अँधेरी गुफा में उलझ रही है ओबीसी आरक्षण की राजनीति

सौरभ बाजपेयी
5 जून 2008
दैनिक हिन्दुस्तान


अस्मिताओं के उबार के समय में आरक्षण पर बात करना आग से खेलना है. 5 जून 2008 को इस लेख का संपादित रूप दैनिक हिन्दुस्तान में छपा था. गुर्जर आंदोलन के नए चरण के सन्दर्भ में इसका असंपादित लेख प्रस्तुत है...

आठ माह बाद राजस्थान में गुर्जरों का गुस्सा फिर भड़क उठा है। वे भरतपुर, अलवर, दौसा, करौली और जयपुर समेत तमाम जिलों में हिंसक विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। शुरूआती चार दिनों में ही तकरीबन 38 लोगों की पुलिस फायरिंग से मौत हो चुकी है। गुर्जरों और सत्ता के बीच यह संघर्ष कई मायनों में आरक्षण राजनीति की नई और खतरनाक प्रवृत्तियों का सूचक है। जो कि आने वाले समय में भारतीय राजनीति और समाज के ताने-बाने को बुरी तरह प्रभावित करेंगी।

दरअसल, भारत में ओबीसी आरक्षण की राजनीति अपने ही अंतर्विरोधों में उलझती जा रही है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने सभी लोगों को अवसर की समानता प्रदान करने तथा धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और क्षेत्रगत आधारों पर होने वाले भेदभावों से मुक्ति दिलाने के लिए संविधान में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षा में अस्थाई रूप से आरक्षण का प्रावधान किया था। जिसे जरूरत पड़ने पर संविधान संशोधन के माध्यम से आगे बढ़ाया जा सकता था। परन्तु ओबीसी आरक्षण संविधान निर्माताओं की सोच का हिस्सा नहीं था। भारतीय संविधान के मूल प्रारूप के निर्माता डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर ने भी इस श्रेणी के लिए आरक्षण की कोई बात नहीं की थी। उन्होंने 1950 में आरक्षण को राजनीति का हिस्सा बनाने के खतरों के प्रति आगाह भी किया था। अचरज की बात है कि मण्डल आयोग ने ओबीसी श्रेणी को निर्धारित करने के लिए 1930 की जनगणना के जिन आंकड़ों को अपना आधार बनाया था, वे भारतीय संविधान निर्माण से तकरीबन 20 वर्ष पहले से ही मौजूद थे।

वास्तव में, ओबीसी आरक्षण और भारत की राजनीतिक स्थिति एक-दूसरे से बेतरह गुंथे हुए आयाम हैं। जब तक केन्द्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में कांग्रेस का एकछत्र राज रहा, ओबीसी आरक्षण को कोई तरजीह नहीं दी गई। 1953 में काका कालेलकर आयोग की इस बाबत की गई सिफारिशों को नेहरू और फिर 1980 में मण्डल आयोग की संस्तुतियों को इंदिरा सरकार ने नजरंदाज कर दिया था। क्योंकि एक राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस के सामने अपने वोट बैंक के निर्माण और सुदृढ़ीकरण का कोई खास संकट नहीं था। इसीलिए 90 के दशक से पहले भारतीय राजनीतिक माहौल में आरक्षण की अनुगूंज नहीं सुनाई देती थी। लेकिन जैसे ही राजनीतिक परिदृश्य पर कांग्रेस की उपस्थिति कमजोर पड़ने लगी, क्षेत्रीय ताकतें जातिवादी राजनीति के मार्फत अपना जनाधार तैयार करने लगीं। केन्द्रीय राजनीति में वीपी सिंह सामाजिक समानता के पैरोकार बनकर उभरे। अपने समकक्ष राजनीतिक कद वाले नेताओं को पीछे छोड़ने और चुनावी गणित में जनता दल को बढ़त दिलाने के लिए उन्होंने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया। इस तरह आरक्षण की व्यवस्था का राजनीतिकरण हो गया। आरक्षण-विरोधी और आरक्षण-समर्थक सड़कों पर भिड़ गए और जबर्दस्त सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव उत्पन्न हुए।

