शुभनीत कौशिक
यह तथ्य सर्वविदित है कि फरवरी 1922 में चौरी-चौरा में हुई
हिंसा के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया ताकि आंदोलन का
स्वरूप हिंसात्मक न हो जाये। जाहिर है कि उनके इस फैसले से देश भर में निराशा का एक
माहौल बन गया। आम हिंदुस्तानी तो गांधी के इस कदम से असंतुष्ट था ही,
कांग्रेस के भी कई नेता भी गांधी के इस फैसले से असहमत थे। कुछ ने तो इसे ‘हिमालयी भूल’ की संज्ञा तक दे डाली।
इस घटना के एक महीने के भीतर ही महात्मा गांधी पर राजद्रोह
के आरोप में मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें 6 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी। इस
मामले में गांधी के साथ ही ‘यंग इंडिया’ के
प्रकाशक और मुद्रक श्री शंकरलाल बैंकर को भी एक वर्ष के कारावास और 1000 रुपये
जुर्माने की सजा सुनाई गयी। असल में, यह मुकदमा ‘यंग इंडिया’ में सितंबर 1921 और फरवरी 1922 में
प्रकाशित, गांधी द्वारा लिखे तीन लेखों में प्रस्तुत विचारों
को लेकर चलाया गया। ये लेख थे: ‘टेंपरिंग विद लायल्टी’; ‘द पजल एंड इट्स सोल्युशन’;
और ‘शेकिंग द मेन्स’।
यह मुकदमा इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि जहाँ एक ओर यह ब्रिटिश
राज़ के ‘कानून के शासन’ वाले दावे का पर्दाफाश करता है, वहीं दूसरी ओर इस मुकदमे के दौरान दिया गया गांधी का ऐतिहासिक बयान, गांधी के अप्रतिम साहस की भी बानगी देता है। सत्ता के समक्ष खड़े होकर सच
बोलने का साहस कर, सच्चाई को मजबूती देने वाले लोगों में
गांधी अद्वितीय हैं। और इसलिए इतिहासकार सुधीर चंद्र द्वारा,
गांधी को ‘एक असंभव संभावना’ के रूप
में देखना एक दृष्टि से सही ही है। गांधी के इसी साहस को समर्पित अपनी नज़्म 'गांधीनामा' में अकबर इलाहाबादी ने उचित ही लिखा:
इन्क़िलाब आया, नई दुनिया, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।
मार्च 1922 में दिया गया, गांधी का यह ऐतिहासिक
बयान अपनी निर्भीकता और विश्लेषण की सटीकता में उतना ही प्रभावपूर्ण है, जितना गांधी द्वारा; 1929 के लाहौर कांग्रेस में ‘पूर्ण स्वराज’ को लक्ष्य बनाए जाने के बाद 26 जनवरी 1930
को ‘स्वतन्त्रता दिवस’ पर पढे जाने
हेतु, तैयार किया गया ‘स्वराज शपथ’ का मसौदा। गांधी इस लिखित बयान को पढ़ते हुए इतने भावुक हैं कि वे इसे
पढ़ने से पहले कहते हैं कि ‘जो कुछ मैं इस समय कह रहा हूँ यदि
वह मैंने नहीं कहा तो मैं अपने कर्तव्य से च्युत हो जाऊँगा’।
यानि जो कुछ गांधी इस बयान में कह रहे हैं उसका कहा जाना, वह
भी अदालत के सामने, इतना अनिवार्य है गांधी के लिए, कि ऐसा न होने पर उन्हें अपने कर्तव्य से च्युत हो जाने, कर्तव्य न निभा पाने का भय हो रहा है।
धारा 124 ‘क’ के उल्लंघन के
मामले में 10 मार्च, 1922 को महात्मा गांधी और ‘यंग इंडिया’ के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर को गिरफ्तार
कर लिया गया। इस मामले की सुनवाई जस्टिस आर एस ब्रूमफ़ील्ड की अदालत में हुई। अभियोक्ता
पक्ष के वकील यानि सरकारी वकील थे: रायबहादुर गिरधारीलाल और सर जे टी स्ट्रेंगमैन।
अभियुक्तों यानि गांधी और शंकरलाल बैंकर की ओर से कोई वकील नहीं था। दोनों
अभियुक्तों पर आरोप थे कि “उन्होंने ब्रिटिश भारत में कानून द्वारा स्थापित सम्राट
