13 नवंबर 2014

मोदी का मानस बनाम नेहरू का नजरिया

सुभाष गाताडे
जनसत्ता
12 नवम्बर 2014 
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंबई में अंबानी खानदान से जुड़े एक अस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर वैज्ञानिक शब्दावली और धार्मिक-मिथकीय पाठों का एक विचित्र घालमेल उपस्थित किया। उन्होंने बाकायदा महाभारत के मिथक के बहाने भारत में जेनेटिक साइंस होने और गणेश के सिर का हवाला देकर प्राचीनकाल में प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने की बात कही।
प्रधानमंत्री की अपनी वेबसाइट पर पूरी तरह उद्धृत वक्तव्य के कुछ अंश काबिलेगौर हैं। उन्होंने कहा कि ‘मेडिकल साइंस की दुनिया में हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा देश किसी समय में क्या था। महाभारत में कर्ण की कथा हम पढ़ते हैं। लेकिन कभी हम थोड़ा और सोचना शुरू करें तो ध्यान में आएगा कि महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ। इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था। तभी तो कर्ण, मां की गोद के बिना जनमा हुआ होगा। …हम गणेशजी की पूजा किया करते हैं, कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख कर के प्लास्टिक सर्जरी प्रारंभ किया होगा।’
टीवी और आम सभाओं में उपस्थित होने वाले धर्मप्रचारकों और उपदेशकों के प्रवचनों- जिनमें वे अज्ञानी अनुयायियों को अपने देश या कौम के ‘प्राचीन गौरव’ की घुट्टी पिलाते हैं- की तर्ज पर दिए गए प्रस्तुत वक्तव्य ने कई सवाल खड़े किए हैं।
क्या मिथकीय कथाओं और पुराख्यानों के आधार पर किसी देश या समाज या काल-विशेष की वैज्ञानिक प्रगति का दावा किया जा सकता है? क्या धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कारों के विवरण को हम किसी धर्म-विशेष के मानने वालों के अधिक विज्ञानोन्मुख होने का सबूत मान सकते हैं? विज्ञान की सामान्य समझदारी रखने वाला साधारण शख्स भी बता सकता है कि ऐसी बातें बेबुनियाद होती हैं, उन्हें आप मानवीय कल्पना की अद्भुत उड़ान कह सकते हैं, पुराने जमानों में विपरीत भौतिक परिस्थितियों का सामना करती मानव की मेधा या जिजीविषा का प्रतीक मान सकते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं!
हर समाज और संस्कृति ऐसे कई मिथकीय प्रतीकों से हम रूबरू होते हैं। प्रागैतिहासिक मिस्र में क्लियोपाट्रा के बारे में कहा जाता है कि वह कई ऐसे ईश्वरों पर यकीन करती थी जिनके चेहरे जानवरों के बने थे, इनमें एक वानर देवता ‘हेडज वेर’ भी थे। प्राचीन मिस्र में अनुबिस नामक सियारों के मुंह वाले देवता भी थे जिन्होंने इसिस की मदद की थी; वहां बस्त नामक ‘बिल्ली देवी’ भी दिखती है जो संगीत और नृत्य की संरक्षक थी। प्रश्न उठता है कि क्या प्राचीन मिस्रवासियों ने सर्जिकल विज्ञान का अपना अद्वितीय कौशल विकसित किया था, या वहां पर भी यह सब कल्पना का खेल था?
