मोदी सरकार का एक साल : वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक सद्भाव पर प्रहार

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अटल तिवारी
समकालीन तीसरी दुनिया, मई 2015 

[मोदी के एक साल पूरे होने पर अटल तिवारी की यह समीक्षा कुछ ख़ास है. पूरे कामकाज के मूल्यांकन में उलझने की बजाय उन्होंने सिर्फ साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया है. इसमें न सिर्फ संघियों की विज्ञान के प्रति समझ शामिल है बल्कि राजनीति में बाबाओं की भूमिका, खुद को संत- साध्वी कहने वालों के जहरबुझे वक्तव्य से लेकर धर्म और राजनीति के घालमेल तक शामिल हैं. पेश है मोदी के पहले एक साल में साम्प्रदायीकरण का लेखा-जोखा...] 

बीसवीं सदी के अंतिम डेढ़ दशक धर्म और राजनीति के घालमेल के पुनरुत्थान वाले रहे हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट आने के बाद संघ परिवार खुलेआम धर्म आधारित राजनीति को बढ़ावा देने लगा था और उसके संसदीय मुखौटे लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा के जरिए साम्प्रदायिक विचारधारा का फैलाव करने में लग गए थे। दोनों (भाजपा व संघ परिवार) के द्वारा मिल-जुलकर समूचे देश में बोया गया साम्प्रदायिकता का बीज आने वाले समय में बाबरी मस्जिद के विध्वंस का कारण बना था। इस बीच दोनों योजनाबद्ध तरीके से धार्मिक कट्टरता को तूल देते हुए अपना विस्तार करते गए। धर्म आधारित राजनीति का प्रयोग उन्हें सफल होता दिखा तो बाद के सालों में और मुखर होता चला गया। इसी का इस्तेमाल कर वह अनेक राज्यों से लेकर केन्द्र की सत्ता तक पहुंचे। संवैधानिक दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो यह कृत्य संविधान विरोधी है। संविधान के अनुसार धर्म को राज्य और सरकार से अलग रखना होता है, लेकिन भाजपा और संघ परिवार इसका लगातार मखौल उड़ाता रहा है। मौजूदा राजनीति में तो यह मखौल चरम पर पहुंच गया है। केन्द्रीय सत्ताधारी दल भाजपा में साधु-साध्वियों का बोलबाला है, जो आए दिन धर्म की अनेकानेक व्याख्याएं कर रहे हैं। सरकार का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्री  धर्म की आड़ लेकर ऐसे मिथक गढ़ रहे हैं कि डाॅक्टर से लेकर वैज्ञानिक तक चकरा जा रहे हैं। मोदी सरकार इस महीने एक साल की हो रही है। सरकार के एक साल के पन्ने पलटते हुए यह देखने की आवश्यकता है कि भाजपा और उसकी सरकार किस तरह अपने फायदे के लिए धर्म का इस्तेमाल कर रही है। किस तरह उन्होंने बाबा बाजार को बढ़ावा दिया है और उनकी सरकार में आग उगलने वालों का क्या महत्व है? 


वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मखौल
एक साल वाली मोदी सरकार में अनेक ऐसे वाकयात् सामने आए जिनके जरिए पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को धता बताने का प्रयास किया गया। चकित करने वाली बात यह कि यह काम योजनाबद्ध तरीके से सरकार द्वारा किया जा रहा है। प्रधानमंत्राी मोदी ने उद्योगपति मुकेश अंबानी के अस्पताल के उद्घाटन अवसर पर कहा कि ‘महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था। तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा। हम गणेशजी की पूजा करते हैं। कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सिर रखकर प्लास्टिक सर्जरी का आरंभ किया होगा।’ मोदी की इन अवैज्ञानिक बातों को तर्कशील ढंग से सोचने वालों ने निशाने पर लिया। बहस-मुबाहिसा का सिलसिला चला। यह मामला शांत होता कि उससे पहले उसी मुम्बई शहर में आयोजित इंडियन साइंस कांग्रेस में ‘वैज्ञानिक’ कैप्टन आनंद जे बोडास ने अपने शोध पत्र में दावा किया, ‘हमने वैदिक काल में ही विमान की खोज कर ली थी। देश में नौ हजार साल पहले ही अंतरग्रहीय विमान उड़ते थे। दौ सौ फीट के इस विमान में तीस इंजन लगे होते थे और युद्ध के लिए वे पूरी तरह से लैस होते थे।’ ऐसे ही एक शोध पत्र में चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी अनोखी खोज करने वाले किरण नायक का कहना था कि हाथी का सिर गणेश के शरीर से जोड़ने के लिए चीनी की चाशनी का प्रयोग किया गया था। इसी तरह की जाहिलियत वाले दो और पेपर पढ़े गए। एकबारगी लगा कि देश को कांग्रेस मुक्त अभियान की जल्दबाजी में मोदी कहीं इंडियन साइंस कांग्रेस का नामकरण इंडियन साइंस बीजेपी तो नहीं करवा दिए हैं। हालांकि ऐसे दावे साइंस कांग्रेस तक सीमित नहीं रहे। उसका असर संसद पर भी पड़ा जहां भाजपा सांसद रमेश पोखरियाल निशंक का कहना था, ‘आज सभी परमाणु परीक्षण की बात करते हैं। लेकिन सालों पहले दूसरी सदी में ही संत कणाद ने परमाणु परीक्षण कर लिया था। प्लास्टिक सर्जरी और जेनेटिक साइंस भी भारत में बहुत पुराने समय से मौजूद हैं।’ नेताओं और ‘वैज्ञानिकों’ के एक साथ इस तरह के बेहूदगी भरे दावे पहले शायद ही सुनने को मिले हों। एक तरफ लोग वैज्ञानिक सोच विकसित करने पर जोर दे रहे हैं। संविधन का अनुच्छेद 51 ए राज्य पर वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात करता है वहीं देश के नेताओं और वैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका विज्ञान की जगह पोंगापंथ एवं राजनीति के घालमेल को बढ़ावा दे रहा है। असल में मोदी सरकार के नुमाइंदे जिस तरह की अवैज्ञानिकता वाली बातें कर रहे हैं वह संघ परिवार का पुराना एजेंडा रहा है। वह हमेशा विज्ञान में धार्मिक ग्रन्थों को मिलाता रहा है। उसके मुताबिक विश्व में जो कुछ हो रहा है वह सब भारतीय शास्त्रों में पहले हो चुका है। इस तरह का घालमेल करने वाले यह नहीं बताते कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू समाज की उन्नति में वैज्ञानिकता को जरूरी मानते थे। उन्होंने 1958 में संसद में भारत की विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति पेश की थी। उस नीति में देश में वैज्ञानिक वातावरण बनाने पर बल दिया गया था। उनका मानना था कि देश के वैज्ञानिक केवल प्रयोगशालाओं को अनुसंधान का केन्द्र न मानें बल्कि उनका लक्ष्य यह होना चाहिए कि जनमानस में वैज्ञानिक दृष्टिकोण लाया जा सके, जिससे उन्नति का पथ प्रशस्त होगा। लेकिन नेहरू की वैज्ञानिक सोच को आज की राजनीति पलीता लगा रही है। इसी कारण इंडियन साइंस कांग्रेस में शोध पत्र के नाम पर कुछ भी पढ़ने की अनुमति दी जा रही है। काल्पनिक कहानियों और मिथकों को इतिहास बताया जा रहा है। उस पर एतराज जताने पर कहा जा रहा है कि प्राचीन भारत का विज्ञान तर्कसंगत है। इसलिए इसे सम्मान से देखा जाना चाहिए।    

राजनीति में बाबाओं की भूमिका
भाजपा ने अपनी राजनीतिक यात्रा में अनेक साधु-साध्वियों को जोड़ा। उन्हें विधानसभा से लेकर संसद तक पहुंचाया। उनके हर सही-गलत काम में भाजपा उनका साथ देती रही है। संघ परिवार और भाजपा इस बात की भी हिमायती रही है कि किसी नाजायज काम के बावजूद साधु-साध्वियों को कानूनी शिकंजे के दायरे से ऊपर रखा जाना चाहिए। पिछले सालों में संतों-महंतों के साथ घटी अनेक घटनाएं इसकी गवाही भी देती हैं। मौजूदा सरकार में संत-महंतों की बहुतायत है। लेकिन जो ओहदा शारीरिक करतबी रामदेव को मिला है, वह किसी को नहीं। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जब रामदेव मोदी के मंच पर हुंकार भरते थे तो अपने को विश्वामित्र और मोदी को अपना राम बताते थे। दोनों सरकार बनते ही सौ दिन में विदेशों में जमा देश का काला धन भारत लाने का वादा करते थे। ऐन चुनाव के वक्त इन्हीं गुरु ने अपने ‘राम’ की ‘सीता’ को पतंजलि पीठ में छिपा (प्रचारित किया गया था कि वह चारधाम की यात्रा पर गई हैं) कर रखा कि जिससे विरोधी दल ‘सीता’ से ताउम्र भोग रहे वनवास का कारण जानकर कहीं चुनाव में मुद्दा न बना लें। उस समय तक यह ‘राम’ अपने को ‘सीता’ विहीन यानी ब्रह्मचारी बताता आया था। उनके ‘गुरु’ रामदेव धर्म का पालन करने और चरित्र निर्माण की बात करते रहे हैं। समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। योग से रोग का इलाज करने का दावा करते हैं। लेकिन उनकी जुबान का कैसे इलाज हो, जो अनेक बार बदजुबानी की हदें पार जाती है। चुनाव में मोदी गान करते हुए उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि राहुल दलितों की बस्ती में हनीमून मनाने जाते हैं। इस बयान के जरिए उन्होंने दलित बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को बदनाम करने की कोशिश की। साथ ही इससे यह भी पता चला कि महिलाओं के प्रति उनकी सोच कैसी है? इतना ही नहीं हर चुनावी सभा में काले धन व भ्रष्टाचार की बात करने वाले रामदेव ने अलवर के एक संवाददाता सम्मेलन में भाजपा नेता चांदनाथ द्वारा कालेधन पर बात शुरू करने पर झिड़कते हुए कहा कि ‘बावले हो गए हो क्या? ये बातें यहां मत करो।’ यानी दिन-रात लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले रामदेव खुद कितने नैतिक हैं वह इस घटना से समझा जा सकता है। रामदेव एक ही तराजू से धर्म और राजनीति को तौलते रहे हैं। वह भाजपा और संघ के करीब हैं। लेकिन कांग्रेसियों से भी लाभ लेने में उन्हें हिचक नहीं रही है। अप्रैल 2006 में जब उनकी पतंजलि पीठ का उद्घाटन था तो पहला दिन भाजपा व संघ के नाम था। दूसरे दिन संतों का समागम था तो तीसरे दिन तत्कालीन उपराष्ट्रपति कह रहे थे कि सब राजनीतिक पार्टियों के लोग हैं और सब रामदेव के प्रति एकमत हैं। उनकी पीठ को विश्वविद्यालय का दर्जा कांग्रेसी नारायण दत्त तिवारी ने दिया तो समारोह में पहुंचे यूपीए सरकार के रेल मंत्री  ने मुजफ्फरनगर से हरिद्वार तक रेल सुविधा और अपना सहयोग देने का आश्वासन देकर रामदेव की सेल्समैनशिप की ताकत पर मोहर लगा दी थी। यानी रामदेव ने एक बड़े आयोजन के जरिए राजनीतिक व फिल्मी हस्तियों को जोड़कर अपनी मार्केटिंग क्षमता का असर दिखाया था। यही वजह रही कि आगे चलकर भाजपा ने उनकी इस क्षमता को भुनाया। खुद परदे के पीछे रहकर उन्हें जनता के स्वघोषित प्रतिनिधि के तौर पर दिल्ली के मंच पर उतार दिया। राजनीतिक भ्रष्टाचार, लोकपाल व काले धन का मुद्दा गरमा कर बाबाओं की टोली जनता को लुभाने लगी। इनके चेले-चपाटे भारतमाता के झंडे एवं भारतीय ध्वज लहराने लगे। संसद तक को चुनौती देने लगे। बिना सोचे-समझे वहां जुटने वाले लोग व मीडिया ने भी यह नहीं सोचा कि जंतर-मंतर पर गिनाए गए मूल्यों पर आखिर आस्था कितने दिन टिकेगी। उन्होंने इतिहास पर भी नजर नहीं डाली कि मीडिया से लेकर सत्ता तक पैठ बनाने की दृष्टि से यह बाबायी तेवर दल विशेष के लिए फलदायी साबित होते रहे हैं। आगे भी इसका वही लाभ उठाएंगे। हुआ भी वही। बाबा मंडली के ‘भड़भड़ाइजेशन’ का पूरा लाभ परदे के पीछे रहने वाली भाजपा और संघ परिवार को मिला। मंडली के एक बाबा रामदेव तो अपने ‘राम’ के ‘विश्वामित्र’ बन गए। उनके अनेक चेले पार्टी में खप गए। ‘राम’ की सरकार बनी तो ‘गुरु’ की जान को खतरा बताकर जेड श्रेणी वाली सुरक्षा से लैस कर दिया गया। अपने ‘राम’ की सरकार में उन्हें भारत रत्न तक मिल जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। 


‘संतों’ और नेताओं के बोल
मोदी सरकार में केन्द्रीय खाद्य राज्यमंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने दिल्ली में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए अधिकांश हिंदुओं की आस्था के प्रतीक भगवान राम की ऐसी परिभाषा गढ़ी कि विपक्षी दलों को गालियों से नवाज दिया। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में या तो ‘रामजादों’ (राम के पुत्रों) की सरकार बनेगी या फिर ‘हरामजादों’ की सरकार बनेगी। फैसला आपको करना है।’ राम का नाम लेकर विपक्षी दलों को इस तरह के आपत्तिजनक शब्द से नवाजने पर संसद से लेकर सड़क तक हंगामा मचा। विपक्ष की आक्रामकता को देखते हुए साध्वी निरंजन ज्योति ने जहां खेद व्यक्त करने की रस्म अदायगी की वहीं मोदी का कहना था कि ‘मंत्राीजी गांव से आती हैं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए इस मामले को अब यहीं खत्म कर देना चाहिए।’ भाजपा के कुछ नेता मोदी से भी आगे निकलते हुए कहने लगे कि उनकी (निरंजन ज्योति) आर्थिक और ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण उनकी भाषा में वर्जित शब्द आ गए थे। लेकिन ऐसा स्पष्टीकरण देने वाले यह भूल गए कि इससे वह समूचे ग्रामीण भारत का अपमान कर रहे हैं। गांवों में रहने वाला गरीब शहरी लोगों की भाषा न बोलकर देशज बोली में बात करता है। इसके बावजूद किसी मंच पर बात रखते हुए या तो वह बहुत कम बोलता है अथवा उसकी भाषा अत्यन्त शालीन होती है। यहां सवाल केवल निरंजन ज्योति की भाषा का नहीं है जो एक गरीब परिवार में जन्मीं। आगे चलकर धार्मिक कार्यों में तल्लीन हो गईं। भगवा वेश भूषा धारण कर लिया। उनकी विवादास्पद भाषा भाजपा के अनेक संतों और नेताओं की