वी0पी0 सरकार अल्पजीवी साबित हुई। परन्तु प्रादेशिक स्तरों पर छोटे राजनीतिक दलों ने जातिवादी राजनीति का फार्मूला अपना लिया। उनकी राजनीतिक जमीन तैयार करने में ओबीसी आरक्षण एक कारगर औजार बन गया। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल इसी प्रवृत्ति की देन हैं। धीरे-धीरे सभी राजनीतिक दल ओबीसी आरक्षण के फौरी चुनावी लाभों से दूर नहीं रह सके और हम्माम में सभी नंगे हो गए। ओबीसी आरक्षण की लोकप्रियतावादी राजनीति वोट बैंक बनाने और मजबूत करने की गारंटी बन गई। परिणाम कि यादव, कुर्मी, जाट, मीणा और गुर्जर जैसी सक्षम जातियां ओबीसी आरक्षण में हिस्सेदार बनती चली गईं। इसीलिए 1980 में मण्डल कमीशन ने जहां 1,257 समुदायों को ओबीसी श्रेणी में शामिल किया था आज यह संख्या तकरीबन 2,300 तक पहुंच चुकी है। यानि कमीशन की संस्तुतियों के लागू होने के बाद महज 18 सालों में इसकी सूची में 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।

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इसके अलावा, मण्डल आयोग की रिपोर्ट खुद ही दोषमुक्त नहीं थी। 1980 में भारत के विभिन्न समुदायों की सामाजिक आर्थिक दशा जानने के लिए इस आयोग ने 1930 की उपनिवेशकालीन जनगणना को आधार बनाया था। मण्डल आयोग ने भारत की कुल जनसंख्या में ओबीसी का अनुपात 52 प्रतिशत बताया जबकि 1996 के नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार यह महज 32 प्रतिशत के ही करीब था। इस सर्वे में यह भी कहा गया कि ओबीसी कोटे में शामिल तमाम जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर कई इलाकों में अगड़ी जातियों से टक्कर लेता है। इस तरह ओबीसी आरक्षण की शुरूआत ही काफी विवादित और गैर जिम्मेदार थी।

परन्तु गुर्जर समुदाय का वर्तमान आन्दोलन ओबीसी आरक्षण की नई और चिंताजनक पेचीदगियों की ओर इशारा करता है। संभवतः यह पहला अवसर है जब कोई विशिष्ट जाति-समुदाय आरक्षण सम्बंधी अपनी मांग को लेकर इतने बड़े और आक्रामक स्तर पर आन्दोलनरत हुआ है। वसुंधरा सरकार के साथ गुर्जरों का संघर्ष अपनी जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप आरक्षण व्यवस्था में अधिक बेहतर स्थिति हासिल करने का है। वे अपने समुदाय को एसटी कोटे में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। भाजपा ने राजस्थान विधान सभा के चुनाव के वक्त गुर्जर समुदाय से यह वादा किया था। जबकि किसी भी समुदाय को एसटी कोटे में शामिल करना बेहद जटिल और कठिन प्रक्रिया है। जिसके लिए संविधान में संशोधन करना अनिवार्य है। यही चुनावी वादा अब वसुंधरा सरकार के गले की हड्डी बन गया है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात, गुर्जर आन्दोलन के हिंसक तेवर हैं। गुर्जर बेहद आक्रामक हैं और शक्ति प्रदर्शन के लिए विध्वंशकारी तौर तरीकों का प्रयोग कर रहे हैं। बंदूकों, लाठी-डण्डों और धारदार हथियारों से लैस गुर्जर समुदाय की हिंसक भीड़ ने तमाम जगहों पर चक्का जाम कर दिया है और कानून व्यवस्था के लिए जबर्दस्त संकट पैदा हो गए हैं। यह खतरनाक संकेत हैं।

तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि गुर्जर आन्दोलन ओबीसी आरक्षण के दोतरफा अन्तद्र्वंद का प्रतीक है। एक ओर उनकी आपत्ति ओबीसी कोटे में जाटों को शामिल किए जाने से जुड़ी है। 1994 से ओबीसी कोटे में शामिल गुर्जर 1999 में जाटों को भी इस श्रेणी में शामिल किए जाने के बाद से ही स्वयं को एसटी कोटे में शामिल करने की मांग करते रहे हैं। जाटों को शामिल किए जाने से मीणा समुदाय के भीतर भी भारी नाराजगी रही है। दूसरी ओर ओबीसी कोटे से एसटी कोटे में भेजे जाने की मांग खुद में चिंता पैदा करती है। क्योंकि समाजशास्त्रीय विशेषज्ञों के बजाय जाति समुदाय अब खुद ही यह तय करने लगे हैं कि उनके लिए आरक्षण का सबसे मुफीद कोटा और उसका प्रतिशत क्या है। चिन्ता इस बात की भी है कि ओबीसी आरक्षण की राजनीतिक अब एससी-एसटी आरक्षण को भी संक्रमित करने लगी है। मण्डल आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल0आर0 नाइक ने यह कहकर उसी समय रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था कि ओबीसी आरक्षण आरक्षण के वास्तविक उद्देश्यों को दर किनार कर देगा।  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कहा जाए तो अब भी एससी-एसटी कोटे के साथ कोई छेड़छाड़ न सिर्फ संविधान की मूल भावना बल्कि सामाजिक समानता के सपने के भी खिलाफ होगी। वसुंधरा सरकार ने केन्द्र को लिखी चिट्ठी में कहा है कि क्यों न गुर्जरों के लिए अलग से चार से छह प्रतिशत का कोटा बना दिए जाए। यह मामले को और पेचीदा बनाने वाली गैर जिम्मेदाराना शुरूआत है। क्या इसके बाद गुर्जरों से कहीं तीन गुना बड़े मीणा समुदाय या जाट समुदाय के लोग चुप बैठ जाएंगे? बल्कि अन्य जगहों पर भी विभिन्न समुदायों के बीच इसी तरह के प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष शुरू हो जाने की अधिक संभावना है।

दूसरी ओर, वास्तविक स्थिति यह है कि ओबीसी आरक्षण कोटे की अपनी निश्चित सीमाएं हैं। उसे एक हद से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। इसलिए जब ऐसे आंतरिक द्वंद पैदा होंगे तो यह संघर्ष सामाजिक तनावों के रूप में सामने आएगा। यह चुनावी राजनीति सामान्य वर्ग एवं आरक्षित वर्ग के बीच ही नहीं, आरक्षित वर्ग के भीतर एससी-एसटी और ओबीसी और इनके भी भीतर मौजूद विभिन्न समुदायों के बीच अभूतपूर्व दूरियां और मनमुटाव पैदा करेगी। इस तरह आरक्षण का जो प्रावधान सामाजिक समानता लाने का माकूल तरीका था, ओबीसी कोटे की राजनीति उसे सामाजिक तनावों की वजह बनाए दे रही है।

राजनीतिक दलों के नीति-नियंताओं को गम्भीरता और ईमानदारी के साथ अपनी आरक्षण नीति के बारे में पुर्नविचार करना चाहिए। आरक्षण का चुनावीकरण एक ढाल भरा रास्ता है। जिस पर एक कदम बढ़ाने के बाद चार कदम अपने आप उतरना ही पड़ता है। वापस लौटना तो दूर की बात है। पिछले तकरीबन दो दशक इसी फिसलन भरी अंधी खोह की ओर बढ़ने में जाया हो गए हैं। अब भी समय है कि ये राजनीतिक दल आम जनता के बीच लोकतांत्रिक ढंग से और बेहद जिम्मेदारी के साथ यह सहमति बनाने का प्रयास करें कि आरक्षण सामाजिक-आर्थिक समानता लाने का एक साधन है, एकमात्र नहीं। ताकि, विभिन्न समुदायों के आरक्षण सम्बंधी उग्र तेवरों और असीमित महत्वाकांक्षाओं को सामान्य बनाया जा सके। अन्यथा ओबीसी आरक्षण की यह राजनीतिक होड़ सामाजिक ताने-बाने के भीतर इतना खिंचाव पैदा करेगी कि भारतीय राष्ट्र की आंतरिक संरचना के छिन्न-भिन्न हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। भारतीय राष्ट्र अपने भीतर मौजूद तमाम अन्तर्विरोधों के बीच बने एक बेहतर समन्वय पर ही कायम है। सही करें या गलत, सच्चाई तो यह है कि हर समाधान का रास्ता राजनीति के बीच से होकर जाता है। इसलिए हमें उम्मीद है कि गुर्जर आन्दोलन के सबक हमारे राजनीतिज्ञों की आंखें खोल देंगे और नाउम्मीदी के साथ ही सही हम उम्मीद करते हैं कि इस अंधेरी काली गुफा के भीतर रोशनी की किरणें वे खोज लेंगे।