प्रधानमंत्री की इस तकरीर पर गौर करते हुए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर ने अपने आलेख ‘टू फेसेस ऑफ मोदी’ (द हिंदू) में दो बातें कहीं: एक, संविधान की धारा 51/ए/एच का हवाला देते हुए, जिसमें संविधान के अंतर्गत हर व्यक्ति को वैज्ञानिक चिंतन विकसित करने की जिम्मेदारी मिली है। उन्होंने पूछा कि ‘ऐसे अपुष्ट मिथकों के आधार पर चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति’ के प्रधानमंत्री के दावे किस तरह संविधान का पालन कर रहे हैं? साथ ही उन्होंने यह टिप्पणी भी की: ‘मैं इस बात से निराश हूं कि इस मसले पर मीडिया ने अधिक ध्यान नहीं दिया और मुझे आश्चर्य जान पड़ता है कि किसी भारतीय वैज्ञानिक ने प्रधानमंत्री के दावों का खंडन नही किया है।’
निश्चय ही जनाब मोदी के उपर्युक्त वक्तव्य में हमें संघ परिवार से संबद्ध दीनानाथ बतरा की किताबों में लिखी बातों की झलक मिलती है, जो गुजरात के बयालीस हजार सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं।
एक उदाहरण बतरा की किताब ‘तेजोमय भारत’ से: ‘अमेरिका स्टेमसेल रिसर्च का श्रेय लेना चाहता है, मगर सच्चाई यही है कि भारत के बालकृष्ण गणपत मातापुरकर ने शरीर के हिस्सों को पुनर्जीवित करने के लिए पेटेंट पहले ही हासिल किया है …आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि इस रिसर्च में नया कुछ नहीं है और डॉ मातापुरकर महाभारत से प्रेरित हुए थे। कुंती के एक बच्चा था जो सूर्य से भी तेज था। जब गांधारी को यह पता चला तो उसका गर्भपात हुआ और उसकी कोख से मांस का लंबा टुकड़ा बाहर निकला। द्वैपायन व्यास को बुलाया गया, जिन्होंने उसे कुछ दवाइयों के साथ पानी की टंकी में रखा। बाद में उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 भागों में बांट दिया और उन्हें घी से भरपूर टैंकों में दो साल के लिए रख दिया। दो साल बाद उसमें से 100 कौरव निकले। उसे पढ़ने के बाद मातापुरकर ने एहसास किया कि स्टेमसेल की खोज उनकी अपनी नहीं है बल्कि वह महाभारत में भी दिखती है।’ (पेज 92-93)
सरकार का प्रमुख अगर संविधान की धाराओं पर गौर किए बिना अपने निहायत निजी विचारों को लोगों के साथ साझा कर रहा हो तो उसके मंत्रियों का आचरण कैसे अलग हो सकता है! पिछले दिनों उत्तराखंड की यात्रा पर गर्इं जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने ‘हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियोलोजी ऐंड फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के विशेषज्ञों से बात करते हुए वर्ष 2013 में वहां आई आपदा का सरल समाधान ढूंढ लिया।’ उनके मुताबिक चूंकि केदारनाथ धाम के आसपास अनास्थावान या नास्तिक लोग खुले में शौच करते हैं इसी वजह से यह हुआ। उनके मुताबिक ‘मंदाकिनी और सरस्वती नदियों से बनी प्राकृतिक सीमारेखा के अंदर पहले धाम के आसपास शौच जैसी गतिविधियों पर पाबंदी थी। मगर जैसे-जैसे टाइम बीतता गया, मुख्यत: व्यवसाय के लिए नास्तिक यहां पहुंचे, जिसने 2013 की आपदा को जनम दिया।’
सत्ता की बागडोर संभाले लोगों की ऐसी आधारहीन, अतार्किक बातों के बरक्स हम प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को याद करें, जो तर्कशीलता और वैज्ञानिक चिंतन पर सर्वाधिक जोर देते थे और बाकियों से भी इसकी उम्मीद करते थे। 1934 में जब बिहार भूकम्प को लेकर गांधीजी ने कहा कि यह ‘अस्पृश्यता के पाप का फल’ है, तब नेहरू ने रवींद्रनाथ ठाकुर की बात का समर्थन करते हुए दोहराया कि इससे ज्यादा ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रतिकूल किसी बात की कल्पना नहीं की जा सकती।’