की सरकार के प्रति अनादर या घृणा की भावना पैदा की या करने की कोशिश की, अथवा अप्रीति की भावना भड़काई या भड़काने की कोशिश की”। गांधी और शंकरलाल
बैंकर पर धारा 124 ‘क’ के अधीन तीन
अपराध लगाए गए। “अप्रीति” के अंतर्गत, जो अंग्रेज़ी के शब्द ‘डिसएफेक्शन’ के लिए प्रयोग में आने वाला हिन्दी का
सुंदर शब्द है, राजद्रोह और राज्य के प्रति विद्वेष की
भावनाएं शामिल थीं।
गांधी और शंकरलाल बैंकर द्वारा अपना अपराध स्वीकार कर लेने
के बाद, जस्टिस ब्रूमफ़ील्ड ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “मैं पूरी ईमानदारी से
मानता हूँ कि सबूतों को दर्ज करने और बाजाब्ता मुकदमे की पूरी सुनवाई करने से
परिणाम में कोई अंतर नहीं पड़ेगा”। और यह कहकर ब्रूमफ़ील्ड ने ‘कार्रवाई और सुनवाई’ के मुखौटे और छलावे को बेबाक़ी
से उतार दिया। सरकारी वकील स्ट्रेंगमैन ने यंग इंडिया के लेखों से हवाला देते हुए
ये साबित करने की कोशिश की कि वे लेख उस प्रचार आंदोलन का हिस्सा थे, जिसमें सुनियोजित ढंग से ‘सरकार के प्रति अप्रीति
की भावना फैलाने, शासन-तंत्र ठप कर देने तथा सरकार का तख़्ता
उलट देने’ की कोशिश की जा रही थी। स्ट्रेंगमैन ने यह अंत में
यह टिप्पणी भी की “यह ठीक है कि इन लेखों में अहिंसा को इस आंदोलन का अनिवार्य
तत्त्व और सिद्धान्त की चीज बताते हुए उस पर बहुत ज़ोर दिया गया है। पर अहिंसा के
उपदेश का फायदा क्या, जब उन्होंने (गांधी ने) साथ-ही-साथ
सरकार के खिलाफ राजनीतिक द्रोह का भी प्रचार किया या खुले तौर पर लोगों को सरकार
का तख़्ता पलटने के लिए उकसाया?”
गांधी ने अपने बयान में शुरू में ही यह बात कह दी कि ‘मौजूदा
शासन-व्यवस्था के प्रति अप्रीति की भावना का प्रचार करने की मुझे धुन सवार हो गई
है’। अब यह धुन जो गांधी पर सवार है,
वह इतनी तीव्र है कि गांधी एक औपनिवेशिक अदालत के सामने खड़े होकर बेबाकी से अपनी
बात कह देने में हिचकते नहीं। गांधी आगे यह भी जोड़ते हैं कि सरकारी वकील का यह
कहना भी सही है कि ‘अप्रीति का प्रचार मैंने ‘यंग इंडिया’ को हाथ में लेने के बहुत पहले शुरू कर
दिया था’। गांधी का साहस देखिये कि वे चौरी-चौरा और बंबई में
हुई हिंसा का अपराध भी अपने ही सर ले लेते हैं, यह कहते हुए
कि “चौरी-चौरा के नृशंस अपराधों या बंबई के पागलपन भरे कारनामों की ज़िम्मेदारी से
अपने-आपको अलग रख पाना मेरे लिए असंभव है”। वे बेबाकी से यह स्वीकार करते हैं कि
वे जानते थे कि वे ‘आग से खेल रहे हैं’, फिर भी उन्होंने खतरा मोल लिया। और यह खतरा मोल लेना इतना अनिवार्य था
गांधी के लिए, इतना अपरिहार्य था इस अहिंसा के पुजारी के लिए, कि वे कह देते हैं कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया गया तो मैं
फिर वही करूंगा’।
पर उसी क्षण गांधी को भान हो उठता है कि कहीं ऐसा न हो कि
उनकी इस अपरिहार्यता को उनके अहिंसा के सिद्धान्त से विश्वास उठने या उससे समझौता
करने के रूप में देखा जाए। इसलिए फौरन गांधी स्पष्ट करते हैं: ‘मैं
अहिंसा से बचना चाहता था और बचना चाहता हूँ। अहिंसा मेरे जीवन का प्रथम सिद्धांत
है और यही मेरा अंतिम सिद्धांत भी है’। इस जरूरी स्पष्टीकरण
के बाद, गांधी कहते हैं कि उनके सामने दो ही विकल्प थे, चुनाव के लिए। पहला, या तो वे उस व्यवस्था को
