Prof. Mridula Mukherjee is speaking on Prof. Bipan Chandra's pioneer oral history project in which Prof. Chandra along with his students interviewed more than 1,500 freedom fighters across the country. These engagements of Prof. Chandra with eyewitnesses of the freedom struggle hugely changed his understanding of India's anti-imperialist struggle. His most popular book, India's Struggle for Independence, perhaps the all-time best-seller in Indian academics, is heavily based upon these interviews. This lecture of Prof. Mukherjee is a part of a whole day function called Jashn-e-Azaadi, organized in memory of Prof Bipan Chandra on 28th March, 2016 at JNU Convention Centre.
29 मार्च 2016
23 मार्च 2016
आजादी के संघर्ष के प्रतीकों की परीक्षा
पुण्य प्रसून बाजपेयी,
खबर की खबर
मार्च 23, 2016
मार्च 23, 2016
क्या मौजूदा राजनीतिक बिसात पर पहली बार आजादी के संघर्ष के प्रतीक ही दांव पर हैं। क्योंकि एक तरफ भारत माता की जय तो दूसरी तरफ भगत सिंह। एक तरफ बीजेपी का राष्ट्रवाद तो दूसरी तरफ वाम आजादी का नारा । एक तरफ तिरंगे में लिपटा राष्ट्रवाद तो दूसरी तरफ लाल सलाम तले मौजूदा सामाजिक विसगंतियों पर सीधी चोट। तो क्या गुलाम भारत के संघर्ष के प्रतीकों की आजाद भारत में नये तरीके से परीक्षा ली जा रही है। क्योंकि भारत माता कोई आज का शब्द तो है नहीं। याद कीजिये 1882 में बंकिमचन्द्र चटर्जी ने आजादी के संघर्ष को लेकर आनंदमठ लिखी तो आजादी के बाद 1952 में हेमन गुप्ता ने आनंदमठ पर फिल्म बनायी तो उनके जहन में भारत माता की वही तस्वीर उभरी जो रविन्द्रनाथ टैगौर के भतीजे अवनिन्द्रनाथ टैगोर ने बंगाल के पुनर्जागरण के दौर में भारत माता पहली तस्वीर बनायी थी। भारत माता के चार हाथ दिखाये गये थे। जो भारत की समूची सांस्कृतिक विरासत को सामने रख देता। क्योंकि उन चार हाथो में शिक्षा -दीक्षा, अन्न-वस्त्र दिखाये गये। और आनंदमठ भी इन्ही चारो परिस्थितियों को उभारती है। इतना ही नहीं देश में पहली बार किरण चन्द्र चौधरी ने 1873 भारत माता नाम से नाटक किया तो उसमें भी भारत की आजादी के संघर्ष को इस रुप में दिखाया जहा धर्म और संस्कृतियों का मेल हो। गुलामी से मुक्ती और अंखड भारत की पहचान एकजुटता के साथ बने।
इसके सामानांतर आजादी के संघर्ष में भगत सिंह को याद कीजिये तो इन्कलाब के नारे के साथ भगत सिंह ने आजादी के आंदोलन को एक नयी धार दी। कच्ची उम्र में ही भगत सिंह ने अंग्रेजी सत्ता को बंदूक से लेकर विचार और आर्थिक मुद्दों से लेकर साप्रदायिकता तक पर ना सिर्फ राजनीतिक चुनौती दी। बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा के तहत विकल्प की सोच भी पैदा की। सिनेमायी पर्दे पर आजादी के तुरंत बाद 1948 में दिलीप कुमार ने तो 1965 में मनोज कुमार ने भगत सिंह की भूमिका को फिल्म शहीद में बाखूबी जीया। यानी भारत माता की तस्वीर हो या इन्कलाब के जरीये भगत सिंह का संघर्ष दोनों ही जिस भी माध्यम के जरीये आजादी के बाद उभरे उसने देश के भीतर लकीर नहीं खिंची बल्कि खिंचती लकीरों को मिटाने की ही कोशिश की। क्योंकि दोनों तस्वीर गुलाम भारत