर ज़ोर देते हैं क्योंकि जब तक मुल्क की आर्थिक दशा नहीं सुधरेगी, तब तक कोई ‘एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है’। भूख और दुख से पीड़ित किसी इंसान के लिए सिद्धांतों की बात बेमानी है। वे कहते हैं आर्थिक सुधारों के लिए औपनिवेशिक शासन को समाप्त करना जरूरी है और इसके लिए लोगों को चाहिए कि वे हाथ धोकर औपनिवेशिक सरकार के पीछे पड़ जाएँ और ‘जब तक सरकार न बदल जाये, चैन की सांस न लें’!

सांप्रदायिकता की समस्या से निबटने के लिए भगत सिंह ने किसानों और मजदूरों में वर्ग-चेतना जगाने पर ज़ोर दिया। ताकि वे समझ सकें कि उनके असली दुश्मन पूंजीपति हैं और वे इनके हथकंडों और षडयंत्रों से सावधान रह सकें। भगत सिंह गरीबों से जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के भेदभाव के बिना एकजुट होने और सत्ता अपने हाथ में लेने का आह्वान करते हैं। और जब मजदूरों और किसानों को संबोधित करते हुए वे यह कहते हैं, ‘इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी’, तो वे असल में कार्ल मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति को ही प्रतिध्वनित करते हैं। 

वे इस बात पर खुशी जाहिर करते हैं कि अब भारतीय नवयुवकों के लिए कोई भी व्यक्ति पहले इंसान है, फिर भारतवासी। किसी व्यक्ति के धर्म को तरजीह न देने वाले इन युवकों को भगत सिंह साहस देते हुए कहते हैं, ‘दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि तैयार-बर-तैयार हो यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने’। वे इस संदर्भ में गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के विचारों को भी याद करते हैं। स्मरणीय है कि इन क्रांतिकारियों में से एक करतार सिंह सराभा थे, जिन्हें भगत सिंह अपना आदर्श मानते थे। गदर पार्टी के क्रांतिकारियों की समझ में ‘धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला था, जिसमें दूसरे का कोई दखल नहीं और न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए’। भगत सिंह के मतानुसार ‘यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं, धर्मों में चाहे हम अलग-अलग ही रहें’।

‘किरती’ पत्रिका में ही, एक महीने पहले यानि मई 1928 में छपे अपने एक अन्य लेख, ‘धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम’ में, भगत सिंह ने अमृतसर में अप्रैल 1928 में हुई नौजवान सभा की कान्फ्रेंस के संदर्भ में राष्ट्रीय आंदोलन और धर्म के मुद्दे पर अपने विचार जाहिर किए। कान्फ्रेंस में कुछ लोगों का मत था कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाए। भगत सिंह कहते हैं कि प्रथमदृष्टया यह भले ही बड़ी ‘नेक सलाह’ जान पड़े पर, असल अनुभव तो कुछ और ही कहानी बयान करते हैं। वे इस संदर्भ में असहयोग आंदोलन का उदाहरण देते हैं, जब राजनीतिक मंचों पर धर्मों को पूरी आज़ादी दी गई। पर इसका नतीजा क्या निकाला! धार्मिक संकीर्णता घटने की बजाय और बढ़ गई। इस दुष्परिणाम को समझकर ही, ‘पूर्ण स्वतन्त्रता’ के हामी कुछ राष्ट्रवादी नेताओं ने यह कहना शुरु किया कि धर्म एक तरह की ‘दिमागी गुलामी’ है और यह भी कि ‘बच्चों से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं – बच्चों को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है’। 

धर्म की प्रासंगिकता के संदर्भ में भगत सिंह दो सवाल उठाते हैं। पहला यह कि यदि धर्म घर तक ही सीमित हो, तब भी क्या यह लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ाता? दूसरा सवाल यह कि क्या धर्म द्वारा होने वाले भेदभाव से और खुद धर्म से, पूर्ण स्वतन्त्रता का लक्ष्य हासिल करने में कोई असर नहीं होता। इन दो प्रश्नों के आलोक में, धर्म की भूमिका पर विचार करते हुए भगत सिंह को लगता है कि ‘धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है’। कारण कि यह लोगों को एक नहीं होने देता। मसलन, भगत सिंह कहते हैं कि सनातन धर्म छूत-अछूत के भेदभाव के पक्ष में खड़ा दिखता है; वे इस बात में विरोधाभास देखते हैं कि सिख एक ओर तो गुरुद्वारे में जाकर ‘राज करेगा खालसा’ कहे और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करने लगे; एक ओर तो धर्म यह कहे कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले काफिर को तलवार के घाट उतार दो वहीं दूसरी ओर एकता की दुहाई दी जाए। भगत सिंह बेबाकी से यह बात कह देते हैं कि ऐसे धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने का मतलब होगा चुप्पी साध कर घर में बैठ जाना, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। धर्मों के कारण उपजने वाली अकर्मण्यता से छुटकारा पाने के लिए, भगत सिंह को ‘धर्मों के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है’।

भगत सिंह टॉलस्टाय द्वारा अपनी पुस्तक ‘एसेज़ एंड लेटर्स’ में धर्म को तीन हिस्सों में बांट कर देखने की समझदारी से सहमत दिखते हैं। ये हिस्से हैं: धर्म का आधारभूत पक्ष, धर्म-दर्शन, धर्म का कर्मकांडी अथवा रीति-रिवाज वाला पक्ष। पहले पक्ष में, धर्म की जरूरी बातें, जैसे सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना जैसी बाते शामिल हैं। दूसरे पक्ष में, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना जैसी बातें शामिल हैं। तीसरे पक्ष में, धर्म संबंधी रस्मो-रिवाज आदि आते हैं। भगत सिंह के अनुसार यदि धर्म का मतलब, धर्म-दर्शन और रस्मो-रिवाज के साथ अंधविश्वास को मिलाना है तो ऐसे धर्म की ‘जरूरत नहीं’। हाँ, यदि धर्म के मायने, धर्म की जरूरी बातों और धर्म-दर्शन के साथ, स्वतंत्र विचार को मिलाना हो, तो वैसा धर्म ‘मुबारक’ है।     