स्वीकार कर लें, जिसने उनकी समझ में देश को अपूरणीय क्षति
पहुंचाई है, दूसरा, या फिर वे इस बात
का खतरा उठाएँ कि देशवासी गांधी के मुँह से सचाई को सुनें और समझें; और बहुत संभव है कि इस प्रक्रिया में देशवासियों में रोष का उन्माद उमड़
जाए। गांधी इस बात को बखूबी जानते हैं, समझते हैं कि उनके
देशवासी ‘कभी-कभी उन्मत्त हो उठते हैं’
और इसका दुख है गांधी को। और इसलिए गांधी सहर्ष तैयार भी हैं, हर बड़ी-से-बड़ी सजा को स्वीकारने के लिए। पर बेलागलपेट अपनी बात कहने वाले
गांधी ‘दयाप्रार्थी’ कतई नहीं हैं।
उन्हीं के शब्दों में, “मैं दया की प्रार्थना नहीं कर रहा
हूँ, जुर्म को हल्का करने वाली किसी कार्रवाई को अपने बचाव
के लिए पेश नहीं कर रहा हूँ”।
गांधी एक औपनिवेशिक कानून की सीमा, उसके
पूर्वाग्रह, उसके परिप्रेक्ष्य को साफ शब्दों में बतला देते
हैं और लगे हाथ जाहिर कर देते हैं उस कानून से अपनी आपत्तियों, अपने मतभेदों को। यह कहकर कि ‘कानून की दृष्टि से
जो एक सोच-समझकर किया गया अपराध है किन्तु मुझे जो एक नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य
लगता है’; ऐसे अपराध के लिए, कबूल है
गांधी को हर बड़ी से बड़ी सजा।
गांधी अपने इस ऐतिहासिक बयान में वह बात भी कह देते हैं
जिसकी मिसाल अदालतों और कानून के इतिहास में शायद ही मिलेगी। यहाँ अभियुक्त (यानि
गांधी) जिस पर मामला चल रहा है, वह स्वयं न्यायाधीश को
विकल्प देता है और कहता है “न्यायाधीश महोदय, आपके
सामने...सिर्फ यही एक रास्ता है कि या तो आप अपने पद से इस्तीफ़ा दे दें, या फिर यदि आपको यह विश्वास कि जिस व्यवस्था को और जिस कानून के अमल में
आप सहायता पहुंचा रहे हैं वे लोगों के लिए अच्छे हैं तो मुझे कड़ी-से-कड़ी सजा दें”।
ऐसा सिर्फ़ गांधी ही कर सकते हैं या उनकी तरह का ही कोई अहिंसा का पुजारी, जिसने अहिंसा और सत्य को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया हो, अपनी कथनी-करनी में समो लिया हो। अदालत में खड़ा एक अभियुक्त और उसके भीतर
इतनी आत्मशक्ति, इतना नैतिक बल कि वह न्यायाधीश को ही कह
डाले कि अगर आप मेरे कहे से इत्तफ़ाक रखते हों तो आप इस्तीफ़ा दे दें। ऐसा करना
असंभव में भी संभावना ख़ोज निकालने वाले गांधी के ही वश की बात थी।
अपने लिखित बयान में गांधी साफ करते हैं कि एक कट्टर
राजभक्त और सहयोगी से कैसे वे राजनीतिक असंतोष का हठी प्रचारक और असहयोगी बन गए। वे
सिलसिलेवार ढंग से अपने दक्षिण अफ्रीका के दिनों को याद करते हैं, और
दुखी मन से बताते हैं कि वहाँ उन्होंने पाया कि एक मनुष्य और एक भारतीय के रूप में
उनके कोई अधिकार ही नहीं थे। या अधिक स्पष्ट ढंग से वे इस बात को समझाते हैं कि ‘एक मनुष्य के रूप में मेरे कोई अधिकार इसलिए नहीं थे क्योंकि मैं भारतीय
था’। इस अमानवीयता और असमानता के बावजूद गांधी उम्मीद नहीं
खोते; और सोचते हैं कि शासनतंत्र फिर भी बुरा नहीं और ‘मूलतः और मुख्यतः’ अच्छा है,
पर उस पर जरा मैल चढ़ गयी है। अंततः वे तैयार हो जाते हैं ‘स्वेच्छा
से और सच्चे दिल से सहयोग के लिए’। अपने सहयोग की वे बानगी
भी देते हैं, मसलन, 1899 के बोअर युद्ध
के दौरान, 1906 में जुलू विद्रोह के दौरान स्वयंसेवक के रूप
में दी गयी गांधी की सेवाएँ, जिसके लिए उन्हें तमगे भी मिले, 'कैसरे-हिन्द' स्वर्ण पदक भी