भाषा है। धर्म का सहारा लेते हुए यही भाषा मुजफ्फरनगर में दंगा कराने वाले उसके नेताओं की थी। जिन्हें उस भाषा का इस्तेमाल करने के लिए मोदी की चुनावी सभा में सम्मानित किया गया था। उनमें से एक दंगों के आरोपी संजीव बालियान को केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री पद से नवाजा गया तो दूसरे आरोपी विधायक संगीत सोम की जान को खतरा बताकर उसे भारी-भरकम सुरक्षा से लैस किया गया है। दंगे के आरोप में एक महीने जेल की हवा खा चुके इन्हीं संजीव बालियान ने पिछले दिनों मुजफ्फरनगर जेल में बंद दंगे के आरोपियों से मुलाकात कर उन्हें भरोसा दिलाया कि उनके लिए कानूनी जंग लड़ी जाएगी। इन आरोपियों जैसी ही भाषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे संवेदनशील इलाके में अमित शाह ने बोली थी। लेकिन दागदार इतिहास के बावजूद उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। यही भाषा योगी आदित्यनाथ की भाषा है, जिन्हें उत्तर प्रदेश में उपचुनावों के लिए विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई थी ताकि धार्मिक मसलों को तूल देकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सुनिश्चित किया जा सके। चुनाव के दौरान गिरिराज सिंह के समूचे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर दिए गए बयान के अलावा उनके पास से बिना किसी उचित हिसाब के करोड़ों रुपए पकड़े जाने के बावजूद उन्हें मंत्री बनाया जाना किस बात का प्रोत्साहन है? मंत्री बनने के बाद भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर नस्लीय टिप्पणी कर उन्होंने आधी आबादी के प्रति अपनी सोच का नमूना पेश किया है। इसलिए साध्वी निरंजन ज्योति की भाषा किसी ग्रामीण महिला की भाषा नहीं है बल्कि यह मोदी की भी भाषा है जो खुद अपने कंठ से ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ जैसी भाषा का इस्तेमाल कर चुके हैं। असल में इस तरह की भाषा बोलने वाले इन ‘संतों’ ने चुनाव मुद्दों पर नहीं बल्कि जनता की भावनाओं को वोटों में बदल कर जीते हैं। अपनी सभाओं में जिन शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने किया वह किसी संत के मुंह से निकलने वाले शब्द नहीं थे न किसी मंत्री के संवैधानिक भाषा के अंश। ऐसे में साध्वी निरंजन ज्योति के बयान का किस लिहाज से बचाव किया जा सकता है। 

धर्म और राजनीति का घालमेल
उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज तो निरंजन ज्योति से भी चार कदम आगे निकल गए। उन्होंने अपने एक बयान में महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देश भक्त करार दिया। साक्षी महाराज ने अपने इस बयान से न केवल गांधी का बल्कि तमाम देशभक्तों का अपमान किया। इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठा कि क्या उन्होंने देश भक्ति की यही समझ विकसित की है? हंगामा होने पर साक्षी ने भी चलते-फिरते खेद व्यक्त कर दिया। लेकिन गोडसे को लेकर इस तरह के उद्गार व्यक्त करने वाले साक्षी महाराज अकेले नहीं हैं। उनके जैसी ही सोच रखने वाले अखिल भारतीय हिंदू महासभा के लोगों ने जुमला उछाला कि नाथूराम गोडसे की प्रतिमा संसद भवन परिसर समेत देश भर में लगनी चाहिए। महासभा ने राजस्थान से प्रतिमा मंगवा भी ली जो फिलहाल महासभा परिसर में स्थापित है। वैसे मोदी के सत्ता में आने के बाद से नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने का काम अनवरत जारी है। महाराष्ट्र में जहां कुछ लोगों ने नाथूराम शौर्य दिवस मनाया है वहीं संघ के मुखपत्र ‘केसरी’ के 17 अक्टूबर 2014 के अंक में प्रकाशित एक लेख में केरल भाजपा के नेता बी गोपालकृष्णन का कहना था, ‘नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी को नहीं बल्कि जवाहरलाल नेहरू को मारना चाहिए था।...देश के बंटवारे और महात्मा गांधी  की हत्या सहित देश की सभी त्रासदियों का कारण नेहरू का स्वार्थ था।’ गोडसे को देश भक्त बताने के बाद साक्षी महाराज ने हिंदू महिलाओं को चार बच्चा जनने की नसीहत दे डाली। उन्होंने कहा कि चार में से एक बच्चा साधुओं को दें। एक सीमा पर भेज दें। शेष अपने पास रखें। वैसे पिछले कुछ दिनों से साक्षी महाराज को नसीहत देने के दौरे पड़ते रहते हैं। इन दौरों के क्रम में ही उन्होंने कहा कि इस्लाम और ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिंदुओं को मौत की सजा दी जानी चाहिए। इतना ही नहीं मदरसों को आतंकवाद का अड्डा बताने वाले यह वही साक्षी महाराज हैं जिन पर जमीन हथियाने से लेकर यौन उत्पीड़न तक के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं। करीब छह साल पहले 2009 में उनके आश्रम से एक चैबीस वर्षीय युवती का शव बरामद हुआ था तो काफी हड़कंच मचा था। दरअसल देश में जब से हिंदू धार्मिक प्रतीकों की राजनीति परवान चढ़ी है तब से ऐसे बाबाओं का उद्योग दिन-दूना रात चैगुना बढ़ता गया है। भारत की जनता धर्म प्राण है। इसी का लाभ उठाते हुए ढेर सारे असामाजिक लोग बाबा बन जाते हैं। ‘शंकराचार्यों’ की बाढ़ आ जाती है और यह सभी धर्म की आड़ लेकर राजनीति चमकाते हैं। ‘छोटे-छोटे पीठ और आश्रम जब धन वैभव और शक्ति का केन्द्र बनने लगे तब शंकराचार्यों के धर्म साम्राज्य में हड़कंप मचा और इन धन वैभव से भरे शक्तिपीठों पर कब्जे की होड़ शुरू हुई। आज स्थिति यह है कि भारत की धर्म प्राण जनता को यह भी नहीं मालूम कि उसके कितने आचार्य और शंकराचार्य हैं। इनमें से कौन असली है और कौन नकली। इस अराजकता का भरपूर फायदा हिंदुत्ववादी राजनीति ने उठाया है, नहीं तो दिवंगत रामचंद्र परमहंस और अब बने राम जन्मभूमि मंदिर न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास को कौन जानता था? साधु समाज को कौन पहचानता था? बहुत ही विनम्रता से पूछा जा सकता है कि इन साधुओं की आध्यात्मिक और धार्मिक योग्यताएं क्या हैं? आदि शंकराचार्य के बाद धर्म-दर्शन के क्षेत्र में इनका योगदान या अवदान क्या है? अब चूंकि यह स्वयंभू धर्माधिकारियों का धंधा बन गया है और विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर आंदोलन के जरिए इन्हें राजनीतिक महत्ता प्रदान की है, इसलिए धर्माचार्यों, आचार्यों और शंकराचार्यों की बाढ़ आ गई है। विश्व हिंदू परिषद ने अंदर ही अंदर यह आंदोलन चला रखा है, ताकि जगह-जगह वह धर्माचार्यों और शंकराचार्यों की स्थापना करके अपना धर्म साम्राज्य खड़ा कर सकें और धर्म के नाम पर ऐसे फतवे जारी करने का अधिकार पा सकें जो उसके राजनीतिक हितों के लिए लाभप्रद साबित हो सकें (कमलेश्वर, हिन्दुस्तान 14 सितम्बर 2003)।’ इस तरह से संतों और बाबाओं की फौज लगातार बढ़ रही है। अनेक सरकार का हिस्सा बन गए हैं। इन्हीं ‘संतों’ के बोल पर उठते सवालिया निशान पर मोदी ने ‘लक्ष्मण रेखा’ पार न करने की रस्मी नसीहत अपने दल के नेताओं को दी। मोदी एक ओर रस्म अदायगी कर रहे थे तो दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ ने धर्मांतरण पर कमर कसते हुए कहा कि ‘घर वापसी’ एक सतत प्रक्रिया है। यह जारी रहेगी। वैसे ‘घर वापसी’ संघ का एजेंडा रहा है। जिसका मतलब है कि जो लोग पहले हिंदू धर्म छोड़कर किसी दूसरे धर्म में चले गए हैं उन्हें वापस हिंदू धर्म में लाना है। संघ प्रमुख मोहन भागवत और उनकी टीम अपने एजेंडे को लागू करने के लिए लगातार काम कर रही है। आगरा, अलीगढ़, पंजाब से लेकर बिहार तक हवन-पूजन के साथ ‘घर वापसी’ हो रही है। भाजपा के ‘संत’ इसमें अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे हैं। संघ और भाजपा के इस एजेंडे को विपक्ष जबरन धर्म परिवर्तन कराने की साजिश के रूप में देख रहा है। वह संसद में हंगामा कर चुका है। जिस पर मोदी ने कान तक नहीं दिया। ऐसे मसले पर राधामोहन गोकुल की 1927 में लिखी चंद पंक्तियां बड़ी मार्के की हैं, ‘एक हिंदू जब मुसलमान या ईसाई होता है या एक मुसलमान जब हिंदू या ईसाई बनता है तब चेहरे में, बुद्धि में, चाल-ढाल में कोई भी अन्तर नहीं आता। सब ज्यों के त्यों मनुष्य बने रहते हैं। हां एक बात जरूर है वह यह कि जो आज तक भंग पीकर पागल हो रहा था वह कल से स्काॅच ह्विस्की पीकर विक्षिप्त बनेगा। मनुष्य जाति के लिए यह कहीं अच्छा होगा कि वह धर्म की शराब पीना छोड़कर सीधा-सादा मनुष्य बन बैठे और धर्म के नाम पर रक्तपात कर मनुष्यत्व को कलंकित करने का कारण न बने (धर्म का ढकोसला)।’ 