भगत सिंह कहते हैं कि बेहतर तो यह होता कि इन धर्मों के दर्शन और रस्मो-रिवाज आदि में जो अंतर हैं, उनके विषय में और अपने-अपने विचारों के बारे में अलग-अलग धर्मों के मानने वाले ‘प्यार के साथ बैठकर बहस करें, एक-दूसरे के विचार जानें’। पर भगत सिंह असलियत से भी पूरी तरह वाकिफ़ हैं, उन्हें पता है कि जब ‘मसला-ए-तनासुक पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठी चल जाती है’। इसके कारण को भी वे बखूबी समझते हैं, और वह यह है कि ‘दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने-समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। लोगों ने अपने सोचने की शक्ति को छुट्टी दी हुई होती है’। 

भगत सिंह धर्मों के विकास-क्रम को तब बिलकुल सही पहचानते हैं, जब वे यह कहते हैं कि ‘फ़िलॉसफी और रस्मो-रिवाज के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर ‘नेशनल रिलीजन’ बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने का कारण बनते हैं’। इसके दुष्परिणाम देश और समाज को भुगतने ही पड़ते हैं। इसलिए भगत सिंह के अनुसार जरूरत है हर किस्म के भेदभाव को जड़ से मिटाने की, तंगदिली छोडने की, जिससे असल एकता कायम हो सके। बकौल भगत सिंह, ‘हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है – जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जाएंगे’। [भगत सिंह के ये दोनों लेख, प्रो चमन लाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘भगत सिंह के राजनीतिक दस्तावेज़’ में संकलित हैं।]

इन लेखों के लिखे जाने के लगभग 15 वर्षों बाद, 1942 में दो समाजवादी नेताओं, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता ने, भारत में सांप्रदायिकता की समस्या पर लिखी गई अपनी पुस्तक द कम्यूनल ट्रायंगल इन इंडिया में लिखते हुए सांप्रदायिक समस्या को बढ़ाने में धार्मिक समुदायों के अलावे तीसरे पक्ष यानि ब्रिटिश राज की भूमिका को भी रेखांकित किया। आज़ादी के बाद इस तीसरे पक्ष की भूमिका सत्ताधारियों और राजनीतिक दलों ने निभानी शुरू कर दी। इसी तीसरे पक्ष पर टिप्पणी करते हुए कवि धूमिल ने लिखा था: 
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
                                                     
(स्वाधीन ब्लॉग के सम्पादक शुभनीत कौशिक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में पीएचडी शोधछात्र हैं और समसामयिक मुद्दों पर इनके लेख महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में लगातार पढ़े जा सकते हैं.)

11 सितंबर 2016

तो इसलिए बिपन चन्द्र की किताब हटाना चाहता है आरएसएस

अटल तिवारी 
स्वाधीन, 11/9/2016

मैं नेशनल बुक ट्रस्ट के काम में किसी तरह का विवाद या राजनीति नहीं लाना चाहता।” यह बात ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाए जाने पर करीब डेढ़ साल पहले बलदेव भाई शर्मा ने मार्च 2015 में कही थीलेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के संपादक रहे बलदेव भाई शर्मा अपनी कही बात पर ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सके। उनकी अध्यक्षता में चल रहे चल रहे ट्रस्ट ने नौ अगस्त को आधुनिक भारत के प्रमुख इतिहासकार बिपन चन्द्र की किताब ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ न छापने जैसा चकित करने वाला फैसला ले लिया। बताया जाता है कि बिपन चन्द्र की इस किताब का 49 लाख रुपए का आर्डर ट्रस्ट को मिला थाजिसे बिना किसी उचित कारण के अचानक उसने रोक दिया। मजे की बात यह कि मुख्यधारा के मीडिया ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया। वैसे सांप्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाने वाले कारपोरेट मीडिया से ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि वह इसका संज्ञान लेगा। खैर! अंग्रेजी के एक अखबार ने तीन सप्ताह बाद इस समाचार को प्रकाशित कियाजिसमें यह भी बताया गया कि इस किताब के अंग्रेजी संस्करण ‘कम्युनलिज्म : अ प्राइमर’ के साथ-साथ उर्दू संस्करण को भी रोकने के प्रयास किए गए।  

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इतिहासकार बिपन चन्द्र की 89 पेज की किताब ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ एक तरह से सांप्रदायिकता के वैचारिक चरित्र को समझने में कुंजी का काम करती है। वह विभिन्न मसलों पर आरएसएस और भाजपा की तीखी आलोचना करते हुए उनकी कारगुजारियों का खुलासा भी करती है। इतिहासराजनीति विज्ञान,हिन्दीपत्रकारिता आदि विषयों के विद्यार्थी अपने अध्ययन के शुरुआती सफर में इस किताब को पढ़ने और समझने का प्रयास करते हैं। इससे गुजरते हुए उन्हें राष्ट्रवाद के ठेकेदारों की असलियत पता चलती है। ऐसे में नेशनल बुक ट्रस्ट यह किताब क्यों नहीं छापेगाबड़े पैमाने पर बिकने वाली इस किताब की सामग्री के अधिक प्रचार-प्रसार से कौन लोग घबड़ा रहे हैंवे किताब पाठकों को क्यों नहीं पढ़ाना चाहते हैंउसे क्यों छिपाए रखना चाहते हैं आदि बातें अब छिपी नहीं रही कि उक्त किताब आरएसएस और भाजपा को नंगा करने का काम करती है। उनके मनुष्यता विरोधी कामों का खुलासा करती है। ऐसे में जाहिर है कि भाजपा सरकार की ओर से उपकृत किए गए नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा भला क्यों ऐसी किताब छापेंगेउनके जैसे लोगों पर इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि बिपन की यह किताब बड़ी संख्या में बिकती है। पाठकों के लिए बहुत उपयोगी है। प्रिन्ट में न रहने पर बड़ी संख्या में जीराक्स होती रही हैपर लगातार पढ़ी जाती रही है।    