के दौर में आजादी के संघर्ष का सच रही। लेकिन यह दोनों तस्वीरे कैसे आजाद भारत में सत्ता के राष्ट्रवाद और सत्ता से आजादी के नारे तले आकर खडी हो जायेगी यह किसने सोचा होगा। क्योंकि राष्ट्रवाद का प्रतीक भारत माता की जय तो संघर्ष का प्रतीक भगत सिंह। तो क्या आजादी के संघर्ष के प्रतीकों के आसरे मौजूदा राजनीति देश के भीतर आजादी से पहले के भारत के हालात देख रही है। या फिर मौजूदा वक्त में भारत माता और भगत सिंह को दो राजनीतिक विचारधाराओं में बांट कर राजनीति का नया ककहरा गढ़ा जा रहा है। जिससे एक तरफ भारत माता की जय, राष्ट्रवाद के अलघ को जगाये और मौजूदा राजनीति की धारा बने। तो दूसरी तरफ भगत सिंह का इन्कलाब आजादी के संघर्ष की तर्ज पर मौजदा राजनीतिक सत्ता को आजादी के नारे से ही चुनौती देता नजर आये। जाहिर है यह दोनों हालात देश के मौजूदा हालात में कहा और कैसे फिट बैठेगें यह कोई नहीं जानता। ठीक उसी तरह जिस तरह 1967 में नक्सलबाडी से जो लाल सलाम का नारा निकला उसे 2011 में पश्चिम बंगाल की जनता ने ही खारिज कर दिया। और 1990 में अयोध्या आंदोलन के वक्त जय श्रीराम के नारे ही जिस तरह हिन्दुत्व का प्रतीक बन गया । लेकिन आजतक ना अयोध्या में राम मंदिर बना और ना ही जय श्रीराम का नारा बचा। तो फिर भारत माता के आसरे जिस राजनीतिक राष्ट्रवाद को मौजूदा वक्त में खोजा या नकारा जा रहा है, उसका सियासी हश्र होगा क्या यह कोई नहीं जानता। लेकिन भारत में भारत माता के नाम पर दो मंदिर ऐसे जरुर है जो बताते है कि आजादी से पहले और आजादी के बाद भी भारत माता को जिस रुप में देखा-माना गया उस रुप में मौजूदा राजनीति भारत माता को मान्यता नहीं दे रही है। क्योंकि वाराणसी और ॠषिकेश में मौजूद भारत माता के मंदिर के आसरे राष्ट्रवाद के उस सच को भीजाना समझा जा सकता है जब आजादी को लेकर संघर्ष भी था और भारत माता के लिये जान न्यौछवर करने का जुनून भी था। और दोनों ही मंदिरों की पहचान उस भारत से जुड़ी है संयोग से जिसे मौजूदा सियासी राजनीति ने हाशिये पर ठकेल दिया है।
वाराणसी में भारत माता का मंदिर बनाने की जरुरत तब पडी जब असहयोग आंदोलन की हिंसा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को हिलाकर रख दिया। उस वक्त देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने के लिए स्वतंत्रता सेनानी शिव प्रसाद गुप्त और आर्किटेक्ट दुर्गाप्रसाद खत्री ने गांधी जी से बात की कि एक ऐसा मंदिर बने जिसमें सभी धर्म और जाति के लोगों की आस्था हो। और 1936 में यह मंदिर बना। जिसमे किसी देवी देवता की नहीं बल्कि अखंड भारत का नक्शा ही भारत माता की पहचान बना। जिसका उद्घाटन 1936 में महात्मा गांधी ने किया । तो ॠषिकेश में भारत माता का मंदिर स्वामी विवेकानंद की भारत के बारे में सोच को लेकर बनाया गया । इसलिये ॠषिकेश के आठ मंजिला मंदिर भारत माता के उन प्रतिको को जीवंत कर देता है । जिसपर आज कोई बहस नहीं होती । पहली मंजिल पर भारत के मानचित्र के साथ दूध और फसल को हाथ में लिये भारत माता की तस्वीर है। तो दूसरी मंजिल से आठवी मंजिल तक भारत की आजादी के संघर्ष। भारत की सांस्कृतिक पहचान । भारत की सभ्यता और हर धर्म के समावेश के साथ प्रकृति को समेटे हिन्दुस्तान की