हम देख सकते हैं कि इस मामले में निजी दृष्टिकोण और सार्वजनिक रुख के बीच स्पष्ट विभाजन पर उनके जोर के चलते अपने सहयोगियों के साथ भी सोमनाथ मंदिर के निर्माण के मसले पर उनके मतभेद हुए। यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि महात्मा गांधी का भी इस मामले में नजरिया अलग नहीं था। मिसाल के तौर पर, जब सरदार पटेल और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महात्मा गांधी से इस मसले पर मिलने गए तो उन्होंने (गांधीजी ने) स्पष्ट किया कि मंदिर का निर्माण लोगों की सहायता से होना चाहिए, न कि राज्य की सहायता से। जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर अपनी दूरी जाहिर की। जब मंदिर निर्माण पूरा हुआ और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर के उद््घाटन समारोह में जाना चाहा, तब नेहरू ने इसका साफ विरोध किया। उनका कहना था कि एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क के राष्ट्रपति को ऐसे कार्यक्रम में भाग नहीं लेना चाहिए। अंतत: राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद कार्यक्रम में शामिल हुए, मगर एक साधारण नागरिक के तौर पर।
आइआइटी, गुवाहाटी के दीक्षांत समारोह में (2011) ‘नेहरू और वैज्ञानिक चिंतन’ विषय पर बोलते हुए तत्कालीन कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश ने बताया था कि जब मंदिर-निर्माण के संबंध में कन्हैयालाल माणिकाल मुंशी ने बेजिंग के भारतीय दूतावास को पत्र लिखा कि वह ‘होआंग हो, यांगत्से और पर्ल नदियों का पानी और तिन शान पर्वतों पर स्थित पेड़ की चंद शाखाएं’ भेजने का प्रबंध करें तो नेहरू ने उन्हें झाड़ पिलाई।
अपने कैबिनेट सहयोगी मुंशी से नेहरू ने कहा, ‘इस पत्र ने हमारे दूतावास और मुझे भी विचलित किया है। इस बात का विशेष फरक नहीं पड़ता (निश्चित ही वह भी उतना वांछनीय नहीं होता) कि एक निजी नागरिक ने ऐसी गुजारिश की होती, मगर जब पत्र सरकार से संबंधित व्यक्ति भेजे और जिसमें राष्ट्रपति के नाम का भी उल्लेख हो तो यह हम सभी के लिए शर्मिंदगी वाली बात होती है।
नेहरू जिस पद पर थे, उसी पद पर नरेंद्र मोदी का आसीन होना, महज कांग्रेस के बजाय भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के तौर पर नहीं देखा जा सकता। एक तरह से इसे भारतीय राजनीति के अब तक चले आ रहे व्याकरण में लाए जा रहे नए बदलाव के तौर पर, राजनीति के प्रतिमानों में बदलाव के तौर पर देखा और समझा जाना चाहिए। अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण ने ठीक ही लिखा है कि ‘ऊपरी तौर पर अहानिकर लगने वाली घटनाएं बताती हैं कि भाजपा और उसका मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय होने के मायने बदलना चाहता है।’ (बिजनेस स्टैंडर्ड, 15 अगस्त)
हम काठमांडो के पशुपतिनाथ मंदिर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए रुद्राभिषेक- जो शिव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है- को याद कर सकते हैं। केसरिया कुर्ता पहने और केसरिया शाल ओढे मोदी ने पवित्र कहलाने वाले रुद्राक्षों की माला भी पहनी थी और उन्होंने मंदिर संचालकों को ढाई हजार किलो चंदन की लकड़ी और 2,400 किलोग्राम घी भी इस अवसर पर भेंट किया। भक्तगण मानते हैं कि ऐसे अभिषेक से मनोकामना पूरी होती है और मन और शरीर पर नकारात्मक प्रभाव कम होते हैं।
भारत भूषण ने उपरोक्त लेख में यह सवाल उठाया था कि ‘क्या इसे धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के प्रतिनिधि के तौर पर किया जाना चाहिए।’
पिछले दिनों अपनी विदेश यात्राओं में मोदी ने मेजबान राष्ट्राध्यक्षों को गीता की प्रति भेंट की थीं। जापान में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने इस मामले में सेक्युलर लोगों पर तंज कसा था।
नेहरू की जीवनी बताती है कि जब वे तुर्की जाने को हुए तब मौलाना आजाद ने उन्हें कुरान की एक प्रति सौंपी और कहा कि वे उसे तुर्की के राष्ट्रप्रमुख को भेंट करें। नेहरू ने आजाद का शुक्रिया अदा किया और कहा कि ‘एक सेक्युलर मुल्क का राष्ट्रप्रमुख होने के नाते मेरे लिए यह मुनासिब नहीं होगा कि मैं खास धर्म की किताब किसी को भेंट करूं। धर्मनिरपेक्षता का मतलब है राज्य और धर्म का पूर्ण अलगाव। मेरी निजी मान्यताएं हो सकती हैं मगर पद की जिम्मेदारी का तकाजा है कि मैं उन्हें अपनी राजनीतिक जिम्मेदारियों को प्रभावित न करने दूं।’

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