इतिहासकार बिपन चन्द्र इसी नेशनल बुक ट्रस्ट के 2004 से 2012 तक अध्यक्ष रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाला यह ट्रस्ट 1957 में स्थापित किया गया था। वह हिंदीअंग्रेजीउर्दू समेत 31 भारतीय भाषाओं में सस्ती किताबें छापता है। बिपन की यह किताब पाठकों तक न पहुंचने देने का असफल प्रयास करने वालों को यह नहीं पता होगा कि बिपन ने यह किताब 2002 में गुजरात दंगों के बाद लिखी थी। मकसद था-सामान्य शब्दावली में लोगों को सांप्रदायिकता जैसे विषय से परिचित कराया जाए। दिल्ली इतिहासकार ग्रुप की तरफ से ‘सांप्रदायिकता: एक परिचय’ नाम से छपी इस किताब को बिपन और उनके साथी इतिहासकारों और विद्यार्थियों ने सड़कों पर बेचा था/बांटा था। ऐसे में ट्रस्ट के मौजूदा अध्यक्ष को अगर यह लगता है कि उनके न छापने से यह किताब लोग नहीं पढ़ पाएंगे तो यह उनकी भूल है। फिलहाल हम यहां ‘सांप्रदायिकता : एक प्रवेशिका’ के छोटे-छोटे 12 अंश दे रहे हैंजिनसे यह पता चलता है कि इस किताब को आखिर आरएसएस. भाजपा और उससे जुड़े लोग क्यों नहीं छापना चाहते हैंपेश है किताब के अंशः

1. 2002 गुजरात की भयावहता
फरवरी-मार्च 2002 के गुजरात दंगे भीजिन्होंने पूरे देश को दहला दिया थाभाजपा और आरएसएस के प्रचार-तंत्र द्वारा फैलाई गई सांप्रदायिक विचारधारा का नतीजा थे।...कुछ समय पहले तक राहत की बात सिर्फ यही थी कि सरकार का सहयोग सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिक ताकतों को नहीं मिलता था। मगर गुजरात में फरवरी-मार्च 2002 के सांप्रदायिक हत्याकांड में भाजपा सरकार ने जो किया और भाजपा की केंद्रीय सरकार शिक्षा में भी सांप्रदायिकता जिस तरह फैला रही थी और विनायक दामोदर सावरकर और डा. केशव बलराम हेडगेवार जैसे सांप्रदायिक नेताओं की शान बढ़ा रही थीउससे अब यह राहत भी गायब हो गई थी (पृ. 1316-17)।

2. सांप्रदायिक घृणा का प्रचार करने वाले
गुजरात में जिन्होंने हत्याएं कीं और लूटपाट मचाई उनकी भरपूर निंदा की गई और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की गई मगर जिन लोगों ने सांप्रदायिक घृणा का प्रचार किया था और जो दंगे के असली सूत्रधार थेउनके खिलाफ बहुत कम आवाजें उठीं। दंगाइयों से तालमेल और दंगों पर सरकारी नियंत्रण न कर पाने के लिए नरेन्द्र मोदी की तो घोर निंदा हुई मगर इस बात को शायद ही किसी ने उठाने की जरूरत समझी कि मोदी काफी समय से उस विचारधारा को पनपा रहे थे और उसका प्रचार कर रहे थे जिसकी वजह से आदवासियोंशहरी गरीबों और मध्यम वर्ग ने बढ़-चढ़कर मारकाट की। किसी ने यह तो पूछा ही नहीं कि नरसी मेहतागांधी और मोरारजी देसाई के गुजरात में आखिर हिंसा का समावेश करवाने वाले कौन हैं (पृ. 22)।

3. अटल...आडवाणी और जोशी
मैं लोगों को अटल बिहारी वाजपेयी के गंभीरमृदुभाषी और शानदार व्यक्ति होने के बारे में बात करते सुनता था। और यह भी सुनता था कि उनके नेतृत्व में भाजपा में इंसानियत जगी और वह पहले की तुलना में कम सांप्रदायिक हुई थी क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ साझा सरकार चला चुकी है। यही बात और यही तर्क हम पिछली सदी के नब्बे के दशक में लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में भी सुनते थे। यह नजरिया न सिर्फ दिखावटी है बल्कि खतरनाक भी क्योंकि नेता और पार्टियां उन विचारधाराओं से अलग करके नहीं देखे जा सकते जिनके दम पर वे लोगों के बीच पहुंचते हैं। 1990 में आडवाणी की रथयात्रा के दौरान यह सच तब सामने आया जब उनकी और वाजपेयी की वैचारिक मुद्राओं में काफी अंतर था। फिर नरेंद्र मोदी और गुजरात की हिंसा के मामले में और शिक्षा के सांप्रदायिकीकरण की मुरली मनोहर जोशी की कोशिशों को लेकर भी ये झमेले दिखते रहे (पृ. 26)।