टिप्पणियाँ

  1. सौरभ मैंने आपके लेख का अवलोकन किया और पाया की आप सच का आइना उन लोगों के समक्ष रखना चाहते है जो कि आरक्षण की मूल अवधारणा को आज तक समझ ही नहीं पाये है मैं आपसे सहमत हूँ ....पर यह सिद्धान्त सिर्फ एक पक्ष पर ही क्यों?
    मैं नहीं जानता.... मैं आपके समक्ष अपने आपको सही दशा और दिशा में प्रस्तुत कर पाऊँगा या नहीं ....पर फिर भी आज कुछ मन कर रहा है इस मुद्दे पर कहने को, मैं भी वर्तमान समय में दिए जा रहे आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ आरक्षण जातिगत न होकर योग्यता और आर्थिक स्थिति के आधार पर होना चाहिए...जो लोग आरक्षण विरोधी है वो मेरी जाति को देख कर मुझे भी गालियाँ देगे, और शायद ये भी कहे कि तुम तो ये बोलोगे ही…क्योकि मैं भी उस आरक्षण प्राप्त तथाकथित निम्न वर्ग से ही हूँ……….फिर भी अपनी सोच आपके सामने रखने का एक प्रयास कर रहा हूँ....जहाँ तक मेरा अनुभव रहा है जब भी आरक्षण की बात चली तो आरक्षण विरोधी अधिकांश सदस्य बिना चिन्तन के इस मुद्दे पर आरक्षण प्राप्त निम्न वर्ग के सदस्यों को अभद्र भाषा से नवाजने में कोई कोर कसर नहीं छोडते..... यहाँ पर मैं उनसे सवाल करना कहता हूँ कि क्या इस नीति का जिम्मेदार सिर्फ आरक्षण प्राप्त तथाकथित निम्न वर्ग ही है? और जवाब अगर हाँ है तो…………फिर भी मैं उन लोगों से सर्व प्रथम माफ़ी चाहता हूँ जो लोग मेरी बात से समत नहीं है………मुझे पता हैं कि जो लोग आरक्षण के धुर विरोधी है— वे हाथी नहीं गणेश के उपासक हैं, मैं चाहता हूँ कि वो लोग थोड़ी बुद्धि की भिक्षा भगवान् गणेश से अपने लिए भी मांग लें।
    जहाँ तक मैं जानता हूँ बुद्धि के देवता को धर्म में आरक्षण प्राप्त हैं, कि सबसे पहला पूजन भगवान् गणेश का होगा ये बात अपने आप में उच्च वर्ग माने जाने वाले सवर्ण वर्ग (ब्राहमण) ने ही समाज को दी है जब इसकी शुरुआत आप जैसे उच्च वर्ग कि देंन है तो आज यहाँ विरोध क्यों? फिर ये युद्ध क्यों….. अगर यहाँ किसी को आरक्षण मिल रहा है? मैं उनसे कहना चाहूँगा कि आप सवर्ण हैं इसलिए तो आरक्षण हैं, आप जिस दिन इंसान बन जायेंगे उस दिन खुद ही ख़त्म हो जायेगा…जब तक वर्ण व्यवस्था ख़त्म नहीं होगी तब तक कानूनी वर्ग व्यवस्ता भी ख़त्म नहीं होगी और जहाँ तक मैं सोच सकता हूँ आज के समाज कि जो मानसिकता है उसे देखते हुए ये संभव नहीं है ! यहाँ मैं पुनः उन सभी बन्धुवों में माफ़ी चाहता हूँ जो मुझसे सहमत नहीं है !

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