मिला; 1914 में अपने लंदन प्रवास के दौरान, इंग्लैंड और जर्मनी के बीच युद्ध छिड़ने पर लंदन के स्वयंसेवक दल में
गांधी की भागीदारी, 1918 में दिल्ली में युद्ध परिषद के
आह्वान पर गांधी द्वारा खेड़ा के युवकों से सेना में शामिल होने की अपील।
पर इस बीच आखिर ऐसा क्या घटित हुआ कि गांधी ‘राजनीतिक
असंतोष के हठी प्रचारक’ बनने को विवश हुए। तो इसके पीछे
सरकार द्वारा की गयी ज़्यादतियाँ थीं, चाहे वह रौलत एक्ट के
रूप में हो, जिसने जनता को सच्ची स्वतन्त्रता से वंचित कर
दिया; या जालियाँवाला बाग के सामूहिक नरसंहार के कारण हो, या ब्रिटिश सरकार की तुर्की के प्रति नीति हो या मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार
हों। इन सबने गांधी को, 'अनिच्छापूर्वक' ही सही, इस नतीजे पर पहुंचाया, कि 'अंग्रेज़ी हुकूमत ने राजनीतिक और आर्थिक दोनों
दृष्टियों से भारत को इतना असहाय बना दिया है जितना वह पहले कभी नहीं था'। इस 'असहाय' और निःशस्त्र
भारत में न तो बाहरी आक्रमण का विरोध करने की शक्ति थी, न
अकाल का मुक़ाबला करने की क्षमता। ब्रिटिश राज ने 'अकल्पनीय
निष्ठुरतापूर्ण अमानुषिक उपायों का' सहारा लेकर हिंदुस्तान
के देसी कुटीर उद्योग को भी तबाह कर दिया था।
गांधी शहर के बाशिंदों को उलाहना देते हुए कहते हैं 'आधा
पेट खाकर रहने वाली भारत की आम जनता किस तरह धीर-धीरे मृतप्राय होती जा रही है, शहर में रहने वाले इसे क्या जाने?' गांधी कहते हैं
कि शोषणकर्ता विदेशी अपना सारा मुनाफ़ा गरीबों का खून चूसकर ही बना रहे हैं। शहरी
हिंदुस्तानियों को कोसते हुए, उनकी चेतना को झकझोरने वाले
स्वर में गांधी कहते हैं 'उन्हें सूझता ही नहीं कि ब्रिटिश
भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार उस गरीब आम जनता को इस प्रकार चूसने के लिए
ही चलाई जा रही है'। उस प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने, जो हिंदुस्तान के लाखों गांवों में करोड़ों अस्थि-पंजरों के रूप में सबकी
आँखों के समक्ष है, किसी अन्य तर्क को गांधी शुद्ध 'वितंडावाद' या 'थोथी आंकड़ेबाजी' करार देते हैं।
गांधी के खयाल से 'मानव-जाति के विरुद्ध किए जा रहे इस अपराध
जैसी इतिहास में शायद ही कोई मिसाल मिले'। अब इस देश में, गांधी कहते हैं, कानून का इस्तेमाल भी विदेशी
शोषकों की सेवा के लिए हो रहा है। जहाँ कोई भी महज इसलिए अपराधी है, सजायाफ़्ता है कि उसने अपने देश से प्रेम किया है। विडंबना यह कि, गांधी आगे जोड़ते हैं, शासन चलाने में भागीदार
अंग्रेज़ और भारतीय दोनों ही मान बैठे हैं कि 'वे जिस
शासन-तंत्र को चला रहे हैं, वह दुनिया के सर्वोत्तम तंत्रों
में है' और उसके अंतर्गत भारत प्रगति,
धीरे ही सही, कर ज़रूर रहा है। प्रशासकों के इस आत्म-वंचना और
अज्ञान के लिए, गांधी 'आतंक की सूक्ष्म
प्रभावकारी प्रणाली और पशुबल के संगठित प्रदर्शन' और जनता को
आत्मरक्षा की समस्त शक्ति से वंचित रखने को उत्तरदाई मानते हैं।
धारा 124 'क' पर टिप्पणी करते
हुए गांधी इसे हिंदुस्तानियों की आज़ादी का गला घोंटने वाली 'राजनीतिक
धाराओं में कदाचित सर्वोपरि' करार देते हैं। गांधी का मानना
है कि न तो कानून से राजभक्ति पैदा की जा सकती है, न ही