4. सांप्रदायिकता और धर्म
1979 में जब सांप्रदायिकों का चुनावों में सफाया हो गया था तो हिंदू सांप्रदायिकों ने 1947 के पहले मुस्लिम लीग के तौर-तरीकों से प्रेरणा ली और लीग जैसे धर्म और सांप्रदायिकता कोधार्मिक भावुकता के साथ मिलाकरइस्तेमाल करती थी वही किया जाने लगा। 1980 में शुरू हुई एकात्मता यात्रा असफल हो गई थी और 1984 में हिंदू सांप्रदायिकों ने राम जन्मभूमि का आग लगाने वाला मुद्दा पकड़ लिया। असल में इस तरह का कोई-न-कोई मुद्दा तो उस समय सांप्रदायिक राजनीति को एक जन-आंदोलन बनाने के लिए चाहिए ही था और राम का नाम सिर्फ उत्तर भारत में ही बल्कि बाकी पूरे देश में भी पुजता है।...एक बार जब यह विश्वास फैला दिया गया कि एक वास्तविक राम जन्मभूमि थी और अब वह हिंदुओं के पास नहीं है तो बहुत सारे हिंदू उत्तेजित हुए और उन सांप्रदायिकों की मदद करने लगे जिन्होंने जेल सीता और राम के नाम लिए थे। इसके बाद हिंदू सांप्रदायिकों ने विश्व हिंदू परिषद जैसे खुल्लमखुल्ला अलगाववादी संगठन और पुजारियोंसाधुओं और महंतों का सहारा लेना शुरू कर दिया (पृ. 39)।

5. आरएसएस के भाषणों में सांप्रदायिक जहर
गांधीजी के खिलाफ समय-समय पर किए गए सांप्रदायिक प्रचारउनके बारे में घृणाझूठ और भड़काने वाले अर्धसत्यों ने सांप्रदायिकों की नजर में गांधीजी को हिंदू हितों का गद्दार और मुस्लिम-समर्थक करार दे दिया और इससे जो माहौल बना वही असल में गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार था। इस बात का कोई खास मतलब नहीं है कि पिस्तौल का ट्रिगर किसने दबाया और वह किस पार्टी या संगठन से संबंध रखता था। यही बात बहुत सटीक रूप से सरदार पटेल ने एक चिट्ठी में लिखी थी: ‘उनके (आरएसएस के) सारे भाषणों में सांप्रदायिक जहर भरा है और इसी जहरीले वातावरण से एक स्थिति ऐसी बनी जिससे यह भयानक दुर्घटना (गांधीजी की हत्या) हो सकी (पृ. 47-48)।

6. सांप्रदायिक विचारधारा का नंगा इस्तेमाल
भाजपा और इसका पितृ संगठन आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं की भर्ती में सांप्रदायिक विचारधारा का जोरदार और नंगा इस्तेमाल करता है। भाजपा और इसके मौसेरे भाई किस्म के संगठन विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जिन पर आरएसएस का ही बहुत सतर्क नियंत्रण हैराम जन्मभूमि मामले और इसके धार्मिक आवेश को हिंदुओं के बड़े हिस्से के मन में पहुंचने के लिए इस्तेमाल करते हैं (पृ. 53)।

7. सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद को प्रतिपादित करते समय सांप्रदायिक लोग धर्म तक का सहारा लेते हैं। इसीलिए राम जन्मभूमि मामले को भी सिर्फ धार्मिक मामला बताने की बजाय ये लोग अब उसे राष्ट्रवाद से ही जोड़ने लगे हैं। इसीलिए राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम पर के.एस. सुदर्शन जो आरएसएस के मुखिया हैंलिख रहे थे: ‘राम जन्मभूमि शिलान्यास के लिए ईंटे लगाना सिर्फ एक मंदिर का सवाल नहीं है बल्कि प्रतीकात्मक रूप से यह एक राष्ट्र का शिलान्यास है।’ उन्होंने इस शिलान्यास की तुलना बर्लिन की दीवार गिराए जाने से की थी। इसी तरह आरएसएस के एक बड़े विचारक रामस्वरूप के अनुसार शिलान्यास ‘भारत की आजादी की लड़ाई का दूसरा और संभवतः अधिक महत्वपूर्ण चरण है।’ 1991 के फरवरी महीने में भाजपा के जयपुर सम्मेलन की रिपोर्टिंग करते हुए ‘आर्गेनाइजर’ के संवाददाता ने लिखा था कि पार्टी ने ‘राम को राष्ट्रीयता के साथ जोड़कर (अयोध्या) आंदोलन का आयाम बढ़ाने का फैसला किया है।’ फिर 4 अप्रैल 1991 को अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्व हिंदू परिषद की रैली में कहा कि अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अब यह राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना का प्रश्न बन गया है (पृ. 53-54)।

8. आरएसएस एक फासिस्ट संगठन
1947 से लगातार नेहरू आरएसएस को एक फासिस्ट संगठन कहते रहे। उदाहरण के लिए दिसंबर 1947 में उन्होंने अपने सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा: ‘हमारे पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि एक संगठन के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चरित्र एक निजी सेना की तरह है और वह न सिर्फ नाजी लाइन पर चल रही है बल्कि उन्हीं के संगठन के तरीके और तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है।‘ दिसंबर 1948 में उन्होंने आरएसएस पर एक और लंबी टिप्पणी की: ‘आरएसएस असल में सार्वजनिक आवरण वाला एक गुप्त संगठन है जिसकी सदस्यता के कोई नियम नहीं हैंकोई रजिस्टर नहीं है और हालांकि मोटी रकम जमा की जाती हैइसके कोई खाते भी नहीं हैं। वे सत्याग्रह या दूसरे शांतिपूर्ण तरीकों में विश्वास नहीं करते। वे अकेले में कुछ और करते हैं और उसका ठीक उलटा सार्वजनिक रूप से करते हैं (पृ.68)।