‘घर वापसी’ का बयान देने वाले योगी आदित्यनाथ पिछले महीनों में संघ व उससे जुड़े संगठनों के साथ मिलकर ‘लव जेहाद’ के नाम पर पूरे मुस्लिम समुदाय को निशाना बना चुके हैं। यह वह समय था जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 11 व लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव हो रहा था, जिसके प्रचार अभियान की जिम्मेदारी अमित शाह ने आदित्यनाथ को सौंपी थी। ‘लव जेहाद’ की खोज व उसके खिलाफ हिंदुओं को एकजुट करने की ललकार इसी राजनीतिक लाभ के लिए की गई थी। हिंदू युवतियों की ‘लव जेहाद’ से रक्षा करने का दावा करने वालों का कहना था कि मुस्लिम लड़के प्रेम जाल में फंसाकर इन युवतियों का पहले शारीरिक शोषण करते हैं फिर इनका जबरन धर्म परिवर्तन कराकर शादी करते हैं। संस्कृति के ठेकेदारों ने आदित्यनाथ के नेतृत्व में मुस्लिमों के खिलाफ दो महीने तक मोरचा खोले रखा। उनके प्रति जहर उगलते रहे। हिंदू युवा वाहिनी नाम से सेना बनाने वाले योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से भाजपा के सांसद हैं और निजी हित साधने के लिए धर्म और राजनीति का काॅकटेल बनाकर लोगों को भ्रमित करते रहे हैं। पिछले करीब एक साल के दौरान संघ व हिंदुत्ववाद की पहचान रखने के साथ भाजपा के ‘संतों’ ने सभाओं में जिस तरह के बोल बोले हैं वह यह साबित करता है कि क्यों और कैसे देश की मौजूदा लोकसभा में सत्ताधारी दल के सबसे अधिक 98 सांसद आपराधिक मामलों में नामजद हैं। इसी कड़ी में आदित्यनाथ का ‘लव जेहाद’ के खिलाफ अभियान, साक्षी महाराज का मदरसों को आतंकवाद का अड्डा बताना व निरंजन ज्योति का ‘रामजादे’ व ‘हरामजादे’ वाला बयान एक तरह से अपनी-अपनी भूमिका का ‘उचित’ दायित्व निभाने का प्रयास है। 

धार्मिक झगड़ों को बढ़ावा
मोदी सरकार, उसके नुमाइंदे एवं धर्म की ठेकेदारी करने वाले लगातार धार्मिक झगड़ों को बढ़ावा दे रहे हैं। सरकार में रहकर भी उपेक्षा का दंश झेल रहीं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने लोगों का ध्यान खींचने के लिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने की मांग कर डाली वहीं ताजमहल को हिंदू महल बताया जाने लगा। विश्व हिंदू परिषद ने छत्तीसगढ़ के मिशनरी स्कूलों में सरस्वती प्रतिमा स्थापित करने का दबाव बनाया तो क्रिसमस को सुशासन दिवस के रूप में मनाने का मसला गरमाया। इसी बीच आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘पीके’ के खिलाफ भगवा ब्रिगेड ने हंगामा मचाया। रामदेव और संघ परिवार से जुड़े हुड़दंगियों ने जगह-जगह फिल्म के पोस्टर फाड़े। उनका कहना था कि मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखने वाले अभिनेता आमिर खान ने हिंदू देवी-देवताओं व गुरुओं का अपमान किया है। ऐसा कहने वाले इन मगजमूढ़ों ने इतनी भी दिमागी कसरत नहीं की कि ‘पीके’ में आमिर खान ने तो महज अभिनय किया है। अगर विरोध ही करना है तो उन्हें फिल्म के लेखक व डायरेक्टर का करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से उन्हें हिंदू बनाम मुस्लिम कार्ड खेलने को नहीं मिलता सो उन्होंने आमिर खान को निशाने पर ले लिया। असल में फिल्म, नाटक, कला और साहित्य के विरोध का पूरा मामला बाजार और राजनीति से जुड़ा हुआ है। बाजार जहां इसमें अपने मौके तलाशता है वहीं साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले दल और संगठन इस विरोध के जरिए अपनी राजनीति चमकाते हैं। महेश कुमार मानते हैं कि ‘अब चूंकि सब कुछ खुला है और हर चीज को मण्डी में लाकर उसका व्यापार किया जा रहा है तो कठमुल्लावाद व कट्टरतावाद का भी खुला व्यापार काफी तेजी से बढ़ रहा है। ऐसा माना जाता है कि यह एक ऐसा व्यापार है जिसमें घाटे की गुंजाइश कम है। इसलिए खुलकर हो रहा है और खूब फल-फूल रहा है। यह बात सही है कि जो लोग धार्मिक तत्ववाद का सहारा लेकर घृणा की राजनीति करते हैं उनके लिए कोई घाटा नहीं है घाटा तो उन्हें है जो इसके परिणामों को वर्षों तक झेलते हैं (नौजवान दृष्टि, जनवरी-मार्च 2001)।’ मौजूदा समय में इसी तरह की घृणावादी राजनीति का बोलबाला है। मोदी सरकार शायद देश की पहली ऐसी सरकार है जिससे नाभिनालबद्ध लोग खुलेआम बता रहे हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों कहा कि ‘हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है। हिंदुत्व हमारे राष्ट्र की पहचान है। यह अन्य को स्वयं में समाहित कर सकता है। सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिंदुत्व है और देश के वर्तमान निवासी इसी महान संस्कृति की संतान हैं।’ भागवत के इस बयान के बाद तो भाजपा और संघ परिवार में भारत को हिंदू राष्ट्र बताने की होड़ लग गई। गोवा की भाजपा सरकार के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा का बयान भागवत से भी आगे निकल गया। उन्होंने कहा ‘हिंदुस्तान में सभी भारतीय हिंदू हैं। मैं भी एक ईसाई हिंदू हूं।’ इसी सरकार के मंत्री दीपक धवलीकर ने यहां तक कह दिया कि बहुत जल्द पीएम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक हिंदू राष्ट्र बनेगा। इस तरह की साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों पर मृणाल पाण्डे लिखती हैं, ‘नए उभरते हुए भारत के लिए हर पार्टी के इन अतीतजीवी राजनैतिक अघोरियों-तांत्रिकों से छुट्टी पाना सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए, जो हजारों कल्पित घावों, अकल्पनीय रूप से विभेदकारी विचारों और निहायत बकवासी धार्मिक मिथकों की नुमाइश लगाए हुए, बरसों से आगे निकलने को हुमकते भारत की प्रगति का रास्ता जाम किए बैठे हैं (हिन्दुस्तान, 12 मार्च 2006)।’ 

दिल्ली में साम्प्रदायिक हिंसा
केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद भाजपा और मोदी के सामने दिल्ली विधनसभा चुनाव जीतने की चुनौती थी। दिल्ली उस समय राष्ट्रपति शासन के हवाले थी। गुणा-भाग करने के बावजूद भाजपा जब सरकार बनाने में सफल नहीं हुई तो चुनाव की तैयारी करने लगी। इसी के साथ साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं होने लगीं। इन्हें हिंदू बनाम मुसलमान बनाने का प्रयास किया गया। सबसे पहले त्रिलोकपुरी में दीवाली की रात भड़की साम्प्रदायिक हिंसा की बात। पिछले चालीस साल से साथ रहते आए हिंदू-मुस्लिम परिवारों के बीच साजिशन जहर घोलने का कुचक्र रचा गया। माता की चौकी के बहाने देखते ही देखते सड़कों को पत्थरों एवं कांच से पाट दिया गया। एक समुदाय विशेष की दुकानों में लूटपाट और आगजनी होने लगी। पत्थरबाजी-गोलीबाजी-आगजनी के कारण इलाका छावनी बन गया। बड़ी संख्या में मुसलमान घर छोड़कर भागने को विवश हुए तो इलाके में बाहरी लोगों के आवागमन पर प्रतिबंध से लोगों को दैनिक उपयोग की वस्तुओं के लाले पड़ गए। सवाल यह उठता है कि दीवाली की रात पन्द्रह नंबर ब्लाॅक के सामने भीड़ कैसे जुटी? भीड़ में शामिल लोग कौन थे? बताया जाता है कि वह सब बाहरी थे। ऐसे में भाजपा नेता ने यह क्यों कहा कि मुसलमानों ने मंदिर में कुछ अपवित्र सामग्री डाली है? बजरंग दल ने यह क्यों कहा कि जिहादी लोग हिंदू स्थलों को निशाना बना रहे हैं? विश्व हिंदू परिषद ने मुसलमानों को निशाना बनाने वाला बयान क्यों दिया? क्या इन बयानों को आपस में एक-दूसरे से जोड़कर देखने की आवश्यकता नहीं थी? क्या यह हिंसा महज त्रिलोकपुरी की घटना थी? इसका जवाब होगा नहीं। त्रिलोकपुरी सरीखी घटनाओं के व्यापक मायने थे। उनके तार मुजफ्फरनगर अथवा गुजरात से अलग नहीं हैं।  

त्रिलोकपुरी में मस्जिद के निकट एक अस्थायी माता की चौकी के नाम पर यह साम्प्रदायिक तनाव खड़ा किया गया। इलाके के लोगों ने इससे पहले यह भयावह मंजर कभी नहीं देखा था कि ईंट-पत्थर-कांच समेत आपत्तिजनक चीजों की जांच के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया गया। घरों से बड़े पैमाने पर कटारें, तलवारें, हथियार, पत्थर और कांच बरामद किया गया। एक सवाल बार-बार उठा कि आखिर दीवाली की रात क्या हुआ था जो लोग हिंसक हो गए। इस क्या को लेकर अलग-अलग कहानियां तैरने लगीं। सोशल मीडिया पर एक विशेष समुदाय को कठघरे में खड़ा किया जाने लगा। हिंदू धर्म की दुहाई दी जाने लगी। इसमें एक किरदार भाजपा नेता सुनील कुमार वैद्य भी रहे, जिन पर हिंसा फैलाने में सवालिया निशान लगे। चुनावी मौसम में यह साम्प्रदायिक तनाव त्रिलोकपुरी तक सीमित नहीं रहा। मजनूं का टीला व समयपुर बादली में भी हिंसा फैलाने का प्रयास किया गया। दिल्ली के ग्रामीण इलाके बवाना में जहां एक ओर मुसलमानों पर गोकशी का आरोप लगाकर हमले किए गए तो मुहर्रम का जुलूस निकालने पर साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई। स्थानीय भाजपा विधायक के नेतृत्व में महापंचायत ने फैसला किया कि मुसलमान इस बार ताजिया हिंदू गांवों की ओर से नहीं निकालेंगे। ‘गौ माता की जय’ वाले नारे गूंजने वाली महापंचायत में विधायक का कहना था कि मुसलमानों को जो भी करना हो अपने घर में करें। हमने पंचायत के जरिए बता दिया है कि इस गांव से कोई ताजिया नहीं गुजरेगा। पंचायत का यह भी दावा था कि जुलूस से यातायात जाम होता है और व्यवसाय पर असर पड़ता है। अगर मुसलमानों के जुलूस से यातायात जाम होता है और व्यवसाय प्रभावित होता है तो आखिर आए दिन माता के जगराता से लेकर सैकड़ों तरह के निकलने वाले जुलूसों पर आपत्ति क्यों नहीं उठती? दरअसल यह समस्या के समाधान पर बात न करने के बजाय भाजपा की मुसलमानों को निशाना बनाने की चाल रही है। इसीलिए बवाना में उसने इस जुलूस के पहले बकरीद पर भी समस्या खड़ी की थी। इतना ही नहीं पिछले सात साल से निकल रहे ताजिया को लेकर इस बार ही आपत्ति क्यों थी? इसकी तहकीकात में दिल्ली विधानसभा चुनाव की बू आती थी। खैर! भला हो प्रशासन और मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों की समझदारी का, जिन्होंने ताजिए के जुलूस के लिए एक वैकल्पिक रास्ता तय कर लिया। दिल्ली चुनाव को देखते हुए ही राजधनी में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को तूल दिया जा रहा था। इसी कड़ी में जब चुनाव का ऐलान हुआ तो एक के बाद एक चर्चों पर हमले किए जाने लगे। हालात इतने खराब हो गए कि करीब दो महीने के अंदर पांच चर्चों को निशाना बनाया गया। डरे-सहमे इसाइयों ने मजबूरन सड़क पर उतर कर पुलिसिया तंत्र, सरकार की निष्क्रियता और मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया। सरकार की किरकिरी बढ़ी तो फिलहाल घटनाओं पर रोक लगी। इन घटनाओं को देखकर यह कहना उचित होगा कि साम्प्रदायिक राजनीति ने हिंदू धार्मिक संस्थाओं को पतन के दलदल में धकेलने का काम किया है। यह बात जगजाहिर है कि किसी भी धर्म को मानना अथवा धार्मिक होना बुरी बात नहीं है बल्कि बुरी बात वह है कि जिसमें राजनीतिक उद्देश्य के तहत धर्म का इस्तेमाल किया जाता है। ‘गांधी धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन उन्होंने धर्म का उपयोग राजनैतिक लाभ के लिए नहीं किया। जिन्ना का धार्मिकता से कोई लेना-देना नहीं था लेकिन राजनैतिक मकसद के लिए उन्होंने धर्म का इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय जनता पार्टी के लिए भी धर्म राजनैतिक इस्तेमाल की चीज है (प्रभाष जोशी, हिंदू होने का धर्म)।’ इसलिए हिंदू धर्म से ताल्लुक रखने वालों को खुले मन से यह समझने की जरूरत है कि उन्हें गांधी का ‘हिंदू धर्म’ चाहिए जो सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत पर चलता है। उसे वह ‘हिंदू धर्म’ नहीं चाहिए जो अन्य धर्म के लोगों को पीछे कर चलना चाहता है। 

अगर मूल्य आधारित राजनीति की बात की जाए तो भाजपा और उसकी सरकार से अपेक्षा की जाती थी कि वह साम्प्रदायिक हिंसा का तांडव करने वालों पर लगाम लगाए। लेकिन उसने मुजफ्फरनगर में दंगे भड़काने के आरोपी संजीव बालियान और संगीत सोम का महिमामंडन करके अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। कोढ़ में खाज तब सामने आया जब उत्तर प्रदेश के उपचुनावों का प्रभारी आदित्यनाथ को बनाया। इतना ही नहीं आगे चलकर दल से जुड़े साधु-साध्वियों के जहर बुझे बोलों ने साबित कर दिया कि त्रिलोकपुरी, बवाना, मजनूं का टीला और समयपुरी बादली की घटनाओं के कारण स्थानीय अवश्य हैं, पर उनका संदर्भ व्यापक है। इसमें से किसी को भी कम करके देखना नादानी होगी। अंतिम बात यह कि भाजपा ने धर्म को लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा मान लिया है। यही वजह है कि साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले वह और उसके आनुषंगिक संगठन उसका अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं। सब कुछ राजनीतिक संरक्षण में हो रहा है। इसी संरक्षण ने पिछले तीस सालों में धर्म आधारित राजनीति के जरिए तमाम जख्म दिए हैं। वह घाव अभी भर नहीं सके हैं।

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