कानून के जरिये नियमन किया जा सकता है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए गांधी ने
कहा: 'यदि किसी के मन में किसी व्यक्ति या प्रणाली के प्रति
भक्ति नहीं है, तो जब तक वह हिंसा का इरादा न रखता हो अथवा
उसे प्रोत्साहन या उत्तेजन न देता हो तब तक उसे अपनी अभक्ति को व्यक्त करने की
पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए'।
गांधी यह भी जतला देते हैं कि किसी अधिकारी या सम्राट से
उन्हें वैर-भाव नहीं है। पर जिस सरकार ने हिंदुस्तान का इतना अहित किया हो, भारत
को 'निर्वीर्य' बना दिया हो, उसके प्रति अप्रीति की भावना रखना गांधी श्रेय की बात मानते हैं। इस
तंत्र के प्रति भक्ति रखना, गांधी के लिए 'पाप' से कम नहीं है। इसी बयान में, गांधी यह ऐतिहासिक वक्तव्य भी देते हैं कि 'बुराई
से असहयोग करना भी उतना ही आवश्यक कर्तव्य है, जितना आवश्यक
कर्तव्य अच्छाई से सहयोग करना है'। वे अपने देशवासियों से
अपील करते हैं कि बुराई के साथ असहयोग करना हो तो 'हिंसा को
तिलांजलि देनी चाहिए', क्योंकि साधन-साध्य की शुचिता में
यकीन करने वाला अहिंसा का यह पुजारी मानता था कि 'हिंसावृत्ति
से किया गया असहयोग अंत में बुराई को बढ़ाने में ही सहायक होता है'।
इस बयान के बाद गांधी और शंकारलाल बैंकर दोनों ने अपना
अपराध स्वीकार कर लिया। जस्टिस ब्रूमफ़ील्ड ने कहा कि हालांकि गांधी ने अपना अपराध
स्वीकार कर उनका काम आसान कर दिया है, पर 'उचित दंड' का निर्णय करना एक न्यायाधीश के लिए बड़ी जटिल समस्या है। ब्रूमफ़ील्ड ने
यहाँ तक कहा कि 'मेरे सामने अब तक विचार के लिए जितने लोगों
के मुकदमे आए हैं या भविष्य में आ सकते हैं, आप (गांधी) उन
सबसे भिन्न श्रेणी के व्यक्ति हैं...अपने लाखों देशवासियों
की नज़र में आप एक महान देशभक्त और महान नेता हैं। जो लोग आपसे राजनीतिक मतभेद रखते
हैं वे भी आपको उच्च आदर्शवादी और एक ऐसा व्यक्ति मानते हैं जिसका जीवन महान यहाँ
तक कि संतों जैसा है'। ब्रूमफ़ील्ड ने अनिवार्य परिणाम के रूप
में हिंसा का भी सवाल उठाया, गौरतलब है कि इस सवाल का जवाब
गांधी अपने लिखित बयान में ही दे चुके थे। ब्रूमफ़ील्ड ने सजा सुनाते हुए कहा, 'दंड का निर्णय करने में मैं एक ऐसे उदाहरण का
अनुसरण करना चाहता हूँ जो बहुत-सी बातों में इसी मुकदमे की तरह था और जिसका फैसला
आज से कोई बारह साल पहले किया गया था'। ब्रूमफ़ील्ड का
अभिप्राय बल गंगाधर तिलक के मुकदमे से था, जिसमें उन्हें छह
वर्ष के साधारण कारावास की सजा सुनाई गयी थी। अंततः ब्रूमफ़ील्ड ने गांधी को भी छह
वर्ष के साधारण कारावास की सजा सुनाई।
गांधी ने सजा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 'चूंकि
आपने स्व. तिलक के मुकदमे की याद दिलाकर मुझे गौरव प्रदान किया है, इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि उनके नाम के साथ संयुक्त होना मेरी
दृष्टि में बहुत ही सौभाग्य और सम्मान की बात है'।
यह भी विडम्बना ही है जिस धारा 124 'क' के अधीन तिलक और गांधी सरीखे लोगों को सजा सुनाई गयी, वह भारत की आज़ादी के 67 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज तक जारी है और जिसका
गलत इस्तेमाल आज भी भारत के नागरिकों पर हो रहा है।
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