वह तस्वीर है, जो राष्ट्रवाद के मौजूदा पारिभाषा से गायब हो चुकी है। ॠषिकेश के भारत माता मंदिर का उद्घाटन 15 मई 1983 को इंदिरा गांधी ने किया और संयोग देखिये वाराणसी हो या ॠषिकेश दोनों ही जगहों की पहचान मंदिरों के आसरे जुड़ी लेकिन भारत माता मंदिर को बेहद कम लोग जानते हैं। जो जानते भी होंगे वह उस मंदिर तक पहुंच नहीं पाते। लेकिन अब जब देश में भारत माता और भगत सिंह की पहचान किसके साथ किसरुप में जुड़े इसको लेकर ही जब सियासी संघर्ष हो रहा है तो धीरे धीरे यह सवाल देश में ही बड़ा होते जा रहा है कि क्या वाकई राष्ट्र की सीमाओं को अब बांधने का वक्त आ गया है। या फिर राषट्रवाद के नारे तले सारी कश्मकश राष्ट्र के भीतर नागरिकों में ही मची है। क्योंकि मौजूदा राष्ट्रवाद किसी दूसरे देश के खिलाफ नहीं है। बल्कि एक भारतीय का दूसरे भारतीय के खिलाफ का राष्ट्रवाद है । यानी नफरत और कडवाहट है , जो राजनीति से निकली है । इसीलिये इसके दायरे में मुसलमान भी हैं और दलित भी । और कौमों से लेकर जातीय आधार पर राजनीति, सत्ता के लिये खुद में सभी को समेट लेने पर आमादा हैं। और इससे टकराने के लिये जेएनयू में ही पहले राष्ट्रवाद पर शिक्षकों ने खुले आसमान तले छात्रों को पढ़ाना शुरु किया तो अब आजादी को लेकर शिक्षको ने विचारों की नयी सीरिज शुरु की है। और इससे टकराने के लिये सत्ताधारी बीजेपी ने राष्ट्रवाद को ही अपना राजनीति मंत्र बना लिया है। तो फिर इसका अंत होगा कहां ? क्योंकि यह ना तो सम्यताओं के संघर्ष का मामला है । ना ही धर्मो के टकराव का मसला है। और ना ही उस नफरत का जिसकी छांव में पहला विश्वयुद्द हो गया क्योंकि तब सर्बिया के लोगों से ऑस्ट्रियाई मूल के हंगरीवासी नफ़रत करते थे। हंगरीवासियों से रूसी, रूसियों से जर्मन और जर्मनों से फ्रांसीसी नफ़रत करते थे। अंग्रेज़ हर किसी से नफ़रत करते थे। और युद्द की आग भडकी तो हर कोई एक दूसरे पर टूटपड़ा। तुर्क भी और अरब भी । गुलाम भारत और अमरीका भी । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका हो या यूरोपिय यूनियन , सभी अपनी सीमाएं और बाज़ार एक-दूसरे के लिए खोल रहे हैं। और भारत का राष्ट्रवाद खुद के ही खिलाफ आ खड़ा हुआ है । क्योंकि राजनीतिक सत्ता सिर्फ संस्धानों से ही नहीं बल्कि संविधान से भी बड़ी होती जा रही है। और समूचा संघर्ष राजनीतिक सत्ता पाने या बचाने का है
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
स्वाधीनता आंदोलन की दीर्घकालिक रणनीति
लोगों की संघर्ष करने की क्षमता न केवल उन पर होने वाले शोषण और उस शोषण की उनकी समझ पर निर्भर करती है बल्कि उस रणनीति पर भी निर्भर करती है जिस...
-
प्रभा मजुमदार इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी राष्ट्र का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है और इसकी गति, दिशा और राह को निर्धारित करने क...
-
मित्रों , ‘ स्वाधीन ’ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी यादों को स्मृति में बनाये रखने और उससे सीख लेने को प्रेरित करता रहा है. इस बात को ...
-
राजमोहन गांधी अंतिम जन, अप्रैल 2015 यह लेख अरुंधति रॉय के "द डॉक्टर एंड द सेन्ट" का जवाब है। रॉय का यह लेख मार्च 2014 म...