नेहरू के पक्ष में एक विचारोत्तेजक चिट्ठी

[जनसत्ता के ६ जून के लेख पर रामलाल भारतीजी ने रीवां (मध्य प्रदेश) से यह चिट्ठी भेजी. यह चिट्ठी अपने आप में एक छोटा लेख जान पड़ा. विषय की गहराई से समझ रखने वाले भारतीजी की चिट्ठी से यह यकीन पुख्ता हुआ कि अभी भी हमारी समझ वाले लोगों की भारी तादात है. इसलिए यह लेखनुमा चिट्ठी आप सबके साथ शेयर की जा रही है. साथ ही प्रसंगवश लेख का लिंक भी...

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रामलाल भारती
गौरी,रीवा,म.प्र.
जनसत्ता के ६ जून,२०१५ अंक में आपका लेख ' नेहरू को नकारने के निहितार्थ ' पढा, आश्चर्य के साथ। मैं चाहूं तो जो मैं सोचता हूँ उसे  लिख लेने के लिए आप पर प्लेजरिज़्म  (plagiarism) का आरोप लगा सकता हूँ  मगर नेहरू जैसे नालायक को उनके वक्त के परिप्रेक्ष्य में देखने की चाह रखने वाला मैं इकलौता नालायक नहीं हूँ इस खुशी में चलिए आपको क्षमा किया। ऐसे समय में जब नेहरू को गाली देना भारी उद्योग का रूप ले चुका है तथा बौद्धिक,ज्ञानवंत और देशभक्त होने का इकलौता पैमाना भी,नेहरू में कुछ सकारात्मक 'भी 'देखने की मांग करना साहसिक है। वैसे लेख के ही अनुसार मूल्यों के हक में नेहरू अलोकप्रिय होने का खतरा उठा सकते थे इसलिए तो आप का ऐसा साहस तर्कसंगत है ।

'नेहरू के अलावा सब महान के सिवाय और कुछ नहीं थे/हैं और नेहरू नालायक के सिवाय कुछ और नहीं थे' इस महान वैज्ञानिक सिद्धांत का ढोल दिन-रात गोयबल्स के निर्देशानुसार पीटा जा रहा है इस उम्मीद  के साथ कि सौ बार बोलने से झूठ को सच होना ही है। शायद कुछ समय के लिए हो भी जाए मगर सवाल यह है कि नेहरू के मरने के ५० साल बाद भी उनको उन बातों के लिए भी कोसने के उद्योग में इतनी पूंजी का निवेश किया क्यों जा रहा है जिनका उनके वक्त में अस्तित्व ही नहीं था? मोहित सेन के स्मरण से आपने ठीक पहचान की है कि नेहरू का कद छोटा करना अलोकतांत्रिक-सांप्रदायिक शक्तियों का उद्देश्य है क्योंकि इनके सामने असल चुनौती नेहरू की वैचारिक उपस्थिति है।

नेहरू-विरोध की परियोजना कितनी वृहद है इसका किंचित अनुमान दो छोटे उदाहरणों से लगाया जा सकता है।एक,अभी उनकी पुण्यतिथि २७ मई को एक हिंदी अखबार ने अपनी वेबसाइट पर 'नेहरू की १० विवादास्पद तस्वीरें ' जैसा शीर्षक देकर कुछ चित्र दिखाए जिनमें नेहरू किसी न किसी ऐसी विदेशी महिला के साथ सार्वजनिक स्थानों  पर थे, जो किसी राष्ट्राध्यक्ष,राजनयिक की पत्नी या अधिकारी,पत्रकार थी। एक चित्र में तो वह अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित  को गले लगा रहे थे। इस समेत सभी चित्रों को संदर्भ से काटकर विवादास्पद प्रचारित करने के पीछे मंशा क्या थी, इसे समझ पाना केवल उनके लिए कठिन है जो नेहरू-घृणा से बजबजा रहे हैं या जो इतिहास इसी तरह की कहासुनी और बुद्धि-दरिद्र टीवी चैनलों से सीखते हैं। दो,खबर है कि  एनसीईआरटी की किताबों से गुलाब के चित्र हटाए जा रहे हैं। भई,गुलाब इसलिए बदबू देने लगा कि वह नेहरू को पसंद था? तब तो बहुत मुश्किल होनेवाली है। नेहरू को गंगा,हिमालय,स्वच्छता,बौद्धिकता जैसी तमाम चीजें और बातें पसंद थीं।


एक सवाल इस पूरे घृणा अभियान के बीच अवश्य मंडराता रहेगा कि अगर नेहरू का कोई अवदान या असर देश की अब तक की यात्रा में कुछ है ही नहीं तो बात- बात पर 'नेहरू ने ये नहीं किया,वो नहीं किया' जैसी शिकायतें-उम्मीदें क्यों? नेहरू को यथास्थिति इतिहास के हवाले कर आगे बढ जाओ।पर नहीं,नेहरू चुनौती पेश करता है,मुंह तो चिढाएगा। गांधी समेत तमाम दूसरे किसी न किसी बहाने पचाए जा सकते हैं मगर नेहरू और भगत सिंह को पचाना कठिन है इसलिए एक को दुष्प्रचार से तथा दूसरे को अवहेलना से निबटाओ ,यह है रणनीति।भगत पर सीधा हमला ऐतिहासिक कारणों से बैकफायर करेगा।

वाजपेयीजी,क्या यह उचित नहीं होगा कि इस बात पर शोध हो कि नेहरू को कारण-अकारण कोसते रहने के उद्योग में कुल कितना पूंजीनिवेश है,कितने रोजगार सृजित हुए हैं तथा इस संगठित क्षेत्र में एफडीआई की कितनी संभावना है;कम से कम १० % सालाना विकास दर के लक्ष्य से कितने और रोजगार सृजित हो सकते हैं?पहले कुछ नहीं किया तो मरने के ५० साल बाद ही बेरोजगारी दूर करने का करण बन कर नेहरू देश का भला ही करेंगे। बिडंबना भी है कि कभी नेहरू-महिमा-गान से भी कुछ लोग रोजगार जुगाड़ लेते थे।

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