9. गांधी की हत्या...हिंदू महासभा और आरएसएस
गांधीजी की हत्या के मामले में हिंदू महासभा और आरएसएस की भूमिका के बारे में सरदार पटेल ने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को 18 जुलाई 1948 को एक चिट्ठी में लिखा था: ‘जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल हैगांधीजी की हत्या का मामला अभी अदालत में है और इसलिए इन दोनों संगठनों की हिस्सेदारी के बारे में मेरा कुछ कहना नहीं बनता। लेकिन हमारे रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इन दोनों संगठनों और खासतौर पर आरएसएस की गतिविधियों ने देश में ऐसा माहौल जरूर बनाया जिसकी वजह से गांधीजी की हत्या की जा सकी। मुझे इस मामले में कतई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा के अतिवादी हिस्से इस षडयंत्र में शामिल थे। आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य दोनों के अस्तित्व के लिए चुनौती बनती जा रही हैं।’ इसके पहले 6 मई 1948 को उन्होंने लिखा था कि ‘उग्र सांप्रदायिकता कोजो महासभा के कई प्रवक्ताओं द्वारा प्रचारित की जा रही थी...सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरे के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता।...यही तर्क आरएसएस पर भी लागू होगा क्योंकि वह एक ऐसा संगठन है जो गोपनीय तौर पर सैनिक और अर्द्धसैनिक तरीकों से संचालित किया जाता है (पृ. 70)।

10. राष्ट्रवादी नेताओं पर कब्जे का प्रयास
आरएसएस और भाजपा के नेता जानते हैं कि उनका अतीत राष्ट्रवादी नहीं है और उन्होंने आजादी की लड़ाई तो छोड़िएविदेशी शासन के विरोध में भी कभी हिस्सा नहीं लिया। मगर उनको यह नहीं सूझ पड़ता कि वे ऐतिहासिक राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का क्या करें और सच का सामना कैसे करें। वे अपने इस अतीत को न भुला सकते हैंन मिटा सकते हैं और न उसका उत्सव मना सकते हैं। इसीलिए अब वे राष्ट्रवादी पुरखों का चुनाव करके उन्हें अपनाना चाहते हैं और कहीं-न-कहीं सेअपने राजनीतिक और वैचारिक अभिभावकों के बहानेअपना कोई सिरा राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास से जोड़ लेना चाहते हैं। वे 19वीं और 20वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों को भी अपने अस्तित्व का सूत्रपात बताने में नहीं हिचकते। अब ये सांप्रदायिक अपने-आपको गांधीजीभगत सिंहचंद्रशेखर आजादसुभाष चंद्र बोसबाल गंगाधर तिलकसरदार वल्लभ भाई पटेलस्वामी विवेकानंदबंकिम चंद्र चटर्जीविपिन चंद्र पालअरविंद घोष और ऐसे ही अनेक राष्ट्रीय नेताओं का वंशज साबित कर देना चाहते हैं (पृ. 74)।

11. लोकतंत्र विरोधी है हिंदू महासभा और आरएसएस
मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक परंपरा से पाकिस्तान अभी तक उबर नहीं पाया है और मुसीबत में है। हिंदू महासभा और आरएसएस भी लोकतंत्र-विरोधी हैं। आरएसएस का लोकतंत्र-विरोधी संविधानपरंपराएं और कार्यशैली को भी सबके सामने लाना चाहिए। जैसे आरएसएस का प्रमुख अपने पहले के प्रमुख द्वारा नामांकित होता है और उसे आजीवन इस पद से हटाया नहीं जा सकता। इसी तरह इससे जुड़े अन्य संगठनों के भी चुनाव नहीं होते और सिर्फ नामांकन ही होते हैं। इस संगठन का पूरा ढांचा अलोकतांत्रिक है (पृ. 85-86)।

12. भारत के अतीत को विकृत करते सांप्रदायिक
सांप्रदायिकों ने तय कर लिया है कि भारत के अतीत को अपने हिसाब से विकृत करके सरकारी संगठनोंमीडियागैर-सरकारी संगठनों और शिक्षा के क्षेत्र में अतिक्रमण करके इतिहास की अपनी व्याख्या ही प्रचारित करेंगे। आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी के नियंत्रण में जो स्कूल और शिक्षा योजना हैं और आरएसएस-भाजपा के नियंयण में जो शैक्षणिक संस्थाएं हैंवे यही कर रही हैं। खासतौर पर वे भारत के इतिहास और साहित्यिक विरासत को मौखिक प्रचार तथा स्कूली पाठ्यक्रम के जरिए पेश कर रही हैं। आमतौर पर वे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल सांप्रदायिक विचारधारा को फैलाने में करती है और खासतौर पर वे इतिहास को विकृत करती हैं क्योंकि इतिहास का यही विकृत रूप सांप्रदायिक विचारधारा का मूल है (पृ. 86)। 

(लेखक चर्चित युवा पत्रकार हैं और राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के संयोजक मंडल में हैं.)

1 सितंबर 2016

बिपिन चन्द्र की पुस्तक पर भगवा हमला : भगतसिंह बनाम क्रान्तिकारी आतंकवाद

अखिल
आह्वान, मई-जून 2016


मोदी के सत्तासीन होने के बाद से शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम ज़ोर-शोर से चलायी जा रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक के पाठ्यक्रम को संघ तथा भाजपा संगठित ढंग से अपने दृष्टिकोण के अनुसार ढाल रहे हैं। हाल ही में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय में राज्य मंत्री राम शंकर कठेरिया ने लखनऊ विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान खुल्लम-खुल्ला और निर्लज्जतापूर्वक यह ऐलान किया कि “हम लोग शिक्षा और देश दोनों का भगवाकरण करेंगे।” शिक्षा के भगवाकरण को जायज़ ठहराने के लिए विश्वविद्यालयों में पहले से पढ़ायी जा रही पाठ्य-पुस्तकों में से कुछ संवेदनशील मुद्दों को संदर्भ से काटकर इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है कि जनता भी संघियों की इस मुहिम की ज़रूरत महसूस करे और इसकी सराहना करे या कम से कम इसका विरोध न करे।

इसी तर्ज़ पर पिछले दिनों आधुनिक भारत के इतिहास की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डियाज़ स्ट्रगल फॉर इण्डिपेण्डेन्स’ (‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’) पर वैचारिक हमला बोला गया था। यह पुस्तक मुख्यतः सुविख्यात लेखक तथा इतिहासकार दिवंगत बिपिन चंद्र द्वारा लिखी गयी है और दो दशक से भी अधिक समय से दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में पढ़ायी जाती रही है। ग़ौरतलब है कि उक्त पुस्तक के 20वें अध्याय “भगतसिंह, सूर्य सेन और क्रान्तिकारी आतंकवादी” में भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सूर्य सेन तथा अन्य क्रान्तिकारियों को “क्रान्तिकारी आतंकवादी” कहा गया है। भाजपा के नेताओं ने इसी बात को संदर्भ से काटकर इस ढंग से प्रचारित किया कि पुस्तक ने स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहकर उनका अपमान किया है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने सदन में घड़ियाली आँसू बहाते हुए इस पुस्तक को शहीदों की “शैक्षणिक हत्या” बताया। मामले को तूल देने के लिए और शिक्षा के “शुद्धिकरण” की संघी मुहिम को जायज़ ठहराने के लिए संसद से लेकर प्रिण्ट  तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस मुद्दे को खूब उछाला गया। बिपिन चंद्र और सेक्युलरिज़्म को पानी पी-पीकर कोसा गया। मज़े की बात यह है कि इस मुद्दे को जिस व्यक्ति ने सबसे पहले उठाया वह कोई और नहीं बल्कि भगतसिंह के भतीजे अभय सिंह संधु हैं जो भगतसिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह के बेटे हैं और जिनका भगतसिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। अभय सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखकर पुस्तक में बदलाव किये जाने का अनुरोध किया था, जिसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक के हिन्दी संस्करण में संशोधन किये जाने तक इसके वितरण पर रोक लगा दी।

इस मुद्दे को उछालकर संघ ने एक तीर से कई निशाने लगाये हैं। जहाँ एक तरफ़ वह इसे शिक्षा के भगवाकरण को जायज़ ठहराने और प्रगतिशीलता तथा सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करने में इस्तेैमाल कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ भगतसिंह को अपने नायक की तरह पेश करके संघ स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग न लेने, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने और अंग्रेज़ों के तलवे चाटने के कलंक को मिटाने की फ़िराक में है।

इस पूरे मामले को तार्किक ढंग से समझने के लिए आइये सबसे पहले यह समझें कि आतंकवाद का अर्थ क्या है? आज जनता जहाँ कहीं भी आतंकवाद शब्द को पढ़ती-सुनती है तो उसके सामने आतंकवाद की वही छवि उपस्थित हो जाती है जो पिछले लगभग दो-ढाई दशक में उसके दिमागों में घर कर गयी है या पूँजीवादी मीडिया तंत्र द्वारा पैठा दी गयी है। और वह छवि है: निर्दोष लोगों पर गोलियाँ चलाना, बम विस्फोट करना, क़त्लेआम करना आदि-आदि। इसीलिए भगतसिंह को आतंकवादी कहे जाने का मुद्दा उछाल कर लोगों को आसानी से बरगलाया जा सकता है। लेकिन आतंकवाद की यह समझ बेहद उथली है। ऐसे में आतंकवाद की परिघटना को गहराई से समझना बेहद ज़रूरी है।

आज हम लोग एक पूँजीवादी समाज में जी रहे हैं, जो लोकतंत्र और जनवाद के तमाम दावों के बावजूद अपने पूर्ववर्ती वर्ग-समाजों की तरह एक तानाशाही ही है: मुट्ठी भर धनिक वर्ग की आम मेहनतकश जनता पर तानाशाही। बेशक, अतीत के वर्ग-समाजों से भिन्न यह अपनी सैन्य ताक़त के अतिरिक्त शोषित वर्ग के ऊपर अपने विचारों का वर्चस्व स्थापित कर अपनी तानाशाही को सुदृढ़ करता है। लेकिन तब भी इसकी आधारभूत ताक़त सेना ही होती है, जो शोषित वर्ग में खौफ़ और आतंक पैदा कर उन्हें इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बिना किसी विरोध के स्वीकार करने के लिए बाध्य करती है। पूँजीवादी राज्य सत्ता के इस आतंक की प्रतिक्रिया के रूप में ही आतंकवाद का जन्म होता है जिसकी मोटे तौर पर दो धाराएँ होती हैं— क्रान्तिकारी आतंकवाद और प्रतिक्रियावादी आतंकवाद। आतंकवाद की क्रान्तिकारी धारा में वे प्रगतिशील और सेक्युलर क्रान्तिकारी आते हैं, जिन्हें जनता की सामूहिक शक्ति की बजाय अपनी वीरता, कुर्बानी के जज़्बे और हथियारों पर अधिक भरोसा होता है और जिन्हें शासक वर्ग में आतंक पैदा कर व्यवस्था को बदल देने का मुग़ालता होता है। लेकिन तब भी वे निष्ठावान और बहादुर होते हैं, जो जनता से कटे होने के बावजूद जनता के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं और एक सेक्युलर, जनवादी या समाजवादी समाज का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। इसके विपरीत, आतंकवाद की प्रतिक्रियावादी धारा एक पुनरुत्थानवादी धारा होती है, जो बेशक पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के रूप में ही पैदा होती है, लेकिन समाधान के लिए भविष्य की बजाय अतीत की ओर देखती है। इस धारा के आतंकवादी साम्राज्यवाद को अपना शत्रु समझने के साथ-साथ प्रगतिशीलता, सेक्युलरिज़्म, जनवाद और समाजवाद को भी अपना शत्रु समझते हैं। आई.एस., अलकायदा और तालिबान जैसे धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन आतंकवाद की इसी श्रेणी में आते हैं किन्तु यहाँ पर यह भी ध्यान रहे कि इन आतंकवादी संगठनों को परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से खड़ा करने में साम्राज्यवादी ताकतों ने अपने राजनीतिक हित साधने के मकसद से भरपूर मदद दी है अब चाहे ये बेशक पागल कुत्ते की तरह अपने मालिक पर भी झपट पड़ने में कोई गुरेज शायद ही करें!

बिपिन चन्द्र ने अपनी पुस्तक में भगतसिंह और उनके साथियों को क्रान्तिकारी आतंकवाद की श्रेणी में रखा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही क्रान्तिकारी आतंकवाद युगान्तर और अनुशीलन जैसे गुप्त संगठनों के रूप में अपनी प्रारंभिक अवस्था में मौजूद था। उस समय ये संगठन अरबिन्द घोष, रासबिहारी बोस और जतीन्द्रनाथ मुखर्जी जैसे क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में बंगाल में सक्रिय थे और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आतंक की छिटपुट कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे थे। क्रान्तिकारी आतंकवादियों की यह पहली पीढ़ी अतीतोन्मुखी थी और धार्मिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी। फि‍र भी औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध लड़ने और अपनी कार्रवाइयों से जनता में प्रेरणा का संचार करने के चलते उनमें प्रगतिशीलता का पहलू हावी था। इसके बाद ग़दर पार्टी और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एच.आर.ए) के रूप में भारत की क्रान्तिकारी आतंकवादी धारा में जनवादी और सेक्युलर विचारों का प्रवेश होता है। इन संगठनों के क्रान्तिकारी फ्रांसीसी तथा अमरीकी क्रान्ति के विचारों से प्रेरित थे। युगान्तर-अनुशीलन के विपरीत ये संगठन जनवादी और सेक्युलर विचारों से लैस थे। इन संगठनों में सभी धर्मों और सभी जातियों के लोग शामिल थे। इन संगठनों का लक्ष्य बिना किसी समझौते के अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ना था और एक जनवादी और सेक्युलर समाज का निर्माण करना था। और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे पूरी तरह आतंकी कार्रवाइयों पर आश्रित थे। इसके बाद 1920 में गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन के कारण जनता में उम्मीद की एक नयी किरण जगी। आन्दोलन में पूरी जनता उमड़ पड़ी। कुछ समय के लिए क्रान्तिकारी आतंकवादी संगठनों ने भी आतंकवादी कार्रवाइयों को स्थगित कर दिया। लेकिन 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधी ने अपना आन्दोलन अचानक वापस ले लिया। असहयोग आन्दोलन से जनता में जो उम्मीद जगी थी वो घोर निराशा में बदल गयी। यही वह दौर था जब भगतसिंह की पीढ़ी के युवा, क्रान्तिकारी संगठनों की ओर आकर्षित हुए। इसी दौर में भारत के स्वतंत्रता संग्राम की क्रान्तिकारी आतंकवादी धारा पर 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव पड़ा। और भगतसिंह की अगुवाई में राष्ट्रीय मुक्ति के साथ ही समाजवाद को अपने अन्तिम लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एच.एस.आर.ए.) रखा गया। लेकिन इस दौर का महत्व केवल यहीं तक सीमित नहीं है। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों ने भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा के नेतृत्व में अपनी क्रान्तिकारी आतंकवादी राजनीति की आलोचना भी प्रस्तुत की और क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए मुट्ठीभर क्रान्तिकारियों की वीरता और आतंक की बजाय मज़दूर-किसान आबादी को संगठित करने की ज़रूरत को समझा।

भगतसिंह और उनके साथियों के शुरुआती लेखों में जहाँ हम औपनिवेशिक सत्ताओं के प्रतिरोध के रूप में आतंकवाद की कारगरता की भूरि-भूरि प्रशंसा देखते हैं, वहीं बाद के वर्षों में जेल में रहते समय किये गये गहन अध्ययन के बाद हम उन्हें क्रान्तिकारी आतंकवाद की आलोचना करते हुए पाते हैं। 2 फ़रवरी 1931 को लिखे गये महत्वपूर्ण दस्तावेज़ “क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा” के पहले हिस्से “नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र” में भगतसिंह लिखते हैं, “मैं पूरी ताक़त से यह कहना चाहता हूँ कि क्रान्तिकारी जीवन के शुरू के चन्द दिनों के सिवाय न तो मैं आतंकवादी हूँ और न ही था; और मुझे पूरा यक़ीन है कि इस तरह के तरीक़ों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।” इसी पत्र में एक और जगह वे कहते हैं: “…बम का रास्ता 1905 से चला आ रहा है और क्रान्तिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है। …आतंकवाद हमारे समाज में क्रान्तिकारी चिन्तन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है; या एक पछतावा। इस तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है। …सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है — फ़्रांस, रूस, जर्मनी में, बाल्कन देशों में, स्पेन में — हर जगह इसकी यही कहानी है। इसकी पराजय के बीज इसके भीतर ही होते हैं।”

भगतसिंह के साथी शिव वर्मा भी इस बात की पुष्टि करते हैं और अपने लेख “क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास” में एक जगह कहते हैं:

“लाहौर तथा कानपुर के क्रान्तिकारियों ने 1926-27 से ही समाजवाद की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था। आठ-नौ सितम्बर 1928 को दिल्ली मीटिंग में हालाँकि समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवादी समाज की स्थापना को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था, अमल में हम लोग उसी पुराने व्यक्तिवादी ढंग के कामों में ही लगे रहे। हम मज़दूरों, किसानों, युवकों और मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों को संगठित करने की बात तो करते थे लेकिन पंजाब में नौजवान भारत सभा के गठन को छोड़कर और कहीं भी संजीदगी से उस दिशा में क़दम उठाने की कोशिश नहीं की गयी। …हम हिंसात्मक गतिविधियों को, जिसमें ज़ालिम सरकारी अधिकारियों की हत्या और छुटपुट विद्रोह शामिल थे, मज़दूरों, किसानों, युवकों और विद्यार्थियों के जन-संगठन बनाने के काम में मिलाना चाहते थे। लेकिन अमल में हमारा ज़ोर हिंसात्मक गतिविधियों और सशस्त्र कामों की तैयारी तक ही सीमित रहा।”

यह स्पष्ट है कि भगतसिंह और उनके साथी अपने शुरुआती राजनीतिक काल में क्रान्तिकारी आतंकवाद से प्रभावित थे। लेकिन पहले बाहर और फिर जेल के भीतर मार्क्सवाद के अपने गहन अध्ययन के बाद, उन्होंने क्रान्तिकारी आतंकवाद की आलोचना की थी और युवाओं को बहुसंख्यक मज़दूर-किसान आबादी को संगठित कर संघर्ष के लिए तैयार करने की सलाह दी थी। ऐसे में बिपिन चन्द्र ने अपनी पुस्तक में इस बारे में जो कुछ लिखा है वह ऐतिहासिक तथ्य है। और इसी ऐतिहासिक तथ्य को संघ और भाजपा ने भगतसिंह के अपमान के तौर पर प्रचारित किया है।

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जिन लोगों ने भगतसिंह के अपमान का मुद्दा उछाला है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अपनी क्या भूमिका रही है। ग़ौरतलब है कि 1925 में अपने गठन से लेकर भारत के आज़ाद होने तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बड़े या छोटे, एक भी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। पूरे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वैसे तो आर.एस.एस का एक भी कार्यकर्ता जेल नहीं गया, लेकिन अगर भूले-भटके गया भी तो अंग्रेज़ों के सामने नाक रगड़कर और माफ़ीनामा लिखकर बाहर आ गया। हाँ, इस दौरान संघ की एक भूमिका अवश्य थी — क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करना, साम्प्रदायिक तनाव पैदा करके हिन्दू-मुस्लिम एकता को कमज़ोर करना, दंगे करवाना और इसके ज़रिये स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर करना। आर.एस.एस. के उस दौर के पूरे साहित्य में आपको अंग्रेज़ों की तारीफ़ तो मिल जायेगी, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कुर्बान होने वाले क्रान्तिकारियों के लिए एक शब्द भी नहीं मिलेगा। यह एक घिनौना मजाक ही तो है कि यही संघ और इसके अनुषंगिक संगठन आज सबसे बड़े देशभक्त बन बैठे हैं और खुद को भगतसिंह का वारिस बता रहे हैं। दरअसल, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा न लेना आर.एस.एस के माथे पर सबसे बड़ा कलंक है। इस कलंक को धोने की वह कितनी भी कोशिश करे, उसे यह भली-भाँति पता है कि वह इसमें सफल नहीं हो सकता। यह भी एक कारण है कि आर.एस.एस. इतिहास के इस अध्याय को फिर से लिखना चाहता है।

भगतसिंह के अपमान के नाम पर बिपिन चन्द्र की पुस्तक पर जो हमला बोला गया है, वह अपने आपमें कोई अलग-थलग घटना नहीं है। यह मोदी के सत्तासीन होने के बाद से ही जारी शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का एक हिस्सा है। इसी मुहिम के तहत प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में दीनानाथ बत्रा जैसे संघ “विचारकों” की पुस्तकों को शामिल किया जा रहा है। और इसी के तहत पुस्तकों में से ऐसी घटनाओं को हटाया जा रहा है, जिनसे संघ व उसकी विचारधारा के अनुयायी असहज महसूस करते हैं। मसलन, राजस्थान में सातवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में से नाथूराम गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या की घटना को हटा दिया गया है। एक तरफ़ जहाँ संघ तृणमूल स्तर पर अपने प्रचार तथा कार्रवाइयों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में करने में लगा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ शिक्षा के भगवाकरण के ज़रिये वह पूरे देश में चेतना को कुन्द करके समाज की मेधा को अपने नियंत्रण में करने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह मिथ्या और झूठ को सामान्य ज्ञान के रूप में स्थापित कर अपने नापाक इरादों की पूर्ति को सुगम बना रहा है। संघ के इन नापाक इरादों को विफल करने के लिए, आज देश की तमाम प्रगतिशील और क्रान्तिकारी ताक़तों का यह दायित्व बनता है कि वे शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का पुरज़ोर विरोध करें और अपनी समझ को लेकर जनता के बीच जाएँ और संघी फ़ासिस्टों के नापाक मंसूबों के ख़िलाफ़ जनान्दोलनों को तेज़ करें। 

स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति

लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...